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Oct 1, 2024

कविताः कर्म फल

  -सत्या शर्मा ‘कीर्ति’

कई बार हमारी प्रार्थनाएँ

साथ देती नहीं हैं हमारा

और करने लगती हैं

प्रदक्षिणा

उल्टे कदमों से


दुखों की गाँठें

खुलने के बदले

कसती जाती हैं

मणिबंध पर

 

हल्दी- केशर का तिलक भी

सौभाग्य नहीं बन पाता

 

चिंताओं की भभूत

चमक उठती है

ललाट के मध्य बिंदु

पर

 

विपरीत परिस्थितियाँ

करती हैं शंखनाद

 

सफलता के प्राचीर पर

लहराने लगती है

असफलता की पताका

 

ग्रहों के खेल में उलझी

हथेलियों की रेखाएँ

करती है जाने कितने जतन

हवन- पूजन

 

पर संचित कर्म

प्रारब्ध कर्म बन

लगाता है फेरा

और हमारे वर्तमान में

लिखता है हमारे ही कर्मों का

लेखा -जोखा।


1 comment:

  1. Anonymous12 October

    बहुत सुंदर कविता । सुदर्शन रत्नाकर

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