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Apr 1, 2024

आलेखः नागरिकता संशोधन कानून- पीड़ितों को नागरिकता देने का बना कानून

  - प्रमोद भार्गव

आखिरकार लंबी चली जद्दोजहद के बाद नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के नियम अधिसूचित कर दिए हैं। लोकसभा चुनाव के ठीक पहले इस कानून को अमल में लाना भाजपा की चुनावी रणनीति का हिस्सा भी माना जा सकता है। हालांकि इसे लागू करने में देरी हुई है; क्योंकि ये विधेयक दोनों सदनों से  पाँच साल पहले ही पारित हो चुका है। कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दल इस कानून का इसलिए दुश्प्रचार करते रहे हैं कि इससे मुसलमानों की नागरिकता संकट में पड़ जाएगी, जबकि इसमें देश के किसी भी धर्म से जुड़े नागरिक की नागरिकता छीनने का कोई प्रावधान नहीं है, हाँ घुसपैठियों को जरूर नागरिकता सिद्ध नहीं होने पर बाहर का रास्ता दिखाया जा सकता है। संसद और उसके बाहर ऐसे अनेक बौद्धिक आलोचक थे, , जो यह प्रमाणित करने में लगे थे कि यह कानून ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ अर्थात संविधान की मूल भावना के विरुद्ध है। लेकिन यह संदेह जम्मू-कश्मीर से हटाई गई धारा-370 और 35-ए की तरह ही संवैधानिक है।

इस कानून का मुख्य लक्ष्य धार्मिक आधार पर प्रताड़ित वह हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई हैं, जिन्हें पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से पलायन को मजबूर होना पड़ा है। भारत में आकर शरणार्थी जीवन जी रहे इन समुदायों के लोगों को अब देश की नागरिकता मिलना आसान हो जाएगी। नागरिकता प्राप्त करने के लिए आवेदन भी ऑनलाइन जारी कर दिया है। इसे शरणार्थी जरूरी दस्तावेजों के साथ भरकर नागरिकता की मांग कर सकते है। आवेदन करने वालों को 31 दिसंबर 2014 से पहले भारत में प्रवेश का वीजा और अप्रवासी होने के प्रमाण देने होंगे। धारा 5  के अंतर्गत अप्रवासी मुस्लिम या कोई भी विदेशी नागरिक आवेदन कर सकते हैं। पहले भी इन तीनों देशों के मुसलमानों को भारतीय नागरिकता दी जा चुकी है। यह व्यवस्था आगे भी जारी रहेगी। जाहिर है, यह कानून किसी धर्म या संप्रदाय के आधार पर भेदभाव से नहीं जुड़ा है। साफ है, यह कानून किसी की नागरिकता छीनने का नहीं, बल्कि देने का कानून हैं।

यह विधेयक मूल रूप में 1955 के नागरिकता विधेयक में ही कुछ परिवर्तन करके अस्तित्व में लाया गया है। 1955 में यह कानून देश में दुखद विभाजन के कारण बनाया गया था। इस समय बड़ी संख्या में अलग-अलग धर्मों के लोग पाकिस्तान से भारत आए थे। इनमें हिंदू, सिख. जैन, बौद्ध, पारसी और ईसाई थे। कुछ लोग भारत से पाकिस्तान भी गए थे। इस आवागमन में सांप्रदायिक दंगे भी हुए, जिनमें ज्यादातर सहिष्णु हिंदू मारे गए थे। इसके बावजूद भारत ने धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश बनाने का निर्णय लिया। लेकिन पाकिस्तान ने खुद को इस्लामिक राष्ट्र घोषित कर दिया। पाक के संस्थापक और बँटवारे के दोषी मोहम्मद अली जिन्ना के प्रजातांत्रिक सिद्धांत तत्काल नेस्तनाबूद कर दिए गए। 1948 में जिन्ना की मौत के बाद पाकिस्तान पूरी तरह कट्टर मुस्लिम राष्ट्र् में बदलता चला गया। नतीजतन , जो भी गैर-मुस्लिम समुदाय थे, उन्हें प्रताड़ित करने के साथ उनकी स्त्रियों के साथ दुराचार व धर्म परिवर्तन का सिलसिला तेज हो गया। ऐसे में ये पलायन कर भारत आने लगे। दरअसल इन गैर-मुस्लिमों का भारत के अलावा कोई दूसरा ठिकाना इसलिए नहीं था, क्योंकि पड़ोसी अफगानिस्तान भी कट्टर इस्लामिक देश बन गया था। 1955 तक ही करीब 45 लाख हिंदू और सिख भागकर भारत आ गए थे। इनको ही दृष्टिगत रखते हुए नागरिकता निर्धारण विधेयक 1955 बनाया गया था। 

1971 में जब पाकिस्तान से अलग होकर नया बांग्लादेश बना तो इस दौरान हिंदू समेत अन्य गैर-मुस्लिमों पर विकट अत्याचार हुए। फलतः इनके पलायन और धर्मस्थलों को तोड़ने का सिलसिला और तेज हो गया। नतीजतन बड़ी संख्या में हिंदुओं के साथ बांग्लादेशी एवं पाकिस्तानी मुस्लिम भी बेहतर भविष्य के लिए भारत चले आए। जबकि वे धर्म के आधार पर प्रताड़ित नहीं थे। ये घुसपैठिए बनाम शरणार्थी पूर्वोत्तर के सातों राज्यों समेत पश्चिम बंगाल में भी घुसे चले आए। इनकी संख्या तीन करोड़ तक बताई जाती है। शरणार्थियों की तो सूची है, लेकिन घुसपैठिए केवल अनुमान के आधार पर हैं। पाकिस्तान, बांग्लादेश व अफगानिस्तान से आए शरणार्थियों की सूची तो मात्र 1 लाख 16 हजार लोगों की हैं, बाकी घुसपैठिए हैं। इन घुसपैठियों और शरणार्थियों की सही पहचान करने की दृष्टि से ही यह नागरिकता संशोधन विधेयक लाया गया है।  

दरअसल मुस्लिम घुसपैठियों को बाहर करने की बात इनकी भारत में दस्तक शुरू होने के साथ ही हो गई थी। 26 सितंबर 1947 को एक प्रार्थना सभा में महात्मा गांधी ने कहा था कि पाकिस्तान में , जो हिंदू एवं सिख प्रताड़ित किए जा रहे हैं, उनकी मदद हम करेंगे। 1985 में केंद्र में जब राजीव गांधी की सरकार थी, तब असम में घुसपैठियों के विरुद्ध जबरदस्त प्रदर्शन हुए थे। नतीजतन राजीव गांधी और आंदोलनकारियों के बीच एक समझौता हुआ, जिसमें घुसपैठियों को क्रमबद्ध खदेड़ने की शर्त रखी गई। लेकिन इस पर अमल नहीं हुआ। डॉ. मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री रहते हुए सदन में कहा था कि यदि पाकिस्तान व बांग्लादेश  में धार्मिक अल्पसंख्यक प्रताड़ित किए जा रहे हैं और वे पलायन को मजबूर हुए हैं, तो उन्हें भारतीय नागरिकता दी जानी चाहिए। किंतु मनमोहन सिंह ने लगातार दस साल प्रधानमंत्री बने रहने के बावजूद इस दिशा में कोई स्थाई कानूनी पहल नहीं की। जबकि, असम में इस दौरान कांग्रेस की सरकार थी और मनमोहन सिंह यहीं से राज्यसभा सदस्य थे। यदि नेहरु और लियाकत अली के बीच हुए समझौते का पालन पाक ने किया होता तो भारत को इस   विधेयक की न तो 1955 में बनाने की जरूरत पड़ती और न ही इसमें अब संशोधन किया गया होता.  

दरअसल पाक, बांग्लादेश और अफगानिस्तान ऐसे मुस्लिम बहुल देश हैं, जिनमें गैर-मुस्लिम नागरिकों पर अत्याचार और स्त्रियों के साथ दुश्कर्म किए जाते हैं। चूँकि ये देश एक समय अखंड भारत का हिस्सा थे, इसलिए इन तीनों देषों में हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध और पारसी बड़ी संख्या में रहते थे। 1947 में जब भारत से अलग होकर पाकिस्तान नया देश बना था, तब वहाँ 20 से 22 प्रतिशत गैर-मुस्लिमों की आबादी थी,  जो अब घटकर दो प्रतिशत रह गई है। अफगानिस्तान में 2 लाख हिंदू और सिख थे , जो निरंतर प्रताड़ना के चलते महज 500 रह गए हैं। पाक ने दोगली मंशा के चलते बंटवारे के समय दलित हिंदुओं को केवल इसलिए रोक कर रखा, जिससे वे वहाँ गंदगी और मल-मूत्र साफ करते रहें। इन्हें आज भी न तो वोट का अधिकार प्राप्त है और न ही ये वहाँ चल रही लोक-कल्याणकारी योजनाओं का लाभ ले पाते हैं। इन्हें किसी भी तरह का चुनाव लड़ने का अधिकार भी नहीं है। नतीजतन ये 1947 से भी ज्यादा बदतर जीवन  वर्तमान में गुजार रहे हैं। 

 जब बांग्लादेश वजूद में आया, तब वहाँ, बांग्लादेश की आजादी की लड़ाई लड़ रहे मुक्ति संग्राम के जवानों ने गैर-मुस्लिम स्त्री व पुरुषों के साथ ऐसे दुराचार व अत्याचार किए कि वे भारत की ओर पलायन करने को मजबूर हुए। इन लोगों की संख्या 10 लाख से भी ज्यादा थी। बांग्लादेश के समाज के मिजाज पर निगाहें रखने वाले समाजशास्त्री इस्माइल सादिक, रॉबिन डिसूजा व पुरंदर देवरॉय बहुत पहले लिख चुके हैं कि वहाँ के समाज का बड़ा हिस्सा धार्मिक अल्पसंख्यकों की आजादी को पसंद नहीं करता है। इन समुदायों के पर्व-त्योहारों पर इसलिए आक्रामक हो उठता है, ताकि वे अपने पर्वों को मनाने से डरें और पलायन को विवश हों, हम सब जानते हैं कि अफगानिस्तान के आतंकवादियों ने वामियान की चट्टानों पर उकेरी गईं, भगवान बुद्ध की मूर्तियों को तोपों से सिर्फ इसलिए उड़ा दिया था, क्योंकि वे भिन्न धर्म से संबंध रखती थीं। इससे पता चलता है कि इन देशों में बहुसंख्यक धर्मावलंबी, दूसरे धार्मिक समुदायों को कतई पसंद नहीं करते हैं।

ऐसे गैर-मुस्लिम अब तक भारत में पहचान छिपाकर रहने को मजबूर थे, क्योंकि उनके पास भारतीय नागरिकता नहीं थी। छह धर्मों से जुड़े ऐसे गैर-मुस्लिमों को इस कानून में नागरिकता देने के कारगर प्रावधान किए गए हैं।; लेकिन इसमें मुस्लिमों को शामिल नहीं किए जाने का विरोध कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस और वामपंथी संगठन इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि वे मुस्लिमों को महज वोट-बैक मानते हैं। जबकि 1947 से लेकर अब तक कांग्रेस ने हिंदू, सिख, जैन और बौद्धों को तो नागरिकता देने की पैरवी की, किंतु घुसपैठी मुस्लिमों को नागरिकता देने की वकालात कभी की हो, ऐसा  देखने में नहीं आया है। मनमोहन सिंह के कार्यकाल में राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की मांग पर 13 हजार हिंदू और सिखों को नागरिकता दी गई थी। अलबत्ता नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में अब तक 566 मुस्लिमों को भारतीय नागरिकता दी गई है। यह आंकड़ा स्वयं गृहमंत्री अमित शाह ने राज्यसभा में बहस के दौरान पेश किया था। खासतौर से कांग्रेसियों को नहीं भूलना चाहिए कि 1971 में जब इंदिरा गांधी के प्रयास से बांग्लादेश वजूद में आया था, तब बांग्लादेश से आए लोगों को तो नागरिकता दी गई थी, लेकिन पाकिस्तान से आए लोगों को नहीं दी गई थी। युगांडा के शरणार्थियों को भी इंदिरा गांधी ने नागरिकता दिलाई थी। लिहाजा देश किसे नागरिकता दे, किसे न दे, यह संविधान सम्मत है। इस नाते समानता का सिद्धांत उन्हीं पर लागू हो सकता है, जिन्हें भारतीय नागरिकता दी गई है। यह अधिकार केंद्र सरकार के पास सुरक्षित है कि वह किसे शरण दे और किसे भारतीय नागरिकता प्रदान करे।

मूल नागरिकता कानून में किसी को भी भारत का नागरिक बनने के लिए लगातार 11 वर्षों तक भारत में रहने की शर्त पूरी करनी होती है। नए विधेयक में इसे घटाकर 6 वर्ष कर दिया गया है। यह इसलिए जरूरी था, क्योंकि कि भारत में, जो गैर-मुस्लिम धर्म के आधार पर सताए जाने के कारण आए हैं, उनके पास भारत के अलावा कोई ठिकाना नहीं है ? जो घुसपैठिए मुस्लिम हैं, वे तो किसी भी मुस्लिम देश में शरण ले सकते हैं। इसलिए इस ऐतिहासिक कानून के वजूद में आने के बाद न तो भारत की पंथ या धर्मरिपेक्षता प्रभावित होती है और न ही उसके उदार व सहिश्णु चरित्र को हानि पहुँचती है; क्योंकि भारत ने तो उदार सहिष्णुता दर्शाते हुए उन लोगों को नागरिकता का अधिकार देने के कानूनी उपाय किए हैं, जिन्हें धर्म के आधार पर इस्लामिक देशों ने प्रताड़ित किया। बहरहाल यह कानून मानवीयता के सारोकारों से जुड़ा अह्म कानून है, जिसे दुनिया को एक मिसाल के रूप में देखना चाहिए।     ■

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