हमारे साहित्यिकों की एक भारी विशेषता यह है कि जिसे देखो, वही गंभीर बना है, गंभीर तत्त्ववाद पर बहस कर रहा है और जो कुछ भी वह लिखता हैं, उसके विषय में निश्चित धारणा बनाए बैठा है कि वह एक क्रांतिकारी लेख है। जब आए दिन ऐसे ख्यात-अख्यात साहित्यिक मिल जाते हैं, जो छूटते ही पूछ बैठते हैं, "आप ने मेरी अमुक रचना तो पढ़ी होगी?" तो उनकी नीरस प्रवृत्ति या विनोदप्रियता का अभाव बुरी तरह प्रकट हो जाता है। एक फिलॉस्फर ने कहा है कि विनोद का प्रभाव कुछ रासायनिक-सा होता है। आप दुर्दांत डाकू के दिल में विनोद प्रियता भर दीजिए, वह लोकतंत्र का लीडर हो जाएगा; आप समाज-सुधार के उत्साही कार्य कर्ता के हृदय में किसी प्रकार विनोद का इंजैक्शन दे दीजिए, वह अख़बारनवीस हो जाएगा। और यद्यपि कठिन है, फिर भी किसी युक्ति से उदीयमान छायावादी कवि की नाड़ी में थोड़ा विनोद भर दीजिए, वह किसी फ़िल्म कंपनी का नामी अभिनेता हो जाएगा।
एक आधुनिक चीनी फिलासफर को दिन-रात यह चिंता परेशान करती रही थी कि आख़िर प्रजातंत्र के नेताओं और डिक्टेटरों में अंतर क्या है। यदि आप सचमुच गंभीरतापूर्वक छान-बीन करें तो रूज़वेल्ट और स्टालिन में कोई मौलिक अंतर नहीं मिलेगा। या दूर की बात छोड़िए। गाँधी और जिन्ना में कोई अंतर नहीं है ....जहाँ तक शक्ति- प्रयोग का प्रश्न है। गांधी की बात भी कांग्रेस के लिए क़ानून है और जिन्ना की बात भी मुस्लिम लीग के लिए वेद-वाक्य है। फिर भी एक डेमोक्रेट है और दूसरा डिक्टेटर। क्यों? चीनी फिलॉसफर ने चार वर्ष की निरंतर साधना के बाद आविष्कार किया कि डेमोक्रेट हँसना और मुस्कराना जानता है, पर डिक्टेटर हँसने की बात सोचते भी नहीं। उनको आप जहाँ भी देखें और जब भी देखें, उन की भृकुटियाँ तानी हुई हैं, मुट्ठियाँ बँधी हुई हैं, ललाट कुंचित है, अधरोष्ठ दाँतों की उपांत रेखा के समानांतर जमा हुआ है-- मानो ये अभी दुनिया को भस्म कर देना चाहते हैं। अगर इन शक्तिशाली डिक्टेटरों में हँसने का थोड़ा-सा भी माद्दा होता, तो दुनिया आज कुछ और हो गई होती।
जब-जब मैं कलकत्ते के चिड़ियाघर में गया हूँ तब-तब मुझे ऐसा लगा है कि संसार के जीवों में सबसे अधिक गंभीर और चिंतामग्न चेहरा उस चिड़िया घर में रखे हुए एक बनमानुष का है। उसको देखते ही जान पड़ता है कि संसार की समस्त वेदना को, वह हस्तामलक की भाँति देख रहा है और अपनी सुदूर पातिनि दृष्टि से इन आने-जाने वाले दर्शकों के करुण भविष्य को वह प्रत्यक्ष देख रहा है। मैंने बाद में पढ़ा है कि अफ़्रीका के हब्शियों में यह विश्वास है कि यह वनमानुष मनुष्य की बोली बोल भी सकते है और संसार के रहस्य को भली-भाँति समझ भी सकते हैं; परन्तु इस डर से बोलते नहीं कि कहीं लोग पकड़कर उन्हें ग़ुलाम न बना लें। यह बात मुझे जब तक नहीं मालूम थी, तब तक मैं समझता था कि यह कलकत्ते वाला बनमानुष ही बहुत गंभीर और तत्व-चिंतक लगता है। अब मैंने अपनी राय में संशोधन कर लिया है; वस्तुतः संसार के सभी बनमानुष गंभीर और तत्वदर्शी दिखाई देते हैं!
मैं कभी-कभी सोचता हूँ कि आदिम युग का मनुष्य ... जबकि वह वानरी योनि से मानवी योनि में नया-नया आया था ... कुछ इस कलकतिये बनमानुष की ही भाँति गम्भीर रहा होगा। मगर यह भी कैसे कहूँ? ज़ेब्रा और गैण्डा भी मुझे कम गंभीर नहीं लगते तथा गधे और ऊँट भी इस सूची से अलग नहीं किए जा सकते। फिर भी इनकी तुलना बनमानुष से नहीं की जा सकती। अंतत: गधे और बनमानुष की गम्भीरता में मौलिक भेद है। गधा उदास होता है और इसलिए नकारात्मक है; पर बनमानुष सोचता हुआ रहता है और इसलिए उसकी गंभीरता में कुछ तत्त्व है, कुछ सार है। गधे की गम्भीरता प्रोलितारियत की उदासी है और बनमानुष की गंभीरता वर्गवादी मनीषी की। दोनों को एक श्रेणी का नहीं कहा जा सकता।
परन्तु इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि आदि मानव कुछ गंभीर, कुछ तत्त्व चिन्तक और कुछ उदास ज़रूर था और उसकी उदासी वर्गवादी विचारक की उदासी की जाति की ही रही हो, ऐसा भी हो सकता है। सच पूछिए तो शुरू-शुरू में मनुष्य कुछ साम्यवादी ही था। हँसाना-हँसाना तब शुरू हुआ होगा जब उसने कुछ पूँजी इकट्ठी कर ली होगी और संचय के साधन जुटा लिए होंगे। मेरा निश्चित मत है कि हँसना-हँसाना पूंजीवादी मनोवृत्ति की उपज है। इस युग के हिंदी साहित्यिक जो हँसाना नापसंद करते हैं, उसका कारण शायद यह है कि वे पूंजीवादी बुर्जुआ मनोवृत्ति की मन-ही-मन घृणा करने लगे हैं। उनकी युक्ति शायद इस प्रकार है---चूँकि संसार के सभी लोग हँस नहीं सकते, इसीलिए हँसी एक गुनाह है और चूँकि संसार के सभी लोग थोड़ा बहुत रो सकते हैं, इसीलिए रोना ही वास्तविक धर्म है। फिर भी अधिकतर साहित्यिक रोते नहीं, केवल रोनी सूरत बनाए रहते हैं। जिसे थोड़ी-सी भी गणित सिखाई गई हो, वह बहुत आसानी से इस आचरण की युक्ति-युक्तता समझ सकता है। मैं समझ रहा हूँ।यह तो स्वयंसिद्ध बात है है कि दुनिया में दुःख- सुख की अपेक्षा अधिक है अर्थात् रोदन हास्य से अधिक है। अब सारी दुनिया के रोदन को बराबर-बराबर बाँट दीजिए और हँसी को भी बराबर-बराबर बाँट दीजिए। स्पष्ट है कि सब को रोदन हास्य से ज़्यादा मिलेगा, अब रोदन में से हास्य घटा दीजिए। कुछ रोदन ही बचा रहेगा। इसका मतलब यह हुआ कि जो कुछ मिलेगा उससे फूट-फूटकर तो नहीं रोया जा सकता; पर चेहरा ज़रूर रुआँसा बना रहेगा। यह युक्ति मुझे तो ठीक जँचती है।
लेकिन युक्ति का ठीक जँचना साहित्य की आलोचना के क्षेत्र में सब समय प्रमाण-स्वरूप ग्रहण नहीं किया जाता। रहस्यवादी आलोचक यह नहीं मानते कि युक्ति और तर्क ही सब कुछ है। मैंने आलोचक शब्द के विशेषण के लिए रहस्यवादी शब्द किसी को चौंका देने की मंशा से व्यवहार नहीं किया है। बहुत परिश्रम के बाद मैंने यह निष्कर्ष निकाला है कि हिंदी में वस्तुतः रहस्यवादी कवि हैं ही नहीं। यदि कोई रहस्यवादी कहा जा सकता है, तो वह निश्चय ही एक श्रेणी का आलोचक है। जहाँ तक हिन्दी बोलने वालों का सम्बन्ध है, रहस्यवादी साधू और फ़क़ीर तो बहुत हैं; पर वे सब साधना की दुनिया के जीव हैं, साहित्य की दुनिया में रहस्यवादी जीव यदि कोई है, तो वे निश्चय ही एक तरह के आलोचक हैं। और जब कभी मैं रहस्यवादी शब्द की बात सोचता हूँ तो काशी के भदैनी मोहल्ले की सड़क पर साधना करने वाला रहमत अली फ़क़ीर मेरे सामने ज़रूर आ जाता है। यह फ़क़ीर मन वचन और कर्म तीनों से विशुद्ध रहस्यवादी था। 'आवनिकेत' वह ज़रूर था; पर उसके बड़े-से-बड़े निन्दक को भी यह कहने में ज़रूर संकोच होगा कि वह 'स्थिरमति' भी था।
सो, मैंने एक दिन देखा कि यह रहमत अली शून्य की ओर आँखें उठाए हुए किसी अदृश्य वस्तु पर निरन्तर प्रहार कर रहा है। लात, मुक्के, घूँसे-एक, दो, तीन,.... लगातार। दर्शक तो वहाँ बहुत थे कुछ सहमे हुए, कुछ भक्तियुक्त, कुछ 'योंही से' और गंभीर। एकाध मुस्करा भी रहे थे। इन्हें देखकर ही मुझे रहस्यवादी आलोचकों की याद आई। सारा काण्ड कुछ ऐसा अजीब था की विनोद की एक हल्की रेखा के सिवा तत्त्वज्ञान पहुँचा देने का और कोई साधन ही नहीं था। तब से जब मैं देखता हूँ कि कोई शून्य की ओर आँखें उठाए है और किसी अदृश्य वस्तु पर निरंतर प्रहार कर रहा है, तब मुझे रहस्यवाद की याद आए बिना नहीं रहती। सो यह रहस्यवादी दल युक्ति नहीं माना करता। 'युक्ति' शब्द में ही (यूज+ति) किसी वस्तु से योग का सम्बन्ध है। और यह मान लिया गया है कि योग दृश्य वस्तु से ही स्थापित किया जा सकता है। अदृश्य के साथ योग कैसा?
आसमान में निरंतर मुक्का मारने में कम परिश्रम नहीं है और मैं निश्चित जानता हूँ कि रहस्यवादी आलोचना लिखना कुछ हँसी-खेल नहीं है। पुस्तक को छुआ तक नहीं और आलोचना ऐसी लिखी कि त्रैलोक्य विकम्पितः -यह क्या काम साधना है! आए दिन साहित्यिकों के विषय में विचार होता ही रहता है और इन विचारों पर विचार लिखने वाले बुद्धिमान लोग गम्भीर भाव से सिर हिलाकर कहते हैं-आख़िर साहित्य कहें किसे? बहसें होती हैं, अख़बार रँगे जाते है, मेरे जैसे आलसी आदमी भी चिंतित हो जाते हैं और अंत में सोचता हूँ कि 'साहित्यिक' तो साहित्य के सम्बन्धी को ही कहते हैं न? सो सम्बन्ध तो कई तरह के हैं। बादनारायण एक है। आपके घर अगर बेर का फल है, मेरे घर बेर के पेड़, तो इस सम्बन्ध को पुराने पंडित 'बादनारायण' सम्बन्ध कहेंगे। साहित्य से सम्बन्ध रखने वाले जीव पाँच प्रकार के हैं-लेखक, पाठक, सम्पादक, प्रकाशक और आलोचक। सबके क्षेत्र अलग-अलग हैं। पढ़नेवाला आलोचना नहीं करता, आलोचना करने वाला पढ़ता नहीं---यही तो उचित नाता है। एक ही आदमी पढ़े भी और लिखे भी, या पढ़े भी और आलोचना भी करे या लिखे भी और इत्यादि-इत्यादि, तो साहित्य में अराजकता फैल जाय। इसीलिए जब एक लेखक दूसरे लेखक से पूछता है कि आपने मेरी अमुक रचना पढ़ी है, तब जी में आता है कि कह दूँ, “डाक्टर के पास जाओ। तुम्हारे दिमाग़ में कुछ दोष है”; पर डॉक्टर क्या करेगा? विनोद का इंजैक्शन किसी फैक्टरी ने अभी तक तैयार नहीं किया। इसीलिए, मुस्कराकर चुप लगा जाता हूँ। मेरे एक होमियोपैथ मित्र का दृढ़ मत है कि विनोद की कमी दूर करने के लिये कोई इंजैक्शन तैयार किया जा सकता है। वे इस बात का प्रयत्न भी कर रहे हैं कि किसी हँसोड़ की छाया किसी तरह अल्कोहल में घुलाकर उस पर से विनोद की दवा तैयार करें और चिकित्सा की और साहित्य की दुनिया में एक ही साथ शान्ति कर दें। पर वह अभी प्रयोगावस्था में ही हैं। तब तक मुझे भी सब सहना पड़ेगा और सहे भी जा रहा हूँ। ■
(डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी उत्कृष्ठ समालोचक, मौलिक निबंधकार एवं सांस्कृतिक विचारधारा के उपन्यासकार थे)
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