जानते हैं हमारे दौर की सबसे बड़ी त्रासदी क्या है। वह यह कि युगों- युगों तक अमर व प्रासंगिक रहे अपने महापुरुषों का भी हमने धार्मिक, सांप्रदायिक और क्षुद्र राजनैतिक लाभ के अंतर्गत किसी हद तक ध्रुवीकरण कर दिया है। सामाजिक व राजनैतिक जीवन में भी अब सहिष्णुता, समझ और सद्भावना के युग का संभवतया अंत हो गया है। इससे बड़ी विडंबना भला क्या हो सकती है कि अपने अतीत की गलतियों से सीख लेकर आगे बढ़ने के बजाय हम उन्हें और अधिक मजबूत करने का प्रयास में प्रयत्नरत हैं।
मालव प्रदेश के केंद्र बिंदु पर स्थित धारा नगरी एक दौर में अपने वैभव व संपन्नता के कारण सदैव शत्रुओं के निशाने पर रही। शायद तलवार की धार पर चलने जैसे निर्मित वातावरण के कारण ही इसे धारा नगरी नाम से विभूषित किया गया। मुगलकाल में धार को पीरों का धार नाम से भी पुकारा गया, क्योंकि यहाँ पर अनेक पीर बसते हैं, जिनकी मजारें आज भी यहाँ विद्यमान हैं। परमारवंशी राजा भोज ने इस नगरी को प्रगति एवं प्रतिष्ठा से जोड़कर नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया।
परमार वंश :
परमार वंश की उत्पत्ति की गाथा भी बड़ी रोचक है। ऋषि वशिष्ठ तथा विश्वामित्र की शत्रुता की कई कहानियाँ जग जाहिर हैं। एक बार विश्वामित्र के अनुयाइयों ने वशिष्ठ आश्रम पर आक्रमण कर सारा गोधन लूट लिया। इस बात पर वशिष्ठ को बहुत क्रोध आया, उन्होंने यज्ञ आयोजित कर वीर पुरुषों का आह्वान किया। तब उनके पुण्य प्रताप से जो वीर पुरुष अवतरित हुए, उन्होंने विश्वामित्र से युद्ध करके गोधन पुन: लौटा लाने के प्रयोजन को मूर्त रूप दिया। न्याय स्थापना हेतु पर यानी शत्रु को मार (पर+मार) के अपने गुणों के कारण वे कालांतर में परमार कहलाए गए।
राजा भोज :
संस्कारों की ऐसी थाती के साथ राजा सिहंदेव के यहाँ पुत्र भोज का जन्म हुआ। शैशव काल में ही पिता के निधन के कारण भोज के वयस्क होने तक सिंहदेव के छोटे भाई मुंज राज्य सिंहासन पर बैठे। एक बार नगर भ्रमण पर आए एक ज्योतिष ने भोज की हस्तरेखा देखकर कहा :
पंचाशत्पंच वर्षाणि सप्तमासमं दिन त्रयं
भोज राजेन भोक्तव्यः सगौड़ो दक्षिणापथ:
( अर्थात राजा भोज 55 वर्ष, 7 माह और 3 दिन राज्य करेंगे)
यह सुनते ही राजा मुंज के मन में असुरक्षा की भावना गहरा गई कि एक दिन उन्हें भी यह सब वैभव व राज पाठ छोड़ना पड़ेगा। बस इसी कुविचार के तहत उन्होंने अपने विश्वस्त सहयोगी वत्सराज को बुलाकर आदेश दिया कि बालक भोज को वन में ले जाकर उनका वध कर दिया जाए। सहयोगी अवाक रह गया पर कोई और उपाय न देख वह बालक भोज को जंगल में ले तो गया पर सारा सत्य उनके सामने व्यक्त कर दिया तथा देश परित्याग का निवेदन किया।
मांधाता संदेश :
भोज बालपन से ही कुशाग्र, चतुर और समझदार थे। उन्होंने प्रमाणस्वरूप अपने अंग वस्त्र सेवक सौंपते हुए एक श्लोक लिखा एवं उसे अपने काका मुंज को सौंपने हेतु दिया। वत्सराज बालक भोज को अपने घर में छुपाकर मुंज के पास पहुँचे। मुंज ने पूछा कि मरते समय भोज ने क्या कहा। सेवक ने रक्त से लिखा वह श्लोक प्रस्तुत कर दिया:
मांधाता स महिपति: कृत युगालंकार भूतो गत:
सेतुर्येन महोदधौ विरचित: वासौदशास्यांतक:
अन्येचापि युधिष्ठिर प्रभुतयो याता दिवं भूपते
नैकेनापि सम गता वसुमती मान्ये त्वया यास्यति
(हे राजा: सतयुग को सुशोभित करने वाला मांधाता भी इस संसार से चला गया और त्रेता युग में जिन राजा राम ने रावण का वध किया, वे भी आज नहीं है। इसी प्रकार द्वापर में युधिष्ठिर आदि दूसरे राजाओं को भी इस संसार से कूच करना ही पड़ा। किसी के भी साथ यह पृथ्वी ना जा सकी, पर संभव है कलियुग में यह आपके साथ अवश्य जाए)
आगे की बात बहुत संक्षिप्त है। श्लोक पढ़ते ही राजा मुंज शोक मग्न हो गए। तब वत्सराज ने जीवित बालक भोज को उनके सामने उपस्थित कर दिया। राजा ने भोज को छाती से लगाते हुए उत्तराधिकारी घोषित कर दिया।
राजा भोज काल :
ग्यारहवीं सदी के प्रारंभ में (1010 ईसवी) में भोज राज्य सिंहासन पर बैठे तथा 45 वर्षो तक निर्बाध सुशासन किया। वे शिवभक्त थे। उनके द्वारा स्थापित धारेश्वर महादेव मंदिर का निर्माण किया गया, जो आज भी नगर में विद्यमान है। भोग विलास में न डूबते हुए उन्होंने अपना सारा जीवन प्रजा की भलाई और विद्या के प्रसार में लगाया। उनके दौर में स्थापित भोजशाला विद्या अध्ययन का एक महत्वपूर्ण केंद्र थी।
भोज का साम्राज्य विस्तृत था। वे जल विज्ञानी भी गजब के थे। इसी कारण धार तालाबों की नगरी के रूप में भी विख्यात हुआ। भोजपुर स्थित का तत्कालीन कृत्रिम झील के प्रमाण आज भी उपलब्ध हैं। इसके लिये गोलाकार में खड़ी पहाड़ियों को बड़े बड़े बांधों से बांधा गया। यह झील और तत्कालीन शिव मंदिर भोजकालीन शिल्पीयों की दक्षता का श्रेष्ठ उदाहरण है।
अकबरे आईनी :
मुगल सम्राट अकबर के मंत्री अबुल फज़ल ने भी अकबरे आईनी ने भी लिखा है कि – भोज ने कई मुल्क फतह किए। अपने इंसाफ और सखावत से जमाने को आबाद रखा और अक्लमंदी के पाये को बढ़ाया। उनकी वीरता को समर्पित उक्ति “कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली” आज तक मशहूर है।
भोज परंपरा :
वे बड़े दयालु, विद्यानुरागी व दानशील थे। विद्वानों का विशेष ध्यान रखते हुए समुचित दान देते थे। उनकी इस उदारता पर एक बार उनके मंत्री को बड़ी चिंता हुई कि इस तरह तो राजकोष खाली हो जाएगा और आर्थिक संकट का सामना करना पड़ेगा। अतः राजा के हाथों को रोका जाना आवश्यक है, लेकिन स्पष्ट रूप से कुछ न कह पाने के अभाव में उसने राजसभा के प्रवेश द्वार पर लिख दिया-
- “आपदर्थे धने रक्षेत” अर्थात - मुसीबत के समय के लिये धन बचाकर रखना चाहिए।
- सभा में प्रवेश करते समय जब राजा भोज की दृष्टि इस वाक्य पर पड़ी। उन्होंने उसके नीचे दूसरा वाक्य लिख दिया - “भाग्य भाजः क्वचा पदः” अर्थात् - भाग्यवानों को मुसीबत कैसी।
- मंत्री ने उस वाक्य को पढ़ा और चुपचाप उसके नीचे फिर तीसरा वाक्य लिख दिया – “देवंहे कुप्यते क्वापि” अर्थात -कभी- कभी भाग्य भी अप्रसन्न हो जाता है।
- राजा भोज ने दूसरे दिन सभा में प्रवेश के दौरान इसे भी पढ़ा और एक वाक्य फिर से लिख दिया - संचि तोपि विनश्यति अर्थात भाग्य के अप्रसन्न होने पर संग्रह किया हुआ धन भी नष्ट हो जाता है।
रोचक प्रसंग (1) :
भोज निर्धन विद्वानों को बहुत दान देकर उनकी दरिद्रता दूर करते थे। एक बार वे जाड़े की रात में वेश बदलकर नगर में घूम रहे थे। एक जगह उन्होंने देखा कि एक गरीब व्यक्ति स्वयं की दयनीय दशा पर एक कविता बोल रहा था–
“मैं बड़ी कठिनाई से जाड़ा सह पा रहा हूँ। माघ मास के ठंड जल की भांति चिंतारूपी समुद्र में मैं डूबा हुआ हूँ। बुझी आग को भी फूंकते समय मेरे होंठ थर थर कांप रहे हैं। भूख से पेट सूख गया है। अपमानित पत्नी के तरह नींद मुझसे रूठ कर दूर जा चुकी है। किसी सुपात्र को दिये धन की भांति यह ठंडी रात कभी समाप्त होना नहीं चाहती”।
भोज ने चुपचाप उसकी करुणा कहानी सुनी और प्रातः काल उसे दरबार में बुलावा भेजा तथा ब्राम्हण के आने पर उससे पूछा कि जाड़े की रात में तुमने समय कैसे काटा।
ब्राह्मण ने कविता में ही उत्तर दिया कि - महाराज जानु, भानु और कृशानु की सहायता से मैंने समय काटा अर्थात - रात को जानु यानी घुटनों को छाती से सटाकर, दिन को भानु यानी सूर्य की धूप में बैठकर और सुबह शाम कृशानु अर्थात आग तापकर।
कहना न होगा राजा ने उसे उसी समय राज्याश्रय प्रदान कर दिया।
रोचक प्रसंग (2) :
राजा भोज की सभा में मंत्री, विद्वान, लेखक इतने अधिक ठहरते थे कि नये व्यक्ति का सभा प्रवेश कठिन था। कहते हैं उनकी दानशीलता की कहानी सुनकर प्रसिद्ध कवि शेखर भी धार पधारे, लेकिन प्रवेश पाने की असफल रहे।
सो एक दिन जब भोज हाथी पर बैठकर नगर भ्रमण पर थे। उन्हें देखते ही शेखर ने जमीन पर पड़े अनाज के दानों को चुनना आरंभ कर दिया। भोज ने उसे भिखारी समझते हुए तिरस्कार भरे स्वर में कहा- जो आदमी अपना पेट नहीं भर सकता, उसका पृथ्वी पर जन्म लेने से क्या लाभ।
राजा के इस तीखे व्यंग्य को सुनकर शेखर ने कहा- पृथ्वी माता तू भीख माँगकर पेट भरने वाले पुत्र को उत्पन्न ही न कर।
अब राजा को यह समझते देर न लगी कि यह दरिद्र भिखमंगा वास्तव में वैसा नहीं है और तब उन्होंने उससे परिचय पूछा। भिखमंगे ने उत्तर दिया –महाराजा मैं कवि शेखर हूँ। आपके दर्शनार्थ धार नगरी आया था, किन्तु दरबारीजन के कारण मेरा प्रवेश नहीं हो पाया; इसलिए मुझे यह रास्ता अपनाना पड़ा।
राजा ने प्रसन्न होकर शेखर को सभासद बनाकर सभा में स्थायी रूप से रख लिया।
रोचक प्रसंग (3) :
उस दौर में आखेट या शिकार की परंपरा थी। उनके दरबार में धनपाल नामक जैन कवि बड़ा ही हाजिर जवाब एवं बुद्धिमान था। वह राजा को अहिंसा के पथ पर ले जाना चाहता था। एक बार भोज शिकार के लिये वन में गए। धनपाल भी साथ था।
भोज ने उससे अचानक पूछ लिया- धनपाल क्या कारण है कि हिरण तो आसमान की ओर कूदते हैं और सूअर जमीन खोदते हैं।
धनपाल ने चतुराई से उत्तर दिया -महाराज आपके तीर से घबराकर हिरण तो चंद्रमा की गोद में बैठे अपने जाति के मृग की शरण में जाते हैं और सूअर जाना चाहते हैं पृथ्वी को उठानेवाले बराह रूप धारी विष्णु की शरण में।
फिर भी राजा पर कोई असर नहीं हुआ। उसने हिरण पर एक तीर चलाया। हिरण घायल होकर तड़पने लगा। राजा ने उस दृश्य का वर्णन करने के लिए धनपाल से कहा।
धनपाल ने तुरंत ही श्लोक बोला, जिसका अर्थ था – सर्वनाश हो तुम्हारी इस वीरता का, जिसमें जरा भी दया नहीं। यह अन्याय है। दुःख की बात है कि कोई किसी को पूछने वाला नहीं। इसी से बलवान दुर्बलों को मारते हैं।
कहा जाता है इस पर भोज को बहुत क्रोध आया और उन्होंने धनपाल की ओर देखा। इस पर धनपाल ने फिर कहा- महाराज मरता हुआ मनुष्य भी मुख में तिनका अर्थात घास रख ले, तो उसे छोड़ दिया जाता है; मगर पशु तो हमेशा तिनका ही खाते हैं। फिर भी मारे जाते हैं।
इस बात का राजा भोज पर गहन प्रभाव हुआ। उन्होंने उसी क्षण से शिकार करना छोड़ दिया।
ऐसे अनेक कथानकों से भोज की जीवनगाथा भरी पड़ी है। राजसत्ता के लिये वे आदर्श थे। मूर्ति लगाकर हमने उनके भौतिक स्वरूप को जीवंत किया है, लेकिन उससे अधिक आवश्यकता इस बात कि है कि उनके विचार व आचरण का अनुपालन करते हुए हमारे आज के जन नेता सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय के प्रयोजन में पूरे मन, वचन और कर्म से सम्मिलित हों। ■■
सर,
ReplyDeleteअति उत्तम लेख।
राजा भोज के बारे में और अधिक जानने को मिला।
हार्दिक आभार प्रिय महेश सस्नेह
DeleteVery interesting facts and stories of Raj Bhoj..
ReplyDeleteVandana Vohra
Thanks very much Dear Vandana. Regards
DeleteBhut shandar lekhni, aapkaa lekh ,full of facts aaur informative hai .Dr p.trivedi
ReplyDeleteDear Dr Pankaj Trivedi, Thanks very very much. Kind regards
Deleteराजा भोज के प्रसंग वास्तव में बिल्कुल नए एवं रोचक लगेl एक बात कि कमी अवश्य ही लगी कि आपने उनके भोपाल से सम्बन्ध के पक्ष को अनछुआ छोड़ दियालयह जगजाहिर है कि भोपाल का नामकरण उन पर आधारित हैl आप हमेशा ही अलग अलग रोचक विषय पर लेख प्रस्तुत कर ज्ञान का प्रकाश फैला रहे हैंl आपका अभिनन्दनl
ReplyDeleteदेवेंद्र जोशी
आदरणीय,
Deleteबिल्कुल सही कहा आपने। पर तब यह और अधिक विस्तृत हो जाता। इसीलिये केवल संदर्भ देकर छोड़ दिया। यह विनम्र प्रयास तो मात्र विरासत को सहेजने तथा उपलब्ध जानकारी साझा करने का है। आपका स्नेह बहुत शक्ति देता है। सो हार्दिक आभार सहित सादर
Great effort has been taken to unveil historical facts of Raja Bhoj
ReplyDeleteThanks very much Dear sir
DeleteOutstanding contribution. But the story should be supported with historic evidences otherwise it becomes a story like many written by Acharya chatursen
ReplyDeleteWe are proud of our history but we ourselves convert it to fiction by adding fiction to it.
This is an aggressive Hindu way and philosphy being propounded by law making party of India.
It is ill logical.
As such we r great.
Good job.
ReplyDeleteThere are many such local rajas in India
Like alha udal and many more who are unsung. Heros.
Let some research be done on them
Dear Sir, absolutely correct. We all should concentrate on this. Kind regards
Deleteराजा भोज अपने समय के सबसे प्रतिष्ठित, समादृत और सुविख्यात नरेश रहे हैं, इसमें कोई संशय नहीं है। महाराज विक्रमादित्य, महाराज भर्तृहरि आदि ऐसे महापुरुष इस मध्य भारत की पुण्यधरा पर हुए जिनके कारण यह भारत भूमि पूज्य और प्रसंशनीय रही है।हम भारतवासी आज भी उस गौरवशाली इतिहास का सगर्व स्मरण करते हैं, जैसा कि आपने अपने इस संक्षिप्त, सारगर्भित आलेख में किया है।
ReplyDeleteयह दुःख का विषय है कि भोज सहित सहित अन्यान्य विभूतियों का इतिहास हमारे पास किंवदंतियों और लोकाकथाओं में उपलब्ध है। और शायद एक कारण यह भी है कि इन महापुरुषों का इतिहास हमारे पाठ्यक्रमों में सुस्पष्ट रूप से नहीं है।
यही नहीं खगोल, ज्योतिष, गणित, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, धर्म, नीति, चिकित्सा आदि विषयक भारतीय अनुशंधान कर्ताओं और विद्वतजनों की जानकारियां आधुनिक पीढ़ी को क्रमबद्ध और सुव्यवस्थित रूप से उपलब्ध नहीं है।
भारतीय ज्ञान परंपरा को सुरक्षित संरक्षित और परिवर्द्धन के प्रति जो उदासीनता हम भारतीयों ने दिखाई वैसा विश्व में अन्यत्र कहीं भी दुर्लभ है। कदाचित हम इसके लिए भी प्रसंशा के पात्र हैं।
हमारी सहिष्णुता और उदारता का यह आलम है कि हम प्राचीन के अवलोकन को कट्टरता की संज्ञा देने से भी संकोच नहीं करते। राष्ट्र और राष्ट्रीयता की भावना अब राजनीति का विषय है इससे बढ़कर दुर्भाग्य और क्या हो सकता है।
बहरहाल इस प्रकार के आलेख, लघु ही सही सार्थक और सशक्त प्रयास के रूप में देखे जाने चाहिए।
हार्दिक अभिनंदन। बहुत बहुत साधुवाद।
आदरणीय गुप्ता जी,
ReplyDeleteसही बात। हम अपनी विरासत भूल राग दरबारी व्यवस्था के दास हो गए। सर्वाधिक हानि तो दोगले सेक्युलरिज़्म ने की। अब शर्म का पर्दा हटा लोगों ने विरासत को साझा कर खुद पर गर्व करना शुरू किया है।
धारानगरी मेरा शिक्षा केन्द्र रही सो जो थोड़ा बहुत जाना उसे ही साझा करने का विनम्र प्रयास है यह आलेख।
हार्दिक आभार सहित सादर
Very informative and full of knowledge Dr archana Trivedi
ReplyDeleteहार्दिक आभार। सस्नेह
Deleteबहुत बढ़िया विस्तृत जानकारी
ReplyDeleteबहुत बढ़ियां विस्तृत जानकारी, डॉ सुमन शर्मा
ReplyDeleteहार्दिक आभार। सस्नेह
Deleteज्ञानवर्धक लेख.. बधाई सर 💐🙏🏼
ReplyDeleteहार्दिक आभार प्रिय रजनीकांत
ReplyDeleteVery Nice Sir, Informative
ReplyDeleteVery Nice Sir, Informative
ReplyDeleteThanks very much. Regards
Deleteपिताश्री ज्ञानवर्धक आलेख. आप ने इसे संक्षिप्त और कुछ प्रसंग देकर रोचक बनाया। Warm regards पिताश्री with lots of love🙏
ReplyDeleteप्रिय हेमंत, हार्दिक आभार। सस्नेह
Deleteज्ञानवर्धक एवं रोचक आलेख।बधाई सुदर्शन रत्नाकर
ReplyDeleteज्ञानवर्धक एवं रोचक आलेख। बधाई सुदर्शन रत्नाकर
ReplyDeleteहार्दिक आभार सहित सादर
Deleteराजा भोज के बारे मे इतनी विस्तृत जानकारी आप के आलेख से पढ कर आनंद आया।
ReplyDeleteभोजपुर के मदिंर मे शिवलिंग की उंचाई और पास की चट्टान पर उनके पैर के निशान से उनकी कद/काठी का अनुमान लगाते वहा कुछ दर्शनार्थियो को भी सुना है ।पता नही कितना सच है उसमे। आगे भीआप से इसी प्रकार के आलेख की आशा रहेगी।सादर
प्रिय राजेश भाई,
Deleteभोजपुर मंदिर का निर्माण भी राजा भोज की ही देन है। ईशा फाउंडेशन के प्रमुख वासुदेव जग्गी जी ने भी भोजपुर शिव का उल्लेख अपनी आत्मकथा में किया है
लेख लंबा हो गया सब कुछ समेटने के प्रयास में। आप जैसे सुधिजनों का स्नेह तथा आशीर्वाद मेरा मनोबल कायम रखने का सहायक है।
हार्दिक आभार सहित सादर
Very illusive and informative article
ReplyDeletePankaj Bhai, Thanks very much. Regards
ReplyDeleteकृपया वह श्लोक बताएँ जो एक लड़की और भोज के बीच वार्तालाप में बना था । जिसमें कन्या ने जवाब दिया था कि अगर मेरे जैसी सुन्दर लड़की विधाता ने बनाई नहीं होती तो तुम्हारे जैसा सुन्दर पुत्र कैसे पैदा होता ।
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