- डॉ. रत्ना वर्मा
हर वर्ष की तरह पिछले महीने हमने महिला दिवस मनाकर महिलाओं के सम्मान के गुण गाए। उनकी उपलब्धियों को गिना कर उन्हें पुरस्कृत किया। उसके बाद भारतीय नव सत्संवर और चैत्र नवरात्रि के आरंभ के साथ ही लगा जैसे पूरे देश में एक नई ऊर्जा और जोश का संचार हो गया। सब देवी दुर्गा की आराधना में लीन होकर भक्ति में डूब गए। पर क्या सचमुच हम महिला दिवस मनाकर और इन नौ दिनों तक कन्या को देवी की तरह पूजते हुए नारी को जिस प्रकार से आदर और सम्मान देते हैं , क्या उसी तरह से अपनी जिंदगी में, अपने विचारें में अपने व्यवहार में भी हम उन्हें वही मान- सम्मान दे पाते हैं?
कहने को तो यह सब फिर वही पुरानी और घिसी- पिटी बात लग सकती है, और हम सब यह मानते भी हैं कि अब ज़माना बदल गया है, लड़कियाँ अब सिर्फ शादी और बच्चे पैदा करके घर में ही कैद रहने वाली नहीं रही, वह पढ़- लिखकर हर क्षेत्र में आगे बढ़ चुकी है आदि आदि... पर क्या आपने कभी यह सोचा है कि आज भी जब परिवार में पहला बच्चा लड़की होती है, तो दूसरे बच्चे के समय न केवल दादा दादी बल्कि माता- पिता भी यह कामना करते हैं कि अब एक लड़का आ जाना चाहिए; आखिर वही तो वंश को आगे बढ़ाएगा, माता- पिता की सेवा करेगा। तब यह सोचना ही पड़ता है कि इस पितृसत्तात्मक सोच को लेकर हम कौन- सी तरक्की पसंद बराबरी की दुनिया बसाना चाहते हैं। आप माने या न माने; परंतु ये वंश को आगे बढ़ाने वाली सदियों पुरानी रूढ़िवादी मानसिकता से हम आज भी उबर नहीं पाए हैं। जो परिवार इस सोच को बदल पाए हैं, उनकी संख्या इतनी कम है कि उँगलियों पर गिनी जा सकती है।
इस संदर्भ में पिछले दिनों चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डी वाई चंद्रचूड़ द्वारा स्त्री और पुरुष की इस असमानता को लेकर की गई टिप्पणियों की ओर सबका ध्यान आकर्षित करना चाहूँगी- एक बच्चे की हत्या और अपहरण के एक फैसले पर रिव्यू के दौरान उन्होंने सुप्रीम कोर्ट की समीक्षा की पंक्तियों का जिक्र करते हुए कहा - ‘बच्चे की हत्या अपने आप में बहुत क्रूर कृत्य है। ऐसी हालत में कोर्ट के सामने यह विषय नहीं हो सकता कि छोटा बच्चा लड़का है या फिर लड़की। हत्या अपने आप में बहुत बड़ा दुख है। ऐसे में कोर्ट को यह नहीं कहना चाहिए कि वह लड़का था और वंश चलाता या फिर माँ-बाप का बुढ़ापे में ध्यान रखता। ऐसी टिप्पणियाँ अनजाने में ही सही फैसला देते समय पुरुष प्रधान और पितृ सत्तात्मक नजरिया को प्रस्तुत करती हैं, अतः इनसे दूर रहना चाहिए।’
न्याय व्यवस्था का स्थान हमारे देश में सर्वोपरि है। उनके फैसले का हम सब सम्मान करते हैं । हम ऐसा मानते हैं कि न्याय की कुर्सी पर बैठा व्यक्ति किसी को सजा इसलिए नहीं सुनाता कि वह स्त्री या पुरुष है। व्यक्ति को सजा उसके किए गए अपराध के आधार पर सुनाई जाती है। ऐसे में चीफ जस्टिस की उपर्युक्त टिप्पणी चिंतन का विषय है और इस पर विचार अवश्य किया जाना चाहिए।
महिला और पुरुष की असमानता को लेकर चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया की एक दूसरी टिप्पणी भी गौर करने लायक है, जिसमें उन्होंने कहा कि कानूनी पेशा महिलाओं को समान अवसर देने वाला पेशा नहीं है। उन्होंने एक उदाहरण देते हुए कहा कि तमिलनाडु में 50 हजार पुरुष रजिस्टर्ड हैं, जबकि महिलाओं की संख्या केवल पाँच हजार है। इसकी वजह महिलाओं में प्रतिभा की कमी नहीं है, बल्कि ऐसा इसलिए होता है ; क्योंकि हमारे कृत्य रूढ़िवादी धारणाओं पर आधारित हैं।जाहिर सी बात है कि काम करने वाली जगह में जहाँ पुरुषों का साम्राज्य है, महिलाओं को अपनी जगह बनाने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है। विभिन्न अध्ययन और सर्वेक्षण ने भी इस बात को प्रमाणित किया है कि महिला को अपना बॉस स्वीकार करने में पुरुष सहकर्मियों को तकलीफ होती है। जगजाहिर है कि पुरुषों की मानसिकता में भरी रूढ़िवादी सोच और पुरुष होने का अहंकार महिलाओं के आगे बढ़ने में आड़े आता है।
जाहिर है अवसर कम होने के कारण कानूनी पेशे में महिलाएँ कम रुचि लेती हैं ; इसी प्रकार सामान्यतः मध्यमवर्गीय परिवारों में डॉक्टर व इजीनियर बनने के लिए लड़कियों को उतना प्रोत्साहित नहीं किया जाता, जितना लड़कों को । इतना ही नहीं, लड़कियों का पालन- पोषण बचपन से इस प्रकार किया जाता है कि स्कूली शिक्षा पूरी हो जाने के बाद वे शादी कर लें। वही उनकी जिंदगी का ध्येय माना जाता है। दरअसल पीढ़ी- दर- पीढ़ी चली आ रही कुछ रूढ़ परंपराओं के कारण महिला और पुरुष में की जा रही लिंग भेद की इस असमानता के चलते महिलाओं को समान अवसर नहीं दिया जाता। उन्हें लगता है कि यह काम महिलाओं के बस की बात नहीं है, वे घर के काम करने में निपुण होती हैं, वे बच्चे अच्छे से संभालती हैं। प्रकृति के नियमों तक तो बात मानी जा सकती है ; परंतु सिर्फ लिंग के आधार पर काम का बँटवारा आज के संदर्भ में स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए।
जब उच्च शिक्षा प्राप्त लोग इस मानसिकता की गिरफ्त में हैं तो फिर आम- जन जीवन में लोगों से हम यह कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वे इस सदियों पुरानी सोच से ऊपर उठकर महिलाओं के प्रति अपनी धारणाओं को बदलेंगे। किसी तिथि विषय पर, पर्व त्योहार पर नारी का आदर करना, सम्मान करना और देवी मानकर उनको पूजना एक बात है; परंतु जमीनी हकीकत में उनकी योग्यता के अनुरूप उन्हें काम देना, काम करने की आजादी देना, अलग बात है। जिस दिन हम इस मानसिकता से उबर पाएँगे उस दिन ही वास्तव में संविधान में लिखे गए स्त्री- पुरुष समानता की बात को स्वीकार कर पाएँगे।
आदरणीया,
ReplyDelete- बहुत सारगर्भित विषय पर सार्थक संदेश। बेटियों की तो बात ही अलग है। वे पराये घर जाकर भी ताउम्र अपनी होती हैं। छोटी छोटी बातों पर चिंतित हो जाती हैं, जबकि बेटों की कोई गैरंटी नहीं।
- जिनकी बेटियां नहीं उनका इस सौभाग्य से साक्षात्कार ही नहीं हो पाया। ईश्वर की अनुकंपा से मेरी केवल दो बेटियां ही हैं विदेश में वर्षों से सेटल, पर जुड़ाव इतना कि लगता ही नहीं कि सात समंदर पार हैं। इतनी स्नेहिल कि आंखें सजल हो जाती हैं कई बार।
- महिला इकाई नहीं संस्था होती है। सामयिक विषय पर संवेदनशीलता सहेजे योगदान हेतु हार्दिक बधाई, आभार एवं शुभकामना। सादर
आप हमेशा सामाजिक सरोकारों से विषय लेती हैं जो जागरूकता का संदेश देते हैं।आज हमने चाहे कितने उन्नत हो गए हों लेकिन लड़कियों के प्रति विचारधारा वही सदियों पुरानी संकीर्ण ही है। जिसे बदलना आवश्यक है इसके लिए स्वयं महिलाओं को ही आगे आना होगा।
ReplyDeleteसार्थक संदेश देता सुंदर आलेख। हार्दिक बधाई। सुदर्शन रत्नाकर