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Jul 1, 2022

लघुकथाः नेताजी गाँव में

- विजयानंद विजय

झक्क सफेद कपड़ों में नेता जी गाड़ी से उतरे और पूरी हनक से गाँव की ओर चल पड़े। आगे-आगे नेता जी, पीछे से उनकी जयकार करते उनके भक्त और समर्थक। कच्चे-धूल भरे रास्ते पर पड़ती कदमों की थाप से उड़ती धूल नेता जी के सफेद कपड़ों को धूमिल कर रही थी। कंधे पर कुदाल लिए कीचड़-मिट्टी से बुरी तरह सना एक वृद्ध किसान उनके पास आया और उनसे पूछा - आपलोग  कौउन हैं भाई ?

- अरे ! हमको नहीं पहचाना ?

- नाहीं।

- अरे, मैं नेताजी हूँ।

- कौउन नेताजी ?

- तुम्हारे क्षेत्र का नेता। तुम्हारा विधायक।

- हाँ। तो..?

- मैं तुम लोगों से मिलने आया हूँ। तुम्हारी समस्याएँ सुनने और उन्हें दूर करने आया हूँ।

- अच्छा ! पाँच बरिस बाद हमरी याद आई है तुमको ? आँएँ...!

- वो क्या है कि.....!

- चुनाव आय गए तब आए हो... ?

- नहीं, नहीं। ऐसा नहीं है चचा।

- अइसने है बचवा। अइसने है।

- मैं तुम लोगों की गरीबी,परेशानी दूर करके तुम लोगों के जीवन में खुशियाँ भरने आया हूँ।

- हमको मुरूख समझे हो का बबुआ ? अरे, तुम का भरोगे ? तुम तो खुदे भरे-पूरे हो।

- क्या मतलब ?

- अपना शरीर देखे हो ? बहुत विकास कर लिये हो तुम ?

- वो तो... खाया-पिया हुआ, स्वस्थ शरीर है, इसलिए..।

- वही तो ? खाया-पिया हुआ शरीर। पहिले तो तुम हमरी ही तरह दुबले-पतले थे। इसी धूल-मिट्टी में खेलते थे। साइकिल से चलते थे और, आज ई गाड़ी, ई ठाट-बाट...?

- वो तो पार्टी वालों ने....।

- अच्छा ! पार्टी वाला दिया है ? गरीबे का पैसा लूटके न तुम अपना पेट भरा है ? मगर हम तो हड्डी का ढाँचा ही रह गये बबुआ, देखो।

- तुम्हारी यह ढाँचे वाली हालत पहले की सरकारों की बदौलत हुई है। हमने तुम्हें ज़िंदा तो रखा है ?

- बस, ज़िंदा इसलिए रक्खे हो कि हम तुमको वोट दे सकें। और किसी काम का हमें समझे भी हो का तुमलोग ?

- हाँ, तो अगर ज़िंदा रहना है, तो हमको वोट दो। बस, यही तो कहने आए थे हम। चलो भाई चलो। राम..राम।

- हाँ, तुम नेता हो। हमरे नेता। फटी बनियान पहिनकर जीने वाले इ गरीब-मजदूर-किसान सब का नेता, जो दिन में चार बार कपड़ा बदलता है, मँहगी गाड़ी में चलता है और काजू-बादाम खाता है। इ कइसा परजातंत्र है भाई ?

    वृद्ध किसान की आवाज खेतों के सन्नाटे में गूँजती रही। नेता जी तो कब के जा चुके थे !

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