अवसर
कोई भी हो,
पिछले दो वर्षों में इंसानियत की एक नई
विचारधारा ने जन्म लिया है। जहाँ घर परिवार और रिश्तों की अहमियत को गंभीरता से
लिया जा रहा है,
वहीं स्वार्थ से परे स्वस्थ सामाजिक संबंधों का
भी महत्त्व भी बढ़ गया है।
पिछले
दिनों समाचार पत्र में प्रकाशित एक तस्वीर ने सबका ध्यान आकर्षित किया, जिसमें एक पिता सड़क किनारे चादर
बिछाकर अपने दो बच्चों को पढ़ाई करवा रहे हैं। जाहिर है यह दृश्य भावुक कर देने
वाला था । बिलासपुर के 38 वर्षीय गणेश
साहू अपनी 8 साल की बेटी गंगा और 6 साल के बेटे अरुण के पिता हैं। वे रिक्शा चलाकर
अपने परिवार का पेट पालते हैं। बच्चों की माँ का असमय देहांत हो गया था और पिता की
परिस्थिति ऐसी नहीं थी कि अपने बच्चों को पढ़ने के लिए स्कूल भेज सकें। अतः उन्हें
जब भी समय मिलता, वे अपने
बच्चों को पढ़ाते रहते हैं।
घरों
को रोशनी से सजाकर, नए कपड़े
पहनकर,
आतिशबाजी करके, विभिन्न प्रकार के पकवान बनाकर और
धन की देवी लक्ष्मी की पूजा करने मात्र से ही क्या मन का अंधकार दूर हो जाता है?
पिछले दो साल से तो कोविड जैसी महामारी ने अँधेरे उजाले, गम और खुशी के मायने ही बदल दिए
हैं। कोई भी पर्व- त्योहार हो या पारिवारिक उत्सव इन्हें मनाने के तरीकों के
साथ-साथ सबके विचारों में भी परिवर्तन आ गया है। थोड़ा सा परिवर्तन और करना होगा –
सजग रहकर ।
आपके
आस-पास दिन रात कुछ न कुछ ऐसे काम
होते रहते हैं,
जहाँ हजारों मजदूर परिवार दिन- रात
काम पर लगे रहते हैं। जिनका निवास अस्थायी होता है, ऐसे में वे बच्चों को भला शिक्षा
कैसे दिला पाएँगे। बहुत सारी सामाजिक संस्थाएँ कई तरह के जागरूकता का काम कर रही
हैं पर फिर भी देश में इतनी समस्याएँ हैं,
इतनी परेशानियाँ हैं कि जितने भी लोग सहयोग के लिए आगे आएँ कम ही पड़ेगा।
तो । तो हर उस व्यक्ति को सहयोग के लिए आगे आना होगा जो थोड़ा सा भी किसी के जीवन
में उजाला फैलाने की काबिलियत रखता हो। यदि आपके पास किसी बेकार को काम देने की
हैसियत है तो इस दीवाली किसी एक को काम दे दीजिए, यदि आपके आप किसी एक बच्चे को
शिक्षित करने की हैसियत हैं, तो किसी एक बच्चे को पढ़ाने की जिम्मेदारी ले लीजिए। कहने का तात्पर्य यही कि
आप जो भी करेंगे, किसी के जीवन में प्रकाश ही फैलाएँगे। इस बार आप
भी ऐसा कुछ करके तो देखिए, आपकी दीवाली भी जगमग हो जाएगी।
अंधकार
को दूर भगाकर प्रकाश फैलाने का संकल्प लेते हुए हम प्रतिवर्ष इंतजार करते हैं
महापर्व दीपावली का। बिना अंधकार को महसूस किए प्रकाश के महत्त्व को नहीं समझा जा
सकता। जीवन के प्रत्येक कोने में व्याप्त नकारात्मकता को सकारात्मकता के उजाले से
दूर करना ही प्रकाशोत्सव है। तो आइये इस दीपावली मन के अँधेरे को दूर भगाकर अपने
साथ- साथ दूसरों के जीवन में भी प्रकाश फैलाने का संकल्प लें।
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए। (गोपालदास ‘नीरज’)
दीपोत्सव पर बहुत ही महत्वपूर्ण और शानदार आलेख। बधाई डॉ रत्ना
ReplyDeleteअद्भुत बात कही है आपने. जिम्मेदारी तो हम सबकी है. एक बार जल पुरुष राजेंद्रसिंह जी ने यही बात साझा की थी कि पूर्व काल में समाज अपनी भूमिका बखूबी निभाता था. धीरे धीरे सब कुछ व्यवस्था (जो खुदगर्ज़ है) पर छोड़ दिया गया और जो हश्र या समाज का पतन हुआ वो हमारे सामने है. जिम्मेदारी फिर से स्वीकारेंगे तभी तो कह सकेंगे
ReplyDelete- सभी के दीप सुंदर हैं हमारे क्या तुम्हारे क्या
- उजाला हर तरफ़ है इस किनारे उस किनारे क्या
आपने हर बार की तरह इस बार भी बहुत सामयिक पक्ष को छुआ है. सो मेरा हार्दिक साधुवाद स्वीकारें. सादर
हर बार की तरह सुंदर संदेश देता संपादकीय। आपकी कहीं बात का विशेष महत्व होता है जो हमेशा अनुकरणीय होती है। हार्दिक बधाई
ReplyDeletereally very well written stirred me to core of my heart
ReplyDeleteप्रेरक लेख।
ReplyDeleteआलेख सुंदर होने के साथ बहुत महत्वपूर्ण है, सहज ही प्रेरणा देता है। हार्दि बधाई डॉ रत्ना जी को।
ReplyDeleteरत्ना जी का आलेख प्रेरक भी है और विचारणीय भी । दीपावली का सही अर्थ यही हो सकता जब सब के घर में रोटी हो और आस का दीप जले । इस महत्वपूर्ण आलेख के लिए रत्ना जी बधाई ।
ReplyDeleteबहुत ही प्रेरक लेख। प्रकाश पर्व की सच्ची परिभाषा प्रस्तुत की है आपने।
ReplyDeleteहार्दिक बधाई आदरणीया।