- विजय जोशी (पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक, भेल, भोपाल)
निर्मल मन जन सो मोहि पावा
मोहि कपट छल छिद्र न भावा
ईश्वर ने इंसान को पूरी शक्ति, सामर्थ्य एवं बुद्धि के साथ धरती पर भेजा। इसी के साथ विवेक की थाती भी प्रदान की केवल इसलिए कि वह कठिन परिस्थिति में उसका सही आकलन करते हुए अपना कर्म तय कर सके। पर होता क्या है हम परिस्थिति का अपने स्वार्थ के धरातल पर आकलन कर उस हिसाब से अपना रुख तय करते हैं। स्वार्थ की बलिवेदी पर हमारा व्यक्तित्व कुर्बान हो जाता है। ऐसे पलों में सही और गलत की एक बहुत ही सुंदर व्याख्या प्रस्तुत है त्रेता के एक चरित्र जटायु तथा महाभारत काल के पात्र चरित्र भीष्म के माध्यम से, जो हमारे लिए कर्म की गीता, बाइबिल या क़ुरान के समान मार्गदर्शक है।
1- प्रतिक्रिया (Respond) : अत्याचार और अनाचार की एक स्थिति में दो अलग अलग व्यक्ति कैसे प्रतिक्रिया देते हैं यह भीष्म जटायु प्रसंग से स्पष्ट है, जिसमें जटायु ने सीता की रक्षा के प्रयास में प्राण तक त्याग दिये जबकि भीष्म तटस्थ बने रहे। विशेष बात तो यह है कि वे शक्तिशाली थे व इसे रोक सकने में सक्षम, जबकि वृद्ध,कमजोर जटायु ने अपने प्राणों की बाजी तक लगा दी। भीष्म शक्तिशाली होकर भी शक्तिहीन बने रहे और जटायु निर्बल होकर भी शक्तिशाली।
सार : अत: यह सिद्ध होता है कि शक्ति शरीर में नहीं ; अपितु सहायता करने की गहरी इच्छा शक्ति में है।
2- जीवित या मृत (Alive or Dead) : भीष्म शर-शय्या पर जीवित होकर भी मृतक समान बने रहे। जटायु ने मृत्यु का आलिंगन किया ; किन्तु जब तक जिया तो सचेत जाग्रत चेतना के साथ।
सार : हमारी सच्ची साथी है हमारी चेतना।
3- प्रसिद्धि या अपकीर्ति (Fame or Infame) : भीष्म का नाम इतिहास में पतन की ओर गया गलत का साथ देनेवाले कर्म के कारण, जबकि जटायु का ऊपर की ओर असहाय की सहायता के परिप्रेक्ष्य में।
सार : हम सब का नाम इतिहास में दर्ज होगा आगे या पीछे। हम जाने जाएँगे अच्छे या बुरे के रूप में। केवल हमारे द्वारा चयनित कर्म तय करेंगे हमारी पहचान।
4- संस्कृति या विकृति (Culture or Vulture) : भीष्म उच्चतम संस्कृतियुक्त होकर भी मूल्यों के मामले में पशुवत् थे। इसके ठीक विपरीत जटायु संस्कृतिविहीन पक्षी होकर भी मूल्यों के मामले में उनसे कई गुना ऊपर थे।
सार : मानव केवल मानव जन्म लेकर मानव नहीं हो जाता। उसके आचरण में मानवता का सम्मान एक आवश्यक एवं अनिवार्य गुण है।
5- कहे और अनकहे शब्द (Spoken or Unspoken Words) : द्रौपदी ने भीष्म को सक्षम समझ रक्षा हेतु गुहार लगाई, लेकिन वे नहीं पसीजे। इसके ठीक विपरीत कमजोर जटायु से सीता की अपेक्षा राम को केवल सूचित भर करने की थी, परंतु उसने भाषा की कठिनाई के पलों में भी पक्षी होते हुए भी बात को समझा।
सार : हृदय की भाषा शब्दों की भाषा से अधिक
शक्तिशाली और प्रभावशाली होती है।
6- स्पष्टता और भ्रम (Clarity & Confusion) : भीष्म राजसी होते हुए भी द्रौपदी के चीर हरण के समय संभ्रम की स्थिति में थे एवं अपना कर्त्तव्य भूल बैठे, जबकि जटायु रावण द्वारा सीता हरण के पलों में अपने कर्तव्य व उद्देश्य के प्रति न केवल सजग बल्कि स्पष्ट थे।
सार : अत: जब भी दुविधा हो तो सिद्धांतों के पालन की हृदय की आवाज सुनें, क्योंकि ऐसे पलों में वही सच्ची होती है।
7- अच्छा या बुरा उदाहरण (Good or Bad Example) : भीष्म ने एक बुरी विरासत छोड़ते हुए प्रयाण किया, परंतु जटायु ने आनेवाली अनेक पीढ़ियों के लिए कर्त्तव्य का अद्भुत उदाहरण स्थापित किया।
सार : यदि हम अच्छा न कर सकें, तो कम से कम बुरा तो न करें।
8- संबंधी और अजनबी (Relative and Stranger) : आश्चर्यजनक बात तो यह है कि भीष्म ने द्रौपदी के रिश्तेदार होते हुए भी एक अजनबी की तरह आचरण किया, किन्तु जटायु ने कोई संबंध न होने के बावजूद प्रिय साथी सा संबंध निभाया
सार : रिश्ता दिल से जुड़ा हुआ तार होता है, न कि रक्त समाहित संबंध।
9- संत या दुष्ट (Saintly or Wicked) : भीष्म तथा जटायु दोनों के पास निर्णय हेतु केवल कुछ ही पल ही थे, जिसमें भीष्म की कुशाग्रता दुष्टों की संगति के कारण हताश होकर हार गई। जटायु अपने विचारों में पूरी तरह स्फटिक की भाँति स्पष्ट थे और यही कहलाता है संत स्वरूप व्यवहार तथा आचरण।
सार : अत: यह स्पष्ट है कि हम अपनी संगति से संचालित होते हैं। 10- आलिंगन या उपेक्षा (Embrace or Neglect): कृष्ण भीष्म की मानसिकता से परिचित थे, अत: जब दूत बनकर आए, तो उनकी ओर देखा तक नहीं बात तो दूर की बात। अब देखिए राम को, जिन्होंने जटायु को न केवल गोद में लिया, अपितु उनका अंतिम संस्कार तक अपने हाथों संपन्न किया।सार : निर्मल निस्वार्थ आचरण से ईश्वर तक भक्त की सेवा में रत हो जाते हैं।
कुल मिलकर इस प्रसंग से यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो जाती है कि हम जब भी कोई अन्याय देखते हैं या समस्या से रूबरू होते हैं तो हमारे सामने केवल दो विकल्प होते हैं- पहला अपनी आँखें मूँद लें या फिर इस बारे में सकारात्मक कुछ करें। इसे ही तो कहते हैं भीष्म का या फिर जटायु का तरीका। याद रखिये दुष्ट की दुष्टता से अधिक घातक है सज्जन की निष्क्रियता। राष्ट्रकवि रामधारीसिंह दिनकर तो कई वर्ष पूर्व ही कह चुके हैं।
समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनके भी अपराध
सम्पर्क: 8/ सेक्टर-2, शांति निकेतन (चेतक सेतु के पास), भोपाल-462023, मो. 09826042641, E-mail- v.joshi415@gmail.com
साहेब एकदम सरल और सुंदर उदाहरण के द्वारा आपने गुणों का अंतर समझाया। अप्रतीम लेख साहेब। regards sir
ReplyDeleteप्रिय हेमंत, सदा मनोयोग से पढ़कर प्रतिक्रिया देने के लिये हार्दिक धन्यवाद. मेरा हौसला बढ़ता है. सस्नेह
Deleteभीष्म और जटायु के चरित्र आकलन की योग्यता तो मेरे पास नहीं है और न ही मैं इस प्रस्तुत आकलन पर कोई टिप्पणी करने चाहूंगा परंतु मनुष्य और उसके विवेक पर अवश्य ही कुछ कहना चाहता हूं।
ReplyDeleteएक जादूगर ने एक बच्चे को को एक छड़ी दी और उससे कहा कि यह जादू की छड़ी है। इसको घुमाकर तुम जो कहोगे या चाहोगे वह हो जाएगा। बच्चा छड़ी पाकर बहुत खुश हुआ और उसे लेकर घर आ गया। छड़ी के द्वारा वह अपनी दैनिक आवश्यकताएं पूरी करने लगा और सुखमय बालजीवन व्यतीत करने लगा। समय के साथ वह अपने दूसरे दोस्तों की आवश्यकता भी पूरी करने लगा। लेकिन कालांतर में वह उन दोस्तों को दंडित भी करने लगा जो उसकी इच्छा के अनुरूप नहीं चलते। धीरे धीरे वह बच्चा बड़ा होता गया और अपने को शक्तिशाली जादूगर समझने लग गया। अब उसके अधिकांश काम स्वतः ही (भय वश) होने लग गए। छड़ी की आवश्यकता कदाचित ही पड़ती। और इस प्रकार उसमें छड़ी के प्रति उपेक्षाभाव भी विकसित हो गया।
यही हमारे जीवन का सत्य है, जिसने हमें जीवन दिया और कर्म करने की स्वतंत्रता दी, हमारे विकासक्रम में वही अप्रासंगिक हो गया है, अगर हम इसे ईश्वर से अथवा आध्यात्म से न भी जोड़ें तो माता-पिता के संदर्भ में भी यह उतना ही प्रासंगिक है। संप्रभुता विवेक को नष्ट कर देती है। तुलसीदास जी का कथन है "कोउ नहि अस जनमेउ जग माहीं। प्रभुता पाई जाहिं मद नाहीं।" भीष्म और जटायु के जीवन का एक पक्ष यह भी है।
आपका आलेख अत्यंत विचारोत्तेजक और चिंता कारक है। मानवता के अवमूल्यन का इतना ह्रास अबके पूर्व कभी नहीं देखा गया। परन्तु आप जैसे मनीषी इस मशाल को थामे हुए कर्मरत हैं। यही सर्वाधिक सुख और संतोष का विषय है।
एक प्रार्थना है। पौराणिक पात्रों के चारित्रिक आकलन को यथा सम्भव आलेख का विषय न बनाया जाय।
इस सुंदर और स्वस्थ आलेख के लिए साधुवाद।
आदरणीय प्रेम जी, आप सदा मनोयोग से पढ़कर प्रतिक्रिया देने का कष्ट किया करते हैं. यह मेरा सौभाग्य है. आपकी बात तो तथ्यपूर्ण है ही. जग बौराई राज पद पाई. या फिर प्यादे से फर्जी भयो टेढ़ो टेढ़ो जाय. सबका अपना सोच है. हम कौन होते हैं फैसला करने वाले. हार्दिक आभार सहित सादर
ReplyDeleteबहुत आभार आदरणीय,
Deleteइसी प्रकार आप निरंतर क्रियाशील रहें और लोगों को दिशा प्रदान करते रहें।
धन्यवाद
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteप्रिय मित्र जोशी जी,
ReplyDeleteरामायण तथा महाभारतकालीन, दो सशक्त पात्रों, के चरित्र की चर्चा/तुलना करके, वर्तमान संदर्भ की ओर जो इशारा किया है, वह बेजोड़ है।
साधुवाद
श्रीकृष्ण अग्रवाल, Gwalior
प्रिय मित्र जोशी जी,
ReplyDeleteइतने अच्छे प्रसंग के लिए साधुवाद।
बहुत अर्थ है इस तुलना में।
साधुवाद
श्रीकृष्ण अग्रवाल, Gwalior
प्रिय डा. श्रीकृष्ण अग्रवाल, आदमी जन्म नहीं बल्कि कर्म से महान होता है. यह बात सदा से सत्य रही है. हार्दिक आभार सहित सादर.
ReplyDeleteबहुत ज्ञान देने वाली रचना. धन्यवाद🙏
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद.
Deleteवाकई लाजवाब तुलना के माध्यम से सीख दी है आपने। भीष्म को इतना निर्बल व अक्षम पाया जितना महाभारत फेखते हुए भी न पाया। जबकि वो पूर्ण सक्षम थे। आपने दोनों चरित्रों के दूसरे पक्ष को उजागर कर एक सीख दी है। धन धान्य सम्पन्न व्यक्ति धनी नहीं होता, जिसमें दूसरों को कुछ देने की श्रद्धा व मन हो वो धनी होता है। साधुवाद आपको , बधाई एवं प्रणाम स्वीकारें।
ReplyDeleteप्रिय रजनीकांत, इतनी सूक्ष्म दृष्टि तो मेरी भी नहीं रही लिखते समय. सच कहूं तो पहल समूह आरंभ कर तुमने एक कार्य का श्री गणेश किया है. धन्यवाद बहुत सतही शब्द होगा. मन का भाव इस समय उससे भी ऊपर है. सस्नेह.
Deleteसर, यह तो आपका बड़प्पन है। आपकी रचनाएं सागर हैं और हम सब मंथन कर अपने अपने हिस्से का प्राप्त कर लेते हैं। सादर अभिनंदन सर।
Deleteपहल भी आपके संरक्षण में कुछ समाज के लिए अच्छा करे। ऐसी आशा व विश्वास है।
प्रिय रजनी, मुझे पूरा विश्वास है कि तुम्हारे प्रयास से आरंभ पहल का सप्तर्षि मंडल निर्मल सेवा के सोपान पर अविरल चलता रहेगा. मुझे गर्व है तुम्हारी पीढ़ी पर. सस्नेह
Deleteआदरणीय साहेब जी यह लेख मानव जीवन के लिए अत्यंत लाभकारी है पूरे लेख का सार यही दर्शाता है की कर्म किए जाओ फल की चिन्ता न करो. धन्यवाद🙏
ReplyDeleteप्रिय अनिल, सार का समापन बहुत सारगर्भित तरीके से किया है उपरोक्त में. पचीस वर्ष पूर्व का वह दौर आज भी मेरे जेहन में बसा है जब हम प्रेस शाप विभाग में सहकर्मी थे. सस्नेह.
ReplyDeleteअद्भुत रचना
ReplyDeleteअद्भुत परखी
अद्भुत भाव
अद्भुत प्रभाव
अद्भुत संदेश
ReplyDeleteअद्भुत पाठक
अद्भुत चिंतन
अद्भुत प्रतिक्रियाएं
आदरणीय महोदय, आपका यह लेख त्रेता और द्वापर युग के दो महत्वपूर्ण पात्रो के जीवन की आपसी तुलना द्वारा, हम कलयुगी जीवो को सही/कठिन मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है।
ReplyDeleteप्रिय सौरभ, शक्ति का संचालन हमारे मानस से होता है. मन से होता है. वही सफलता का साफ्टवेयर है. तन तो होता है हार्डवेयर. मन के जीते जीत है, मन के हारे हार. सो मन होना चाहिये मजबूत. अच्छे काम के लिये सोचना नहीं कूद पड़ना चाहिये. पहल अभियान के लिये मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ. सस्नेह
ReplyDeleteअद्भुत आलेख
ReplyDeleteदो महान पौराणिक चरित्रों की बेजोड़ तुलना करके आपने बहुत सुंदर और अद्भुत संदेश दिए हैं, महान व्यक्ति तभी महान है जब वह कठिन परिस्थिति में अपने बल,बुद्धि, शक्ति और विवेक के अनुसार निर्णय लें और अपने कर्तव्य का क्रियान्वन करें।
तटस्थता और तत्परता का इससे अच्छा उदाहरण हो ही नही सकता था।
सादर अभिनंदन
आदमी जन्म नहीं बल्कि कर्म से महान होता है, लेकिन यह बात वह भूलकर मिथ्या अभिमान का दास बन जाता है और जब तक समझ उपजे समय समाप्त हो जाता है कई बार. पसंदगी के लिये हार्दिक आभार सहित.
ReplyDeleteसर, धर्म और अधर्म के आचरण के संकल्प विकल्प पर बहुत सुन्दर विश्लेषण. जटायु और भीष्म के दृष्टान्त से यह सरलता से समझ में आ रहा है. उत्कृष्ट लेख के लिए बहुत बहुत बधाई.
ReplyDelete- पुरुषोत्तम तिवारी 'साहित्यार्थी' भोपाल.
आदरणीय तिवारी जी, सब कुछ उपलब्ध है हमारे ग्रंथों में, पर हम नई पीढ़ी के साथ साझा करने में कंजूसी कर रहे हैं जो दुर्भाग्य है. यह तो तुलनात्मक अध्ययन का विनम्र प्रयास मात्र है. हार्दिक आभार सहित सादर
ReplyDelete