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May 3, 2021

कविताः हथेलियों की रेखाएँ

-डॉ. संजय अवस्थी

कभी मेरी हथेलियों को थाम,

एक अधूरी रात में साँसों को थाम,

उसने कहा था, देखो, मैंने अपने अनुराग से,

तुम्हारे हाथों में, प्रेम की लकीरें उकेर दीं।

रात के धुंधलके में, अधूरे  मिलन से

आँखों में बनते बिगड़ते रंगीन घेरों ने,

भरमाया, हाँ मेरी सपाट हथेलियों में भी,

कितनी गहरी प्रेम की लकीरें उभरी हैं।

क्या, कोई केवल अनुराग से

भाग्य भी लिख सकता है?

समय की धारा के मँझधार में,

क्या डूबते को कभी कश्ती भी मिलती है?

प्रिय, मेरे हाथों में कुछ भी स्पष्ट नहीं था,

रेखाएँ थीं या उनका उलझा जाल?

या अधूरी नींदों से उनींदी,आँखों में दिख रहे अबूझ छल्ले?

मैं ही नहीं समझा थाकोई और कैसे समझता?

सब तरफ धुँध ही तो थी, दृश्य खो गए थे।

आँखों ने केवल भ्रम देखा, और कुछ नहीं।

अब तुम नहीं हो, कोई नहीं है,

मैं खोजता रहता हूँ, हथेलियों में उन्हें,

जिन्हें तुमने अनुराग से बनाया था।

2 comments:

  1. बहुत सुन्दर रचना, हार्दिक बधाई।

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