- डॉ. श्याम सुन्दर
दीप्ति
सावन के महीने की पहली घटा थी। एकदम
अँधेरा हो गया। कमरे की रोशनी कम लगने लगी और साथ ही लाइट चली गई।
कूलर -पंखे
की बात तो नहीं थी पर अँधेरा, जैसे रात हो गई हो। काम तो
क्या होना था, उमस होने लगी। खिड़कियाँ जो बंद थी।
सभी कर्मचारी बाहर आने लगे, बरामदों
में।
राजकुमार ने अपने सामने पड़ी काम वाली
फाइल पर एक निशानी रखकर बंद कर दिया। वह सोचने लगा- अब क्या करें। क्या पता है
लाइट का!
बाहर बरामदें में बातें, गप्पे,
हँसी-ठट्ठे का माहौल बना लगता था।
वह बाहर कहाँ जाएगा। उसने कभी इस कमरे से
बाह पाँव नहीं रखा।
कभी- कभी दफ्तर का मुआयना करता है ,तो
सबको पता चल जाता है और सभी अपनी सीटों पर दुबककर बैठ जाते हैं।
कमरे में वही सिलसिला... बेल। चपरासी, यैस सर! उसे बुला। वह चीख
पड़ा!
वह उठा। उसका मन काली घटा को देखकर बाहर
का नज़ारा लेने को हुआ।
उसे लगा, उसके
बाहर जाने से दफ्तर के सभी कर्मचारी खामोश हो जाएँगे। इधर- उधर छुपने लगेंगे। वह
अँधेरे में गुम हो जाएँगे। उनकी हँसी रुक जाएगी।
वह सोचता -सोचता
दरवाजे तक पहुँच गया। फिर एकदम रुक गया ।
तो क्या हुआ? उसका
अंदर बोला।
नहीं! नहीं! उसका मन बदला और वह बंद
खिड़की की तरफ हुआ।
खिड़की से पर्दा हटाया, खिड़की
खोली। एकदम ठंडी हवा का झोंका आया और वह वापस आकर सीट पर बैठ गया। उसी समय आसमान
में बिजली चमकी। बादल गरजे और बारिश शुरू हो गई।
सम्पर्क: 97- गुरु नानक ऐवन्यू, मजीठा
रोड, अमृतसर, drdeeptiss@gmail.com
बहुत सुन्दर लघुकथा । बारिश की ठंडक अगर दिल तक पहुँच जाती जाए तो किसी भी इंसान को बदल सकती है । सशक्त लघुकथा के लिये बधाई आदरणीय ।
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