प्रदूषण
- रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
मन्दिर के प्रांगण में जागरण का कार्यक्रम था। औरत-मर्द बच्चों को मिलाकर दो सौ की भीड़। कस्बे के दूसरे छोर तक लाउडस्पीकर बिजूखे की तरह टँगे थे। गायक की तीखी आवाज़ से सिर भन्ना गया था।
वह एकदम बाहरी सड़क पर निकल आया। सूखे ठूँठ के पास कोई गुमसुम-सा बैठा था।
‘कौन?’ उसने पूछा।
‘मैं भगवान हूँ।’ मरियल- सी आवाज़ आई।
‘भगवान का इस ठूँठ के पास क्या काम? उसे तो किसी मन्दिर में होना चाहिए।’
‘मैं अब तक वहीं था।’ आकृति ने दुखी स्वर में बताया''शोर के कारण कुछ तबियत गड़बड़ हो गई थी, इसीलिए यहाँ भाग आया हूँ।’ ( असभ्य नगर - लघुकथा संग्रह से)
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बहुत विचारणीय लघुकथा...| प्रदूषण इस हद तक बढ़ गया है कि अब खुद भगवान् भी त्रस्त हो गए होंगे, फिर इंसान की तो बिसात ही क्या...? फिर भी कोई चेतता नहीं...|
ReplyDeleteइस सार्थक लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई...|
उम्दा कटाक्ष
ReplyDeletekamboj ji prdushan ki adhikta par likhi ye laghukatha bahut gahan vyangya hai aapko hardik badhai..
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