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Oct 22, 2009

विस्थापित सिख महिलाओं का दर्द

आसमान की तरफ रह- रह अंखभर देखती आंखें
- जोफीन टी. इब्राहिम
हालात चाहे जैसे भी हों, लगातार जो चलती रहे उसे ही जिन्दगी कहते हैं। इस बात का प्रमाण हसन अब्दाल शहर के श्री पांजा साहिब गुरुद्वारे में शरणार्थी के तौर पर रह रही 22 वर्र्षीय ए रवीना कौर से बेहतर कौन हो सकता है। इस्लामाबाद से करीब 50 किलोमीटर की दूरी पर अपने इस अस्थायी घर में आ रही अनेक तकलीफों ही नहीं बल्कि परिवार में हुई एक मौत के बावजूद उसने शादी की रस्म को निभाया। रवीना कहती है 'शादी की तारीख कई महीने पहले तय हो चुकी थी।' उसकी शादी में सैकड़ों लोग शामिल हुए। जिनमें रिश्तेदारों के अलावा ज्यादातर वो लोग थे जो उसी की तरह उत्तर पश्चिम पाकिस्तान स्थित अपने घरों से पलायन करने को मजबूर हुए थे। हालांकि रवीना ने इन मुश्किल परिस्थितियों में अपनी पूर्व निर्धारित समय पर शादी कर ली लेकिन उससे दुख एवं निराशा साफ नजर आते हैं। रवीना कहती है 'वह सोचती थी कि मेरी शादी धूम-धाम से होगी, लेकिन.... अफसोस न कोई नाच-गाना और न ही शादी की दावत।' इस शादी में दावत के स्थान पर गुरुद्वारे का पवित्र लंगर सभी को परोसा गया। शादी के बाद पति-पत्नी एकांत में समय भी नहीं बिता सके।
लगभग 450 सिख परिवारों के 3500 से अधिक लोगों ने हसन अब्दाल शहर के श्री पंजा साहिब गुरुद्वारे में अस्थायी शरण ले रखी है। गुरुद्वारे के ग्रंथी गुलबीर सिंह के अनुसार यह संख्या और बढऩे के आसार हैं। ये सिख ये अंत: विस्थापित लोग उन 2.5 लाख लोगों में से हैं, जिन्होंने जान की हिफाजत के लिए पाकिस्तान की उत्तर-पश्चिमी सीमा, एनडबल्युएफपी से लगते बुनेर, दिर और स्वात के संघर्ष क्षेत्रों से दिसम्बर 2008 के बाद पलायन किया है। मई 2009 से पाकिस्तानी सेना द्वारा आतंकवादियों के सफाए के लिए चलाए जा रहे अभियान के कारण इस पलायन में और तेजी आ गई। पहले भी रिपोर्टें आती रही हैं कि उत्तर पश्चिमी सीमांत क्षेत्र के अल्पसंख्यक सिख समुदाय ने तब से पलायन शुरु कर दिया था, जब ओराकजई एजेंसी से सिख समुदाय के कम से कम 11 घरों को तालिबान द्वारा जजिया कर ना देने के कारण तबाह कर दिया गया था। 'जजिया' मुगलकाल के दौरान गैर मुसलमानों पर लगाया जाता था। आतंक की मार झेल रहे लाखों सिख शरणार्थियों के लिए सरकार ने शिविर बनाये हैं लेकिन सिख समुदाय के लोग इन शिविरों की बजाय गुरुद्वारों में रहना पसंद करते हैं।
सुखविन्दर कौर ने अपने फोटोग्राफर पति एवं दो बेटियों के साथ स्वात घाटी को छोड़ दिया। वह कहती हैं, 'गुरुद्वारा हम विस्थापितों लिए न केवल एक सुरक्षित जगह है बल्कि संकट के इस समय में शांति प्रदाता भी है।' 'स्वात से जान बचाकर आई सुखविन्दर कौर हालात को भारत-पाक विभाजन से जोड़ते हुए कहती है, '1947 के खूनी मंजर के बारे में सुना था लेकिन यह शायद उससे भी ज्यादा भयानक है।'
एक अन्य विस्थापित सौरन सिंह जो गुरुद्वारे में बुनैर से आये विस्थापितों का इंतजाम देख रहे हैं, वे कहते हैं, 'डाक्टर, सरकारी कर्मचारी, प्रोफेसर एवं जिनेसमैन आदि सभी लोगों के लिए पंजा सिंह गुरुद्वारा ही अब घर है। गुरुद्वारे में 307 कमरे हैं जिनमें 6000 से 8000 तक लोग रह सकते हैं इन्हें और नए लोगों के आगमन की संभावना के मद्देनजर तैयार किया जा रहा है।' वहीं गुलबीर सिंह और स्वयंसेवकों की उनकी टीम के द्वारा सुरक्षा एवं सभी तरह की अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के आश्वासन के बावजूद अनेक लोग उस सदमें से उभर नहीं पाए हैं जो भयानक दृश्य उन्होंने रास्ते में देखे। 42 साल के सुरेन्द्र कुमार स्वात में लैब टैक्नीशियन थे अपनी कार में परिवार के सदस्यों के साथ जान बचाकर भाग आए।
सुरेन्द्र कुमार कहते हैं, 'हम भाग्यशाली थे जो बच गए लेकिन मेरे पड़ोस में जो हुआ वो बहुत दिल दहला देने वाला था। जिन महिलाओं ने कभी घर से बाहर कदम भी नहीं रखा उन्हें ट्रकों में जानवरों की तरह भरकर वहां से निकाला गया।' सुरेन्द्र बताते हैं कि जो जिस तरह वहां से जान बचाकर भाग सकता था भागा। बैलगाड़ी में, साइकिल पर और पैदल हजारों लोग सुरक्षित ठिकाने की तरफ जा रहे थे। एक हृदय विदारक दृश्य के बारे में सुरेन्द्र बताते हैं, 'रास्तें में एक महिला सड़क किनारे ही बच्चे को जन्म दे रही थी, मैं चाहकर भी उसकी मदद नहीं कर सका, क्योंकि रुकने का मतलब था मौत।'
16 साल की मनीषा जो स्वात में 9वीं कक्षा की छात्रा थी, उन लोगों में से एक है जिन्होंने पैदल ही भागकर अपनी जान बचाई। वह बताती है उनके परिवार के 16 सदस्य रात और दिन पैदल चलते रहे बैठने के लिए साधन तब मिला जब मंजिल करीब आ चुकी थी। रास्ते में चारों तरफ सेना के जलते हुए ट्रक देखे ऐसा लगता कि जिन्दगी शायद ही बच जाए। अपनी खतरनाक यात्रा के उस दर्दनाक घटना को बयान करते हुए उसकी आवाज भारी हो जाती है, 'मैंने एक महिला को देखा जो 2 दिन से अपने 15 दिन के शिशु के शव को छाती से लगाए हुए थी। उसके पास अपने जिगर के टुकड़े के अंतिम संस्कार के लिए भी उचित समय नहीं था।'
श्री पंजा साहिब गुरुद्वारे में ऐसी अनेक महिलाएं मिली जिन्हें रात में नींद नहीं आती थी, सारी रात उनकी आंखों में खौफ के मंजर तैरते रहते हैं। बुनैर की रहने वाली महविश कौर 5 माह की गर्भवती है। वह अपने गांव वापस जाना चाहती है। वह चाहती है कि उसका बच्चा गांव में ही पैदा हो। महविश बताती है, मैंने अपने होने वाले बच्चे के लिए छोटे-छोटे कपड़े बनाए थे, लेकिन जान बचाने की आपा-धापी में सब कुछ वहीं छूट गया। महविश अब अपने बच्चे की डिलीवरी के लिए चिंतित है वह कहती है, 'इन हालात में हम घर नहीं जा सकते और मुझे अपने बच्चे को यहीं जन्म देना होगा। डाक्टर कहता है कि 10,000 रूपये का खर्चा आएगा और मैं इतने रूपये कहां से लाऊं।' वह गुस्से में कहती है, डाक्टर भी इतने बेरहम हो सकते हैं उसने सोचा भी नहीं था, जबकि वे अच्छी तरह जानते हैं कि हमारे पास कपड़ों के सिवा कुछ भी नहीं है।
इन सारी हालात की परेशानियों के बीच यहां रह रहे शरणार्थी ये अच्छी तरह जानते हैं कि फिलहाल गुरुद्वारा ही उनका घर है। बेहतर होगा कि खुद को व्यस्त रखें और जितनी हो सकती है सेवा करें। महिलाएं सब्जी बनाने में सफाई की सेवा में लगी रहती हैं तो पुरूष भी सब्जी कटवाने से लेकर गुरूद्वारे की सफाई में पूरा हाथ बटाते हैं। सईदुल शरीफ गर्वनमैंट स्कूल की 12वीं कक्षा की छात्रा सुनीता रामदास सेवा के लिए हैं, 'सेवा से ईश्वर खुश होता है।'
शरणार्थी सौरन सिंह बताते हैं, हम सभी पुरूष मिलकर गुरूद्वारे के वातावरण को अच्छा रखने की कोशिश करते हैं। खाना पकाने, परोसने से लेकर तालाब की सफाई तक सभी कामों में बढ़-चढ़कर लगे रहते हैं। छोटे-बच्चों की पढ़ाई का इंतजाम भी गुरूद्वारे में ही किया गया है, लेकिन इंजीनियरिंग, मेडिकल और प्रबंधन की पढ़ाई कर रहे छात्रों का क्या करें, उनका तो कैरियर खराब हो रहा है। गुरूद्वारे में शरणार्थी के तौर पर रह रहे सैकड़ों परिवार इस बात को लेकर खुश हैं कि उनकी जान बच गई लेकिन भविष्य क्या होगा? इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है और जल्द हालात सुधरने की उम्मीद में अंखभर रह- रह कर आसमान की तरफ देखती रहती हैं। (विमेन्स फीचर सर्विस)

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