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Mar 21, 2009

हिन्दी में मनहूस रहने की परंपरा


बीसवीं सदी में हिंदी व्यंग्य की समृद्ध परंपरा रही है जिसे अंतिम और निर्णायक रूप से परसाई युग माना गया। इस बीते युग ने हिंदी व्यंग्य की जो पुख्ता जमीन तैयार की है उस जमीन पर खड़े रहना भी बाद की पीढ़ी के व्यंग्य लेखकों के लिए एक बड़ी चुनौती है। आज जब इक्कीसवी सदी का एक दशक निकलने को है तब आज के सक्रिय व्यंग्यकारों के लिए लिखने का मतलब है अपनी दमदार पुरखौती के सामने खड़े होना। कविता की ही तरह यह विकट चुनौती व्यंग्य लिखने वालों के सामने भी है। कुछ इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर व्यंग्य का यह स्तंभ '21 वीं सदी के व्यंग्यकारÓ शुरु किया जा रहा है जिसमें हम आज के सक्रिय व्यंग्य कर्मियों को लगातार छापने के बहाने व्यंग्य की आगे की संभावनाओं को तलाशने का भी यत्न करेंगे। हर लेखक की रचना हमें चर्चित व्यंग्यकार विनोद साव के सौजन्य से प्राप्त होगी, माकूल टिप्पड़ी के साथ। इस पहली कड़ी की शुरुआत हम ज्ञान चतुर्वेदी के व्यंग्य से कर रहे हैं।

ज्ञान चतुर्वेदी व्यंग्य साहित्य में पिछले दो दशकों से सक्रिय हैं। हिंदी व्यंग्यकारों की भीड़ में ज्ञान का लेकन तकरीबन 'ए फेस एबव द काउड' की तरह है। हिंदी व्यंग्य अपनी विरासत को और कितना समृद्ध कर पाया है यह चर्चा बाद में होगी पर प्रकाशन की दृष्टि से ज्ञान चतुर्वेदी समृद्ध हुए हैं और फिलहाल पत्र-पत्रिकाओं में छाए हुए हैं। इसमें संदेह नहीं कि ज्ञान ने बगैर आलोचकों के समर्थन के अपनी जमीन को खुद पुख्ता किया है। कथ्य, भाषा और शैली के स्तर पर भी वे एक प्रयोगधर्मी लेखक बनकर उभरे हैं। उनकी भाषा में एक खास किसम का दरदरापन है। लगता है वे बिगड़ी हुई शक्तियों पर बघनखा पहनकर मार करना चाहते हैं, वह भी उनकी छाती पर सवार होकर बघनखे से उनकी छाती खुरचते हुए। उनका यही निजी और मौलिक दरदरापन उन्हें अपने समय के लेखकों से अलग खड़ा करता है, उन्हें अपनी ज्यादा प्रभावकारी मुद्रा में। व्यंग्य लिखते समय उनमें एक खास किसम की मस्ती भी होती है, उनकी इसी मस्ती से भरी हुई एक रचना 'हिंदी में मनहूस रहने की परंपरा' यहां प्रस्तुत हैं।

हिन्दी में मनहूस रहने की परंपरा

                                                                                           -ज्ञान चतुर्वेदी

हिंदी साहित्य में गंभीर रहने पर विकट जोर है। साहित्य के स्तर से ज्यादा जोर मनहूसियत की मात्रा पर। आप अच्छा साहित्य रचें और ज्यों-ज्यों अच्छा रचते जायें, त्यों-त्यों और गंभीर होते चले जायें- हिंदी में यह अलिखित नियम-सा है। और बाकायदा इसे माना तथा सराहा जाता है। धीरे-धीरे हुआ यह है कि यह नियम इस कदर हिंदी साहित्य जगत पर काले कानून की तरह छा गया है कि सारा जोर गंभीर रहने पर हो गया है, साहित्य रचना प्रासंगिक नहीं रहा। आप रचें, न रचें या जैसा रचना हो रचें। बहुत से लोग यहां मात्र इसी कारण से बड़े पाये के साहित्यकार कहलाये जाने लगे क्योंकि उनमें गंभीरता कूट-कूटकर भरी थी। वे बचपन से ही मनहूसियत के शिकार थे, उदास रहते थे, झोले जैसा लम्बा- सा मुंह लटकाये घूमते थे, गोष्ठियों में यूं जाते थे, मानों किसी के उठावने पर पहुंचे हों- बस, इन्हीं कारणों से वे हिंदी के ख्यातनाम साहित्यकार हुए।

हिंदी साहित्यकार का एक विशिष्ट पोज है। आप हिंदी की किताबें उठाकर देखिये, यदि उसमें लेखक का फोटो छपा होगा, तो आप उसे देखकर मेरी बात समझ पायेंगे। हर लेखक मनहूसियत की सीमा तक गंभीर। वह न जाने कहां देख रहा है तथा न जाने क्या सोच रहा है - पर सोचते हुए नितांत गंभीर हैं, सो कोई ऊंची बात ही सोच रहा होगा, ऐसा जतला रहा है वह। हिंदी में मनहूसियत को ऊंचे चिंतन की निशानी मान लिया गया है। एक जमाने में हिंदी साहित्याकारों, विशेषतौर पर कवियों के बीच फोटो खिंचवाने का एक पोज बड़ा लोकप्रिय हुआ करता था, जिसमें वे अपनी ठुड्डी के नीचे हाथ के पंजे का सहारा देकर उदास आंखों से उस ओर देखकर फोटो खिंचाते थे, जिस ओर प्राय: फोटोग्राफर के स्टूडियो में कंघा-शीशा लटका रहता है। छायावादी कवियों में तो खैर यह अत्यंत लोकप्रिय पोज हुआ करता था, पर बाद के बहुत से प्रगतिशील मित्रों ने भी ऐसे गंभीर फोटो खिंचवाये और कविता, कहानी आदि के साथ छपवाये। अच्छी रचना के साथ ऐसा फोटो आम पाठक पर एक रुआब-सा छांटता, उसे थानेदारी अंदाज में धमकाया हुआ आगाह करता था कि बेट्टा, हमें अपने जैसा आम आदमी मत समझ लेना। लेखक एक विशिष्ट जन है, यह सिद्ध करने के लिए ऐसे फोटो काफी थे। वैसे हाथ पर ठुड्डी रखकर कितनी देर ठीक-ठाक चिंतन किया जा सकता है, यह अपने आप में चिंता का विषय हो सकता है। मैंने तो रखकर देखा। पहले तो ठुड्डी पर उगी दाढ़ी के पैने बाल ही गडऩे लगे, और सारा ध्यान उस तरफ ही चला गया। फिर हाथ दर्द करने लगा। फिर भी मैंने गंभीर चिंतन की जी-तोड़ कोशिश जारी रखी, तो गर्दन टेढ़ी होने लगी। एकमात्र गंभीर या जैसा भी कहिये वैसा विचार जो इस प्रकार बैठकर मेरे मन में आया, वह यही था कि यार कब तक ऐसा बना बैठा रहेगा तू- ठीक से क्यों नहीं बैठता? और यह रोना मुंह क्या बनाये हैं तू?

बाप मर गया क्या? बात क्या है? उदास क्यों है? यह गंभीरता का क्या चक्कर है? तो मेरे से तो नहीं सधा। पर मैंने देखे हैं ऐसे हिन्दी के पुरोधा, जो घंटों ऐसे ही पोज में बैठे-बैठे पुरी गोष्ठी निकाल देते हैं। वे न केवल ऐसी सायास मनहूसियत ओढ़ते हैं, वरन लगातार चौतरफा देखते रहते हैं कि आस-पास वाजिब असर हो रहा है या नहीं? और असर होता भी है। हिन्दी साहित्य में यह नुस्खा अचूक है। असर होता ही है। लोग दूर से हाथ पर टिकी ठुड्डी या घुटनों तक लटक आये मुंह को देखकर ही बता सकते हैं कि इस गोष्ठी में कौन कितना बड़ा साहित्यकार है। यूं भी ऐसी मुद्रा साधना आसान नहीं है। मेहनत तथा साधना लगती है। शुरु-शुरु में आप कुछ मिनटों तक ही ऐसा कर पाते हैं और थोड़ी देर बाद अपनी औकात अर्थात् ही-ही, ठी-ठी पर आ जाते हैं। पर ज्यों-ज्यों हिन्दी साहित्य में गहरे धंसते हैं, त्यों-त्यों आप इसे लम्बे समय तक प्राणायाम की भांति खींचना सीख जाते हैं। धीरे-धीरे आप पूरी गोष्ठी या सामारोह ही इसी मनहूसियत के साथ सफलतापूर्वक निकाल ले जाना सीख जाते है। फिर एक दिन वह भी आता है कि आपको मनहूसियत में ही मजा आने लगता है। तब आप हिन्दी साहित्य के साथ सफलतापूर्वक निकाल ले जाना सीख जाते हैं। फिर एक दिन वह भी आता है कि आपको मनहूसियत में ही मजा आने लगता है। तब आप हिंदी साहित्य की एक अनिवार्य शर्त वह भी मानने लगते हैं कि आपको मनहूस होना ही होगा। साहित्य रचने और गंभीर रहने के बीच सीधा तार जोड़ लेते हैं आप। आपको डर लगने लगता है कि गंभीर नहीं रहे तो अच्छा साहित्य नहीं रच पायेंगे आप, या आपके रचे साहित्य को शायद कोई गंभीरता से लेगा नहीं। पहले आप गोष्ठियों, सार्वजनिक स्थानों तथा लोगों के सामने ही गंभीर रहते हैं ताकि लोग आपको अच्छा हिंदी लेखक मानें, परंतु फिर यह आपकी आदत हो जाती है। आप पूरे मनहूस हो जाते हैं और यही कारण है कि हिंदी साहित्यकारों की पत्नियां प्राय: हिन्दी साहित्य के विरुद्ध हैं, जिसने उनके अच्छे खासे पति को ऐसा मातमी बना दिया।

हिन्दी लेखकों के परिचय में प्राय: कहा जाता है कि अमुकजी हिन्दी कहानी के (या कविता या नाटक या जिस भी विधा के फटे में वे अपनी डेढ़ टांग फंसाये बैठे हो, उसके) गंभीर प्रणेता हैं। कैसे हैं वे? बड़े गंभीर हैं वे। वे गंभीरतापूर्वक कहानी लिख रहे हैं, सो महान हैं। उनका फोटो देखकर बच्चे मां से चिपक जाते हैं और मां 'उई मां' करने लगती है। वे जो अभी गोष्ठी में पधारे, वे जो अभी कॉफी हाउस से निकले, वे जो अभी मुख्यमंत्री के बंगले में अपनी किताब की सरकारी खरीद का डौल जमाकर बाहर आये, वे जो अभी चोरी की रचना को फेरबदल कर अपनी बनाकर डाक के बंबे में डालकर पान की दुकान पर खड़े हुए, वे जो अपने समकालीन लेखक की अच्छी रचना पढ़कर जल-भुन गये और उसकी टांग खींचने के लिए कूच कर रहे हैं, वे जो अपना सारा कचरा समेटकर ग्रंथावली के कचरेदान में डालने ले जा रहे हैं, वे जो पुरस्कारों के शिकार पर निकले हैं, वे जो उस कमेटी की बैठक से निकलकर इस कमेटी में बैठे ऊंघ रहे हैं, वे जो कस्बा-कस्बा हिंदी कहानी-कविता आदि की दुर्दशा का रोना फस्र्ट क्लास का किराया वसूलते तथा चेला-चांटी पनपाते रोते घूम रहे हैं, वे जो हिंदी साहित्य के उदीयमान हैं, वे जो हिंदी साहित्य में मात्र शौकीन तबीयत के कारण घुसे हैं और इसे ताशपत्ती की भांति मानते हैं, वे जो तुकबंद हैं, वे जो अपनी उसी कहानी-कविता या व्यंग्य को अपने चार अलग-अलग संकलनों में डालकर किताबों का ढेर तैयार कर रहे हैं, वे जो जहां-जहां भी जैसी भी 'हिंदी कर रहे हैं'- वे तथा ये, इन सबमें एक ही बात समान है कि ये सभी गंभीर हैं। हिंदी में तो भई, जो करना, गंभीर होकर करना। कुछ नहीं भी करना, तो गंभीर होकर ही करना। बिना महसूस दिखे हिंदी में गुजारा नहीं। बड़ा सरल-सा सिंद्दात है। मुंह लटकाइये और रुआंसे होकर हिंदी साहित्य के दरवाजे की घंटी बजाइये। वे झांकेंगे और मनहूसियत नापने का फीता आपके लटके मुंह पर लगाकर नापेंगे, फिर मुस्कराकर कहेंगे कि आइये, हिंदी साहित्य में पधारिये। बस, यही एक दुर्लभ क्षण होगा, जब वे मुस्करायेंगे। वरना तो एक सतत स्यापा है, जो हिन्दी साहित्यकारों के बीच चल रहा है।

ए-40, अलकापुरी, भोपाल- 462024

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