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Jan 1, 2025

कविताः अंतराल

 -  भावना सक्सैना 



एक स्मृति की खोह है 

काली अँधेरी- सी कहीं 

मैं निकल आई हूँ उससे 

खींचती फिर वो वहीं…

 

कुछ अधूरे पन्ने हैं 

जिन पर लिखा जाता नहीं 

है कलम अब मौन प्रतिपल 

स्याही भी सूखी हुई- सी। 

 

गीत कुछ भूले हुए से 

मन की तह को टोहते 

विस्मृत किसी कंदरा से

स्वर उभरते वेदना के 

 

कैसे लौटूँ उस जगह 

दर जहाँ अब है नहीं 

लौटने का अर्थ होगा 

छोड़ना फिर खोह नई  


भूलना वह सब भी जो 

राहें सिखाती चल रहीं 

जो वहाँ से थी चली 

वो तो अब हूँ भी नहीं। 

 

समय रथ के पहिए संग 

विवर फैलते रहे 

विगत और वर्तमान को

कोई कैसे लेकर संग चले

 

मन ये अक्सर सोचता है  

कुछ नहीं अब है वहाँ 

कोई स्वर दबा फिर पूछता 

क्या सच में सब चुक गया?


अब वहाँ चेहरे हैं जो 

समय के सब चिह्न लिये 

पहचानते मुझको नहीं 

ज्यों अजनबी उनके लिए 

 

बरसों की इस राह ने 

बदला मुझे बदला उन्हें 

चली थी जो वहाँ से 

वो तो अब मैं हूँ नहीं। 

 

बरसों के अंतराल 

पाटने सरल नहीं 

फिर भी नित गहरे भीतर 

आस तो पलती रही। 

 


आस की कश्ती पकड़

चल समय संग बहते रहें 

कौन जाने कब कहाँ 

बिछुड़े हुए आकर मिलें।


2 comments:

  1. Anonymous06 January

    कौन जाने कब कहाँ
    बिछड़े हुए आकर मिलेंं। बहुत सुंदर भाव, बेहतरीन कविता । हार्दिक बधाई। सुदर्शन रत्नाकर ।

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    1. Anonymous13 January

      बहुत धन्यवाद दीदी।

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