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Sep 1, 2024

कविताः अब विवश शब्द


 - डॉ. कविता भट्ट

जीवन की वर्षा में

पुष्पित-पल्लवित

भीजते, घुलते- धुलते

मेरे शब्द - होने को थे

अक्षरश: रूपांतरित

इक मधुर गीत में;

उसी क्षण आकाश में

चमकी विद्युत-तरंगें

किसी षड्यन्त्र जैसे

प्रबल मारक तंत्र जैसे

वज्रपात हुआ गीत पर

हुआ गीत परिवर्तित

दुःखांतिका कविता में

अब विवश शब्द

वर्षा में खड़े रहने का

साहस नहीं करते।

विलाप, विराग, विछोह..

क्षणभंगुर संसार में

व्याकुल रागिनियाँ

दासियों के जैसे

हाथ बाँधे खड़ी हैं -

यही सोच मानकर

संभवत: यह विधाता का

अंतिम अन्याय हो।

लेकिन अनंतिम दुःख में

कोई भी अन्याय

अंतिम कैसे हो सकता है?

यह प्रश्न पंक्तिबद्ध हो

जिज्ञासाएँ निरंतर पूछ रही हैं?

नियति समझ नहीं पा रही

कि उत्तर क्या दिया जाए?


3 comments:

  1. शब्दों का सुंदर मानवीकरण। भावपूर्ण कविता जो मन को सहसा छू जाती है। बधाई डॉ कविता

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  2. बहुत सुंदर, भावपूर्ण, हृदयस्पर्शी कविता।
    हार्दिक बधाई आदरणीया दीदी

    सादर

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  3. Anonymous04 September

    शब्द, शब्द न होकर हृदय के स्पंदन से उपजे भाव, कविता में ढलकर मर्मस्पर्शी हो गए । बहुत सुंदर ।हार्दिक बधाई कविता जी।सुदर्शन रत्नाकर

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