- विजय जोशी
- पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक, भेल, भोपाल (म. प्र.)
धरती पर आदमी का पदार्पण ईश्वर प्रदत्त समस्त सुख, सुविधा, संसाधन के साथ होता है एक निश्चित कर्तव्य बोध के साथ, जिसमें सहायक हैं बुद्धि, विद्या, विवेक की थाती। अब संपादन के भी दो अवयव हैं। पहला शरीर जिसे आप हार्डवेयर कह सकते हैं और दूसरा अंतस या आत्मा जिसे आप सॉफ्टवेयर कहा जा सकता है। अंतस कभी झूठ नहीं बोलता और दुविधा के पलों में हमें विवेकयुक्त सही सटीक परामर्श प्रदान करता है। पर बाहरी चकाचौंध से ग्रस्त आदमी क्षुद्र स्वार्थवश उसे अनसुना कर देता है। कहा भी गया है आदमी सबसे तो मिल सकता है, लेकिन अपने भीतर झाँकने से डरता है। यही है समाज में भले बुरे का वर्गीकरण।
एक बार भगवान विष्णु स्वरचित सृष्टि को परखने जब पृथ्वी पर जाने लगे तो लक्ष्मी ने उन्हें यह कहकर रोकने का प्रयास किया कि मनुष्य यदि धूर्त न निकलें तो ही लौटना अन्यथा उनके बीच ही रह जाना।
धरतीवासियों ने जब सुना कि विष्णु स्वयं पधार रहे हैं तो उनके आगमन पूर्व ही अपार भीड़ एकत्रित हो गई और उनके पदार्पण पर धर्म कर्म पालन के प्रश्नों के बजाय खुद की मनोकामना पूर्ति हेतु आग्रह करने लगे।
पुरुषों की इस लोभ लिप्सा से त्रस्त विष्णु ने बद्रीनाथ पर्वत की ओर प्रस्थान कर दिया लेकिन लोग वहाँ भी पहुँच गए तो वे दुखी होकर समुद्र मध्य द्वारिका में जाकर अदृश्य रूप से स्थापित हो गए; किंतु लज्जावश लक्ष्मीजी के पास नहीं लौटे।
फिर चिंतित होकर उन्होंने महर्षि नारद से पूछा : ये कैसे लोग हैं, , जो केवल लालच की रट लगाते रहते हैं और कर्तव्य पालन की उपेक्षा। इसलिए कोई ऐसी जगह बताओ जहाँ मैं चैन से रह सकूँ।
और फिर नारद ने , जो उत्तर दिया वह अद्भुत था : आप मनुष्य के हृदय में बस जाइए। , जो बहिर्मुखी, स्वार्थी होंगे उनकी दृष्टि भीतर तक न पहुँचेगी और , जो विवेकी तथा आत्मदर्शी होंगे वे आपको तुरंत ढूँढ लेंगे।
तब से ईश्वर मनुष्य के मन में ही समाए हुए हैं, पर अंदर झाँकने की फुर्सत ही किसे है।
मित्रों यही है वह मूलमंत्र जिसकी व्याख्या महात्मा गांधी ने की थी कि दुविधा के पलों में यदि हम इधर- उधर की बजाय केवल अपने अंदर ही झाँक सकें तो उत्तर अपने आप मानस पटल पर उभर जाएगा। पर उसके लिए चाहिए शुद्ध, निर्मल मन और सोच-
बाहर की तू माटी फाँके,
भीतर मनवा क्यों ना झाँके।
■
देवेंद्र जोशी
ReplyDeleteअंतस एवं बाह्य दृष्टि, बहुत सुन्दर विश्लेषणl दृष्टांत, लोगों को अंतरात्मा की आवाज सुनने के लिए अवश्य ही प्रेरित करेगाl
ReplyDeleteNice article. Rightly teaches that Every one should introspect.
ReplyDeleteMukesh Shrivastava
Dear Bhai Mukesh, Thanks very very much. Regards
Deleteएकदम सटीक सर। हर एक आत्मा में परमात्मा स्थित हैं। इसे ही हम हृदय रूपी आवास भी कह सकते हैं।
ReplyDeleteनिशीथ खरे
प्रिय भाई निशीथ,
Deleteसही कहा आपने आत्मा में ही तो निवास करते हैं परमात्मा। हार्दिक आभार सहित
अति सुंदर यह गूढ़ रहस्य आज ही मालूम पड़ा | हार्दिक धन्यवाद इस अदभुत जानकारी साझा करने के लिए
ReplyDeleteप्रिय किशोर भाई,
Deleteईश्वर का निवास तक आदमी के हृदय में ही है, पर उसे वह ढूंढता है इसके अलावा हर जगह। हार्दिक आभार सादर
अति सुन्दर
ReplyDeleteहार्दिक आभार मित्र
Deleteप्रेरणा देने वाला लेख 🎻
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय रामेश्वर जी। सादर
Deleteअति सुन्दर व सटीक विश्लेषण। काश मनुष्य ईश्वर को बाह्य जगत में न ढूंढ़कर अपने अन्तर्मन में झांक लेता। इतनी गूढ़ बात आसान शब्दों में व्यक्त करना आपकी लेखनी द्वारा ही सम्भव है।
ReplyDelete-वी.बी.सिंह,लखनऊ
आदरणीय सिंह से.
Deleteआत्मा में ही है परमात्मा इतना छोटा तथ्य सब जानते हैं, पर सुनकर भी अनसुना कर देते हैं। यही त्रासदी है। हार्दिक आभार सहित सादर
पिताश्री बहुत ही सरल और स्पष्ट में समझाया 🙏सादर नमस्कार पिताश्री 🙏
ReplyDeleteप्रिय हेमंत, हार्दिक आभार। सस्नेह
DeleteWah wah..satik vishleshan.
ReplyDeleteBura Jo dekhan mai chala...Bahar ki Dunia ki sab khabar Rakhte h ..apne andar koi nhi dekhta..
Kasturi ko dhundhne mrig doudta rhta h..waise ishwar ko vyakti bahar khojta rhta hai.. badhiya udahran ke sath batata respected sir 🙏
Dear Rajnikant,
Deleteanswerability is always inside, but we are afraid to face inner self. That's the problem. Thanks very much.
आदरणीय सर,
ReplyDeleteबहुत ही सटीक विश्लेषण किया है आपने, १००% अनुकरणीय । कबीरदास जी ने भी इसी संदर्भ में निम्न पंक्तियां लिखी है
मोको कहाँ ढूंढें बन्दे, मैं तो तेरे पास में ।
ना तीरथ में ना मूरत में, ना एकांत निवास में ।
ना मंदिर में, ना मस्जिद में, ना काबे कैलाश में ॥
ना मैं जप में, ना मैं तप में, ना मैं व्रत उपास में ।
ना मैं क्रिया क्रम में रहता, ना ही योग संन्यास में ॥
नहीं प्राण में नहीं पिंड में, ना ब्राह्माण्ड आकाश में ।
ना मैं त्रिकुटी भवर में, सब स्वांसो के स्वास में ॥
खोजी होए तुरत मिल जाऊं एक पल की ही तलाश में ।
कहे कबीर सुनो भाई साधो, मैं तो हूँ विश्वास में ॥
प्रिय शरद,
ReplyDeleteबहुत सुंदर सार्थक एवं सटीक संदेश। पर हम में से खोज कितने पाते हैं, यह विचारणीय विषय है। हार्दिक आभार। सस्नेह
मन दर्पण से भले बुरे का ग्यान स्वतः ही होता रहता है। पर विडंबना यह है कि हम उसकी उपेक्षा करके बुद्धि को प्रधानता दे बैठते है। आप ने कथा के माध्यम से मानव को सचेत किया है कि वो मोती पाने जग मे आया है न कि सीप से मन बहलाने। सादर ...
ReplyDeleteराजेश भाई,
Deleteबुद्धि पर माया छा कर उसे भ्रष्ट कर देती है। मोती के लिए तो अंतस में उतरना ही होगा। हार्दिक आभार सहित सादर
सर,
ReplyDeleteअति उत्तम लेख।
"अंतस कभी झूठ नहीं बोलता और दुविधा के पलों में हमें विवेकयुक्त सही सटीक परामर्श प्रदान करता है।"
प्रिय महेश, आप बहुत सज्जन एवं सरल हैं। हार्दिक आभार सहित सस्नेह
ReplyDeleteबिल्कुल कस्तूरी के मृग की तरह
ReplyDeleteप्रिय विजेंद्र, हार्दिक आभार।
Deleteअति उत्तम एवम् सरल ज्ञान है सर
ReplyDeleteप्रिय नरेंद्र,
Deleteभोपाल की शान हो और अब हरिद्वार को रोशन कर रहे हो। कितने गर्व की बात। सधन्यवाद। सस्नेह
excellent description and reasoning, why one should travel his or her own inside.
ReplyDeleteDear Vivek, nice to see you here. Thanks very very much.
ReplyDeleteअत्यंत ही सार्थक और प्रेरणादायक
ReplyDeleteD C Bhavsar