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Sep 1, 2022

जीवन दर्शनः मानव जीवन: एक अनसुलझी पहेली

 -विजय जोशी
(पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक, भेल, भोपाल (म. प्र.)

ले आया भेद चाँद का अपना  न पा सका

यह आदमी के साथ बड़ा हादसा हुआ

आदमी का जीवन एक अनसुलझी पहेली के समान है। ख़ासतौर पर इसलिए कि हमारे जीवन में संयोगवश प्राप्त चीजों का महत्त्व मर्जी से प्राप्त चीजों के मुकाबले कई गुना अधिक होती है। यश किसी हद तक विचित्र, किंतु सत्य है। इसलिये आइये आज हम नज़र डालें उन पहलुओं की ओर जिन पर हमारा कोई बस नहीं था और वे जीवन में हमें संयोगवश मिलीं जैसे :

1. धर्म या विश्वास: जिसे लेकर हम उन्मादी और आक्रामक हो जाते हैं।

2.  जन्म स्थान: यदि कोई गलती से भी इसकी निंदा कर दे, तो हम झगड़े पर आमादा हो जाते हैं।

3. माता पिता: हम इन्हें असीमित प्यार करते हैं और इनकी आलोचना कतई पसंद नहीं करते।

4. देश: देश हमारा कितना भी पिछड़ा क्यों न हो, हमारे संपन्न प्रवासी मित्र भी विकल्प मिलने पर अपनी धरती से ही अंतिम यात्रा करना पसंद करेंगे।

5.  हमारा जेंडर: स्त्री या पुरुष अपना अगला जन्म भी हम उसी रूप में प्राप्त करना चाहेंगे। विकल्प दिये जाने पर भी अपना विचार या इच्छा नहीं बदलेंगे।

6. हमारे रिश्तेदार: ये हमें अन्य की तुलना में कहीं अधिक प्रिय होते हैं और दिल के बेहद नज़दीक लगते हैं।

7. खुद का व्यक्तित्व: और अंत में हमारा अपना व्यक्तित्व यानी चेहरा, रंग रूप इत्यादि। हम स्वयं को ही श्रेष्ठ मानते हुए खुद से ही सर्वाधिक प्रेम करते हैं। किसी हद तक आत्ममुग्ध भी।

आइये अब इन सबकी तुलना में स्वयं द्वारा अर्जित विशेषताओं पर गौर करें  हमारी अपनी नौकरी, पेशा या व्यवसाय या फिर मनमर्जी से चुनी गई पत्नी। आप खुद ही देख लीजिए क्या आप इन्हें भी उतना ही महत्त्व देते हैं, जो संयोगवश प्राप्त अवयवों को को देते हैं। आपका उत्तर नहीं में होगा। यही तो हमारे जीवन की विडंबना है। जो चीजें हमारे जीवन की सार्थकता सिद्ध करते हुए, उसे सफल बनाती हैं या बना सकती हैं, हम उन पर वांछित या समुचित ध्यान  नहीं देते, जबकि हमारे जीवन में उनका योगदान सर्वाधिक होता है। यह सब जानते हुए भी हम इनसे न्याय नहीं करते। यह हमारी कृतघ्नता का सूचक है।

8.  एक अवयव ईश्वर भी:  इनके अतिरिक्त और सर्वोपरि एक अवयव ईश्वर भी है जिसने हमें काया प्रदान की कुछ अच्छा और सच्चा करने के लिए, ताकि हम धरती पर अपने आगमन की सार्थकता सिद्ध कर सकें। पर अपनी जिम्मेदारियों से सर्वथा विमुख, हम उसे भी केवल दुख या संकट के पलों में ही याद करते हैं। समझ भी हमारी और सोच भी हमारा। इस अदालत में हम खुद ही कठघरे में हैं और खुद ही न्यायाधीश भी। इसलिए आइए। आगे का मार्ग हम खुद ही तय करें।

सलीका ही नहीं उसे महसूस करने का

जो कहता है कि ख़ुदा है तो दिखाई देना जरूरी है

सम्पर्क: 8/ सेक्टर-2, शांति निकेतन (चेतक सेतु के पास), भोपाल-462023,

 मो. 09826042641, E-mail- v.joshi415@gmail.com

35 comments:

  1. देवेन्द्र जोशी02 September

    संयोग वश मिली हो या परिश्रम से, दोनों का ही जीवन में बराबर का ही महत्व है। संयोग से प्राप्त चीजों से हमारा बचपन जुड़ा होता है इसलिए लगाव स्वाभाविक है। परिश्रम से प्राप्त चीजों का लगाव इस पर निर्भर करता है कि हम उससे कितने संतुष्ट हैं। हर बार की तरह इस बार भी आपने एक महत्वपूर्ण विषय उठाया है। यह लोगों को अवश्य ही सोचने पर विवश करेगा।

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  2. आदरणीय, हार्दिक आभार
    सही कहा आपने. जब आए संतोष धन सब धन धूरी समान. यह कम से कम स्वयं अर्जित संबंधों पर तो प्राप्त होना ही चाहिए. पर मन की चंचला प्रवृत्ति इसमें सबसे बड़ी बाधक है.
    हर बार की तरह इस बार भी आपकी प्रथम पूज्य गणेशी प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार सहित सादर

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  3. Anonymous05 September

    हमे स्वम को महसूस करना चाहिए, खुद से बात करनीं चाहिए!

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    1. Anonymous05 September

      हार्दिक आभार मित्र

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  4. Anonymous05 September

    सर, बहुत सुंदर लेख

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    1. हार्दिक आभार मित्र

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  5. Anonymous05 September

    सत्य एवं सटीक आकलन । जीवन के गूढ़ विषयों की सुंदर व्याख्या

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  6. हार्दिक आभार मित्र

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  7. Anonymous05 September

    Excellent

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  8. Anonymous05 September

    Absolutely correct analysis. We remember God when we are in distress...Vandana

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  9. You are absolutely correct. Dukh me sumiran sab kare. Thanks and regards

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  10. बिल्कुल सही सर।
    दु:ख में सुमिरन सब करें, सुख में करे न कोय।
    जो सुख में सुमिरन करे, तो दुख काहे को होय।।

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    1. आदरणीया,
      बिल्कुल सही कहा आपने.
      सुख की सीमा तो सीमित है, जबकि दुख सीमा से परे आत्मिक एहसास. आत्मनिरीक्षण का अद्भुत अवसर बशर्ते हम अनुभूति को आकार दे सकें.
      हार्दिक आभार सहित सादर

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  11. साधना05 September

    जीवन को समझना, मानना,परखना और जीना
    सभी कुछ अंतर्मन से, चेतना से जुड़ा है‌। आत्मचिंतन और संतुष्टता की सही समझ इस लेख में समायी है ।
    बहुत सुंदर...।

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    1. आदरणीया,
      बहुत सुंदर, सहज, सरल, सटीक एवं सारगर्भित बात कही है आपने.
      पसंदगी के लिये हार्दिक आभार सहित सादर

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  12. आदरणीय,
    आप तो बहुत ही गहरी सोच रखते हैं.
    दृष्टिकोण में सुविधा व दुविधा दोनों की संभावना है. रामायण प्रसंग में तो आपने वाकई नवीनतम दर्शन से साक्षात्कार करवा दिया. दुष्ट व्यक्ति भी सोच समाहित हो सकता है, यह आपके कथन से स्पष्ट है.
    संयोग से प्राप्त स्वयं चयनित से श्रेष्ठ कैसे हो सकता है. यही मेरा विनम्र प्रयास है.
    आपकी पसंदगी व प्रोत्साहन हेतु हार्दिक आभार सहित सादर

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  13. प्रिय शरद,
    मेरे लिये तो यही शोध का विषय है कि साइट की इतनी व्यस्तताओं के बीच कैसे समय निकालकर इतनी गंभीरता से पढ़कर प्रतिक्रिया भी दे देते हो. ऐसे ही पलों में मुझे लगता कि प्रयास व्यर्थ नहीं गया.
    बात तो मानव के चंचल मन के संदर्भ में है.
    - मन तो मौसम सा चंचल है
    - सबका होकर भी न किसी का
    - अभी सुबह का, अभी शाम का
    - अभी विरह का, अभी मिलन का (नीरज)
    इसे सही दिशा में मोड़कर सुख हासिल करने की कला का ही नाम है ज़िंदगी.
    आभार सतही शब्द होगा, सो संपूर्ण स्नेह सहित

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  14. पिताश्री आपने बड़े ही सरल शब्दों में जीवन का महत्व समझाया। हर एक इंसान अनसुलझी पहेली को अन्त तक समझ नहीं पाता है। सादर नमस्कार व चरण स्पर्श।

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  15. प्रिय हेमंत,
    पसंदगी के लिये हार्दिक आभार सहित. सस्नेह

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  16. बहुत ही यथार्थपरक लेख है सर.. हम प्राथमिकता ही तय नहीं कर पाते ताउम्र.. मृग मरीचिका जैसी स्थिति है.. जब हम अस्पताल में या दुःख में होते हैं तो उस समय हमारे साथ असल में कौन है.. पता चलता है.. कटु सत्य है उन्हें हम उतना महत्व व समय नहीं दे पाते जितना कि वे उसके सुपात्र हैं.. बहुत बढ़िया सर..अंत में दुख में सुमिरन सब करे.. सुख में करे न कोई..

    रजनीकान्त चौबे

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    1. प्रिय रजनीकांत,
      कठिन समय की सीख है अच्छे बुरे की पहचान. दुख आदमी को मांजता भी है.
      हार्दिक धन्यवाद सहित. सस्नेह

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  17. संयोग से मिली हुई खुशी भरपूर आनंद की अनुभूति कराती है लेकिन यह अस्थाई रहती है लेकिन स्वयं के परिश्रम से मिली खुशी स्थाई होती है

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    1. बिल्कुल सही कहा आपने. परिश्रम से प्राप्त सुख की सीमा असीमित है. हार्दिक आभार सहित सादर

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  18. Anonymous05 September

    गूढ़ विषय की सुन्दर व्याख्या। पर यह इतना विस्तृत विषय है कि इस पर अनेक लोगों के अलग अलग अनुभव हो सकते है।।

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  19. हार्दिक आभार मित्र.

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  20. राजेश दीक्षित06 September

    संयोग, भाग्य एवं कर्म सब एक ही है।पूर्व जन्म के कर्मो का फल इस जन्म मे हमारा भाग्य है यह बात सतं कहते और भाग्य से प्राप्य संयोग बन कर उदीयमान होता है। अतः सद कर्म हेतु जीवन यापन आपेक्षित है पर पूर्व जन्म कर्मो के कारण रघुराई का वन गमन भी हुआ।बाकी जैसा कर्म करेगा वैसा फल देगा भगवान यही है गीता का भी ग्यान।

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  21. राजेश भाई,
    सही कहा आपने। सब कुछ कर्म फल आधारित है जीवन में। पर यह सत्य एवं तथ्य जानकर भी हम अनजान बने रहते हैं।
    हार्दिक आभार। सादर

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  22. Anonymous08 September

    बहुत सुंदर सारगर्भित लेख

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    1. हार्दिक आभार मित्र

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  23. सर बहुत सार्थक लेखन बहुत शिक्षा दायक आदरणीय संयोग से मिली प्रसन्नता बहुत आंनद दायक होती हे मानव के चंचल मन के बारे मे सुंदर प्रस्तुति

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  24. भाई असलम, सही कहा। दोनों का महत्व है बशर्ते एक सा व्यवहार करें। जीवन में संतुलन बेहद ज़रूरी है। पसंदगी के लिये दिल से धन्यवाद

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  25. आपका लेख पढ़कर एक कहानी याद आई , जिसमें बताया गया है कि हमारी कामयाबी का लाकर दो चाभीयो से खुलता है। एक हमारे परिश्रम की चाभी और दूसरी हमारे लक,या किस्मत या प्रभुकृपा।
    बढ़िया लेख। धन्यवाद।

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  26. आदरणीय,
    हार्दिक आभार। परिश्रम तो हमारे ही हाथ में सो उसमें कोताही कैसे और क्यों। सादर

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  27. Anonymous10 September

    हर एक बात जब मन के भीतर,मस्तिष्क के भीतर सहजता के भीतर,अपनत्व केभीतर से कही जावे तो मानव *भी तर* जाता है बहुत कुछ एसा ही है लेखन मे
    हार्दिक अभिवादन, लेखनी को प्रणाम
    🙂👌🙏

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  28. बहुत ही सुंदर बात कही है मित्र। हार्दिक आभार

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