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Sep 1, 2022

लघुकथाः शबरी के बेर

  - ज्योति जैन    

मेकअप रूम के नाम पर उस अस्त-व्यस्त हॉल में अचानक ही सुगबुगाहट बढ़ने लगी। क्या हुआ…? मास्टरजी की रौबीली आवाज ने सारी आवाजें दबा दी। मास्टरजी…ये पवन जी है…थोड़ा मिमियाता स्वर था। अपनी रामलीला में जो राम बनता है न चन्दू….! इनका छोरा है।

हाँ तो…? मास्टरजी ने पूछा। तो साहेब….पवन ने हाथ जोड़कर कहा…चन्दू तेज बुखार में तप रहा है….आ न सकेगा। बेहोसी…में ही है जानो…।

चल…दफा हो…रौब अब परेशानी में बदल चुका था।

कोई और लाओ फटाफट…तीन घण्टे बचे हैं और आज तो  शबरी वाला सीन है न? ऐसा करो…..शबरी के डायलॉग बढ़ा दो….जैसे-तैसे काम चलाते हैं, तब तक किसी को भी पकड़ लाओ।

चन्द रूपयों का लालच कालू के लिए कम न था। नाम के अनुरूप श्याम वर्णी ही था कालू। वनवासी राम के गेटअप में पहचान ही नहीं आ रहा था। शबरी  के जूठे बेर खाने वाला सीन राम-राम करके पूर्ण हो गया। रामस्वरूप मानकर वृद्धाएँ ढेर आशीष दिए जा रही थीं। अचानक भीड़ में से किसी ने उसे पहचाना….अरे…! ये तो कालू है….वो टंट्ये का छोरा….!

क्या…? मानों सन्नाटा ही खिंच गया।

सम्मान व आशीष देते हाथ और स्वर मंद पड़ गए..  पेचाण में नही आयो यो तो ! रौबीला स्वर फिर उभरा-कोई और नी मिला रे तेरे को….? ये अछूत उठा लाया…..?

अनपढ़ कालू सोच रहा था…अछूत शबरी  के बेर खाने पर सब रामजी की जय-जयकार क्यों कर रहे थे?

5 comments:

  1. साधना05 September

    बहुत सुंदर प्रस्तुति..... एक फूल की चाह (सियाराम शरण गुप्त) की कविता याद आ गई।

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  2. Anonymous26 September

    बहुत सुंदर संदेश देती लघुकथा। बधाई

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  3. Anonymous26 September

    बहुत सुंदर संदेश देती लघुकथा। बधाई। सुदर्शन रत्नाकर

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  4. सशक्त लघुकथा।ज्योति जैन जी को बधाई।

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