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Oct 1, 2022

जीवन दर्शनः गरीबी बनाम अमीरी की इबारत

- विजय जोशी, पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक, भेल, भोपाल (म. प्र.)

अमीरी और गरीबी को परिभाषित करने से पहले आइए हम उस परमपिता को याद करें जिसकी मेहरबानी से हम सब का इस धरती पर आगमन हो सका है अपनी नैसर्गिक तथा क्षमता के साथ। और जिसको अपने अनुसार अपनी प्रतिभा और पराक्रम के दम पर आकार देते हुए हम समाज में अपनी जगह बनाते हैं अलग अलग पायदानों पर। गरीबी और अमीरी की लक्ष्मण रेखा भी हमने खुद ही खींची है। उसकी नज़र में तो सब बराबर हैं। उसकी रेहमत से कोई भूख से नहीं मरा और न ही कोई अपनी अकूत सम्पत्ति अपने साथ ले जा सका आज तक। सब ने गेहूँ की ही रोटी खाई। सोने की कोई नहीं खा सका।

कैरेबियन द्वीप समूह के कुराकोवा द्वीप पर 1888 में घटित एक छोटा सा प्रसंग :

नगर को दो भागों में जोड़ने हेतु एक प्रोग्रेसिव नामक पुल का निर्माण किया गया जिसकी लागत निकाल पाने के लिए टोल टैक्स कुछ इस तरह  प्रस्तावित किया गया कि सब पर एक- सा भार न पड़े। यह लोगों की क्षमतानुसार था अर्थात अमीरों के लिये अधिक व गरीबों के लिये न्यूनतम। और यह इस तरह निर्धारित था कि अमीर चूँकि महँगे जूते पहनते हैं तो उन्हें अधिक तथा नंगे पैर गरीबों के लिये नि:शुल्क। नियम सरल, सुगम, सुविधाजनक, कठिनाई रहित एवं कौशलयुक्त था, लेकिन पूरी तरह असफल हो गया।

  अब आप कारण जानना चाहेंगे। हुआ यूँ कि अमीर तो टैक्स बचाने के लिये अपने जूते उतारकर पुल पार करने लगे तथा गरीब अमीर दिख सकने की चाहत में उधार के जूते लेकर पुल पार करने लगे। अब इसका विश्लेषण करें और प्राप्त सीख देखें तो पाएँगे :

-   गरीबी छुपी हुई होकर भी दृष्टिमान थी।

-    गरीबी मात्र मस्तिष्क की उपज है

-    अमीर कम खर्च करके अमीर बने रहते हैं

-    इसके सर्वथा विपरीत गरीब अधिक खर्च के परिप्रेक्ष्य में गरीब बने रहते हैं

-   इंसानी फितरत तर्कहीन होती है

-    अमीरों को बेहतर वित्तीय सलाह उपलब्ध होती है

-    और अंत में यह कि अमीरों पर टैक्स लगाकर गरीबों की भलाई लगती बड़ी है पर मामला उलझा हुआ सा है

निष्कर्ष : तो एक बार ठंडे दिमाग से सोचिए क्या हम सब भी पैसा उधार लेकर पुल पार करने की प्रक्रिया के हिस्सेदार तो नहीं हैं । और यह बात आज के दौर अर्थात 2022 में भी उतनी ही मौजूं है जितनी तब थी। आदि से अनादि काल तक का सार्थक सत्य।

सम्पर्क: 8/ सेक्टर-2, शांति निकेतन (चेतक सेतु के पास), भोपाल-462023मो. 09826042641, E-mail- v.joshi415@gmail.com

35 comments:

  1. देवेन्द्र जोशी01 October

    आपने गंभीर विषय उठाया है। आजकल दिखावे का प्रचलन कुछ अधिक ही हो गया है। रही टैक्स की बात तो अमीर भी की प्रकार से टैक्स बचाने का प्रयास करते हैं। वैसे मैं भी इस पक्ष में हूं कि सभी पर टैक्स लगाना चाहिए। आपका साधुवाद।

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  2. आदरणीय,
    दिखावे की अंधी दौड़ के मुसाफ़िर कभी मंज़िल तक नहीं पहुंच पाते हैं। यही इस दौर की त्रासदी है। टैक्स तो सब पर लगना ही चाहिये। मुफ्त की चाह पतन का मार्ग है।
    इस बार भी आपकी त्वरित टिप्पणी मेरे लिये मनोबल का मल्टी विटामिन है।
    हार्दिक आभार सहित सादर

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  3. पिताश्री ये एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण और डिबेटेड विषय है जिसपर सब एकमत होना मुश्किल है। अंग्रेजी में एक कहावत है There is no free lunch लेकिन आज अमीर और गरीब अपने अपने तरीके से टैक्स बचाने कि कोशिश करते है। उदाहरण के लिए APL स्वयं को BPL में ही रखना चाहता है जिससे कि उसे सरकार से फायदा हो और BPL को सरकार से सुविधाएं चाहिए। पिताश्री को सादर चरण स्पर्श । धन्यवाद

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    1. प्रिय हेमंत, सही कहा। free beez के चक्कर या लालच में हमारे अपने लोग अकर्मण्यता का सुख भोगते हुए देश को सोमालिया बना देंगे। आगत पीढ़ी को बर्बाद। सौंप देंगे बेहाल हिंदुस्तान। तुम्हारी विनम्रता दिल को छूती है। सस्नेह

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  4. आदरणीय,
    यह भारतीय समाज का यथार्थ है कि दिखावे को सदैव से ही महत्व मिलता रहा है। इसका एक मनोविज्ञान भी है। जिसके पास जो नहीं रहता है वह उसे किसी भी उपाय से पाना चाहता है, भले ही अल्प समय के लिए ही सही। इस प्रकार उसे मानसिक तृप्ति मिलती है। इसके पीछे कोई तर्क या व्यवस्था संबंधी सोच नहीं रहती। जो एक प्रकार से ठीक भी है और गलत भी।
    सम्पन्न वर्ग द्वारा गरीब का शोषण और प्राप्त सुविधाओं का दोहन भी सामाजिक समस्या ही है। यह समस्या वैश्विक है। इसी समस्या ने मजदूर क्रांति का जन्म दिया था। इतिहास और परिणाम सबको पता है।
    मैंने बचपन में एक कहानी सुनी थी। एक राजा ने दूध का तालाब बनाने का निर्णय लिया। एक बड़ा सा तालाब खुदवाया गया। प्रजा को आदेश दिया गया कि सभी लोग रात्रि मेंअपने अपने घर से दूध लाकर इस तालाब में डाल दें। सुबह में वह तालाब पानी से भरा हुआ मिला। कारण सभी ने सोचा कि यदि मैं पानी डाल दूं तो दूध में मिल जाएगा और किसी को पता नहीं चलेगा।
    अब प्रश्न यह उठता है कि लोगों की सोच गलत थीं अथवा राजा का निर्णय?
    दूसरे की सोच पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है परंतु अपने निर्णय पर हमारा नियंत्रण है और होना भी चाहिए। शासन का काम सही निर्णय लेना और प्रशासन का काम उसे समुचित रूप से नियोजित करना है।
    यह तो हुई सामान्य व्यवस्था की बात। इसके दूसरा पक्ष यह है कि समाज में नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा उसके प्रति जागरूकता और आचरण की प्रतिबद्धता। यह धार्मिक अनुष्ठान का अंग है। इस प्रकार समाज को को व्यवस्था और धर्म दोनो की ही आवश्यकता होती है।
    आलेख में इन दोनों पक्षों को बड़े ही सुन्दर तरीके से उठाया गया है।
    बहुत साधुवाद।

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    1. आदरणीय गुप्ता जी,
      आप तो बहुत विद्वान हैं जो साधारण में भी असाधारण खोज लेते हैं। सूर सूर तुलसी शशि, जबकि मैं आपके समक्ष स्वयं को खद्योत सम मानता हूं
      - मोह से मुक्ति ही जीवन की सार्थकता का द्वार है। सांई इतना दीजिये जा में कुटुंब समाय।
      - समाज में जब सब दूध के स्थान पर पानी डालने की मानसिकता के अभ्यस्त हों, वहां तो ईश्वर भी निरुपाय हो जाते हैं।
      - देश, समाज या व्यक्ति मूल्यों को अंगीकार करने पर ही सफल हो सकता है।
      - आप इतने मनोयोग से पढ़कर प्रतिक्रिया (और वह भी मूल से कई गुना ऊपर) देते हैं कि मन गहराई तक कृतज्ञ हो जाता है।
      सो हार्दिक आभार सहित सादर

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    2. सर, आपने सही कहा कि साईं इतना दीजिए। लेकिन आप ने बहुत सारा प्यार उड़ेल दिया। आपका आशीर्वाद बना रहे।
      बहुत बहुत धन्यवाद। आभार।

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  5. Anonymous01 October

    Excellent article

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    1. हार्दिक आभार मित्र

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  6. Rajiv sarna01 October

    Excellent article

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    1. प्रिय भाई राजीव, हार्दिक आभार। सादर

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  7. Anonymous01 October

    I guess that is how the rich get richer and poor get poorer....Vandana

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  8. You are absolutely correct. Resulting in further gap in social system. Thanks very much

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  9. Anonymous01 October

    Bhut shandar aalekh.smaj ko nya drishtikon milega.sadar prnam sir.

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  10. Anonymous01 October

    🌺सादर प्रणाम आदरणीय sir
    सदा की तरह आपकी लेखनी मन को नया दृष्टिकोण दे गई।हमारे समाज की अमीरी गरीबी की गहरी खाई, दिखावे की संस्कृति के तले सिसकता जीवन,दिखावे के बाजारीकरण में उलझते मानवीय मूल्य........
    बहुत कुछ .....
    "चाह गई चिंता गई मनवा बेपरवाह...... की अनुपम पाठशाला।सुख की नई परिभाषा और भी बहुत कुछ।
    सारगर्भित प्रसंगों के उल्लेख से रोचकता बढ़ जाती है।समाज के लिए अनुकरणीय।सादर आभार।
    साधुवाद।🙏🙏माण्डवी सिंह

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  11. आदरणीया,
    शाश्वत सत्य कहा आपने। सरल, सार्थक, सुलझन युक्त जीवन अपनाने के बजाय उलझन पूर्ण दिखावे के जीवन को अपनाकर हम खुद को ही धोखा देते हैं। आपकी सदा से निरंतर प्रवाहित पसंदगी की गंगा ने मेरे मनोबल की नींव को पुख़्ता किया है। सो हार्दिक आभार सहित सादर

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  12. उन घरों में जहाँ मिटटी के घड़े रहते हैं
    कद में छोटे मगर लोग बड़े रहते हैं

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  13. बहुत ही सुंदर संदेश। हार्दिक आभार।

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  14. Anonymous02 October

    सच बात है सर, चादर से बाहर पैर फैलाने की मानसिकता और चकाचौंध से भरे जीवन की लालसा ने लोगों को उधार की ज़िंदगी जीने पर मजबूर कर दिया है।

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  15. बिल्कुल सही कहा आपने. दिखावे की दुनिया.
    हार्दिक आभार सहित सादर

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  16. राजेश दीक्षित02 October

    आपकी सुदर विवेचना हेतु साधुवाद। "दाता एक राम भिखारी सारी दुनिया" एक सटीक विवेचन है और अधिक सम्पन्न से ज्यादा अमीर संतोषी विपन्न है।
    "परम संतोषी महा धनी" माना गया है ।

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    1. राजेश भाई, जब आवे संतोष धन, सब धन धूरी समान। हार्दिक आभार। सादर

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  17. बढ़िया analogy।Good summing up.

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  18. Thanks very very much sir. Kind regards

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  19. Anonymous02 October

    आदरणीय सर, बहुत सुंदर लेख. दिखावे एवं अल्प समय की मानसिक सन्तुष्टि के लिए गरीब व्यक्ति और गरीब ही जाता है. सुन्दर विश्लेषण एवं आत्मसात हेतु सीख.
    सादर

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    1. हार्दिक आभार मित्र। परजन हिताय परजन सुखाय हो मिशन हमारा। सादर

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  20. From Dr SK Agrawal, Gwalior
    H2O ,यानी 2 भाग hydrogen, 1 भाग oxygen, इसी प्रकार त2भ यानी 2 भाग त्याग, 1 भाग, भोग
    इसी सिद्धान्त से जीवन होना चाहिए

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  21. Dear Dr Agrawal, congratulations for inventing a great theory in managing a purposeful life. Kind regards

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  22. गेहूँ की रोटी सबने खाई, सोने की रोटी कोई खा न सका 🙏🏼
    जितनी चादर उतने ही लम्बे पैर फैलाओ.. पर होता उल्टा है.. इसलिए यह खाई बढ़ती है.. बधाई आदरणीय सर 👌🏼👌🏼👌🏼💐💐💐

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  23. प्रिय रजनीकांत, बिल्कुल सही कहा आपने. हार्दिक आभार. सस्नेह

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  24. आदरणीय सर वास्तव मे आपका प्रश्न बहुत सोचनी हे आजकल समाज मे अपनी रिस्पेक्ट के लिये दिखावा बहुत महत्व पूर्ण ओर सुविधा जनक नज़र आता हे मे समझता यह बीमारी मिडिल क्लास मे सब से अधिक हे जिसके कारण जीवन मै बहुत कष्ट वहन करना पडता हे परन्तु झूठा इसटेटस अब अपने ऊपर अनिवार्य कर लिया हे अब इस से उबरना शायद ना मुमकिन हे ऊपर वाला सत्य बुद्धी दे तभी कुछ हो सकता हे बहुत सुंदर लेख सर हार्दिक बधाई

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    1. प्रिय भाई असलम,
      सही कहा। दिखावे की दुनिया के इस दौर के राहजनों ने खुद ब खुद जीवन को मकड़जाल में उलझा लिया है। इसकी सबसे बड़ी कीमत भी मिडिल क्लास ने ही चुकाई भी है। गौर से पढ़कर लिखने के लिए हार्दिक आभार।

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  25. Sorabh khurana07 October

    Absolutely true sir....

    Those who are rich, has no reason to waste resources in show-off.

    However, poor people gets more poor in show-off.

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  26. Dear Sourabh, You have nicely summed up the whole substance. Thanks very much

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