-विजय जोशी
पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक, भेल, भोपाल (म. प्र.)
जीवन में हर व्यक्ति सुख, संतोष, प्रसन्नता एवं खुशी की चाहत रखता है और इसकी खोज में निरंतर संलग्न रहता है जैसे पद, प्रतिष्ठा, पैसा इत्यादि। प्राप्ति तक तो जिज्ञासा उसके अंतस को आगत आनंद की कल्पना में आनंदित रखती है, किंतु जैसे ही भौतिक वस्तुएँ सुलभ होती हैं उसकी जिज्ञासा, खुशी सब तिरोहित हो जाती हैं। यह तो हुई पहली बात।
दूसरी यह कि खुशी तो मूलत: अंतस की अवस्था है, बाहरी कतई नहीं। वह तो मृगतृष्णा है। कुछ लोग कम पाकर भी संतुष्ट रहते हैं, क्योंकि उन्होंने अपनी इच्छाओं को आकाश नहीं बनने दिया। जबकि सब कुछ पाकर भी कुछ लोग नाखुश रहते हैं। लोभ, मोह के प्रतीक।
इसका सर्वोत्तम उदाहरण तो खेल प्रतियोगिताएँ हैं जहाँ तीसरी पायदान पर कांस्य पदक विजेता तो रहता है बेहद खुश तथा दूसरे स्थान यानी रजत पदक विजेता अमूमन असंतुष्ट । जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए। कारण स्पष्ट है, क्योंकि मानव मस्तिष्क तर्क के आधार पर कार्य का संपादन नहीं करता। दरअसल इसे विपरीत तथ्यात्मक सोच (Counterfactual thinking) कहते हैं। मनोविज्ञान की दृष्टि में आदमी की आदत होती है संभव विकल्प की खोज उन चीजों के बारे में जो घटित हो चुकी हैं।
रजत पदक विजेता सोचता है कि – ओह मैं स्वर्ण पदक क्यों नहीं जीत पाया। इसके ठीक विपरीत कांस्य पदक विजेता का सोच होता है – आखिरकर मुझे मेडल तो मिला। ऐसा क्यों होता है। कारण जानना चाहेंगे। तो उत्तर है बहुत सरल। यह इसलिये कि रजत पदक हारने के बाद मिलता है जबकि कांस्य पदक जीत के बाद।
यही सब कुछ तो हमारे असली जीवन में भी होता है। हम इस बात की खुशी नहीं मनाते हैं कि हमें क्या उपलब्ध है, बल्कि इस बात का दुख मनाते हैं कि हमारे पास क्या नहीं है। समाधान सरल है। ईश्वर को धन्यवाद दें कि उसने हमें हमारी ज़रुरतों के मद्देनज़र सब कुछ दिया है। एक बार गिनना शुरू करेंगे तो समस्याएँ स्वयमेव समाप्त हो जाएँगीं।
एक बार अपनी दृष्टि जो आपसे ऊपर हैं उन पर रखने के बजाय जो आपके समान नहीं बन सके या पा सके उन पर रखिए। उत्तर खुद ब खुद समझ में आ जाएगा। जीवन असीमित संभावनाओं का प्रवेश द्वार है। अत: उपलब्ध सकारात्मकता को मनोबल सहित बनाए रखें।
क्या हार में क्या जीत में किंचित नहीं भयभीत मैं
संघर्ष पथ पर जो मिले वह भी सही यह भी सही
सम्पर्क: 8/ सेक्टर-2, शांति निकेतन (चेतक सेतु के पास), भोपाल- 62023, मो. 09826042641, E-mail-v.joshi415@gmail.com
खुशी तो मूलत: अंतस की अवस्था है, बाहरी कतई नहीं। वह तो मृगतृष्णा है...बहुत सहज ढंग से इस सत्य को उद्घाटित करता सुंदर आलेख।बधाई विजय जोशी जी।
ReplyDeleteआदरणीय शिवजी,
ReplyDeleteसही कहा आपने। मृगतृष्णा की खोज में जीवन ही बीत जाता है और हम रह जाते हैं हाथ मलते। हार्दिक आभार सहित सादर
ख़ुशी तो मन की है। सही है बहुत कुछ पाकर भी हम ख़ुश नहीं होते और पाने की लालसा हमारी ख़ुशी छीन लेती है। बहुत सुंदर आलेख। बधाई
ReplyDeleteशाश्वत सत्य को उद्घाटित किया है आपने। मोह माया ना मरी, मर मर गया शरीर यही तो कहा गया है। हार्दिक आभार सहित। सादर
ReplyDeleteइस प्रकार की मानसिकता के लिए आज के प्रबन्धन सिद्धान्त जिम्मेदार हैं। ये महत्वाकांक्षा को बढ़ावा देते हैं। क्लास में दूसरे नम्बर पर आने से माँ हताश हो जाती है तो मेडल नहीं मिलने पर पूरा देश हताश हो जाता है। कई युवा दूसरों की कसौटी पर खरा नहीं उतर पाने से इतने निराश हो जाते हैं कि मौत तक को गले लगा लेते हैं। आशा है आपका संदेश आज के मेनेजमेंट गुरुओं तक पहुँचेगा।
ReplyDeleteआदरणीय, सच कहा आपने. इस चूहा दौड़ के लिये अभिभावक तथा संस्थाएं जिम्मेदार हैं. हार्दिक आभार सहित सादर
DeleteVery true. We must count our blessings and learn to be satisfied and happy with we have got...
ReplyDeleteVandana Vohra
Madam, You are positive and Proactive reader indeed. Thanks very much. Regards
Deleteप्रिय जोशी जी, सिल्वर मेडल, हारकर, तथा कांस्य जीतकर मिलता है, बड़ी बात कह दी आपने। इसका मर्म समझ लिया तो कल्यान हो गया। life को enjoy करने के अवसर/बहाने/मौके ढूढ़ना- सारा ज्ञान सफल है, इस विद्या में
ReplyDeleteडॉ श्रीकृष्ण अग्रवाल, Gwalior, Former Professor and HOD, Mechanical Engineering, MNNIT, ALLAHABAD
जोशी जी की जय
प्रिय डॉ. अग्रवाल, हार्दिक आभार. हार जीत तो मन तथा सोच का सार है. सादर
ReplyDeleteएक कथा याद आ गई। एक आदमी के पास शहर जाने के लिए किराए के पैसे नहीं थे। अतः उसने पैदल जाने का निश्चय किया। एक रुपये की मूंगफली खरीदी और खाते हुए अपनी यात्रा तय करने लगा। एक दूसरा आदमी उसके पीछे पीछे चल रहा था और उसके फेके हुए छिलके को उठा कर देखता जाता था। पहले वाला व्यक्ति इसको देर से देख रहा था। अंत में उसने पूछ ही लिया "भाई जब तुम्हे पता है कि मैं मूंगफली खाकर खाली छिलके फेंक रहा हूँ फिर तुम उसे बार बार क्यों देख रहे हो।" उस आदमी ने कहा "भाई इंसान से गलती हो ही जाती है सम्भव है तुम गलती से मूंगफली फेंक दो और मुझे मिल जाय। और मान लो अगर ऐसा नहीं भी हुआ तो भी मेरा क्या नुकसान हुआ। इसी तरह तुम्हारे पीछे पीछे मेरा रास्ता भी कट जाएगा।"
ReplyDeleteइस कहानी के बहुत सारे निहितार्थ हैं। ठीक वैसे ही जैसे आपके आलेख का । बहुत ही सुंदर और सारगर्भित आलेख। बहुत बहुत साधुवाद।
आ. गुप्ता जी,
Deleteआपकी तो बात ही अद्भुत है. जहां मेरा सोच समाप्त होता है, वहां से आपका सोच आरंभ होता है. उपरोक्त उद्धरण से मेरी बात स्वयं सिद्ध है. आपकी प्रतिक्रिया की मन में सदैव लालसा बनी रहती है. यही सद्भाव सदा बना रहे, इसी कामना के साथ हार्दिक आभार सहित सादर
आदरणीय,
Deleteयह आपका बड़प्पन है। आपके आलेख की प्रतीक्षा तो मुझे भी रहती हैं। आप ऐसे विषय उठाते हैं जिसके बारे हम जैसे लोग अनुमान भी नहीं कर पाते। इसी तरह हमें मार्गदर्शन प्राप्त होता रहे। इस कामना के साथ सादर प्रणाम।
गौधन गज धन बाजि धन और रतन धन खान । जब आवे संतोष धन सब धन धूलि समान।
ReplyDeleteआदरणीय, अटल सत्य है आपकी बात. असंतोष के मूल में संतोष भाव का ही अभाव है. हार्दिक हार्दिक आभार सहित सादर
ReplyDeleteसर इस यथार्थ को जिसने समझ लिया वास्तव मे उसका जीन सफल हो गया अपनी महत्व कांक्षा को संयमित रखना अर्थात सब्र ओर शुकर करना जिसने सीख लिया उसका कल्याण हो गया बहुत सुंदर लेख सर
ReplyDeleteभाई अस्लम, सब्र ही तो नहीं रख पाते हैं हम। रेशम कर कीड़े से उलझे रहते हैं। सस्नेह
Deleteआदरणीय श्रीमान,
ReplyDeleteमैं पूर्णतः आपके लेख से सहमत हूं एवं यह उम्मीद करता हूं की इस लेख का व्यापक प्रचार प्रसार होना चाहिए जिससे लोग इस चूहा दौड़ से बाहर आ सके और खुल कर अपना जीवन जी सकें ।
आभार
प्रिय शरद, इसी दौड़ में जीवन बीत जाता है और जब तक समझ में आता है समय शेष नहीं बचता। बहुत मनोयोग से पढ़ते हो। अच्छा लगा। सस्नेह
Deleteसही कहा आपने। मृगतृष्णा की खोज में जीवन ही बीत जाता है। आपको सादर प्रणाम
ReplyDeleteप्रिय चंद्र, जीवन ही तो सार्थक करना है। सस्नेह
Deleteआदरणीय जोशी साहेब आप का लेख प्रेरणादायक है । सदैव सुखी व संतुष्ट रहना एक कठिन अभ्यास है जिसने थोड़ा भी प्रयास किया वो सुखी रहेगा। जोशी साहेब को सादर नमस्कार व चरण स्पर्श।
ReplyDeleteप्रिय हेमंत, बिल्कुल सही बात। प्रयास ही तो नहीं करते हम वरना क्या कठिन है। सस्नेह
Deleteसुख और शान्ति तो अपने अन्दर ही मिल सकती है। इसे बाहर ढूँढने की ज़रूरत नहीं है। ����
ReplyDeleteअरुण भाई, हार्दिक आभार। सादर
Deleteसही कहा आपने..खुशी और संतोष तो मन में अंतर्निहित भाव हैं। संतोष व्यक्ति को दृढ़निश्चयी और बलवान बनाता है। संतोष एक अवधारणा है। अगर कोई मनुष्य अपने मन-मस्तिष्क में इसे धारण कर पाता है, तो वह सुखी हो जाता है। संतोष से संतुष्टि मिलती है जो तृप्त होने का भाव है। हमें अपनी इच्छाएं सीमित रखना चाहिए उसी में आनंद है।
ReplyDeleteबहन मधु, सही कहा। इच्छाएं तो आकाश हैं, उन्हें सीमित रखने में ही सुख है। संतोष तो मन की अवस्था है। सस्नेह
ReplyDeleteहम इस बात की खुशी नही मनाते है कि हमें क्या उपलब्ध है, बल्कि इस बात का दुख मनाते हैं कि हमारे पास क्या नहीं है।सच बात तो यह है कि जो प्राप्त है वह पर्याप्त है। उत्तम आलेख के लिए धन्यवाद।
ReplyDeleteआदरणीय, बिल्कुल सही कहा आपने. हम सुख को छोटा व दुख को बड़ा कर देखने के आदी हैं तथा यही हमारी समस्याओं की जड़ है. हार्दिक आभार सहित सादर
ReplyDelete"परम संतोषी महाधनी" ऐसा हमने पढ़ा/सुना है। मनोयोग से काम करने वाले यदि प्रतिफल को प्रसाद स्वरूप ग्रहण करते है सुखद अहसास झलकता है।
ReplyDeleteपर, यदि वांछित फल हेतु कार्य करते है तो विफलता का दुःख स्वाभाविक है।
अब कौन कितना संतोषी है उसका चेहरा बता देता है।
प्रिय शरद,
ReplyDeleteबिल्कुल सही और स्वाभाविक है यह बात। फल की आकांक्षा पूरी न होने पर मनोबल गिरता है।
महत्वकांक्षा स्वाभाविक है पर अति महत्वाकांशा दुख का कारण।
धन्यवाद औपचारिकता होगी सो न कहकर भी कहा समझो। सस्नेह
पुरुषोत्तम तिवारी 'साहित्यार्थी' भोपाल
ReplyDeleteसंतोषम् परम सुखम्. तृष्णा का कोई अन्त नहीं. यह भी है कि धरा पर कर्म ही प्रधान है. एक शब्द आनन्द भी है. अपने ज्ञान और विवेक के आधार पर मनुष्य अपना जीवन व्यतीत करता है. लेख के माध्यम से सर आप ने जीवन पथ को सरल सहज करने का सूत्र दे दिया है. सादर प्रणाम.