दया मानव को ईश्वर प्रदत्त श्रेष्ठ गुण है। दया
ही वह गुण है जो हमारे सारे रिश्तों को परिभाषित करता है। उन्हें ठोस आधार प्रदान
करते हुए स्थायित्व देता है। यह सभी जगहों पर हमारी स्थिति व स्वीकार्यता को
स्थापित करता है। इसके अभाव में हम न तो जीवन को सही तरीके से जी सकते हैं और न ही
इच्छित लक्ष्य प्राप्त कर सकते हैं। आखिरकार किसी भी कार्य की सफलता के लिए हमें
अपने सहयोगियों पर निर्भर तो होना ही पड़ता है और उसके लिए हृदय का विशाल होना
नितांत आवश्यक है। साथियों की छोटी- मोटी गलतियों को नजरअंदाज करते हुए भूल जाने की
प्रवृत्ति हमें तनाव रहित हो काम करने की कला सिखाती है। कठिन से कठिन परिस्थिति
में भी वांछित सफलता प्राप्ति के मार्ग में बाधा की स्थिति में भी यही गुण हमें
मानसिक व शारीरिक रूप से स्वस्थ रख सकता है।
द्वापर में कृष्ण से जुड़ा एक प्रसंग है। कौरवों
और पांडवों की सेनाएँ आमने -सामने आ गई। शंख बजने लगे, घोड़े खुरों से जमीन खूँदने लगे और हाथी चिंघाड़ने लगे। कुरुक्षेत्र के
समरांगण में सर्वनाश तैयारी पूरी हो चुकी थी। ठीक तभी एक टिटहरी का आर्तनाद गूँज
उठा।
दोनों शिविरों के बीच एक छोटी_ सी टेकरी थी। उसकी खोल में उसका घोंसला था। उसकी आँखें अपने बच्चों की ओर
लगी थीं और कान धनुषों की टंकार पर। उसे चिंता स्वजीवन की नहीं अपने बच्चों की थी
और नि:सहाय पुकार के रूप में आकुल मातृत्व सारे घोंसले में बिखर गया था।
कृष्ण के कानों तक यह पुकार पहुँची। असंख्य
वीरों की बलि और युद्ध के कोलाहल के बीच भी जिनकी बाँसुरी के स्वर कभी विचलित नहीं
हुए थे,
उन्हीं कृष्ण को इस टिटहरी के स्वर ने झकझोर डाला। वे दौड़े गए। एक
पत्थर उठाकर घोंसले के द्वार पर सहेज दिया ओर वापस आकर अपना स्थान ग्रहण करते हुए
सेनापति भीम से कहा - महावीर भीम, अब तुम युद्ध का बिगुल बजा
सकते हो।
उपर्युक्त उदाहरण का संदर्भ यही है कि हम कठिन
से कठिन परिस्थिति में भी ईश्वर प्रदत्त दयालुता के भाव का हृदय से लोप न होने
दें। यह कठिनतम कर्म में रत होने की स्थिति में भी हमारे मन के कोमल भावों को पूरी
तरह सहेज कर रखता है तथा हम अपनी आत्मा पर किसी भी प्रकार का अनावश्यक भार ढोने से
बचे रहते हैं।
दया
धर्म का मूल है , पाप मूल
अभिमान।
तब तक दया न छांड़िये, जब लौं घट में प्राण॥
सम्पर्क: 8/ सेक्टर-2, शांति निकेतन (चेतक सेतु के पास), भोपाल-462023, मो. 09826042641, E-mail- v।joshi415@gmail।com
भाई साहब आपकी दया के हम सब भाई बहन साक्षी हैं, बचपन मे जब भी हमे आपसे कुछ लेना होता था हम आपसे अनुरोध करते थे, और आप हमारी सभी इच्छाएं पूर्ण करते थे, दया का भाव आपमे शुरू से ही रह हैं जो अनवरत रूप से अभी भी हैं, हम सभी धन्य हैं आप जैसा भाई पाकर, और भगवान से प्रार्थना करते हैं कि हर जन्म में हमे आप जैसा भाई मिले, दया भाव का आपने अतिसुन्दर वर्णन किया हैं, आपको हम सभी की और से प्रणाम।
ReplyDeleteप्रिय संदीप, दरअसल मैं तो कुछ कर ही नहीं पाया। आदमी आचरण से बड़ा होता है आयु से नहीं और इस मायने में तुम मुझसे बहुत श्रेष्ठ हो। इसी स्नेह सहित मेरा गोलोक गमन हो यही अंतिम अभिलाषा है। सस्नेह
Deleteबौद्ध धर्म में भी दया का अहम भूमिका है। Excellent article in your usual style.
ReplyDeleteThanks very much sir. Your motivation keeps me going. Kindest regards
Deleteबहुत सुंदर आर्टिकल
ReplyDeleteहार्दिक आभार। सादर
Deleteशानदार लेख सर जी
ReplyDeleteहार्दिक आभार। सादर
Deleteबहुत ही सुंदर सीख देने के लिए ईश्वर भी अनेक रूप से हमें सिखाता है धन्यवाद महोदय
ReplyDeleteप्रिय किशोर भाई, हार्दिक आभार साथ निभाने के लिये। सादर
Deleteधन्यवाद सर आपके आशीर्वाद के लिए
Deleteदया मनुष्य का सर्व श्रेष्ठ आभूषण है यह भारत की आदि काल से मान्यता है।भारतीय साहित्य में इसके अनेकानेक उदाहरण मिलते हैं। आज की इसके प्रति जागरूकता उत्पन्न करने की सर्वाधिक आवश्यकता है। आपका यह प्रयास सराहनीय है।
ReplyDeleteआदरणीय, जीवन का यही मर्म आदमी समय रहते सीख सके तो जीवन धन्य। आपके प्रति हृदय से आभार। सादर
DeleteThis comment has been removed by the author.
Deleteउत्कृष्ट महोदय। उकसाना सिखाया
ReplyDeleteDear Shri AnandaJi, Your value system, integrity and commitment for the organization is an example by itself, which was seen and felt by everyone during Your EDship tenure of BHEL, Bhopal. Thanks and regards
DeleteThanks a lot sir fir your good words. Your foundation at BHEL is so strong even people like me also can perform optimally. Thanks once again. Excellent taught provoking.
DeleteDear Sir,
DeleteYour sincerity & commitment in dealing with organisational responsibilities and connectivity at gross root level during corona period was heart touching for which You deserve the Best. Kind regards
Thanks a lot sir for your qords
Deleteसुन्दर कथा. हमें अपने सनातन धर्म को नही भूलना चाहिए. वह हमें मानवता की शिक्षा देता हैं. सारगर्भित लेख के लिए धन्यवाद.
ReplyDeleteसही कहा आपने। आपके चरित्र के उदार पक्ष का मैं प्रत्यक्ष साक्षी हूं। हार्दिक आभार। सादर
Deleteआभार
Deleteबहुत ही अच्छे ढंग से समझाया है दया का रूप। सादर नमस्कार व चरण स्पर्श।
ReplyDeleteप्रिय हेमंत, हार्दिक धन्यवाद। यही स्नेह बना रहे। सस्नेह
Deleteदयाभाव मानवता का मुख्य आभूषण है जिसे मानव को सदैव धारण करना चाहिए।
ReplyDeleteभाई प्रदीप, बिल्कुल सही कहा आपने. हार्दिक धन्यवाद. सादर
Deleteबहुत ही अच्छे ढंग से प्रसंग सहित समझाया आदरणीय। एक बात मैं जोड़ना चाहता हूँ कि मदद की पुकार दयावान के कानों तक ही जाती है। बाकी सब अपने निजी हित पर केंद्रित रहते हैं। आप स्वयं एक दयावान व्यक्ति हैं एवं समाज के उत्थान हेतु सदैव कार्यरत हैं। मैं स्वयं साक्षी हूँ। बहुत धन्यवाद सर। आपका स्नेह व मार्गदर्शन हमें श्रेष्ठ मार्ग पर चलाएगा।
ReplyDeleteसादर-
रजनीकांत चौबे
प्रिय रजनीकांत, सेवा से बड़ा कोई सुख नहीं इसे तुमने प्रमाणित कर दिया बहैसियत G7 सेवा समूह के कुबेर रूप में। मैं रहूं न रहूं पर ये मिशन तुम सब साथियों सहित कायम रखोगे मुझे पूरा विश्वास है। सस्नेह
Deleteसब आपके मार्गदर्शन व संयोजन में हैं। आप G7 ग्रुप के कृष्ण रूपी सारथी हैं। सदा आपका आशीर्वाद मिलता रहे।
Deleteबहुत ही अच्छे ढंग से समझाया है सादर नमस्कार
ReplyDeleteहृदय से आभार मान्यवर
Deleteसादर नमस्कार , बहुत ही सुंदर लेख है सर जी
ReplyDeleteसुंदरता तो देखनेवाले की नज़र में होता है। इसे ही नज़रिया कहा जाता है। सो हार्दिक आभार।
Deleteदयाका आज के भौतिकवादी जीवन में बहुत अभाव हो गया है। आपका यह लेख बहुत सामयिक है।
ReplyDeleteप्रसिद्ध अमेरिकन लेखक मार्क टवेन ने कहीं लिखा है, दया एक भाषा है जो गूंगा बोल सकता है, बधिर सुन सकता है और अंधा देख सकता है।
आदरणीय कासलीवाल जी, मन में दया का भाव अंतस के चक्षु खोल देता है। आपका दया भाव तो सर्वविदित है। हार्दिक आभार सहित। सादर
DeleteVery nice article.....
ReplyDeleteVandana Vohra
भाई प्रदीप, आपका सेवा भाव भी तो दया का ही प्रतिरूप है। हार्दिक धन्यवाद।
ReplyDeleteबहुत सुंदर लेख🙏🙏
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद भाई मुकेश। सस्नेह
DeleteThanks very much Vandana, inspite being so busy with Your higher management position You always spare time to read and respond. Thanks very much.
ReplyDeleteIt is a pleasure to read your articles in fact I look forward to reading them...
DeleteGreat. Passion for reading is the best mental exercise in the direction of positive thinking. So you deserve the best.
Deleteआप की लेखनी एवं संकलन अदभुद है
ReplyDeleteलेख पढ़ने के बाद मन से सादर प्रणाम
हार्दिक आभार। सादर
Delete"It is twice blest: it blesseth him that gives and him that takes."
ReplyDeleteआदरणीय, लेख पढ़ कर शेक्सपियर की पंक्तियां याद आ गई। ग्रैजुएशन के समय कालेज में पढ़ा था। यह प्रसंग इसलिए नहीं लिख रहा कि मैंने शेक्सपियर को पढ़ा है बल्कि इसलिए कि दया नामक गुण विश्वव्यापी है। जो ईश्वर मैं आस्था नहीं रखते वे भी दया में आस्था रखते हैं इस प्रकार यह सर्वोच्च मानवीय गुण प्रमाणित हो जाता है।
इसकी बड़ी विशेषता यह है कि यह देने वाले और पाने वाले दोनो के लिए ही हितकारी है। इस प्रकार यहां दया और सहानुभूति का अंतर स्पष्ट हो जाता है। सहानुभूति वश किया गया दान अथवा उपकार दया की श्रेणी में नहीं आता।
मैंने अभी हाल में ही एक उपन्यास पढ़ा 'तत्त्वमसि'। इसमें एक घटना इस प्रकार से है कि दो जुड़वा भाइयों में से एक भाई एक बाघ की हिंसा का शिकार हो जाता है। दूसरा भाई यह निश्चय करता है कि वह उस बाघ को अवश्य ही मार डालेगा। संयोग से एक रात वह बाघ एक फंदे में फंस जाता है। सर्च लाइट की तेज रोशनी में वह उस बाघ को पहचान भी लेता है। वह यह भी पहचान लेता है कि वह एक मादा बाघ है। इसके साथ ही उसे यह भी विचार आता है कि इसके बच्चे भी होंगे। और इसके बाद वह चुपके से जाकर बाघ को फंदे से आजाद कर देता है।
यह है वह मानवीय गुण जहाँ एक मनुष्य एक पशु की पीड़ा को भी अपनी ही पीड़ा समझ कर आचरण करता है। जैसा कि आपने भगवान कृष्ण का बहुत ही सटीक उदाहरण प्रस्तुत किया है।
बहुत साधुवाद।
आदरणीय गुप्ताजी,
Deleteबिल्कुल सही सोच है आपका। कहा ही गया है। दया धर्म का मूल है। मार्क ट्वेन से लेकर सूर, तुलसी, मीरा सब तक यह विचार सदा से प्रवाहित होता रहा है
आपके द्वारा साझा किया गया संस्मरण अद्भुत है। अंतरात्मा जागने का सुंदर उल्लेख।
आपके साहित्यिक एवं आध्यात्मिक ज्ञान की मैंने सदा मिसाल दी है।
यही अनुराग बना रहे। इसी कामना के साथ सादर आभार सहित
Nice and apt narration. Your writings in prose and verse are equally powerful and impressive.
ReplyDeleteSo kind of you. All courtesy wishes of colleagues like You. Thanks again. Regards
DeleteExcellent article Sir
ReplyDeleteSo nice of you please. Thanks and regards
DeleteSir. Very good written and should be adopted by all human beings. Great 👍👍👏
ReplyDeleteThanks very much Dear Amulya. With regards
ReplyDeleteExcellent & Relevant Article .. Great sir.
ReplyDeleteDear Om Prakash, Thanks very much.
Deleteमनुष्य सभी प्राणियों में इसलिए श्रेष्ठ है। अपने अलावा भी वह जीव मात्र के प्रति दया का भाव का गुण प्रगट करते हैं।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद।
Deleteसही कहा सर जी विपरीत परिस्थिति में इंसान अक्सर दया करना भूल जाता है।
ReplyDeleteपर स्थिति अनुकूल होते ही पछताता है जो इन बातों से परे हो जाता है वही तो सही मायने पुरुषार्थ है।
गुरुजी आपको सादर प्रणाम।
प्रिय चंद्र, सही कहा। जो विषम को भी सम बना ले, सहायक सिद्ध हो सके वही तो परमार्थी पुरुष है। सस्नेह
Deleteअति उत्तम आशय ....सर। गीता के इस वाक्या से पहली बार साझा होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ.... इसके लिए आपको बहुत बहुत धन्यवाद। जयेश जनार्दनन ।
ReplyDeleteप्रिय जयेश, हार्दिक धन्यवाद। तुम्हारी पीढ़ी ही संदेश को आगे तक लेकर जायेगी। सस्नेह
Deleteएक मर्मस्पर्शी घटना और अति सुंदर प्रस्तुति।
ReplyDeleteविश्वास भावे
विश्वास भाई, हार्दिक आभार। सादर
ReplyDeleteअत्यंत सुंदर ह्रदय को स्पर्श यह लेख
ReplyDeleteप्रिय दिनेश, तुम संस्कृति के मूल आधार पर काम कर रहे हो, यह बहुत सराहना का विषय है। सस्नेह
Deleteआपसे बहुत कुछ सीखा है सर और आज भी सीखने को मिल रहा है!
ReplyDeleteप्रिय विजेंद्र, यह तुम्हारे मानस की सादगी व सरलता है जो हमारा संबंध आज भी कायम है, वरना इस दौर में कौन किसकी परवाह करता है बगैर मतलब के। सस्नेह
DeleteI sent my reaction
ReplyDeleteडॉ. अग्रवाल,दिखा नहीं। पर फिर भी जुड़े रहने के लिए हार्दिक आभार
Deleteसही कहा सर आप के आदर्श के बिल्कुल अनुरूप लेख हे सर
ReplyDeleteकबीर दास जी ने खूब कहा हे
जां धर्म वहां लाभ जहां लोभ तहां पाप
जहां क्रोध वहां काल हे जहां क्षमा वहां आप
खलील असलम कुरैशी
भाई क़ुरैशी, आप खुद एक बहुत बड़े शायर हैं, सो मर्म को समझने का पूरा माद्दा रखते हैं। हार्दिक धन्यवाद। सादर
Deleteदया युक्त हृदय ही सच्चा मानव है। बाकी तो शरीर ही है। उत्तम उदाहरण से आपने समझाया ,सब पुन:स्मरण हो आया।धन्यवाद आदरणीय जोशी जी।
ReplyDeleteसुनीता यादव
साहित्य परिषद समूह की आप अकेली एकमात्र विदुषी हैं, जो नियमित रूप से लिंक देखकर मनोबल में अभिवृद्धि की स्रोत हैं मेरे लिये। सो हार्दिक आभार
Deleteपुरुषोत्तम तिवारी, भोपाल
ReplyDeleteसर, भारतीय दर्शन दया, करुणा, प्रेम जैसे दिव्य सद्गुणों के आधार पर वसुधैव कुटुंबकम् की घोषणा करता है. समस्त प्राणियों में अद्वैत भाव की अनुभूति दया के चिन्तन पर ही एकात्म को स्थापित करता है. दया की भावना का जागृत होना ईश्वरीय तत्व है. जय श्री कृष्ण
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ReplyDeleteप्रिय तिवारीजी, भारतीय दर्शन ऐसे अनेक सद्गुणों से भरा है। यह बात दूसरी है कि हम जानते सब कुछ हैं, मानते कुछ नहीं। इस दौर की यही त्रासदी है। यह दायित्व मूलतः अभिभावकों का है। आपके विचार तो सदा से प्रासंगिक रहे हैं. हार्दिक आभार. सादर
ReplyDeleteदया प्रथमो धर्म, एकदम सही शुद्ध विचार , उदाहरण भी बहुत सटीक, इतना अच्छा संस्कारित लेख आपके कोमल ह्रदय से ही निकलता है, आपको सादर प्रणाम भाई साहब .... सुमन
ReplyDeleteदया प्रथमो धर्म, बहुत ही सुंदर कोमल संस्कारित भाव, उदाहरण भी एकदम सटीक , ऐसे सुंदर भावपूर्ण विचार आपके ह्रदय में ही आते है भाई साहब, आपको सादर प्रणाम .... सुमन
ReplyDeleteप्रिय सुमन,
ReplyDeleteतुम मेरी विद्वान बहन हो, जिसने सुधा मूर्ति की तर्ज पर अपना जीवन ब्ल्यू कालर कठिन जाब से आरंभ किया. इस बात का मुझे सदा गर्व रहेगा. और अब बहैसियत प्रोफेसर भी तुम्हारा योगदान सर्वविदित है. मनोयोग से पढ़कर प्रतिक्रिया दी यह बात सुख दे गई. सस्नेह
आपका स्नेह आशिष
ReplyDeleteसादर अभिवादन,
ReplyDeleteजब कुछ बहुत सुस्वादु व्यंजन खाने को मिलता है तो उसे बहुत प्रेम से धीरे -धीरे स्वाद का आनन्द उठाते हुए भोजन के अंत में ग्रहण किया जाता है।मेरे साथ भी ऐसा ही है ।आपकी लेखनी इतनी प्रेरणादायक और सारगर्भित होती है कि कई बार पढ़ने पर भी मन नहीं भरता।
कभी -कभी तो "अविगत गति कछु कहत न आवत
जो गूंगे मीठे फल को रस अन्तर्गत ही भावत " वाली स्थिति हो जाती है।
शब्द मूक हो जाते हैं,भावना मुखर।
प्रथम टिप्पणी में जो आदरणीय संदीप भाई साहब ने बात कही है वह हमारे परिवार पर भी लागू है।
आपका और आदरणीय आंटी जी की स्नेह धारा का फैलाव आपकी दया धर्म की पृष्ठस्ति ही है।
आपके सभी आलेख नई विचारधारा, समुचित मार्गदर्शन और प्रेरणा से परिपूर्ण होते हैं।
आपकी प्रेरक लेखनी से यूं ही लाभान्वित होते रहें,तथा आपका आशीर्वाद प्राप्त होता रहे।इसी शुभकामना के साथ:--------
माण्डवी सिंह ,भोपाल।
माण्डवी जी,
Deleteहार्दिक आभार. कई बार खून के रिश्तों से भी ऊपर जीवन में सार्थक स्वरूप सम अवतरित होते कुछ व्यक्तित्व पावनता के साथ. आप दोनों ऐसे ही हैं, जो सालों से परिवार सदस्यों के रूप में जुड़े हैं.
जहां तक लेख की बात है, इसमें कुछ भी नया नहीं. सब कुछ सर्वविदित है. प्रयास केवल ऊपरी पर्त हटाकर प्रस्तुति का विनम्र प्रयास है.
हां यह बात अवश्य है कि अपनों की पसंदगी मन को सुख के पल दे जाते हैं. सो सस्नेह
perfectly explained.
ReplyDeleteSuch incident keep us on track of love and kindness.
Thanks for reminding values of dharma.
Dear Rathiji,
ReplyDeletewe have shared many such moments together on selfless missions.
Thanks very much. Regards
Bahut sundar sandesh. Hardik badhai
ReplyDeleteYogendra Pathak
Thanks very much sir for the encouragement. Kind Regards
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