- डॉ.
सुरंगमा यादव
आ लौट चलें बचपन की ओर
माँ की गोदी में छिप
जाएँ
खींचे कोई डोर
हर आहट पर ‘पापा-पापा’ कहते
भागें द्वार की ओर
मिट्टी के रंगीन खिलौने
मिल जाएँ, तो झूमें-नाचें
कॉपी फाड़ें नाव बनाएँ
पानी में जब लगे तैरने
खूब मचाएँ शोर
भीग-भीगकर बारिश में
नाचें जैसे मोर
गिल्ली-डंडा, खो-खो और कबड्डी
छुपम-छुपाई, इक्कल-दुक्कल,
कोड़ा जमाल शाही
खेल-खेलकर करते खूब
धुनाई
वह भी क्या था दौर!
कच्ची अमिया और अमरूद
पेड़ों पर चढ़ तोड़ें खूब
पकड़े जाने के डर से फिर
भागें कितनी जोर
आ लौट चलें बचपन की ओर!
बचपन की याद दिलाती सुंदर कविता। बधाई
ReplyDeleteइस कविता को पढ़कर मन अतीत में खो जाता है। वे बीते हुए दिन बहुत याद आते हैं। वे अभाव वाले दिन कितने गहरे जुड़ाव से भरे होते थे। आज की समृद्धि उन दिनों की धूल के बराबर भी नहीं।- रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
ReplyDeleteसहमत सर 🙏
Deleteबचपन की बेहतरीन यादें
ReplyDeleteसुंदर। सहज सरल शब्दों में की गई अभिव्यक्ति अनायास ही बचपन की ओर ले जाती है।
ReplyDeleteइस रचना को पढ़ते हुये आँखें भर आईं.... मैं तो आज भी वही हूँ... उस अतीत में... वहीं शांति शून्यता भी.... 🙏
ReplyDeleteबचपन भावों से अमीर होता है। सुंदर कविता
ReplyDeleteयह कविता हम सबके बचपन को साझा करती है. बचपन को याद करना यानि सकारात्मक ऊर्जा से भर जाना.सहज भाव और सहृदयता से भरपूर कविता की कलम चलाने वाली रत्ना जी आपको बधाई...
ReplyDeleteबचपन की याद दिलाती बढ़िया कविता।
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