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Aug 1, 2021

अनकही- बन्दे तू कर बन्दगी...

डॉ. रत्ना वर्मा
कभी- कभी अख़बार के किसी एक कोने में छपी कोई सकारात्मक खबर चेहरे पर मुस्कान ला देती है और तब उस भले मानुष के लिए हजारों- हजार दुआएँ निकलती है, जिसने यह नेक काम किया। खबर संक्षेप में कुछ इस तरह है- झारखंड जमशेदपुर की पाँचवीं में पढऩे वाली 11 साल की तुलसी की पढ़ाई इसलिए रुक गई थी; क्योंकि ऑनलाइन क्लास के लिए उसके पास मोबाइल नहीं था। तुलसी की पारिवारिक हालत इतनी अच्छी नहीं थी कि वह एक स्मार्टफोन ले सके। अपनी पढ़ाई जारी रखने और पैसे जुटाने के लिए तुलसी सड़क किनारे बैठकर आम बेचने लगी। सोशल मीडिया के जरिए तुलसी की कहानी मुंबई के रहने वाले वैल्युएबल एडुटेनमेंट कंपनी के वाइस चेयरमैन अमेया हेते तक पहुँची, उन्होंने तुलसी की मदद करने का फैसला लिया और तुलसी के 12 आम 1 लाख 20 हजार रुपये में खरीद लिये। इस मदद से तुलसी ने एक स्मार्टफोन खरीद लिया है और बाकी पैसे अपनी आगे की पढ़ाई के लिए बैंक में जमा कर दिए।

अमेया को तुलसी की इस बात ने प्रभावित किया कि एक छोटी बच्ची ने पैसे न होने की वजह से अपनी किस्मत को दोष न देकर अपनी मेहनत से कुछ करने की सोची। मदद के लिए आगे आए अमेया हेते की उस सोच को सलाम जिन्होंने आर्थिक संकट का सामना कर रही तुलसी की मदद की।

अवसाद और लगातार मिल रही दु:खद खबरों के बीच यह खबर सुकून तो देती हैं और दिल से यही दुआ निकलती है कि देश के उन हजारों, लाखों छात्राओं को ऐसे ही दानदाता मिलें, जो स्मार्टफोन के अभाव में आगे पढ़ाई करने में असमर्थ हैं। हमारे देश में आज भी एक वर्ग ऐसा है, जो लड़कियों की पढ़ाई को उतना महत्त्व नहीं देता, खासकर निम्नवर्ग के परिवार में जिनके लिए दो वक्त की रोटी जुटाना भी मुश्किल होता है, वे स्मार्ट फोन के बारे में तो सोच भी नहीं सकते।

सरकार लड़कियों को पढ़ाने के लिए नई- नई योजनाएँ अवश्य बनाती है, परंतु केवल योजनाओं से स्थिति नहीं बदलने वाली। इस सोच को बदलने के लिए और भी बहुत सारे सामाजिक काम करने होंगे। एक समय प्रौढ़ शिक्षा का कार्यक्रम जोर-शोर से चला। तब लोगों ने अपना नाम लिखना तो सीख लिया; पर उनकी सोच में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया। विचारों में परिपक्वता सिर्फ साक्षर होने से नहीं आती, इसके लिए शिक्षित होना जरूरी है। किसी नतीजे के परिणाम के लिए हमें एक या दो पीढ़ी तक इंतजार करना होता है। जब एक पूरा परिवार शिक्षित होता है खासकर परिवार की महिलाएँ, तब कहीं जाकर हम महिलाओं की शिक्षा, स्वतंत्रता, आत्मनिर्भरता आदि की बात सोच पाते हैं और उनकी सामाजिक सोच में बदलाव आता है।

बात शुरू हुई थी कोरोना के इस दौर में ऑनलाइन शिक्षा के कारण निम्न वर्ग के बच्चों को आनेवाली कठिनाई के बारे में। सोशल मीडिया के जहाँ फायदे हैं, तो नुकसान भी कम नहीं हैं। अफवाहें आग की तरह फैलती हैं और आग की ही तरह नुकसान भी पहुँचाती हैं। शिक्षा आज इसलिए भी जरूरी है; क्योंकि इसके अभाव में स्वास्थ्य सेवाओं में भी समस्याएँ खड़ी हो रही हैं।

कोरोना महामारी के इस दौर में इन दिनों पूरे देशभर में टीकाकरण कार्यक्रम जोर-शोर से चल रहा है। सरकार पुरजोर से इस  कार्यक्रम को पूरा करने में लगी हुई है। टीकाकरण और मास्क जैसी कई सावधानी ही इस महामारी से निपटने का एकमात्र उपाय है, इसका जोर-शोर से प्रचार- प्रसार हो रहा है, परंतु जिस प्रकार सोशल मीडिया तुलसी जैसे बच्चों का कभी- कभी भला कर देती है उसी प्रकार ज्यादातर मामलों में सोशल मिडिया के माध्यम से उड़ी अफवाहें समाज को बहुत ज्यादा नुकसान भी पहुँचाती है। इस संदर्भ में मैं हाल ही का अपना एक अनुभव आप सबसे साझा करना चाहूँगी-

मेरे घर दो महिलाएँ काम करने आती हैं, एक झाड़ू पोछा और बर्तन धोने का काम करती है और दूसरी खाना पकाने का। पहली काम वाली ने दो दिन की छुट्टी यह कहकर ली कि मैं और मेरे बच्चे टीका लगवाने जा रहे हैं। टीका लगवाने के बाद बुखार और चक्कर आता है; इसलिए छुट्टी चाहिए। दो दिन आराम करने के बाद जब वह काम पर लौटी, तो पता चला कि उसने बेटियों को अभी टीका नहीं लगवाया है। तभी मैंने खाना बनाने वाली से भी पूछा तुम टीका लगवाने नहीं जा रही हो, तो उसने मेरी ओर प्रश्नवाचक नज़रों से देखा और बोली- एक बात पूछूँ दीदी? सब कह रहे हैं लड़कियों को टीका लगवाने से वे बच्चे पैदा करने लायक नहीं रहेंगी

ऐसी कई तरह की अफवाहें बहुत तेजी से फैल रही हैं, यह मुझे पता था। मैंने तुरंत उसे समझाया कि ऐसी कोई बात नहीं है ये सब अफवाह हैं इस बीमारी से बचने ले लिए यह टीका सबके लिए बहुत जरूरी है।  कुछ समय बाद 18 से कम उम्र के बच्चों के लिए भी यह टीका आ जाएगा। मुझे यह आभास तो हुआ कि मैं उसके मन में उठे सवालों का उचित जवाब दे पाई और उसने मेरी बात पर विश्वास किया। खाना बनाने वाली यह महिला दो किशोरवय बच्चों की माँ है और उसने स्वयं 10 वीं तक की शिक्षा प्राप्त की है तथा अपने दोनों बच्चों को पढ़ा रही है, जाहिर है वह अपने बच्चों को अपने से ज्यादा शिक्षित तो करेगी ही। लेकिन बाहर फैलने वाली अफवाहों से जब अच्छे- अच्छे पढ़े- लिखे नहीं बच पाते, तो यह तो खाना बनाकर अपने घर में आर्थिक सहयोग करने वाली निम्न वर्ग की यह महिला भला इससे कैसे अछूती रह सकती है। खुशी की बात यह है कि उसने कम से कम अपनी शंका का समाधान करने के लिए मुझसे पूछताछ तो की।

कहने का तात्पर्य यही कि हम सब इंसानियत के अपने धर्म को निभाते चलें और कुछ न कुछ भलाई का काम करते जाएँ। अपने आस-पास होने वाली खबरों और सामाजिक बदलाव पर ध्यान दें और सचेत रहें तो तुलसी जैसी अनेक बालिकाओं के जीवन में उजाला लाने के लिए अमेया हेते जैसे हजारों लोग आगे आ सकते हैं और अफवाहों के जाल में उलझी अनेक पढ़ी- लिखी पर एक बंद दायरे में कैद महिलाओं को सच्चाई से रुबरू कराकर उनकी सोच बदलने में सहायक हो सकते हैं।

तो आइए सकारात्मक सोच के साथ अच्छा कर्म करते हुए आशा का एक- एक कदम बढ़ाते चलें। कबीर जी कहते हैं-

बन्दे तू कर बन्दगी, तो पावै दीदार।

औसर मानुष जन्म का, बहुरि न बारम्बार।

5 comments:

  1. सुंदर सकारात्मक सोच। आभार।

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  2. सुन्दर लेख।सचमुच मीडिया के फायदे भी अनेक है और नुकसान भी।

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  3. बहुत हृदय को छूनेवाली बात कही है आपने. एक नहीं अनेकानेक समस्याएँ हैं, जो सुलझने के बजाय और उलझ गई हैं. किसे दोष दें
    - जो हमारे वोट से जीतते हैं,
    - वो फिर कहां हमारी सुनते हैं.
    सरकारें सब एक सी ही होती हैं जो दलाल आश्रित होती हैं. उनके कार्यकर्ता भी गरीब की गाय मानिंद ही होते हैं. और जिनके पास देने को है, उन्हें तो सब समेट कर अपने साथ ही ले जाना है. जन जागृति की अलख जगाने हेतु आपका हार्दिक आभार

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  4. हम सब इंसानियत के अपने धर्म को निभाते चलें और कुछ न कुछ भलाई का काम करते जाएँ....बहुत सार्थक और सकारात्मक सोच का सुंदर आलेख।छोटे से आलेख में कई आयामों को स्पर्श किया है आपने।बधाई।

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  5. सकारात्मक सोच ,प्रेरणादायी आलेख। हार्दिक बधाई

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