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Apr 5, 2021

छह कविताएँ

- आनन्द नेमा 


1- प्रतिरूप

जब आखिरी चिड़िया भी

धरती को अलविदा कह

चली जागी किसी नई दुनिया में,

तब उसी के साथ

चले जाएँगे

महकते फूल

डाल पर पके फल।

ठीक उसी समय

सिसकते हुए नदिया भी तोड़ देगी दम।

पर हम,

मना रहे होंगे जश्न

चिड़िया, फूल, फल

नदिया के प्रतिरूपों के साथ,

सम्भव है तब हम

हम नहीं होंगे,

होगा हमारा भी प्रतिरूप।

2-चिड़ियाँ
 

चिड़ियों ने नहीं पढ़ी है किताबें,

वे नहीं जानती शास्त्रों के गूढ़ अर्थ,

इसलिए वे जा सकती है कहीं भी

और रह सकती है कहीं भी

नीले आसमान में वे उड़ लेती है

भाषा, धर्म, राजनीति के बिना भी।

वे,

बिना किसी गिले-शिकवे के

हज़ारो-हज़ार पक्षियों के साथ।

रह लेती है,

दुःख और सुख में।

3- शीर्षक विहीन

जो मारे जा रहे है,

रेल, मोटर-गाड़ियों,

राह चलते या भूख से;

असभ्य हैं वे सभी।

सभ्यता से कोसों दूर।

वे नहीं जानते

सभ्य लोक के शिष्टाचार,

दुनियावी दाँव-पेंच, राग-रंग

यहाँ तक कि मर जाना भी।

वे नहीं जानते

कि उनके इस तरह मर जाने से

पिघलेंगे नहीं हैं  संवेदना के पहाड़,

बदलेंगे नहीं कायदे क़ानून।

न ही राज-धर्म।

वे यह भी कतई नहीं जानते

कि उनके इस तरह मर जाने से

सभ्य लोक में

असभ्यों की मृत्यु पर

आँसू बहाना भी

असभ्यता ही होती है।


4- पुल

पुल बनाते हुए

पूछा जाना था नदी से,

वहाँ की मिट्टी से।

ठीक इसी तरह

पूछा जाना था

बालू और सीमेंट से,

यहाँ तक कि पानी और लोहे से भी।

नदी, सीमेंट, बालू, पानी, लोहे की

असहमति से बना पुल,

तोड़ लेता है तटों से सम्बन्ध

प्रेम, स्नेह को महसूसे बिना।

पुल के इस तरह टूटने से

केवल पुल ही नहीं टूटता

टूट जाती हैं

हमारी संवेदनाएँ व सभ्यता

टूट जाता है व्यवस्था से विश्वास

और टूट जाती हैं

नदी पार होने की संभावनाएँ।

5- पत्थर

पत्थरों पर चाहे बैठ जाएँ कितनी ही

रंग-बिरंगी तितलियाँ,

या दूर से आकर बैठ जाएँ पखेरू

सुरीला गीत गाने,

या ओढ़ा दिए जाएँ खुशबूदार फूल,

पत्थर खिलखिलाकर नहीं हँसेंगे।

यहाँ तक कि

वे मुस्कराएँगे भी नहीं,

पत्थर, पत्थर ही होते हैं,

वे हँसना नहीं जानते,

न ही रोना।

6- समूह गान

उस रात

जब चुपके से

चाँद चला गया था

बिन बताए,

तारे भी हैरान थे।

ढूँढ रहे थे सारे जुगनू मिलकर उसे।

जबकि सूरज को

आने में वक़्त था,

परेशान था खरगोश

कि नहीं आ सकता था

वह बाहर,

उस निर्मम काली रात में

टिटिहरी जो

किलकते- इतराते

नाप रही थी आकाश

चुप बैठ ग थी

कहीं छुपकर।

उधर उलूकों की बस्ती में

छाई थी खुशहाली,

मतवाले हो

गा जारहे थे

कर्कश लयहीन, बेसुरे

समूह गान।

19 comments:

  1. गहन अर्थ एवम अनुभूति लिए हुए सभी कविताएं 👌👌💐💐👌👌

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद आपका

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  2. सवाल उठाती इस वक़्त की ज़रूरी कविताएँ।

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    1. आपकी प्रतिक्रिया के लिये आभारी हूँ

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  3. अत्यंत सारगर्भित कविताएँ। हार्दिक साधुवाद और बधाई आनन्द नेमा जी को

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    1. आपने पढ़ा यह मेरे लिए सुखद बात है धन्यवाद

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  4. बहुत ही गहनता लिए एक से बढ़कर एक कविता ...

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    1. धन्यवाद आपका

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  5. सभी कवितायें सुंदर! विशेषतः शीर्षक विहीन...बधाई नेमा जी को।

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    1. आपकी टिप्पणी के लिये आभार

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  6. मन को छूती हुई बेहतरीन कविताएँ हैं।

    बधाई नेमा जी को💐💐

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद

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  7. सभी कविताएँ एक से बढ़कर एक,
    'समूह गान' अद्भुत! बहुत बधाई!

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    1. हृदय से आभारी हूँ

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  8. संवेदना, गहन अनुभूति एवं चिंतन समाहित किये प्रभावशाली कविताएँ ।

    बधाई आनंद नेमा !

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    1. एक अच्छी प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद

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  9. बहुत सुंदर,मर्मस्पर्शी कविताएँ। बधाई

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद

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  10. मेरी कविताओं को प्रकाशित करने हेतु सम्मानीय सम्पादक जी का हृदय से आभार,धन्यवाद

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