उदंती.com

Apr 5, 2021

जीवन दर्शनः खुशियाँ ढूँढें अपने अंदर

-विजय जोशी (पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक, भेल , भोपाल)

 ज़िंदगी ज़िंदादिली का नाम है

मुर्दादिल क्या ख़ाक जिया करते हैं

    खुशी या गमसुख या दुख सब अंतस की अवस्था है। यह हम पर निर्भर करता है कि हमारा खुद और परिवेश के प्रति नज़रिया क्या है। अच्छी नज़र से नज़ारे हो जाते हैं खूबसूरत और नज़ारे से जन्म लेता है हमारा नज़रिया। परिस्थिति कैसी भी हो अवश्यसंभावी है, पर हमारा दृष्टिकोण कैसा हो यही सब कुछ तय करता है जीवन में। बिलकुल वैसा ही जैसा कृष्ण ने गीता में प्रतिपादित किया है अनासक्त कर्मयोग।

   एक 90 वर्षीय विदेशी महिला उम्र के उस दौर में भी अपनी साज- संवार तथा शृंगार के प्रति बेहद सजग रहा करती थी। पति के साथ 70 वर्ष के दांपत्य जीवन में भी किसी ने उसे हतोत्साहित नहीं देखा। पति के अवसान के बाद चूंकि उसकी कोई संतान नहीं थी अत: वहाँ प्राप्त सामाजिक सुरक्षा के मद्देनजर अब उसका अपना घर खाली करते हुए सीनियर सिटीज़न होम यानी वरिष्ठ नागरिक निवास में शिफ्ट होने का समय आ गया था।  मज़ेदार बात यह भी थी कि घर से विदाई की वेला में भी उसका परिधान सुव्यवस्थित था।

    नए निवास पर वह प्रतीक्षा कक्ष में कमरा तैयार होने तक बैठी थी। उसकी परिचारिका ने स्वागत करते हुए बताया कि जिस कमरे में अब से उसका निवास होगा वह कितना छोटा होगा।

    मैं उस कमरे को प्यार करूंगी महिला ने बाल सुलभ उत्कंठा तथा मुस्कान के साथ उत्तर दिया।

   परिचारिका ने कहा श्रीमती जोंस आपने तो अभी तक अपना कमरा देखा भी नहीं है।

   उत्तर मिला मेरी कमरे की पसंदगी इस बात पर निर्भर नहीं है कि वह कितना बड़ा या छोटा या उसमें कितना फर्नीचर हैबल्कि इस बात पर है कि मैं समय पूर्व अपना मानस कैसा बनाती हूँ। और मैंने यह तय कर लिया है कि मुझे उससे तथा अपने भावी जीवन से प्यार तथा संगी साथियों से अनुराग है। इस निर्णय पर मैं हर सुबह ही पहुँच जाती हूँ। जानती हो मेरी सबसे बड़ी दौलत क्या है। वह है यह तय करने का सामर्थ्य कि मुझे कैसा अनुभव करना है।

    उसने अपनी बात जारी रखी मैं बिस्तर पर लेटे रहकर या तो अपने दर्द का सियापा करती रहूँ या फिर ईश्वर के आशीर्वाद से जीवंत अंगों के प्रति आभार व्यक्त करते हुए आनंद प्राप्त करूँ। हर दिन ईश्वर का उपहार है जहाँ तक मैं उसे आँखें खोलकर देख सकूँ। और इस समय भी मैं वही कर रही हूँ।

    परिचारिका महिला का जीवन के प्रति सकारात्मक सोच देखकर अभिभूत हो गई। और वह भी उम्र के उस दौर में जब जीवन समस्याओं और व्याधियों से आप्लावित रहता है।

       बात का सारांश स्पष्ट है। खुशी वह संपदा है जिसे हमें खुद अपनाना है। ईर्ष्याद्वेष अनिमंत्रित अतिथि हैं। जीवन से प्यार तो हमें खुद खोजना होगा। नकारात्मकता खुद पैठती है। सकारात्मकता को हमें ढूँढना होगा। शिकायत स्वचालित है। आभार का सुखद भार हमें स्वयं अपनाना होगा। ग्लास पानी से आधा भरा है यह सकारात्मक जब कि आधा खाली नकारात्मक सोच है। आधा भरा भी क्यों। वह तो पूरा भरा हैक्योंकि शेष में हवा भी हाजिर है। अत: सही मानसिकता का कीजिए सृजन और जीवन में आनंद का आरोहण।

होकर मायूस न शाम से ढलते रहिए

ज़िंदगी भोर है सूरज से निकलते रहिए

सम्पर्क: 8/ सेक्टर-2, शांति निकेतन (चेतक सेतु के पास), भोपाल-462023, मो. 09826042641, E-mail- v.joshi415@gmail.com

26 comments:

  1. बेहद संदर्भ गर्भित जोशी जी की स्थापना प्रशंसनीय है

    ReplyDelete
    Replies
    1. पचास के बाद के जीवन का सामर्थ्य समाहित सफल सरलतम सूत्र है, जिसका आनंद लेने के
      यथाशक्ति भरपूर प्रयास में संलग्न हूं आपकी शुभेच्छाओं तथा सहयोग से. हार्दिक आभार. सादर

      Delete
  2. जो व्यक्ति सोच की इस मंजिल तक पहुँच जाये उसका निर्वाण तय है। यह परम सत्य को पार लेने की स्थिति है।
    अत्यंत प्रेरणा दायक उद्धरण। साधुवाद।

    ReplyDelete
  3. बात तो बिल्कुल सही है पर अपनी ओर से एक कोशिश तो की ही जा सकती है. आपसे बहुत कुछ सीखा है और आगे भी अवसर है. हार्दिक आभार सहित. सादर

    ReplyDelete
  4. आदरणीय जोशी जी,
    सादर प्रणाम,आलेख पढ़ कर आनंद के साथ शास्त्र वर्णित पुरुषार्थ का भी स्मरण हो आया। हमारे यहां चार प्रकार के पुरुषार्थ बताए गए हैं, अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष। इन्हें पुरुषार्थ चतुष्टय भी कहते हैं। मोक्ष आखिरी पायदान है। और इस पायदान पर पूर्व के तीन पायदानों को पार करने के बाद ही पहुंचा जा सकता है। जो कि श्रीमती जॉन के साथ हुआ है।
    शास्त्रमत है कि "येन केन उपायेन शुभेनाप्य अशुभेन वा। उद्धरेत दीनात्मानं समर्थों धर्माचरेत।" अर्थात अच्छे अथवा बुरे किसी भी प्रकार से पहले स्वयं को दीनता से मुक्त करना चाहिए और फिर सक्षम हो जाने के बाद धर्म का आचरण करना चाहिए। यहां दीनता को दोनों ही अर्थों में लिया जा सकता है, आर्थिक दीनता तथा मानसिक दीनता।
    मानसिक दीनता पर मुझे एक शेर याद आ रहा है "चांदनी रात में बरसात बुरी लगती है। दिल मे हो दर्द तो हर बात बुरी लगती है।" मानसिक दीनता का संबंध योग से है, जैसाकि आपने अनासक्त कर्मयोग की चर्चा की है। भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं " मनः एव मनुष्याणां कारण बंधन मोक्षयो।" अर्थात एक सशक्त मन वाला व्यक्ति ही मोक्ष की ओर जा सकता है। इसको सकारात्मक सोच वाला भी कहा जाता है। लेकिन इस सकारात्मकता को सतत बनाये रखना ही वास्तविक चुनौती है जिसे योग साधना कहा गया है। "सुखे दुखे समोकृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।" (श्रीमद्भागवत गीता) सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय इन सभी अवस्थाओं में समान रहना अर्थात मन को विचलित न होना ही योग है। "समत्वं योगउच्यते" सामान्य शब्दों में कहें तो एक ही सिक्के के दो पहलू।
    टिप्पणी लंबी हो रही है। मैने आपकी बात को शास्त्रीय सन्दर्भ में देखने का प्रयास किया है। आपके सुधी पाठक यदि इस पर अपनी प्रतिक्रिया दें तो मेरा भी मार्गदर्शन होगा।
    सधन्यवाद

    ReplyDelete
    Replies
    1. आदरणीय गुप्ता जी,
      बिल्कुल सही कहा आपने. जीवन की आपाधापी और दौड़ में संलग्न कितने लोग मोक्ष की परिधि भी छू पाते हैं, जबकि सत्य से सब भिज्ञ होते हैं. यही हम सबकी त्रासदी या कहें इस दौर की विडंबना है.
      दीनता भी मूलतः मानसिक ही है. आर्थिक का तो हल है, किंतु इसका नहीं. धर्म तो बहुत उदात्त भाव है : धारयति इति धर्मम् यानी जो कुछ भी अच्छा धारण किया जाए जीवन में वही धर्म है. आसक्ति तो पतन का मार्ग है पर वही आकर्षित करती है. विवेक को निगल जाती है. सब अपना जीवन जीने के लिये स्वतंत्र हैं सो हम क्यों बाधक बनें.
      आप सचमुच बेमिसाल विद्वान हैं. आपका साथ सत्संग का सुख देता है. आभार बहुत छोटा शब्द है, मुझे तो पूरा एहसास है. सादर

      Delete
    2. सर,
      सही कहा आपने । हमारा पुरुषार्थ कहीं खो गया है या कि हमे कुछ हो गया है। धन की सीमा से हम बाहर निकल ही नहीं पा रहे।
      इसका एक सशक्त कारण भी है आज धनवान पैसे के बल पर अनुचित काम भी सहजता के करवा लेता है तथा उसकी छवि को कोई दाग भी नहीं लगता। समाज में उसका स्थान और सम्मान दोनों ही सुरक्षित रहते हैं। यह बात नई पीढ़ी को आकर्षित करती है और वह अधिक से अधिक पैसे कमाने को ही पुरुषार्थ समझे बैठी है।
      आप जैसे बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय की सोच रखने वाले लोगो ने जागरण का बीड़ा उठा रखा है। इसमें धैर्य और दृढ़ता के साथ आगे बढ़ना होगा। यह भी एक प्रकार का तप है।
      मैं आप जैसे तपस्वी को सादर प्रणाम करता हूं।

      Delete
    3. आदरणीय गुप्ताजी,
      यही तो दुर्भाग्य है इस दौर का कि जो जीने का जरिया या माध्यम है लोग उसी के लिये जीने लगे हैं. साधन की पवित्रता गायब और साध्य की जरूरत ही नहीं. पुरुषार्थ पैसे का दास हो गया. बाहुबली की दास हो गई व्यवस्था.
      पर प्रलय के बाद सृजन की संभावना को खारिज भी नहीं किया जा सकता. वो सुबह कभी तो आएगी. तब तक लौ को प्रज्वलित रखने का गुरुतर भार आप जैसे निष्काम कर्मी सज्जनों को ढोना ही नियति है.
      आप बहुत विचारवान व्यक्तित्व हैं और आपसे जुड़ना हम सबका सौभाग्य है. सो सादर प्रणाम.

      Delete
  5. साहेब प्रेरणादायक लेख लिखा गया है आपने। एक अंग्रेजी लाइन है जिसका यहाँ उल्लेख करना शायद उचित होगा - power of spoken words. हर इन्सान अगर अपने स्वयं से बात करके ( self Talk) इस power का उपयोग करे तो सफल होना निश्चित है।

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत ही सुंदर बात कही आपने. जवाबदेही तो हमारे अंदर ही है, पर क्या इसका एहसास है हमें. सस्नेह

      Delete
  6. जय व पराजय दोनोंं ही स्थितियों में समभाव बना कर चलना ही सच्चा सफल जीवन है ।
    शिकायत संचालित होती है । वाह
    बहुत रोचक पाठन
    सतत.सकारात्मकता .बना के चलना ही अंतिम उपाय है।
    आप को ढेरों साधुवाद व बहुमूल्य परामर्श. के लिये
    ...आभार भाई जी
    .. ..विनोद. कुमार. शुक्ल

    ReplyDelete
  7. विनोद भाई, इतनी दूर लखनऊ में बैठकर भी आप इतनी शिद्दत तथा स्नेह से जुड़े हैं यह बात मुझे बहुत सुख देती है. लेखन तो अपनी जगह है पर मित्रता का सेतु बन सका यह मेरा सौभाग्य है. सादर

    ReplyDelete
  8. हम आप से कभी दूर नहीं हैं ।
    आपका लेखन सदैव प्रेरित करता रहा।
    ईश्वर शीघ्र ही भेंट करायेंगें प्रार्थना है ।

    ReplyDelete
  9. आपसी स्नेह और सद्भाव का संबंध सर्वोपरि होता है जो मेरा सौभाग्य साबित हुआ है आपसे मित्रता के बाद. सादर

    ReplyDelete
  10. संदीप जोशी09 April

    आदरणीय भाई साहब अतिसुन्दर व्यख्यान जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण ही हमारी समस्त समस्याओ का सरलतम हल प्रदान करता हैं, आपके उद्गार हमेशा ही मुझे प्ररित करते हैं, हमेशा अपना आशीर्वाद बनाये रखे।
    संदीप जोशी

    ReplyDelete
  11. प्रिय संदीप, यह वैसे तो सब पर लागू होता है, लेकिन खासतौर पर उनके लिए जो जीवन के उत्तरार्ध युग में प्रवेश कर गए हैं। और मैं तो मुहाने पर बैठा हूं।
    पर एक पुरसुकून ज़िन्दगी का लुफ्त भी तो हासिल किया है इसलिये मन में आनंद की नदी बहती है, जिसकी धुन सदा बनी रहती है. तुम्हारा स्नेह ही तो संबल है. सस्नेह

    ReplyDelete
  12. प्रिय बंधु,retirement के पूर्व धार्मिक पुस्तकों का विशाल भंडार इकठ्ठा कर लिया था, अब बहुत काम आ रहा है समय का सदुपयोग हो जाता है, मानसिक शांति मिलती है, भगवान से प्रार्थना है की आँख ठीक रखे तथा पढ़ने में आनंद आता रहे
    यह model दूसरे मित्र भी आजमा सकते हैं
    Dr S K AGRAWAL, GWALIOR

    ReplyDelete
    Replies
    1. बिल्कुल सही कहा आपने. इससे अच्छा कोई शौक हो ही नहीं सकता. यह न केवल मन मस्तिष्क को चैतन्य रखता है बल्कि नकारात्मकता से मुक्त. सादर

      Delete
  13. आदरणीय भाईसाहब सादर प्रणाम
    अत्यंत प्रेरणादाई और सारगर्भित आलेख।
    सकारात्मक सोच ही हमारे जीवन का सार होती है और हमारे जीवन की दिशा तय करती है।
    हमारी परेशानीयों से हमारी ख़ुशी या गम नहीं जुड़ा होता है, हम किस नाजिरिये से इसे देखते है, ये उससे तय होता है. दुनिया में कई ऐसे लोग है, जो जीवन की कठिन परिस्थति में होंगें, लेकिन फिर भी वे सदा मुस्कराते रहेंगें. और कई ऐसे भी लोग होंगें जिनके पास सब कुछ होगा,तब भी वे परेशान होंगें.ये हमें तय करना होगा, हम अपनी जीवन को किस तरह से देखते हैं।हमारी खुशियां हमारे अंदर ही होती हैं।
    आपके सकारात्मक विचारो से पूर्ण आलेख हमे जीवन का आइना दिखाते हैं, हमे जीवन की वास्तविकता से परिचय कराते हैं और उत्साहविहीं नहीं होने देते।
    सादर अभिनन्दन।

    ReplyDelete
  14. बिल्कुल सही कहा. नज़र से दिखते हैं नज़ारे और सोच तय करता है हमारा नज़रिया. सकारात्मकता का सुख अद्भुत है, जबकि नकारात्मकता सामनेवाले से अधिक तो हमें हानि पहुंचाती है. कोरोना के कठिन दौर में चाहिये राम सा धीर, धैर्य और गंभीर व्यवहार. पिछले डेढ़ दशक से प्रकाशित उदंती जैसी पत्रिकाएं सुखद साधन हैं. लिंक पर जाकर सकारात्मक विचार साझा करना पवित्र आयोजन में हमारी समिधा सदृश्य सहभागिता है. सस्नेह

    ReplyDelete
  15. Atyant mehatva poorna seekh mili hai sir is kahani se.. Ise aaj se hi amal me le kar aunga.
    Bahut Bahut Dhanyavaad

    ReplyDelete
    Replies
    1. प्रिय विजेंद्र, आचरण को आदत बना लेने में ही तो सार है. सस्नेह

      Delete
  16. आदरणीय
    सादर अभिवादन
    वातावरण जब जून की प्रचंड गर्मी में दहकता है ,शिरीष निर्घात खिलता है अवधूत की तरह........
    प्रसिद्ध साहित्यकार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के लेख की पंक्तियों अचानक याद आ गईं।
    इस विपरीत परिस्थितियों में आपकी लेखनी अनेक सुंदर उदाहरणों से मन को सकारात्मक ऊर्जा से भर देती है।
    आपकी लेखनी का मुख्य गुण है आपकी तरह सहज ,सरल और रोचक होना।उदाहरणों की रोचकता मन के तारों को झंकृत कर देती है और एक सुखद संकल्प का बीज अंकुरित हो उठता है। बहुत बहुत साधुवाद,समय की प्रतिकूलता में भी अनुकूलता की ठंडी बयार हेतु।
    माण्डवी

    ReplyDelete
    Replies
    1. आप तो स्वयं बहुत ही विद्वान हैं. धन्यवाद जैसा शब्द बहुत बौना होगा. कुल मिलाकर लेखन के पार्श्व में कहीं न कहीं आप अवश्य उपस्थित होती हैं इस लौ को प्रज्वलित रखने के लिये, जिसका एहसास सदा रहा है अंतर्मन में. यही स्नेह सद्भाव सदैव बना रहे इसी कामना के साथ. सादर

      Delete
  17. पुरुषोत्तम तिवारी 'साहित्यार्थी'
    सर, जैसा चिन्तन वैसा जीवन. चिन्तन भी सकारात्मक है अथवा नकारात्मक,यह उसके विवेक पर आधारित है, उसके ज्ञान साधना पर निर्भर है. सुख और दुख का कोई निश्चित मापदंड नहीं है. एक ही बात में किसी को सुख अनुभव होता है तो किसी को दुख. अन्ततः, बन्धनों से मुक्ति और त्याग से उपभोग में ही जीवन का सुख निहित है. बहुत सुन्दर लेख. हार्दिक बधाई.

    ReplyDelete
  18. बिल्कुल सही कहा आपने, किंतु सब जान कर भी तो हम अनजान बने रहते हैं. यही उत्तर तो दिया था युधिष्ठिर ने यक्ष को. दुख का अंत सुख को आत्मसात करने में ही है. हार्दिक आभार. सादर

    ReplyDelete