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Aug 23, 2011

मलाजखंड



मलाजखंड
- राकेश कुमार मालवीय
मलाजखंड  1
सैकड़ों सालों से
मेरे सीने में
बेशुमार दौलत
धरती के ठंडा होते जाने से
मनुष्य के कपड़े पहनने तक
जिसे हम कहते हैं
सभ्यता का पनपना
और इसी सभ्यता के पैमानों पर
सभ्यता को आगे बढ़ाने के लिए
हम होते जाते हैं असभ्य।

हाँ मैं मलाजखंड
मेरी अकूत दौलत
इसी सभ्यता के लिए
मैंने कर दी कुर्बान
अपने सीने पर
रोज ब रोज
बारूद से खुद को तोड़ तोड़
खुद बर्बाद होने के बावजूद
तुम इंसानों के लिए।

पर यह क्या
मेरी हवा
मेरा पानी
मेरा सीना
मेरे पशु
मेरे पक्षी
मेरे पेड़
मेरे लोग
जिनसे बनता था मैं मलाजखंड
ऊफ
ऐसा तो नहीं सोचा था मैंने
मेरे साथ बर्बाद होंगे यह सब भी
हाँ यह जरूर था
कि मैंने दी अपनी कुर्बानी
लेकिन वह वायदा कहाँ गया।

मलाजखंड  2
मलाजखंड में रोज दोपहर
या कभी कभी दोपहर से थोड़ा पहले
एक धमाका
सभी को हिला देता है
इस धमाके से हिलती हैं
छतें, दीवारे,
लगभग हर दीवारों पर
छोटी बड़ी लहराती दरारें
यह दरारें मलाजखंड तक ही नहीं हैं सीमित
दरारों से रिस रहा पीब
मलाजखंड के मूल निवासियों
का दर्द बयाँ करता है
पशु -पक्षियों
जानवरों की साँसें
केवल हवा ही नहीं निगलती
उसके साथ होती है खतरनाक और जानलेवा रेत
उफ़
मैं मलाजखंड
मैंने दुनिया को अपना बलिदान दिया
और दुनिया ने मुझे ..........।

मलाजखंड 3
मलाजखंड की धरती आज खिलाफ हो गई है
अपने ही खिलाफ
अपनी ही सुंदरता, अपनी ही समृद्धि के खिलाफ
कौन होना चाहता है ऐसा
पर हाँ, मलाजखंड की धरती कर रही है ऐलान
हे इंसान, तुमने क्या कर दिया। 

Journalist, 09977958934.
www.patiyebaji.blogspot.com

4 comments:

  1. प्रकृति के शोषण का दर्द बखूबी बयाँ किया है।

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