tag:blogger.com,1999:blog-4535413749264243925.post5362717643422379358..comments2024-03-19T18:52:57.849+05:30Comments on उदंती.com: हिन्दी के दुर्गम संसार में उदय प्रकाशudanti.comhttp://www.blogger.com/profile/16786341756206517615noreply@blogger.comBlogger1125tag:blogger.com,1999:blog-4535413749264243925.post-73548156576133939882014-04-15T21:53:15.102+05:302014-04-15T21:53:15.102+05:30ठीक से स्मरण तो नहीं ...किंतु शायद छह साल पहले जज ...ठीक से स्मरण तो नहीं ...किंतु शायद छह साल पहले जज कॉलौनी के इसी घर में मैं भी पहुँचा था उदय जी से मिलने । प्रारम्भ की घटना वैसी ही थी जैसी कि आपके साथ हुई । यानी पड़ोसी ने बताया कि वे प्रायः यहाँ नहीं रहते । लोहे के चैनल वाला गेट तब भी उनकी श्रीमती जी ने ही खोल था । तब घर में एक अच्छा सा श्वान भी था। अन्दर पहुँचकर देखा - हॉल की भव्यता एक आम लेखकीय दरिद्रता को पराजित कर रही थी। अच्छा लगा । हम पहुँचे थे "और अंत में प्रार्थना" तथा "मोहनदास" के लेखक से मिलने । <br />चर्चा के अनंतर उन्होंने बताया था - और अंत में प्रार्थना के प्रमुख पात्र डॉ. वाकणकर काल्पनिक नहीं ...वास्तविक हैं । जीवित हैं और ग्वालियर में अपनी शेष ज़िन्दगी कैसे भी काट रहे हैं ।" डॉ. वाकणकर के बारे में उन्होंने और जो कुछ बताया वह सुनकर मैं एक बार काँप गया था। <br />मैंने बताया "आज से दशकों पूर्व लिखी इस कहानी को मैं आज भी घटित होते देखता हूँ।" उन दिनों घटिया दवाइयों की ख़रीदी (जिसमें सौन्दर्य प्रसाधन और अफ़्रोडिजियक्स भी शामिल थें) को लेकर मैं अपने दम पर पूरे विभाग से पंगा मोल ले चुका था और पूरा प्रशासन डॉ. वाकणकर की तरह ही मेरे भी पीछे पड़ चुका था। अंततः डॉ.वाकणकर की ही तरह मुझे भी व्यवस्था से पराजित होना पड़ा। <br /><br />विकास के तमाम दावों का सत्य यह है कि व्यवस्था आज भी वैसी ही है । <br /><br />ख़ैर! आज आपका लेख पढ़्कर पुरानी बातें स्मरण हो आयीं । ...और इसके लिए आपको धन्यवाद! बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरनाhttps://www.blogger.com/profile/11751508655295186269noreply@blogger.com