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May 1, 2023

उदंती.com, मई 2023

वर्ष - 15, अंक - 9

एक हजार खोखले शब्दों से

 बेहतर वह एक शब्द है

 जो शांति लाता है।  - गौतम बुद्ध

 इस अंक में 

अनकहीः वरिष्ठ नागरिक होने का दर्द... - डॉ. रत्ना वर्मा

आलेखः देश में शुरू हुआ गर्म हवाओं का प्रकोप - प्रमोद भार्गव

कविताः इस नैया का और खिवैया - रवीन्द्रनाथ टैगोर

स्वास्थ्यः तलाशना होगा रसोई गैस का विकल्प - अली खान

बुद्ध जयंतीः बुद्धम्‌ शरणम्‌ गच्छामि - ओशो

 प्रेरकः अपने अपने वनवास - निशांत

कविताः पर तुम नहीं बदले - कमला निखुर्पा

चोकाः नदी - भीकम सिंह 

जन्म दिवसः शरद जोशी होने का अर्थ - बसन्त राघव

व्यंग्यः अतिथि तुम कब जाओगे  - शरद जोशी

हाइबनः 1. भँवर, 2. दूसरा कबूतर 3. पट्टे का दर्द - सुदर्शन रत्नाकर

व्यंग्यः पोथी पढ़ि -पढ़ि जग मुआ  - रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

कहानीः नदी का इश्क जिंदा था - दिव्या शर्मा

कविताः चाँद डूब गया - डॉ. कविता भट्ट

लेखकों की अजब गज़ब दुनियाः अजीब आदतों वाले लेखक-2 - सूरज प्रकाश

लघुकथाएँः पहरे पर संतरी -आनंद हर्षुल, नोट -अवधेश कुमारमुक्ति -अर्चना वर्मा

कविताः 1. लम्हें , 2. तलाश - पूनम कतरियार

दोहेः साँसों का यह साज - रश्मि विभा त्रिपाठी

जीवन दर्शनः बाधा तोड़ें सबको जोड़ें- पाँच उँगलियों का सिद्धांत - विजय जोशी

 किताबेंः भाषायी तकनीक की जानकारी देती किताब -  प्रमोद भार्गव

अनकहीः वरिष्ठ नागरिक होने का दर्द...

 - डॉ.  रत्ना वर्मा 

देश में बुजुर्गों की आबादी बढ़ रही है।  सन् 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत की कुल जनसंख्या में 60 वर्ष से अधिक आयु के नागरिकों का हिस्सा 8.6% है और 2050 तक यह दर 21% होने का अनुमान है।  
सरकार ने बुजुर्गों के लिए ही 2007 में वरिष्ठ नागरिक अधिनियम बनाया है,  जो उन्हें आर्थिक रूप से मजबूती, मेडिकल सिक्योरिटी, जरूरी खर्च और प्रोटेक्शन देती है । कहने को तो सरकार द्वारा उनके लिए और भी कई तरह की सुविधाएँ दी जा रही हैं और कई योजनाएँ भी चलाई जा रही हैं;  परंतु वास्तव में क्या वरिष्ठ नागरिकों को सभी सुविधाएँ मिल पाती हैं और क्या उनको मिल रही सुविधाएँ पर्याप्त हैं ।
पूरी जिंदगी नौकरी करने के बाद जब एक मध्यमवर्गीय वरिष्ठ नागरिक के लिए आराम से खुशी- खुशी जीवन बिताने का समय आता है, तो भी वह इसका हकदार नहीं होता; क्योंकि उनकी समस्याएँ खत्म नहीं होतीं।
जिस नागरिक ने अपनी युवावस्था में सभी करों का भुगतान किया था,  अब वरिष्ठ नागरिक बनने के बाद भी उसे सारे टैक्स चुकाने पड़ते हैं। हजारों योजनाओं के बाद भी भारत में 70 वर्ष की आयु के बाद वरिष्ठ नागरिक चिकित्सा बीमा के लिए पात्र नहीं हैं, उन्हें ईएमआई पर ऋण नहीं मिलता है। ड्राइविंग लाइसेंस नहीं दिया जाता है। उन्हें आर्थिक काम के लिए कोई नौकरी नहीं दी जाती है। उन्हें अपनी जिंदगी के बचे दिन दूसरों पर निर्भर रहते हुए बिताने पड़ते हैं। रेल यात्रा में उन्हें मिलने वाली एकमात्र  50% की छूट भी बंद कर दी गई है।  
एक और बड़ी विडम्बना देखिए,  जिंदगी भर काम करने वाले आम वरिष्ठ नागरिकों को तो थोड़ी बहुत सुविधाएँ देकर घर बिठा दिया जाता है;  परंतु वहीं दूसरी ओर हमारे देश की राजनीति में जितने भी वरिष्ठ नागरिक हैं- चाहे विधायक हो या सांसद, उनको मिलने वाली सारी सुविधाओं के बारे में आप जानते ही होंगे और यदि नहीं, तो जानकर आपकी आँखें खुली की खुली रह जाएँगी। पेंशन के साथ यात्रा, स्वास्थ्य और न जाने क्या- क्या.... लिस्ट बहुत लम्बी है।
अब आप सवाल कर सकते हैं कि जब सरकार आम आदमी को भी पेंशन दे रही है, तो फिर काहे का दुख। बस यहीं पर आकर कई सवाल खड़े हो जाते हैं। भले ही सरकारी नौकरी या अन्य निजी संस्थानों से वे रिटायर्ड हो चुके होते हैं;  पर क्या रिटायर्ड हो जाते ही उनकी जिंदगी की अन्य आवश्यकताएँ भी खत्म हो जाती हैं। वर्तमान में तो व्यक्ति अपनी सेहत पर बहुत अधिक ध्यान देने लगा है और यही वजह है वह लम्बी उम्र और स्वस्थ जीवन जीता है साथ ही कुछ न कुछ काम करने लायक रहता है, तब वह चाहता है कि रिटायरमेंट के बाद भी अपने को व्यस्त रखते हुए किसी मनपसंद काम में अपना समय व्यतीत करते हुए देश और समाज के लिए कुछ करते हुए जीवन गुजारे। बुढ़ापे में किसी न किसी काम में व्यस्त रहना एकान्तवास के अवसाद से मुक्त होने का सरल उपाय है। उसके जीवन के अनुभव समाज के लिए बहुत सकारात्मक और उपयोगी हो सकते हैं।
इस बात को साबित करने के लिए हमारे पास एक बहुत अच्छा उदाहरण है-
प्रमुख भारतीय-अमेरिकी गणितज्ञ और सांख्यिकीविद् कल्यामपुड़ी राधाकृष्ण राव साठ साल की उम्र में सेवानिवृत्त हुए और अपनी बेटी, अपने पोते-पोतियों के साथ अमेरिका में रहने चले गए। वहाँ, 62 वर्ष की आयु में, वे पिट्सबर्ग विश्वविद्यालय में सांख्यिकी के प्रोफेसर बने और 70 वर्ष की आयु में, वे पेंसिल्वेनिया विश्वविद्यालय में विभाग के प्रमुख बने। 75 वर्ष की आयु में अमेरिकी नागरिकता। 82 वर्ष की आयु में विज्ञान के लिए राष्ट्रीय पदक, व्हाइट हाउस सम्मान। अब 102 साल की उम्र में उन्हें  सांख्यिकी में 2023 के अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया । इस पुरस्कार को सांख्यिकी के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार के समान माना जाता है। भारत में सरकार उन्हें पहले ही पद्म भूषण (1968) और पद्म विभूषण (2001) से सम्मानित कर चुकी है। राव कहते हैं: भारत में रिटायरमेंट के बाद कोई नहीं पूछता। सहकर्मी भी सत्ता का सम्मान करते हैं, विद्वत्ता का नहीं। 102 साल की उम्र में अच्छी शारीरिक स्थिति में नोबेल के समकक्ष पुरस्कार प्राप्त करना शायद अपने आप में यह पहला उदाहरण है।
परंतु दुखद स्थिति यह है कि हमारे भारतीय परिवार में एक उम्र के बाद बच्चे अपने माता-पिता से कहने लगते हैं – हम हैं ना आपको काम करने की जरूरत क्या है, आप घर में रहिए आराम की जिंदगी व्यतीत कीजिए.... पर आप खुद ही सोचिए, जो इंसान जिंदगी भर काम करता रहा हो, अचानक चुपचाप बिना कुछ काम के दो वक्त का खाना खाते हुए दिन गुजारे, तो वह असमय ही बूढ़ा और बीमार महसूस करेगा। मानसिक रूप से टूटा हुआ महसूस करेगा वह अलग। आम घरों में देखा तो यही गया है  कि घर के बाकी सदस्य तो अपने- अपने काम में व्यस्त हो जाते हैं, तब उनके पास बुजुर्गों के साथ समय व्यतीत करने का वक्त ही नहीं होता। एकल होते परिवारों की यही समस्या है। देश में बढ़ते वृद्धाश्रमों की संख्या से भी हम यह बात आसानी से समझ सकते हैं कि एकल होते परिवारों के कारण वरिष्ठ नागरिकों की समस्याएँ दिन- प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं।
हम सभी यह भी जानते हैं कि भारतीय संस्कृति में अपने संस्कारों के चलते आमतौर पर बुजुर्ग अपनी धन- सम्पत्ति बच्चों के नाम यह सोचकर कर देते हैं कि वे उनकी देखभाल करेंगे। पर अधिकतर परिवारों में देखा यह गया है कि बच्चों का जब अपना घर संसार बस जाता है, वे कभी नौकरी की मजबूरी जताकर, तो कभी बच्चों की पढ़ाई का बहाना करके अपने माता- पिता को अकेला छोड़कर चले जाते हैं, तब उन्हें जिस तकलीफ का सामना करना पड़ता है, वे दिखाई कम देती है; परंतु उनको भीतर ही भीतर खोखला करती चली जाती हैं।  उस तकलीफ का नाम है- अकेलापन। बहुत से परिवारों में बुजुर्ग स्वयं अपना घर छोड़कर दूसरे शहरों में जाना नहीं चाहते; इसलिए भी वे परिवार से दूर अकेले पड़ जाते हैं। ऐसे में आवश्यक है कि अकेले रहते हुए भी उन्हें वह सब कुछ मिले, जिसके वे हकदार है; क्योंकि अपनी युवावस्था में उन्होंने देश समाज और परिवार के लिए अपना सबसे बेहतर और कीमती समय दिया है। अधिक उम्र में भी उन्हें बेहतर और हँसी – खुशी वाली जिंदगी जीने का अधिकार है। अतः उनकी समस्याएँ बढ़ाने के बजाय उनके लिए भी ऐसी योजनाएँ बनाई जानी चाहिए, जिससे उनका अंतिम समय आराम से कट सके। वृद्धाश्रमों की संख्या न बढ़ाकर उनके लायक काम करने के ऐसे अवसर उपलब्ध कराए जाएँ,  जिससे उनके अनुभव का फायदा तो देश को मिले ही, साथ ही आज की पीढ़ी उन्हें बोझ समझकर अकेला छोड़ने के बजाय उन्हें साथ लेकर आगे बढ़ें।

आलेखः देश में शुरू हुआ गर्म हवाओं का प्रकोप

 -  प्रमोद भार्गव

देश में भीषण गर्म हवाएँ चल पड़ी हैं। ये हवाएँ मुंबई में कहर बनकर टूट भी पड़ी हैं। यहाँ आयोजित 'महाराष्ट्र भूषण' पुरस्कार समारोह के दौरान तेज धूप के कारण हुई तेरह लोगों की मौत की जानकारी स्वयं मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने दी है। इस आयोजन में भागीदारी करने केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह आए थे। खारघर में एक खुले मैदान में अप्पासाहेब धर्माधिकारी को सम्मानित किया गया था। इसी बीच 38 डिग्री तापमान में बैठे लोग तेज धूप की तपन से व्याकुल होने लगे और देखते देखते सात लोग काल के गाल में समा गए। 24 का उपचार अस्पताल में चल रहा है। दिल्ली में भी गर्मी बेहाल करने के हालात पैदा करने लगी है। 40.4 डिग्री सेल्सियस से 42.4 डिग्री सेल्सियस तक पहुँचे तापमान ने पूरी दिल्ली में लू के हालात उत्पन्न कर दिए हैं। पूर्वी और पूर्वोत्तर भारत में भी यह गर्मी कहर बरपा रही है। इसी समय हैदराबाद विश्वविद्यालय के मौसम विभाग के 'जर्नल ऑफ अर्थ सिस्टम साइंस' में प्रकाशित अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि पिछले 49 साल में भारत गर्मी का प्रकोप निरंतर बढ़ रहा है। लू चलने की घटनाएँ हर दशक में बीते दशक से 0.6 बार अधिक हुई हैं, जबकि इसके विपरीत शीत लहर चलने की घटनाएँ प्रत्येक दशक में बीते दशक से 0.4 मर्तबा कम हुई हैं। गर्मियों में जब लगातार तीन दिन औसत से ज्यादा तापमान रहता है, तो उसे 'लू' कहते हैं। यदि सर्दियों में तीन दिन तक निरंतर औसत से कम तापमान रहता है, तो उसे 'शीतलहर' कहा जाता है।

श्रीमद्भागवत् पुराण के अनुसार तेज गर्मी या प्रलय आने पर सांवर्तक सूर्य अपनी प्रचंड किरणों से पृथ्वी, प्राणी के शरीर,समुद्र और जल के अन्य स्रोतों से रस यानी नमी खींचकर सोख लेता है। नतीजतन उम्मीद से ज्यादा तापमान बढ़ता है, जो गर्म हवाएँ चलने का कारण बनता है। यही हवाएँ लू कहलाती हैं। आज कल मौसम का यही हाल है। जब हवाएँ आवारा होने लगती हैं, तो लू का रूप लेने लग जाती हैं। लेकिन हवाएँ भी भला आवारा होती हैं ? वे तेज ,गर्म व प्रचंड होती हैं। जब प्रचंड से प्रचंडतम होती हैं तो अपने प्रवाह में समुद्री तूफ़ान और आँधी बन जाती हैं। सुनामी जैसे तूफ़ान इन्हीं आवारा हवाओं के दुष्परिणाम हैं। इसके ठीक विपरीत हवाएँ ठंडी और शीतल भी होती हैं। हड्डी कँपकँपा देने वाली हवाओं से भी हम रूबरू होते हैं। लेकिन आजकल आवारा पूँजी की तरह हवाएँ भी आवारा व्यक्ति की तरह समूचे उत्तर व मध्य भारत में मचल रही हैं. तापमान 40 से 44 डिग्री सेल्सियस के बीच पहुँच गया है, जो लोगों को पस्त कर रहा है। अतएव हरेक जुबान पर प्रचंड धूप और गर्मी जैसे बोल आमफ़हम हो गए हैं। हालाँकि लू और प्रचंड गर्मी के बीच भी एक अंतर होता है। गर्मी के मौसम में ऐसे क्षेत्र जहाँ तापमान, औसत तापमान से कहीं ज्यादा हो और तीन दिन तक यही स्थिति यथावत बनी रहे तो इसे ‘लू‘ कहने लगते हैं । मौसम की इस असहनीय विलक्षण दशा में नमी भी समाहित हो जाती है। यही सर्द-गर्म थपेड़े लू की पीड़ा और रोग का कारण बन जाते हैं। किसी भी क्षेत्र का औसत तापमान, किस मौसम में कितना होगा, इसकी गणना एवं मूल्यांकन पिछले 30 साल के आँकड़ो के आधार पर की जाती है। वायुमंडल में गर्म हवाएँ आमतौर से क्षेत्र विशेष में अधिक दबाव की वजह से उत्पन्न होती हैं। वैसे तेज गर्मी और लू पर्यावरण और बारिश के लिए अच्छी होती हैं। अच्छा मानसून इन्हीं आवारा हवाओं का पर्याय माना जाता है, क्योंकि तपिश और बारिश में गहरा अंत:सम्बंध है।

धूप और लू के इस जानलेवा संयोग से कोई व्यक्ति पीड़ित हो जाता है, तो उसके लू उतारने के इंतजाम भी किए जाते हैं। दरअसल लू सीधे दिमागी गर्मी को बढ़ा देती है; अतएव इसे समय रहते ठंडा नहीं किया , तो यह बिगड़ा अनुपात व्यक्ति को बौरा भी सकता है। वैसे शरीर में प्राकृतिक रूप से तापमान को नियंत्रित करने का काम मस्तिष्क में ‘हाइपोथैलेमस‘ अर्थात ‘अधश्चेतक‘ क्षेत्र करता है। इसका सबसे महत्वपूर्ण कार्य पीयूष ग्रंथि के माध्यम से तंत्रिका तंत्र को अंतःस्रावी प्रक्रिया के माध्यम से तापमान को संतुलित बनाए रखना होता है। इसे चिकित्सा शास्त्र की भाषा में हाइपर-पीरेक्सिया कहते हैं। यानी शरीर के तापमान में असमान वृद्धि या अधिकतम बुखार का बढ़ जाना। इसकी चपेट में बच्चे और बुजुर्ग आसानी से आ जाते हैं।

बाहरी तापमान जब शरीर के भीतरी तापमान को बढ़ा देता है, तो हाइपोथैलेमस तापमान को संतुलित बनाए रखने का काम नहीं कर पाता। नतीजतन शरीर के भीतर बढ़ गई अनावश्यक गर्मी बाहर नहीं निकल पाती है, जो शरीर में लू का कारण बन जाती है। इस स्थिति में शरीर में कई जगह प्रोटीन जमने लगता है और शरीर के कई अंग एक साथ निष्क्रियता की स्थिति में आने लग जाते हैं। ऐसा शरीर में पानी की कमी यानी डी-हाईड्रेशन के कारण भी होता है। दोनों ही स्थितियाँ जानलेवा होती है। इस स्थिति के निर्माण हो जाने पर बुखार उतारने वाली साधारण गोलियाँ काम नहीं करती हैं; क्योंकि ये दवाएँ दिमाग में मौजूद हाइपोथैलेमस को ही अपने प्रभाव में लेकर तापमान को नियंत्रित करती हैं, जबकि लू में यह स्वयं शिथिल होने लग जाता है।

ऐसे में यदि पानी कम पीते हैं, तो हालात और बिगड़ सकते है, इसलिए पानी और अन्य तरल पदार्थ ज्यादा पीने की जरूरत बढ़ जाती है। रोग-प्रतिरोधात्मक क्षमता बढ़ाने वाले खाद्य पदार्थों का सेवन लू को नियंत्रित करता है। लू लगे ही नहीं इसके लिए जरूरी है कि गर्मी के संपर्क से बचें और हल्के रंग के सूती कपड़े या खादी के वस्त्र पहने। सिर पर स्वाफी (तौलिया) बाँध लें और छाते का उपयोग करें। आम का पना, मट्ठा, लस्सी, शरबत जैसे तरल पेय और सत्तू का सेवन लू से बचाव करने वाले हैं। ग्लूकोज और नींबू पानी भी ले सकते हैं।

हवाएँ गर्म या आवारा हो जाने का प्रमुख कारण ऋतुचक्र का उलटफेर और भूतापीकरण (ग्लोबल वार्मिंग) का औसत से ज्यादा बढ़ना है; इसीलिए वैज्ञानिक दावा कर रहे हैं कि इस बार प्रलय धरती से नहीं आकाशीय गर्मी से आएगी। आकाश को हम निरीह और खोखला मानते हैं, किंतु वास्तव में यह खोखला है नहीं। भारतीय दर्शन में इसे पाँचवाँ तत्त्व यूँ ही नहीं माना गया है। सच्चाई है कि यदि परमात्मा ने आकाश तत्त्व की उत्पत्ति नहीं की होती, तो संभवतः आज हमारा अस्तित्व ही नहीं होता। हम श्वास भी नहीं ले पाते। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु ये चारों तत्त्व आकाश से ऊर्जा लेकर ही क्रियाशील रहते हैं। ये सभी तत्त्व परस्पर परावलंबी हैं। यानी किसी एक तत्त्व का वजूद क्षीण होगा तो अन्य को भी छीजने की इसी अवस्था से गुजरना होगा। प्रत्येक प्राणी के शरीर में आंतरिक स्फूर्ति एवं प्रसन्नता की अनुभूति आकाश तत्त्व से ही संभव होती है, इसलिए इसे ब्रह्म तत्त्व भी कहा गया है। अतएव प्रकृति के संरक्षण के लिए सुख के भौतिकवादी उपकरणों से मुक्ति की जरूरत है। क्योंकि हम देख रहे हैं कि कुछ एकाधिकारवादी देश एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ भूमंडलीकरण का मुखौटा लगाकर ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से दुनिया की छत यानी ओजोन परत में छेद को चौड़ा करने में लगी हैं। यह छेद जितना विस्तृत होगा, वैश्विक तापमान उसी अनुपात में अनियंत्रित व असंतुलित होगा। नतीजतन हवाएँ ही आवारा नहीं होंगी , प्रकृति के अन्य तत्त्व मचलने लग जाएँगे। जलवायु परिवर्तन के कारण प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति भी बढ़ रही है और जलीय स्रोतों पर दोहन का दबाव बढ़ता जा रहा है। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में प्रकृति से उत्पन्न कठिन हालात के साथ जीवन यापन की आदत डालनी होगी तथा पर्यावरण संरक्षण पर गंभीरता से ध्यान देना होगा।   ■■

सम्पर्कः शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी म.प्र., मो. 09425488224, 9981061100


कविताः 7 मई रवीन्द्र जयंती- इस नैया का और खिवैया


- रवीन्द्रनाथ टैगोर

अरे भीरु, कुछ तेरे ऊपर, नहीं भुवन का भार

अरे भीरु, कुछ तेरे ऊपर, नहीं भुवन का भार

इस नैया का और खिवैया, वही करेगा पार ।

आया है तूफ़ान अगर तो भला तुझे क्या आर

चिन्ता का क्या काम चैन से देख तरंग-विहार ।

गहन रात आई, आने दे, होने दे अंधियार–

इस नैया का और खिवैया वही करेगा पार ।


पश्चिम में तू देख रहा है मेघावृत्त आकाश

अरे पूर्व में देख न उज्ज्वल ताराओं का हास ।

साथी ये रे, हैं सब “तेरे”, इसीलिए, अनजान

समझ रहा क्या पायेंगे ये तेरे ही बल त्राण ।

वह प्रचण्ड अंधड़ आयेगा,

काँपेगा दिल, मच जाएगा भीषण हाहाकार–

इस नैया का और खिवैया यही करेगा पार । 


स्वास्थ्यः तलाशना होगा रसोई गैस का विकल्प

 - अली खान

आपको यह जानकर हैरानी होगी कि रसोई गैस हमारी सेहत के लिए बेहद जोखिम भरी है। यह बात ऑस्ट्रेलिया की न्यू साउथ वेल्स यूनिवर्सिटी में हुए एक अध्ययन में सामने आई है। आज अधिकतर घरों में लोग खाना पकाने के लिए एलपीजी यानी लिक्विफाइड पेट्रोलियम गैस का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन शोधकर्ताओं का कहना है कि अब एलपीजी गैस का विकल्प तलाशने का समय आ गया है।

अब तक यही कहा जाता था कि कोयला और लकड़ी को ईंधन के रूप में इस्तेमाल करने पर इनसे निकलने वाला धुआँ साँस सम्बंधी बीमारियों को न्यौता है। इसके बनिस्बत एलपीजी धुआँ नहीं छोड़ती और हवा को प्रदूषित नहीं करती है। लेकिन अध्ययन के अनुसार एलपीजी गैस पर भी खाना बनाना न सिर्फ हमारी सेहत के लिए बल्कि पर्यावरण के लिए भी हानिकारक है। 

जब हम गैस जलाते हैं, तो ज़हरीले यौगिक बनते हैं तथा नाइट्रोजन और ऑक्सीजन मिलकर ज़हरीले नाइट्रोजन ऑक्साइड बनते हैं। इससे दमा व अन्य स्वास्थ्य समस्याएँ हो सकती हैं। इसके अलावा ये रक्तप्रवाह में भी मिल सकते हैं। जो हृदय रोग, कैंसर और अल्ज़ाइमर वगैरह का खतरा पैदा कर सकते हैं। 

जब हम गैस चूल्हा जलाते हैं, तो असल में हम जीवाश्म ईंधन ही जला रहे होते हैं जिससे कार्बन मोनोऑक्साइड और फारमेल्डीहाइड भी बन सकते हैं। कार्बन मोनोऑक्साइड के उत्सर्जन से हवा में ऑक्सीजन कम होती है और खून में भी ऑक्सीजन नष्ट होती है। इससे हमें सिरदर्द और चक्कर आने जैसी समस्याएँ हो सकती हैं।

रसोई गैस हमारी सेहत के लिए कितनी नुकसानदेह है, इसका अंदाज़ा इससे बखूबी लगाया जा सकता है कि एंवायरमेंट साइंस एंड टेक्नॉलॉजी जर्नल में छपे अध्ययन में पाया गया है कि अमेरिका में बच्चों में दमा के 12.7 फीसदी मामले, यानी हर आठ में से एक मामले में वजह रसोई गैस से हुआ उत्सर्जन है। वहीं, 2022 में हुए एक अध्ययन में कहा गया था कि अमेरिका में रसोई गैस से कुल जितना कार्बन उत्सर्जन होता है वह पाँच लाख कारों से होने वाले उत्सर्जन के बराबर है। 

भारत, दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा एलपीजी उपभोक्ता देश है। यहाँ 2021 तक करीब 28 करोड़ एलपीजी कनेक्शन थे। इनमें हर साल 15 फीसदी की बढ़ोतरी हो रही है। पेट्रोलियम मंत्रालय के अनुमान के मुताबिक, 2040 तक एलपीजी उपभोग बढ़कर 4.06 करोड़ टन हो जाएगा। बता दें कि भारत में एलपीजी में प्रोपेन गैस का प्रयोग होता है। इसके जलने से खतरनाक बेंज़ीन गैस निकलती है। लिहाज़ा, हमें ऐसे विकल्प तलाशने की ज़रूरत है जो अधिक सुरक्षित और पर्यावरण के अनुकूल हों। (स्रोत फीचर्स) ■■

7 मई बुद्ध जयंतीः बुद्धम्‌ शरणम्‌ गच्छामि

 -  ओशो
गौतम बुद्ध ऐसे हैं जैसे हिमाच्छादित हिमालय। पर्वत तो और भी हैं। हिमाच्छादित पर्वत और भी हैं, पर हिमालय अतुलनीय है। उसकी कोई उपमा नहीं है। हिमालय बस हिमालय जैसा है। गौतम बुद्ध बस गौतम बुद्ध जैसे हैं। पूरी मनुष्य जाति के इतिहास में वैसा महिमा पूर्ण नाम दूसरा नहीं। 

गौतम बुद्ध ने जितने हृदयों की वीणा को बजाया है उतना किसी और ने नहीं। गौतम बुद्ध के माध्यम से जितने लोग जागे और जितने लोग परम भगवत्ता को उपलब्ध हुए उतने किसी और के माध्यम से नहीं। गौतम बुद्ध की वाणी अनूठी है और विशेषकर उन्हें, जो सोच-विचार, चिंतन-मनन, विमर्श के आदी हैं। 

हृदय से भरे हुए लोग सुगमता से परमात्मा की तरफ चले जाते हैं, लेकिन हृदय से भरे हुए लोग कहाँ हैं? और हृदय से भरने का कोई उपाय भी तो नहीं है। हो तो हो न हो तो न हो। ऐसे आकस्मिक नैसर्गिक बात पर निर्भर नहीं रहा जा सकता।

बुद्ध ने उनको चेताया जिनको चेताना सर्वाधिक कठिन है- विचार से भरे लोग, बुद्धि वादी, चिंतन, मननशील। प्रेम और भाव से भरे लोग तो परमात्मा की तरफ सरलता से झुक जाते है, उन्हें झुकना नहीं पड़ता। उनसे कोई न भी कहे, तो भी वे पहुँच जाते हैं, उन्हें पहुँचाना नहीं पड़ता, लेकिन वे तो बहुत थोड़े हैं और उनकी संख्या रोज थोड़ी होती गई है। 

अँगुलियों पर गिने जा सकें, ऐसे लोग हैं। मनुष्य का विकास मस्तिष्क की तरफ हुआ है। मनुष्य मस्तिष्क से भरा है। इसलिए जहाँ जिससे हार जाए, जहाँ कृष्ण की पकड़ न बैठे, वहाँ भी बुद्ध नहीं हारते।

वहाँ भी बुद्ध प्राणों के अंतरतम में पहुँच जाते है। बुद्ध का धर्म बुद्धि का धर्म कहा गया है। बुद्धि या उसका आदि तो है, अंत नहीं। शुरुआत बुद्धि से है, प्रारंभ बुद्धि से है, क्योंकि मनुष्य वहाँ खड़ा है, लेकिन अंत, अंत उसका बुद्धि में नहीं। अंत तो परम अतिक्रमण है, जहाँ सब विचार खो जाते हैं। सब बुद्धिमत्ता विसर्जित हो जाती है। 

जहाँ केवल साक्षी, मात्र साक्षी शेष रह जाता है। लेकिन बुद्ध का प्रभाव उन लोगों में तत्क्षण अनुभव होता है, जो सोच-विचार में कुशल है। बुद्ध के साथ मनुष्य जाति का एक नया अध्याय शुरू हुआ। पच्चीस सौ वर्ष पहले बुद्ध ने वह कहा जो आज भी सार्थक मालूम पड़ेगा और जो आने वाली सदियों तक सार्थक रहेगा।

बुद्ध ने काफी कह दिया, जरूरत से ज्यादा कह दिया। जितना समझना जरूरी हो, उससे ज्यादा कह दिया। जितने से पूरी यात्रा हो सकती है, उतना कह दिया। पूरा सेतु निर्मित कर दिया, रास्ता पूरा साफ कर दिया।... काश! सुनने वालों में थोड़ी भी समझ होती, तो वहीं देखते जिस तरफ बुद्ध देख रहे हैं। बुद्ध क्या कहते हैं, यह समझना जरूरी नहीं है। 

बुद्ध कहाँ देखते हैं, वहाँ देखना जरूरी है। बुद्ध क्या बोलते हैं, यह व्यर्थ है। बुद्ध कैसे हैं, वही सार्थक है। बुद्ध की आँखों में क्या झलक रहा है, वह हमें खोजना चाहिए, बुद्ध के शब्दों में क्या झलक आ रही है, वह तो बहुत दूर की है। बुद्ध की आँखें बिलकुल खजाने के पास हैं।

बुद्ध ने कहा है- मेरे पास आना, लेकिन मुझसे बँध मत जाना। तुम मुझे सम्मान देना, सिर्फ इसलिए कि मैं तुम्हारा भविष्य हूँ, तुम भी मेरे जैसे हो सकते हो, इसकी सूचना हूँ। तुम मुझे सम्मान दो, तो यह तुम्हारा बुद्धत्व को ही दिया गया सम्मान है, लेकिन तुम मेरा अंधानुकरण मत करना, क्योंकि तुम अंधे होकर मेरे पीछे चले तो बुद्ध कैसे हो पाओगे? बुद्धत्व तो खुली आँखों से उपलब्ध होता है, बंद आँखों से नहीं और बुद्धत्व तो तभी उपलब्ध होता है, जब तुम किसी के पीछे नहीं चलते, खुद के भीतर जाते हो।

कल्याण मित्र बुद्ध का शब्द है, गुरु के लिए। बुद्ध गुरु के शब्द के पक्षपाती नहीं, थोड़े विरोधी हैं। बुद्ध अनूठे मनुष्य हैं। वे कहते हैं कि गुरु शब्द विकृत हो गया है। हो भी गया है, उस दिन भी हो गया था। गुरुओं के नाम पर इतना व्यवसाय चला है- गुरुओं ने लोगों को कहीं पहुँचाया ऐसा तो मालूम नहीं होता है। 

कभी सौ गुरुओं में कोई एक गुरु होता होगा, निन्यानवे तो गुरु नहीं होते- सिर्फ गुरु-अभ्यास! इसलिए बुद्ध ने नया शब्द चुन लियाः कल्याण मित्र। बुद्ध ने अपने शिष्यों को कहा है कि मैं तुम्हारा कल्याण मित्र हूँ।

बुरे मित्रों की संगति न करें, न अधम पुरुषों की संगति करें। कल्याण मित्रों की संगति करें और उत्तम पुरुषों की संगति करें।...कल्याण मित्र का अर्थ है- जो पहुँच गया, जिसने शिखर पर घर बना लिया। 

उत्तम पुरुष का अर्थ है, जो मार्ग पर है, लेकिन तुमसे आगे है, तुमसे श्रेष्ठतर है। तुमसे सुंदरतम है। उत्तम पुरुष का अर्थ है, साधु। उत्तम पुरुष का अर्थ है थोड़ा तुमसे आगे। कम से कम उतना तो तुम्हें ले जा सकता है, कम से कम उतना तो तुम्हें खींच ले सकता है।

कल्याण मित्र वही है, जो तुम्हारे भीतर की मनःस्थिति को बदलने में सहयोगी हो जाता है। और यह तभी संभव है, जब वह तुमसे ऊपर हो, उत्तम पुरुष हो। यह तभी संभव है जब वह तुमसे आगे गया हो। जो तुमसे आगे नहीं गया है, वह तुम्हें कहीं ले जा न सकेगा। आगे ले जाने की बातें भी करे, तो भी तुम्हें नीचे ले जाएगा।

मैं तुम्हें बुद्ध की बात संक्षिप्त में कह दूँ। बुद्ध कहते हैं- न कोई गुरु है, न कोई शिष्य है। और मैं तुम्हारा गुरु और तुम मेरे शिष्य! मेरे पास सिखाने को कुछ भी नहीं हैं, और आओ, मैं तुम्हें सिखाऊं। गुरु की कोई जरूरत नहीं है, और आओ, मेरा सहारा ले लो। यह सर्वांगीण सत्य है, क्योंकि दोनों बातें इसमें आ गईं। इसमें गुरु-शिष्य भी आ गए, और गुरुता भी नहीं आई और शिष्य का अपूर्व नाता भी आ गया और नाता मोह भी नहीं बना। वह अंतरंग संबंध भी निर्मित हो गया, लेकिन उस अंतरंग संबंध में कोई गांठ नहीं पड़ी, कारा- गृह नहीं बना....

बुद्धम्‌ शरणम्‌ गच्छामि ■■

प्रेरकः अपने-अपने वनवास

 - निशांत
रामायण में अन्य राजपुत्रों के साथ सुकुमार श्रीराम को भी सीता-स्वयंवर में आमंत्रित करके शिव के धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए कहा जाता है। यदि राम इसमें सफल रहेंगे तो उनका विवाह सीता से हो जाएगा। राम धनुष को उठाकर उसे प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए खींचते हैं परंतु धनुष टूट जाता है। अन्य आमंत्रितों में से कोई भी राजा धनुष को हिला भी न पाया था अतः जनकराज राम से अत्यंत प्रभावित होकर अपनी पुत्री सीता का हाथ उनके हाथ में दे देते हैं।

यह सोचना सच में अचरज भरा है कि कोमल और दयालु स्वभाव के स्वामी राम उस धनुष को मोड़कर कैसे तोड़ देते हैं जिसपर उन्हें केवल प्रत्यंचा ही चढ़ानी थी! यह धनुष मिथिला की प्राचीन राजसत्ता का प्रतीक है। धनुष तभी तक उपयोगी है जब इसकी प्रत्यंचा न तो अधिक ढीली हो और न ही अधिक कसी हुई हो। सुकुमार राम द्वारा इसे यों ही तोड़ देने के पीछे कुछ-न-कुछ प्रयोजन अवश्य है; क्योंकि यह कोई साधारण धनुष नहीं था। यह सृष्टि के संहारक महायोगी शिव का धनुष था।

अयोध्या में राम के आगमन पर उनके पिता राजा दशरथ यह विचार व्यक्त करते हैं कि वे अब बूढ़े हो चले हैं और उन्हें राजपाट अपने ज्येष्ठ पुत्र के हवाले कर देना चाहिए। दुर्भाग्यवश राजतिलक की सारी तैयारियों पर पानी फिर जाता है। राजमहल में घटनेवाली बातों के कारण राम को वनवास के लिए अयोध्या छोड़नी पड़ती है। क्या शिव के धनुष के टूटने और राम को राज्य न मिलने की घटना में कोई संबंध है? रामायण में इसपर कोई चर्चा नहीं की गई है; लेकिन यह प्रश्न बहुत रोचक है। चाहे जो हो, हिन्दू कथानकों में कई प्रतीकात्मक बिंदु हैं और इस संबंध के विवेचन की भी आवश्यकता है।

राम के द्वारा शिव के धनुष को खंडित कर देना संभवतः इस बात का प्रतीक है कि राम ने कामनाओं और आसक्तियों का खंडन कर दिया है; क्योंकि महायोगी शिव स्वयं अनासक्ति के देवता हैं। क्या इसीलिए राम को राजा नहीं बनाया जाता है? क्या इसीलिए उन्हें चौदह वर्ष के वनवास पर भेजा जाता है, ताकि वे अपने भीतर कुछ मोह-माया लेकर लौटें? ध्यान दें कि चौदह वर्ष के बाद रावण के वध के उपरान्त राम के व्यवहार में हमें कैसा विचित्र आवेश दिखता है। वे सीता से कहते हैं कि उन्होंने रावण का वध सीता को पाने के लिए नहीं बल्कि धर्म की रक्षा और अपने कुल की मर्यादा को अक्षुण्ण रखने के लिए किया। इससे यह प्रतीत होता है कि शीघ्र ही राजा बनने जा रहे व्यक्ति के लिए यह अशोभनीय था कि वह अपनी पत्नी के प्रति अपने भावनाओं को सबके समक्ष व्यक्त करे।  उसे प्राप्त करने के लिए धनुष को खंडित करते समय तो उसने अपने मनोभावों का प्रकटन किया, पर ऐसा वह दुबारा नहीं करेगा।

प्राचीन दृष्टों ने राजाओं से ऐसी ही अनासक्ति की अपेक्षा की थी। यहाँ राजत्व का महत्त्व परिवार से भी बढ़कर था। यही कारण है कि राम को सर्वोच्च पदवी पर आसीन कर दिया गया। आज शायद हम इन विचारों से सहमत न हो सकें; लेकिन यह स्पष्ट है कि महाकाव्य में वर्षों तक निर्जन वन में विचरण करने को त्रासदी की भाँति नहीं, बल्कि ऐसी कालावधि के रूप में देखा गया है, जिसमें राम राजमुकुट का भार वहन करने योग्य बन रहे हैं।

निर्जन वन में पकने/विकसित होने की यही थीम महाभारत में दोहराई गई है। कृष्ण इन्द्रप्रस्थ का राज्य स्थापित करने में पांडवों की सहायता करते हैं; पर वे पाँचों भाई मूर्खतापूर्वक जुए में अपना सब कुछ हार जाते हैं। इसके परिणामस्वरूप उन्हें तेरह वर्ष का वनवास मिलता है। वन में जब युधिष्ठिर अपने भाग्य का रोना रोते हैं, तो महात्मा उन्हें स्मरण कराते हैं कि श्री राम ने भी दोषहीन होते हुए उनसे एक वर्ष अधिक का वनवास झेला। महात्मा पांडवों से कहते हैं कि अपना सर धुनने की बजाय इस अवधि को नए कौशल सीखने में लगाएँ। पांडव नई चीज़ें सीखते हैं। शिव के वेश में साधारण आखेटक से द्वंद्व में परास्त होकर अर्जुन नम्रता सीखते हैं, बूढ़े वानर (हनुमान) की पूँछ उठा पाने में असमर्थ होने पर भीम का गर्व चूर हो जाता है और उसमें दीनता आती है। अज्ञातवास के एक वर्ष की अवधि में सभी पांडव बंधु अपने मान-अपमान को ताक पर रखकर साधारण नौकर-चाकरों की भाँति दूसरों की सेवा करते हैं। इतना सब होने के बाद ही वे महाभारत के महायुद्ध में कृष्ण की अगुवाई में अपने शत्रुओं का दमन कर पाते हैं।

कॉरर्पोरेट जगत में अपना मुकाम बना चुके अधिकतर लीडर्स भी कभी-न-कभी अपना वनवास काट चुके होते हैं। किसी CEO, या सफल उद्यमी से बात कीजिए और आप देखेंगे कि उनकी आँखें सालों तक कॉरर्पोरेट के बीहड़ में बिताये वक़्त की दास्ताँ बयान करतीं हैं। यह वह वक़्त था जब कोई उन्हें पूछता नहीं था, उन्हें पीछे धकेल दिया जाता और उनके काम की कीमत तक नहीं दी जाती थी। उनसे भय खानेवाले दोयम दर्जे के लोग उन्हें ताकत और दौलत से दूर कर देते थे। वे आपको उन दिनों के बारे में बताएँगे जब लोग उन्हें नवागंतुक या उससे भी बुरा… गया बीता जानकर व्यवहार करते थे। यह अफसोसनाक है पर बहुत से लीडर्स अपने जीवन के इस दौर को सकारात्मकता से नहीं लेते। इससे उनमें असुरक्षा की भावना आ जाती है और वे कड़वाहट से भर जाते हैं। अपनी ही राख से फिर जीवित हो जाने वाले पौराणिक फीनिक्स पक्षी बनने की बजाय वे विशाल वटवृक्ष बन जाते हैं, जो सबको शीतलता तो देता है; पर अपने नीचे घास का एक तिनका भी नहीं पनपने देता।

यह देखने में आया है कि किसी मंझोली कंपनी का लीडर अपने टीम के सदस्यों में यह भावना भरने में रुचि लेता है कि वे शक्तिशाली हैं। पर सच्चाई यह है कि निर्णय लेते समय वह निपट अकेला होता है। उसने अपने नीचे किसी प्रतिभा समूह या दूसरी कमान का विकास नहीं किया है। यदि आप उससे इस बारे में पूछेंगे, तो वह इस प्रत्यक्ष सत्य को स्वीकार करने से ही इनकार कर देगा। उसे शायद इसका पता ही नहीं है। एक समय ऐसा भी था, जब वह किसी तेजी से विकसित हो रही कंपनी में मार्केटिंग विभाग का मुखिया था। लेकिन जब उस कंपनी में नए CEO ने काम सँभाला, तो वह उसका विश्वासपात्र नहीं बन सका और छँटनी के योग्य बन गया। उसे किसी दूर देश में बड़े पदनाम के साथ मामूली काम निपटाने के लिए तीन साल के लिए भेज दिया गया। उस तीन वर्षों में वह कॉरर्पोरेट निर्जनता में बिखर गया। उसके भीतर कड़वाहट, खीझ, एवं गुस्सा भर गया और उसने तय कर लिया कि वह लड़ेगा और विजेता बनकर दिखाएगा। इसी जूनून में उसने अपना पद छोड़ दिया और नई कंपनी में प्रवेश किया। वर्षों तक संघर्ष करने के बाद अब वह बहुत बड़ी कंपनी में बड़ी जिम्मेदारी का पद सँभाल रहा है और उन लोगों से भी बेहतर स्थिति में है, जिन्होंने उसे कभी छँटनी के लायक समझा था। अपनी गौरवपूर्ण वापसी के हर क्षण को वह आनंदपूर्वक भोगता है। उसने सबको अपना महत्त्व जता दिया है।

लेकिन इन घटनाओं ने उसे बहुत बदल दिया है। वह अब पहले की भाँति उदार नहीं रहा। उसे हर कोई खतरा जान पड़ता है। उसे आपने सहयोगियों से विश्वासघात का भय है। कंपनी में उसके कामकाज के तौर- तरीके यह ज़ाहिर करते हैं कि उसमें निराशा घर करती जा रही है। अपने संघर्ष के दिनों में उसमें जो आशावादिता थी, वह अब कहीं नज़र नहीं आती। कभी वह शिकार था और अब वह शिकारी बनकर अवांछित निर्वासन और प्रतिशोधात्मक वापसी के चक्र को गति दे रहा है।

हमारे ग्रंथों में ऐसे संकीर्णमना नायकों की निंदा की गई है। ऐसे लक्षण उनके चरित्र के उथलेपन और आस्थाहीनता को प्रदर्शित करते हैं। दोनों महाकाव्यों में वनागमन को शक्ति-संसाधन और पौरुषपूर्ण वापसी के अवसर के रूप में देखा गया है। यदि राम वन को नहीं जाते, तो रावण का दमन नहीं होता और यदि पांडव वनवास नहीं करते, तो उनके भीतर आपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने का नैतिक बल उत्पन्न नहीं होता। अंततः दीर्घकाल तक गौरवपूर्ण शासन करने के उपरांत राम और पांडवों ने राजसत्ता अपनी अगली पीढ़ी के सुयोग्य व्यक्तियों को सौंप दी और यह दर्शाया कि हर नायक को एक-न-एक दिन राजपाट को तिलांजलि देनी होती है।

(श्री देवदत्त पटनायक का यह आलेख अंग्रेजी अखबार कॉरपोरेट डॉज़ियर ईटी में प्रकाशित हो चुका है। उनकी अनुमति से इसका हिंदी अनुवाद करके यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ।  (हिन्दीज़ेन से ) ■■


कविताः पर तुम नहीं बदले

 - कमला निखुर्पा

सब कुछ बदल रहा है

बदलते समय के साथ- साथ

तकनीक की तरह

खून के रिश्ते भी 

बदल रहे रंग हर रोज।

2जी से 5जी के सफर में भाग रहे हैं सब

अनजानी दिशा की ओर।

अपनी-अपनी मंजिल की सबको तलाश है

काँधों पर सबके अपने-आने  रिश्तों की लाश है ।

आभासी दुनिया है

अन्तरंगी मुखौटे हैं

जाने कितनों ने

कितनों के चैन लूटे हैं

फिर भी अपनी नजर में

वो तो बड़े काबिल हैं।

अभी कल तक जो

अपनों के ही कातिल थे।

सचमुच सब कुछ बदल रहा है

बदलते समय के साथ- साथ ।

पर तुम नहीं बदले

हिमालय की तरह हो अडिग खड़े

अपनों की भीड़ कम हो जाए, तो गम नहीं

पर तुम हर पल साथ हो

इस एहसास में बहुत बड़ी बात है

सचमुच इस एहसास में

कुछ खास है!

सम्पर्क: प्राचार्य, केन्द्रीय विद्यालय पिथौरागढ़, 2/12 praachaar, पोस्ट ऑफिस – भरकटिया, (उत्तराखंड )-262520

चोकाः नदी


 - भीकम सिंह

नदी-1

नदियाँ सभी

जहाँ तक भी गईं

भँवर सारे

उसके साथ गए

फिर कौन है

जो नदियों की सारी

हँसी खा गया

बड़े सिन्धु के बीच

चर्चा ज्यों हुई

शहरी काफिलों पे

रुकी शक की सुई।

नदी-2

नदी बूढ़ी है

हौसले को हारी-सी

मैदान खोले

जंग की तैयारी-सी

निर्बल तट

उदासियों की बालू

बेच-बेचके

पत्थर तराशे हैं

चला-चलाके

दिल पर आरी-सी

जागी है खुद्दारी-सी।

नदी-3

नावें थकीं-सी

घाटों पे बँधी हुई

तेरे दुःख से

दुःखी हुई हैं नदी!

तुझ पे जुल्म

बढ़ता देखकर

सभी ने जैसे

अन्याय के विरुद्ध

हड़ताल की

तेरा पाट लौटेगा

केवट ने बात की।

नदी-4

साल वृक्षों से

लिपटकर रोई

पीड़ित नदी

दूभर हुआ मेरा

इस समय

जिन्दा बने रहना

किससे कहूँ

तुमसे क्या छिपाना

खोजे हैं मैंने

जमीन में सूराख

आती सीता की याद।

नदी-5

बाढ़ ओढ़के

खींच लेती है नदी

तट की बाँहें

गुजरे समय की,

याद करके

कुछ भूली- सी राहें

छोड़के आई

सावन में बहाके

तोड़ी गई वो

तमाम वर्जनाएँ

नदी को याद आएँ।

नदी- 6

भटके हुए

मैदानों के हालात

देख नदी ने

जख्म़ी हुए पंखों* को

जैसे फैलाया

रोता हुआ झरना

बुदबुदाया-

ठेकेदार गुज़रे

जहाँ-जहाँ से

निर्जन है वहाँ पे

तू सँभल यहाँ से।

(*पर्वतीय ढाल से जब नदी मैदानों में प्रवेश करती हैतो जलोढ़ पंख नाम की स्थलाकृति बनाती हैउससे पहले जल- प्रपात (झरना) का निर्माण कर चुकी होती है।)

जन्म दिवस -21 मईः शरद जोशी होने का अर्थ

 - बसन्त राघव

व्यंग्य की चर्चा करते ही दो नाम सबसे पहले जेहन में उभरते हैं  एक हरिशंकर परसाई दूसरे शरद जोशी। आधुनिक व्यंग्य के विकास में इन दोनों का समानांतर महत्त्व है। एक आधुनिक व्यंग्य के प्रवर्तक के रूप में जाने जाते हैं, तो दूसरे उसके पोषण और संवर्धन के लिए ख्यात हैं। दोनों ने ही व्यंग्य साहित्य को प्रतिष्ठित करने में अग्रणी भूमिका निभाई है।

अग्रेंजी साहित्य के सम्पर्क में आने से हिंदी साहित्य के स्वरूप में आमूलचूल परिवर्तन हुए हैं। उसकी  हर विधा का स्वरूप बदला। व्यंग्य में भी क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं । वह संस्कृत की व्यंजना से अंग्रेजी के सटायर शब्द के ज्यादा करीब आने लगा।  व्यंग्य  हास-परिहास से इतर एक सोद्देश्य गंभीर साहित्यिक विधा के रूप में स्थापित होने लगा है। यह अलग बात है कि शरद जोशी  व्यंग्य को कोई स्वतंत्र विधा नहीं मानते हैं। उनके विचार से वह तो सहज प्रवृत्ति है, जो अभिव्यक्ति की  विविध विधाओं में रूपायित होती रही है।  व्यंग्य की शास्त्रीय मान्यता की भ्रांति से जुड़े विधा - पक्ष की चर्चा करते हुए शरद जोशी जी  कहते हैं  "आधुनिक व्यंग्य का सर्वाधिक विवादास्पद पहलू उसका साहित्यिक स्वरूप रहा है । साहित्य में व्यंग्य की व्यापकता और लोकप्रियता को देखते हुए कतिपय आलोचक उसे ' विधा ' अथवा ' शैली ' के चौखटे में बन्द करने का प्रयास करते हैं । अपने अलगपन के कारण यह विधा का आभास देता है । किसी भी विधा की अपनी सुनिश्चित और निर्धारित सीमाएँ होती हैं । किन्तु व्यंग्य को सुनिश्चित और निर्धारित सीमा में नहीं बाँधा जा सकता ।" 

शरद जोशी ने अपनी चुटीली एवं हास्य, मनोविनोद से संपृक्तशैली में अपने सबसे ज्यादा रोचक व्यंग्य लिखे और यही उनके व्यंग्य सृजन की अपनी विशेषता रही है। 80 के एक कवि सम्मेलन का मंच संचालन सोम ठाकुर कर रहे थे। उन्होंने शरद जोशी के लिए कहा था  " उन्हें गद्य को हास्य में प्रस्तुत करने में पारंगत हासिल है"। उसी मंच में शरद जोशी जी ने  सरकार पर कटाक्ष करते अपनी एक हास्य रचना का पाठ किया था, "अगर सरकार के पाँव भारी हैं, तो उसे कौन हिला सकता है"। इतना सुनते ही मंचस्थ कवि और उपस्थित श्रोता हँस हँसकर लोटपोट हो गए थे। तालियों की गड़गड़ाहट से पूरा माहौल गुंजायमान हो उठा था।  उन्होंने अपने व्यंग्य में समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, सरकार की ढुलमुल नीतियों एवं धार्मिक पाखण्डों, कुनबापरस्ती, स्वार्थपरता पर गहरा आघात किया है। वे अपने समकालीन उद्भट साहित्यकारों की आलोचना करने से भी नहीं चूकते थे। उनका कथ्य-सम्प्रेषण उन्हें अपने समकालीन व्यंग्यकारों से अलग चिह्नित कर विशिष्टता प्रदान करता है । व्यंग्य के क्षेत्र में उनकी नूतन प्रयोगधर्मिता उनकी कलात्मक बौद्धिकता को दर्शाती है। निश्चय ही व्यंग्य साहित्य में उनका स्थान अक्षुण्ण रहेगा।

आज व्यंग्य की जरूरत इसलिए भी है कि चतुर्दिक विसंगतियों और विडंबनाओं ने समाज को जकड़ लिया है। व्यंग्य एक ऐसा हथियार है, जिससे इन विकृतियों पर प्रहार किया जा सकता है। व्यंग्य की उपादेयता पहले की अपेक्षा  आज अधिक बढ़ी है। यह साहित्यिक शक्ति के प्रर्दशन का एक मात्र धारदार जरिया है। जहाँ शब्द तीर की तरह चलते हैं और सीधे मार करते हैं। शरद जोशी आम जनता के भीतर की व्यथा और कसमसाती पीड़ा को अच्छी तरह समझते थे। जोशी जी सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक, राजनीतिक, विसंगतियों और विकृतियों के खिलाफ सचेत प्रहरी बनकर उन सभी विद्रूपताओं एवं विसंगतियों पर जोरदार प्रहार करते हैं। शरद जोशी व्यंग्य में हास्य की उपस्थिति को जरूरी मानते हैं, उनका मानना है कि इससे व्यंग्य सरल, सहज और पाठकों के लिए बोधगम्य बन जाता है।  इससे पाठक जल्दी से विषयवस्तु के भीतर प्रवेश कर जाता है। उसकी चेतना रचना के रसास्वादन के साथ - साथ जागृत होने लगती है, व्यंग्य पाठक की बौद्धिकता  को उत्तेजित करता है।

जहाँ तक शरद जी की पारिवारिक पृष्ठभूमि का सवाल है, शरद जोशी के पूर्वज गुजराती मूल के ब्राह्मण थे। उनके पिता श्रीनिवास जोशी नौकरी के लिए उज्जैन आकर  बस गए थे। उज्जैन के ही मुगरमुट्टे  मोहल्ले में  21 मई 1931 को शरद जोशी  का जन्म हुआ था । पिता रोडवेज में डिपो मेनेजर के पद पर पदस्थ थे | पिता के स्थानान्तरणों की वजह से  जोशी जी का बचपन मऊ, उज्जैन, नीमच, देवास, गुना  जैसे छोटे बड़े शहरों में बीता। उनकी प्रारंभिक शिक्षा उज्जैन में, हाईस्कूल की शिक्षा नीमच और देवास में हुई। इंदौर के होल्कर महाविद्यालय में उन्होंने बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की।  पिता की आर्थिक स्थिति  अच्छी नहीं थी। अतः उन्होंने अपनी उच्च शिक्षा अपने ही लेखनीय पारिश्रमिक से पूरी की। माता श्रीमती शांता जोशी एक धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थी। आधुनिक विचारों के पोषक शरद जोशी एक धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति थे।  पतले- दुबले,  साँवले रंग के शरद जोशी जी का दार्शनिक दृष्टिकोण और उनकी बौद्धिक चेतना उन्हें एक विलक्षण व्यक्तित्व प्रदान करती है। वे संकीर्ण धार्मिक रूढ़िवादी सिंद्धातों से इतेफाक नहीं रखते थे। रूढ़ि भंजक शरद जोशी ने ' इरफाना सिद्दीकी से प्रेम विवाह किया था। इरफाना सिद्दीकी एक पढ़ी-  लिखी गरीब मुस्लिम लड़की थी। उस समय इरफाना सिद्दीकी रंगमंच और कथा साहित्य के क्षेत्र में उभरता हुआ नाम था। दोनों का अन्तरजातीय विवाह धर्मभीरु परिवार और समाज को मंजूर नहीं था। लेकिन दोनों ने इसका डटकर सामना किया। दोनों से वाणी, ऋचा, और नेहा तीन बच्चियाँ हुईं। शरद जोशी एक आदर्श पति और एक आदर्श पिता थे। उन्होंने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलवाई। पत्नी इरफाना सिद्दीकी के शब्दों में -" कैसे बताऊँ कि वे कितने स्नेही एवं आदर्श जीवन साथी थे । मैं अपनी बेटियों को उनके पास छोड़कर कहीं भी बेफिक्री से रह सकती थी , वे बड़ी ख़ुशी से मुझसे भी ज्यादा अच्छी तरह से बच्चों की देखभाल कर लिया करते थे।"

शरद जोशी को किताबें पढ़ने और खरीदने का बड़ा शौक था। किताबें खरीदने के लिए जोशी जी अपने आय में से एक बड़ी राशि खर्च कर दिया करते थे। उन्होंने यशपाल, प्रेमचंद, टालस्टाय, बाल्जाक, चेखव, गोर्की, मोपासां, रवीन्द्र नाथ टैगोर, मंटो, कृश्न चन्दर, जैसे शीर्षस्थ साहित्यकारों को खूब पढ़ा। यही नहीं  वे उनकी रचनाओं से बहुत प्रभावित भी हुए थे।

शरद जोशी सेल्फ मेड इंसान थे, इसलिए उनमें तुनकमिजाजी एक स्वाभाविक प्रक्रिया की तरह रची- बसी थी। वे अपने इसी स्वभाव के कारण अपने करीबी लोगों को भी शत्रु बना बैठते थे।  शरद जोशी एक समय हरिशंकर परसाई के बहुत करीबी मित्रों में से एक थे, लेकिन 'साहित्य का महाबली' शीर्षक व्यंग्य लिखकर उन्होंने परसाई जी से दुश्मनी ले ली।  अशोक बाजपेयी भी कभी उनके घनिष्ठ थे। बाद में शरद जी उन्हें भी अपना घनघोर शत्रु बना बैठे। लेकिन यह कहना  उचित नहीं होगा कि वे खूसट और अव्यावहारिक किस्म के आदमी थे, सच तो यह है कि वे बड़े मृदुभाषी, निराभिमानी इंसान थे। यह भी सच है कि उन्होंने अपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया। वे बड़े निर्भीक, निडर व्यक्ति थे, तभी तो अपने विरोधियों पर तत्काल व्यंग्य या आलोचना करने से नहीं चूकते थे।

 स्व. हरिहर जोशी, के. पी. सक्सेना, नरेन्द्र कोहली और मुज्तबा हुसैन उनके अभिन्न मित्रों में से थे।

 शरद जोशी की संघर्षशीलता और साहसिकता उनकी लेखनी में परिलक्षित होती है। उनका आखिरी मुकाम मुंबई रहा। उन्हें हृदयरोग, और मधुमेह की बीमारी थी। 5 सितंबर 1991 को मुम्बई में ही उन्होंने अपने जीवन की अन्तिम साँस ली।

शरद जोशी ने अपने कैरियर की  शुरुआत 1955 में अकाशवाणी की छोटी- सी नौकरी से की, जहाँ पर वे पाण्डुलिपि लेखन का कार्य किया करते थे। उसके बाद मध्यप्रदेश सूचना एवं प्रकाशन विभाग में जनसंपर्क अधिकारी रहे, अपने तुनकमिजाजी और महत्त्वाकांक्षी  व्यक्तित्व के कारण उन्होंने वहाँ की भी नौकरी छोड़ दी, उस समय तक उनकी पहचान एक प्रतिष्ठित व्यंग्यकार के रूप में हो चुकी थी। नौकरी से त्यागपत्र देकर उन्होंने स्वतंत्रलेखन को ही अपने आजीविका का साधन बनाया। व्यावसायिक लेखन के लिए उन्होंने जी तोड़ मेहनत की। 

उन्होंने लेखन की शुरुआत कहानी से की थी।  उसके बाद सैकड़ों व्यंग्य लेख, व्यंग्य उपन्यास, व्यंग्य कॉलम, हास्य-व्यंग्यपूर्ण धारावाहिक एवं फिल्मों के लिए पटकथाएँ और संवाद लिखे हैं।  उन्होंने कुछ वर्षों तक पत्रकारिता भी की।  जोशी जी रेडियो में वार्ताएँ, प्रहसन, और नाटक लिखते थे, जिसके लिए उन्हें 25 रुपये पारिश्रमिक मिलता था। दैनिक नई दुनिया में 'परिक्रमा' स्तंभ के लिए 30 रुपये मिलते थे। वे पूरे पच्चीस साल तक कवि सम्मेलनीय मंचों की शोभा बढ़ाते रहे। ज्ञात हो कि शरद जोशी कवि सम्मेलनों में कविता नहीं गद्य पाठ किया करते थे। उन्हें साहित्य में एक विशेष पहचान तब मिली, जब  धर्मवीर भारती ने उनकी एक  व्यंग्य रचना "गागरिन का यात्रा -भत्ता" धर्मयुग में प्रकाशित की। मनमोहन मदारिया जी लिखते हैं " 'गागरिन का यात्रा - भत्ता' अनूठी सूझ की रचना थी।" इसके बाद 'धर्मयुग में उनकी रचनाएँ लगातार छपती रहीं। शरद जोशी की विभिन्न व्यंग्य रचनाएँ देश के श्रेष्ठ समाचार  पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होकर चर्चित होती रही। दैनिक नवभारत टाइम्स में आपका कॉलम 'प्रतिदिन' निकलता था जो कि काफी चर्चित और लोकप्रिय हुआ था। कादम्बरी, ज्ञानोदय, रविवार, साप्ताहिक हिन्दुस्तान के लिए भी उन्होंने खूब लिखा। सन् 1951 से लेकर सन् 1956  तक उनका व्यंग्य स्तम्भ 'परिक्रमा' 'नई दुनिया' में लगातार निकलता रहा, बाद में 1958 में उन्हें संगृहीत कर पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया था। उन्होंने कुछ महत्त्वपूर्ण पत्रिकाओं का भी संपादन कार्य किया जिसमें- 'दैनिक मध्य देश' (भोपाल), 'नवलेखन' मासिक (भोपाल), हिंदी एक्सप्रेस (बम्बई), प्रमुख हैं।

फिल्म लेखन के क्षेत्र में शरद जोशी जी ने क्षितिज, छोटी सी बात, साच को आँच नहीं, गोधूलि, दिल है कि मानता नहीं, उत्सव, आदि के लिए पटकथाएँ और संवाद लिखे ।

" शरद जोशी ने ‘यह जो है जिंदगी’, ‘विक्रम और बेताल’, ‘सिंहासन बत्तीसी’, ‘वाह जनाब’,  'देवीजी',‘दाने अनार के’,  प्यालो में तूफान',‘यह दुनिया गज़ब की’ और ‘लापतागंज’  जैसे  टीवी धारावाहिकों की पटकथाएँ और संवाद लिखे, जो बहुत लोकप्रिय और चर्चित हुए। कुछ वर्ष पहले 'सब' चैनल पर उनकी कहानियों और व्यंग्य पर आधारित 'लापतागंज' 'शरद जोशी की कहानियों का पता' का प्रसारण किया जाता था, जिसे लोगों के वारा खूब  पसंद किया जाता रहा है।

शरद जोशी की प्रमुख व्यंग्य रचनाएँ इस प्रकार है- परिक्रमा (1958), राग भोपाली (2009), जादू की सरकार (1993), किसी बहाने (1971), घाव करे गंभीर, जीप पर सवार इल्लियाँ (1971), रहा किनारे बैठ (1972), तिलस्म(1973), दूसरी सतह (1975), प्रतिदिन (3 खण्ड), यत्र-तत्र-सर्वत्र (2000), नावक के तीर, मुद्रिका रहस्य(1992), झरता नीम शाश्वत थीम, पिछले दिनों (1979), नदी में खड़ा कवि और मेरी श्रेष्ठ व्यंग रचनाएँ (1983), यथासंभव (1985), हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे (1987), शामिल हैं।

शरद जोशी के लिखे दो व्यंग्य नाटक अंधों का हाथी (1979), एक था गधा उर्फ अलादाद खाँ (1979) और उपन्यास में  ‘मैं, मैं और केवल मैं काफी चर्चित और लोकप्रिय रहा है।

 शरद जोशी को चकल्लस पुरस्कार 1983 में, भारत सरकार के द्वारा 1989 में  “पद्म श्री”  सम्मान , काका हाथरसी सम्मान, ‘सारस्वत मार्तंड’  आदि सम्मानों से नवाजा गया था।

शरद जोशी के निधन के एक साल बाद 1992 में मध्यप्रदेश सरकार ने 'शरद जोशी' सम्मान शुरू कर एक ख्यातिलब्ध व्यंग्यकार को सच्ची श्रद्धांजलि दी है। यह पुरस्कार व्यंग्य और निबंध के क्षेत्र में उत्कृष्ट लेखन के लिए हर वर्ष दिया जाता है।  पुरस्कार में विजेता को 51,000 रुपये के साथ एक प्रशस्ति पत्र भी दिया जाता है। ■■

सम्पर्कः पंचवटी नगर, मकान नं. 30, कृषि फार्म रोड, बोईरदादर, रायगढ़, छत्तीसगढ़, basantsao52@gmail.com


व्यंग्यः अतिथि! तुम कब जाओगे

  - शरद जोशी 

तुम्हारे आने के चौथे दिन, बार-बार यह प्रश्न मेरे मन में उमड़ रहा है, तुम कब जाओगे अतिथि! तुम कब घर से निकलोगे मेरे मेहमान!

तुम जिस सोफे पर टाँगें पसारे बैठे हो, उसके ठीक सामने एक कैलेंडर लगा है, जिसकी फड़फड़ाती तारीखें मैं तुम्हें रोज दिखाकर बदल रहा हूँ। यह मेहमाननवाजी का चौथा दिन है, मगर तुम्हारे जाने की कोई संभावना नजर नहीं आती। लाखों मील लंबी यात्रा कर एस्ट्रॉनॉट्स भी चाँद पर इतने नहीं रुके, जितने तुम रुके। उन्होंने भी चाँद की इतनी मिट्टी नहीं खोदी, जितनी तुम मेरी खोद चुके हो। क्या तुम्हें अपना घर याद नहीं आता? क्या तुम्हें तुम्हारी मिट्टी नहीं पुकारती?

जिस दिन तुम आए थे, कहीं अंदर ही अंदर मेरा बटुआ काँप उठा था। फिर भी मैं मुस्कराता हुआ उठा और तुम्हारे गले मिला। मेरी पत्नी ने तुम्हें सादर नमस्ते की। तुम्हारी शान में ओ मेहमान, हमने दोपहर के भोजन को लंच में बदला और रात के खाने को डिनर में। हमने तुम्हारे लिए सलाद कटवाया, रायता बनवाया और मिठाइयाँ मँगवाईं। इस उम्मीद में कि दूसरे दिन शानदार मेहमाननवाजी की छाप लिये तुम रेल के डिब्बे में बैठ जाओगे। मगर, आज चौथा दिन है और तुम यहीं हो। कल रात हमने खिचड़ी बनाई, फिर भी तुम यहीं हो। आज हम उपवास करेंगे और तुम यहीं हो। तुम्हारी उपस्थिति यूँ रबर की तरह खिंचेगी, हमने कभी सोचा न था।

सुबह तुम आए और बोले, "लॉन्ड्री को कपड़े देने हैं।" मतलब? मतलब यह कि जब तक कपड़े धुलकर नहीं आएँगे, तुम नहीं जाओगे? यह चोट मार्मिक थी, यह आघात अप्रत्याशित था। मैंने पहली बार जाना कि अतिथि केवल देवता नहीं होता। वह मनुष्य और कई बार राक्षस भी हो सकता है। यह देख मेरी पत्नी की आँखें बड़ी-बड़ी हो गईं। तुम शायद नहीं जानते कि पत्नी की आँखें जब बड़ी-बड़ी होती हैं, मेरा दिल छोटा-छोटा होने लगता है।

कपड़े धुलकर आ गए और तुम यहीं हो। पलंग की चादर दो बार बदली जा चुकी और तुम यहीं हो। अब इस कमरे के आकाश में ठहाकों के रंगीन गुब्बारे नहीं उड़ते। शब्दों का लेन-देन मिट गया। अब करने को चर्चा नहीं रही। परिवार, बच्चे, नौकरी, राजनीति, रिश्तेदारी, पुराने दोस्त, फिल्म, साहित्य। यहाँ तक कि आँख मार-मारकर हमने पुरानी प्रेमिकाओं का भी जिक्र कर लिया। सारे विषय खत्म हो गए। तुम्हारे प्रति मेरी प्रेमभावना गाली में बदल रही है। मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि तुम कौन सा फेविकॉल लगाकर मेरे घर में आए हो?

पत्नी पूछती है, "कब तक रहेंगे ये?" जवाब में मैं कंधे उचका देता हूँ। जब वह प्रश्न पूछती है, मैं उत्तर नहीं दे पाता। जब मैं पूछता हूँ, वो चुप रह जाती है। तुम्हारा बिस्तर कब गोल होगा अतिथि?

मैं जानता हूँ कि तुम्हें मेरे घर में अच्छा लग रहा है। सबको दूसरों के घर में अच्छा लगता है। यदि लोगों का बस चलता, तो वे किसी और के घर में रहते। किसी दूसरे की पत्नी से विवाह करते। मगर घर को सुंदर और होम को स्वीट होम इसीलिए कहा गया है कि मेहमान अपने घर लौट जाएँ।

मेरी रातों को अपने खर्राटों से गुँजाने के बाद अब चले जाओ मेरे दोस्त! देखो, शराफत की भी एक सीमा होती है और गेट आउट भी एक वाक्य है जो बोला जा सकता है।

कल का सूरज तुम्हारे आगमन का चौथा सूरज होगा। और वह मेरी सहनशीलता की अंतिम सुबह होगी। उसके बाद मैं लड़खड़ा जाऊँगा। यह सच है कि अतिथि होने के नाते तुम देवता हो, मगर मैं भी आखिर मनुष्य हूँ। एक मनुष्य ज्यादा दिनों देवता के साथ नहीं रह सकता। देवता का काम है कि वह दर्शन दे और लौट जाए। तुम लौट जाओ अतिथि। इसके पूर्व कि मैं अपनी वाली पर उतरूँ, तुम लौट जाओ।

उफ! तुम कब जाओगे, अतिथि! ■■


हाइबनः 1.भँवर, 2 .दूसरा कबूतर, 3. पट्टे का दर्द

  -   सुदर्शन रत्नाकर

 1.भँवर

 उगते सूर्य का मनोरम दृश्य मुझे सागर के किनारे खींच कर ले गया। आसमानी झील में खिलता लाल कमल ,जैसे नवेली दुल्हन शर्माते हुए धीरे-धीरे चली आ रही हो। थोड़ी ही देर में सारी सृष्टि  सुनहरी किरणों से सुसज्जित हो इठलाने लगी । पेड-पौधे,फूल-पत्तियाँ किरणों को चूमने लगे। पक्षी चहचहाने लगे ।नहाने के लिए किरणें लहरों पर उतर आईं, उस समय ऐसा लग रहा था मानों वे खुशी से नृत्य कर रही हों। मंद- मंद बहती पवन, लहरों का ऊँचा उठना और फिर नीचे गिरना मन को आकर्षित कर रहा था । ऐसा दृश्य देख कर मेरा मन मचल उठा। लहरों में झूलती उन किरणों को छूने का लालच मन में आ गया। जो अब चाँदी की तरह लहरों पर चमक रही थीं। मैं पानी में उतर गई। लहरों के संग खेलती आगे बढ़ती गई, उनका स्पर्श मुझे रोमांचित करने लगा लेकिन मैं यह भूल गई कि जितना आगे बढ़ रही हूँ उतनी ही सागर की गहराई और लहरों की ऊँचाई बढ़ रही है पर मैं रुकी नहीं , आगे बढ़ती ही गई, अब पानी मेरी कमर तक आ गया था और फिर जैसे ही एक उफनती हुई लहर मेरे पास आई, रेत मेरे पाँवों के नीचे से खिसक गई। मेरा संतुलन बिगड़ गया और मैं नीचे गिर गई। अब केवल मेरा सिर बाहर था। मैंने उठने की कोशिश की; लेकिन उठ नहीं पाई, घुटनों पर दबाव के कारण फिर से गिर गई। मेरे आसपास कोई नहीं था, जिसे आवाज़ देकर सहायता माँग लेती। सागर में नहाता हुआ सूरज भी आगे बढ़ गया था। थोड़े ही समय में कितनी ही लहरें मेरे ऊपर से निकल गईं। हर बार लगता ये लहरें मुझे निगल जाएँगी। मृत्यु की शंका मुझे भयभीत करने लगी। मुझे इस दुनिया का मोह, उत्तरदायित्वों का भँवर अपनी ओर खींचने लगा और मैं लहरों की तरह उठती गिरती रही।

    मैं प्रकृति का उत्सव देखने आई थी; लेकिन मृत्यु के भय ने सब कुछ भुला दिया।  मुझे तैरना नहीं आता, फिर भी मैं उठने की अपेक्षा  पानी में लेट कर हाथ -पाँव मारने की कोशिश करने लगी। मेरी कोशिश कामयाब होने लगी। मैं पहली लहर के साथ आगे बढ़ी। दूसरी लहर के साथ थोड़ा और आगे हुई और फिर धीरे -धीरे मैं उनके साथ- साथ किनारे की ओर बढ़ने लगी थी। मेरे प्रयास  ने मुझे किनारे पर पहुँचा दिया, जहाँ जीवन खड़ा मेरी प्रतीक्षा कर रहा था। मैंने सागर को ओर देखा, लहरें अब भी अठखेलियाँ कर रही थी। किरणों ने अपना सौन्दर्य खो दिया था और अब उष्मा दे रही थीं। प्रकृति वैसे ही मुस्कुरा रही थी। मैं सागर के किनारे बालू पर निढाल लेट गई। मृत्यु मेरे पास से निकल गई थी; लेकिन उसका अहसास मेरे अन्तर्मन को अभी भी छू रहा था। मृत्यु जीवन का सत्य है और मोह जीवन का भँवर है, मृगतृष्णा है।

मृत्यु का डर

मृत्यु से भयावह

डराता मन।

2 . दूसरा कबूतर

मेरे घर की रसोईघर के सामने की दीवार पर सूर्योदय से पहले ही कबूतरों का एक जोड़ा  बैठता था। वे दोनों थोड़ी देर किलोल करते, और फिर उड़ जाते। मैंने उन्हें दाना डालना शुरू कर दिया। वे इधर-उधर देखते, नीचे उतरते,दाना चुगते,कटोरे में रखा पानी पीते और दीवार पर जा बैठते हैं। यह क्रम कई दिन से चलता आ रहा है। मुझे भी सुबह- सुबह उन्हें देखने की आदत हो गई है। किसी दिन भूल जाऊँ या देर से किचन में आऊँ, तो वे गुटरगूँ करके, पंख फड़फड़ाकर मुझे याद दिला देते हैं। अब मेरी दिनचर्या कबूतरों को दाना डालने से शुरू होने लगी है।

        कभी- कभी ऐसा होता है कि जब मैं दाना डालती हूँ , एक ही कबूतर दीवार पर बैठा होता है; लेकिन वह तब तक नीचे नहीं उतरता, जब तक दूसरा न आ जाए। दूसरे के आते ही वे दाना चुगने में व्यस्त हो जाते हैं। प्यार और सहयोग की भावना तो पक्षियों में भी होती है।

     कल एक ही कबूतर दीवार पर बैठा था। मैंने दाना फैला दिया, सोचा दूसरा कबूतर आएगा, तो चुग लेंगे। पर दूसरा कबूतर बड़ी देर तक नहीं आया। मेरा ध्यान बार-बार उसकी ओर जा रहा था। मैंने देखा उसकी आँखें पनीली थीं। पता नहीं मुझे ऐसा क्यों लगा कि जैसे वह मुझसे कुछ कहना चाहता है, कुछ बताना चाहता है;  पर निरीह पक्षी बोल तो सकता नहीं। अपना दर्द ,अपनी भावनाएँ कैसे बताये। मैं अपने कामों में व्यस्त  हो गई। थोड़ी देर बाद यूँ ही मैंने खिड़की के  नीचे झाँककर देखा, तो वहाँ कबूतर के पंख फैले हुए थे ।लगता है,  बिल्ली जो कुछ दिन से घर के बाहर घूम रही थी,  कबूतर उसका शिकार हो गया है।  दूसरा कबूतर दीवार पर बैठा अभी भी मेरी ओर देख रहा था और फिर बिना दाना खाए वहाँ से उड़ गया। मेरा मन पीड़ा से भर गया।

निरीह पक्षी

किससे कहे पीड़ा

दिल तो रोता।

3. पट्टे का दर्द

   मालकिन जब भी कहती हैं, “कूरो ,चलो घूमने चलें।” मेरा मन बल्लियों उछलने लगता है। एक यही तो समय होता है, जब मैं आज़ादी की साँस ले सकता हूँ ; लेकिन मेरी आधी उत्सुकता वहीं समाप्त हो जाती है ,जब वह कहती हैं, “ कूरो, अपना पट्टा लाओ, पहले पट्टा बाँधेंगे फिर बाहर चलेंगे।” सारा दिन मुँह उठाए एक कमरे से दूसरे कमरे में घर के बंदों को सूँघता घूमता रहता हूँ। बाहर से कोई आता है, तो मैं अजनबी को देखकर भौंकने लगता हूँ तब मैडम मुझे कमरे में बंद कर देती हैं और यह सजा घंटों चलती है। खाना नहीं खाता, तो कहती हैं ,खाना नहीं खाओगे, तो नीचे कुत्तों को दे आऊँगी।” भूखे रहने के डर से खा लेता हूँ । कभी-कभी बालकनी में जाता हूँ, तो वहाँ लगी लोहे की सलाख़ों में से सिर निकालकर नीचे झाँकने की कोशिश करता हूँ-चौबीसवीं मंज़िल से मुझे कुछ दिखाई तो देता नहीं, सिर और चकराने लगता है। बस नीचे से कुत्तों के भौंकने की आवाज़ें सुनाई देती हैं; इसलिए पट्टा बाँधकर ही सही, बाहर जाने को तो मिलता है।

 लिफ़्ट से निकलते ही तेज़ कदमों से बाहर जाने की कोशिश करता हूँ। कितना अच्छा लगता है। मेरे जैसे और भी अलग-अलग नस्लों  के कुत्ते अपने- अपने मालिकों के साथ घूमते मिल जाते हैं। पर मैडम मिलने नहीं देती। बस अपनी सहेली के कुत्ते से बात करने देती हैं।  “कूरो, देखो ऑस्कर तुम्हारा दोस्त, मिलो इससे।” पर मुझे ऑस्कर अच्छा नहीं लगता। बड़ा अकड़ू है। है भी तो मुझसे कितना बड़ा। खेलते हुए मुझे दबोच लेता है। कई बार तो खरोंचें भी मार देता है। अभी तो अच्छा है, मेरे बाल घने हैं। चोट कम लगती है।

   मैडम प्यार तो करती हैं ; लेकिन मुझे जो अच्छा लगता है, वह नहीं करने देतीं। मेरा दिल चाहता है- वह मेरा पट्टा खोल दें और मैं भागकर अपने दोस्तों से मिल लूँ ।जानते हैं आप मेरे दोस्त कौन हैं। अरे! वही जिनकी आवाजें मैं बालकनी से सुनता हूँ। मुझे नीचे आया देख वह मेरे आगे-पीछे चलने लगते हैं। मुझसे मनुहार करते हैं। मैं भी उनसे लिपटने, खेलने की कोशिश करता हूँ ; पर मैडम मेरा पट्टा खींचकर कहती हैं, “नो कूरो, डर्टी डॉगी ।”  मैं उनकी बात कहाँ सुनता हूँ। पट्टा खींचते-खींचते भी उनके साथ खेल लेता हूँ, बात कर लेता हूँ। जब वह मेरा पट्टा देखकर हँसते हैं, तो मुझे बहुत ग़ुस्सा आता है । मैं कहता हूँ, “पट्टा है तो क्या हुआ , अच्छा खाना तो मिलता है।” पर वो सब-से बड़ा  ब्राउनी हमेशा कहता है ,पट्टे से तो भूखा रहना बेहतर है।”  शायद  वह ठीक कहता है। कितनी आज़ादी से घूमते हैं ये सब, लेकिन उनके भूखे रहने से मैं दुखी हो जाता हूँ , इसलिए कई बार मैं अपना खाना जानबूझकर नहीं खाता। तब मैडम वही खाना इनको दे देती हैं। मुझे अच्छा लगता है। जब मेरे दोस्तों को भरपेट खाना मिल जाता है, तब मैं अपने पट्टे के दर्द को भूल जाता हूँ।

मूक ये प्राणी

विचित्र है मित्रता

सीखो मानव।

■■

सम्पर्क: ई-29,नेहरू ग्राउंड फ़रीदाबाद-121001 

व्यंग्यः पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ

  - रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ 

कबीर बहुत समझदार थे। उनको पहले से ही ज्ञात था कि पोथी पढ़ने से कोई आदमी पंडित नहीं बन सकता, मर भले ही जाए अथवा पागल हो जाए। सांसारिक लोगों को इन पोथियों से दूर ही रहना चाहिए। इधर पोथी पढ़ी और उधर परलोक के लिए प्रस्थान करने का टिकट तैयार। कबीर की वाणी आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी कई सौ वर्ष पूर्व थी। इसका एकमात्र कारण पोथी न पढ़ना ही है। वे इसलिए खम ठोंककर कहा करते थे- ‘‘हम न मरहिं, मरहिं संसारा’’, वे पढ़ाकू लोगों की दुर्गति से परिचित थे।

धन की बाढ़ में डूबा हुआ हमारा धनाढ्य वर्ग इस बात को अच्छी तरह जानता है। इसके घर में आपको कई नस्ल के कुत्ते मिल जाएँगे, दीवार पर टँगी मरे हुए शेर की खाल दिख जाएगी। मोची का काम न करने पर भी इन्हें खालों से बहुत प्रेम है। इनका अधिकतम समय निर्धन वर्ग की खाल खींचने में ही बीतता है। खाल में भुस भरा हुआ भेड़िया इनकी राउण्ड टेबुल पर खड़ा मिल जाएगा। ये इस जानवर को आत्मीय समझते हैं। इनके यहाँ गर्म फ़िल्मों और धरती तोड़ गानों के कैसेट मिल जाएँगे। इनकी जुबान पर विदेशी लेखक (जिनका वहाँ कोई महत्त्व नहीं) कसरत करते रहेंगे। ये नाम इन्होंने शराब के नशे में ‘नाइट क्लब’ की बातों में सुने होंगे। पढ़ने का झमेला क्या मोल लिया जाए। पोथियाँ पढ़कर अकाल मृत्यु का ग्रास बन जाना पड़ेगा। पुस्तकें खरीदना बहुत बड़ा पाप है; पढ़ना उससे भी बड़ा।

श्री मूसलचंद पेशे से शिक्षक है। बी.ए. में इन्होंने कबीर के दोहे की सही व्याख्या पढ़ी थी, तभी से इनको पुस्तकों से एलर्जी हो गई। सिर्फ़ ‘ढाई आखर प्रेम का’ पढ़ लिया। तब से अब तक कई भद्र और अभद्र महिलाओं से अपना प्रेम निवेदित करके विभिन्न प्रकार की पिटाई का रसास्वादन कर चुके हैं। अभी तक इनकी आत्मा तृप्त नहीं हो सकी है। ‘लम्पट शिरोमणि’ की सार्वजनिक उपाधि पाकर भी इन्हें कोई अहंकार नहीं हुआ है। इनके विनम्र और विराट व्यक्तित्व की ही यह विशेषता रही है कि सांसारिक मान-अपमान भी इन पर खरोंच नहीं छोड़ पाया है। इनकी अलमारी में जो पुस्तकें रखी हैं, वे इनकी नहीं। इन्होंने समय-समय पर अनेक हितैषियों का भविष्य बचाने के लिए ये पोथियाँ अपने पास रख ली हैं। लौटाकर उनको संकट में क्यों डालते? ये किताबें खरीदने के बजाय भैंस खरीदना ज़्यादा अच्छा मानते हैं। वे दूध देने के साथ-साथ गोबर भी करती हैं। गोबर की खाद खेत की उर्वरा शक्ति बढ़ाती है। श्री मूसलचंद के अनुसार दिमाग़ के लिए गोबर की खाद उपादेय है।

कुछ साहित्यकार भी पुस्तकों के मामले में बहुत सावधान हैं। ये साहित्य की लीद करने में भले ही दिन-रात लगे रहें; लेकिन पढ़ने के संक्रामक रोग से अपने को बचाए रखते हैं। पुस्तकें पढ़ने से दूसरे साहित्यकारों के रोगाणु इनके मस्तिष्क में घुस सकते हैं। अगर किसी ने इनको किताब पढ़ते देख लिया, तो क्या सोचेगा वह? यही सोचेगा कि यदि इनकी गाँठ में कुछ ज्ञान होता, तो पढ़ने की जरूरत न पड़ती। इसे खालिस्तान और नखलिस्तान ‘शब्द’ में कोई भेद नज़र नहीं आता।

न पढ़ने के कई लाभ हैं। परिचित साहित्यकारों की पुस्तकें पढ़ने से मर्मान्तक पीड़ा होने लगती है। अच्छे लेखक के सामने अपना लेखन दो कौड़ी का लगने लगता है। ईर्ष्या की ज्वाला रोम-रोम को झुलसाने लगती है। मित्रता, शत्रुता में बदल जाती है। इससे बचने का यही उपाय है कि किसी का लिखा, पढ़ा ही न जाए। ऐसा करने से मन में हीन भावना नहीं आएगी। दूसरों की पुस्तकें पढ़ने का एक कारण यह भी माना जाता है कि आप स्वयं कुछ लिखने की स्थिति में नहीं हैं। अगर आप स्वयं लिखते होते, तब पढ़ने की फुर्सत कैसे मिल सकती थी। इसलिए लेखन की व्यस्तता का रोब जमाने के लिए यह कहना बहुत जरूरी है- ‘‘लिखने में इतना समय चला जाता है कि पढ़ने का समय ही नहीं मिल पाता।’’

कबीर क्योंकि हिन्दी के कवि थे; अतः हिन्दी प्रकाशक पढ़ने के दुष्परिणाम से भली-भाँति परिचित हैं। ये पुस्तकों का दाम चार-पाँच गुना इसलिए रखते हैं कि पुस्तकें कुपात्र के हाथों में न पड़ें। जिसने जान हथेली पर रख ली हो, कबीर के शब्दों में-‘सीस उतारे भुइँ धरै’

अर्थात् जिसका इरादा आत्महत्या करने का हो, वही व्यक्ति पोथियाँ पढ़े। कोई समझदार व्यक्ति अपनी जान जोखिम में न डाले। आखिर बीबी बच्चों को अनाथ छोड़कर चल देना कहाँ की समझदारी है? प्रकाशक अकेले ही इस पावन कर्म का सम्पादन नहीं कर सकता। इनमें वे आस्थावान् खरीददार भी शामिल हैं, जिन्हें चालीस प्रतिशत कमीशन चाहिए। कमीशन नहीं लेंगे, तो पुस्तकों में प्राण प्रतिष्ठा नहीं होगी। जो बेटी शादी के कुछ ही महीनों बाद जला दी जाती है, वह भी बाप के घर से हजारों रुपये लेकर आती है। जिस पुस्तक को कम से कम साठ-सत्तर साल तक ससुराल रूपी पुस्तकालय की ‘शोभा’ बढ़ाना है, उसे कमीशन की दहेज के बिना कौन पूछेगा?

फ़िल्मों में अधनंगे विज्ञापन, भुतहे महाराज की शोभा-यात्रा, नामर्दी का शर्तिया इलाज, कनफटे बाबा के नगर में आगमन की सूचना देने वाले पर्चे, राजनैतिक दलों द्वारा किया गया पोस्टर चिपकाऊ कार्यक्रम, बहुत सारे पोथी पढ़ने वालों की प्राण-रक्षा करते हैं।

यदि कोई निराश हो चुका हो, जीवन से तंग आ चुका हो और पढ़ने की लत छोड़ने में असमर्थ हो, उसके लिए कुछ सुरक्षात्मक उपाय ज़रूरी हैं- कभी खरीदकर पुस्तक न पढ़े, मुफ़्त में मिले तो पढ़े। ऐसी पुस्तकें पाठक को कम नुकसान पहुँचाती हैं। माँगकर पढ़ना इससे भी उत्तम है; लेकिन इसके साथ एक शर्त है कि उस माँगी हुई पुस्तक को वापस न करें। कोई बेशर्म होकर माँगे, तो उसे प्रेमपूर्वक समझा दें- ‘‘मैंने पुस्तक आपको वापस कर दी थी। आप भूल गए।’’ ऐसा करने से आपको पड़ने वाला मिर्गी का दौरा बिना जूता सुँघाए दूर हो जाएगा। फ़्लैप पर जो लिखा हो, केवल उसे ही पढ़ें। आखिरकार जिसने यह फ़्लैप लिखा था, उसने भी पुस्तक कब पढ़ी थी? इस प्रकार पढ़ने से उदरशूल नहीं होगा, खट्टी डकारें नहीं आएँगी।

आज ऐसे भी लोग मिलेंगे, जो पोथी पढ़कर नहीं; बल्कि मोटे-मोटे ग्रन्थों को ड्राइंग रूम की अलमारी में सजाकर रखते हैं, ताकि आने वाले पर उनके बुद्धिजीवी होने का प्रभाव पड़े। ग़लती से यदि आपने पूछ लिया कि सामने करीने से सजी ‘अमुक’ पुस्तक में क्या है ? तो उनका  मासूम-सा उत्तर होगा-बहुत दिन पहले पढ़ी थी । आज तो याद नहीं। कुछ ऐसे पुस्तक-प्रेमी भी मिलेंगे कि जहाँ से मिले पुस्तक झटक लीजिए। पढ़ना तो दूर, जिसने डाकखर्च का भुगतान करके मुफ़्त में पुस्तक भेजी है, उसको प्राप्ति-सूचना भी नहीं देंगे। जो सूचना दें-‘ऐसो को उदार जग माहीं।’

लेख आपने पढ़ ही लिया है। इसके बाद आपको यदि तन-मन का कोई विकार हो जाए, तो उसकी जिम्मेदारी मेरे ऊपर नहीं। ■■

कहानीः नदी का इश्क़ जिंदा था ...

 - दिव्या शर्मा

मैं आज फिर उसके शहर में खड़ा था। सालों से शरीर पर चिपकी मेरी बाँहें खुलकर लहरा उठी। मैंने गहरी सांस ली और उसके शहर की हवा को अपने अंदर खींच लिया।

वैसी ही खूशबू मेरे अंदर उतर गई जैसी बरसों पहले उसके आँचल में महकती थी।

अपने पैर को मोड़कर पैंट से जूतों को साफ किया और कदम बढ़ा दिया। सड़क पर चलते इन कदमों में कुछ अजीब सी थकन थी फिर भी आवाज़ कर रहे थे। बदलाव तो कुछ नजर आया… पर मुझसे खुद को छिपाने की कोशिश में यह शहर आज भी दरवाजे की ओट लिए नजर आया। मेरे कदमों ने अपनी रफ्तार बढ़ा थी...।

मेरी आँखें उन पेड़ों को तलाशने लगी जो मेरे साथ छुपन- छुपाई खेलते थे। कभी कभी मैं अड़ जाता उनकी डालियों पर झूलने के लिए,वे पेड़ मेरी जिद सुन लेते और अपनी बाँहों का झूला बना मुझे समेट लेते।

अचानक पीछे से आहट सुनाई दी। मैं ठिठक गया। वह आहट चरमराई देह की लग रही थी। मैंने मुड़कर देखा तो किस्सों की गली मेरे पीछे चली आ रही थी।

 मेरी भवें तन गई और होंठ टेढ़े होकर बुदबुदाने लगे। चारों तरफ एक जंगल- सा उग आया, कँटीली झाड़ियों पर साँप सरकने लगे। मेरी आँखें पीपे के मुँह की तरह गोल हो गईं, जो सँकरी होकर भी सारे जंगल को पी रही थी। तभी एक किस्से ने आकर मेरे कानों में कुछ कहा, लेकिन मैं सुन नहीं पाया।

"तुमने कुछ सुना !"

 "नहीं…।"

"तुम्हें सुनना चाहिए...।" उस किस्से के चेहरे पर पसीने की कुछ बूँदें फिसल आईं।

"मेरे कानों पर खूशबू की कैप लगी है… उसे हटाना होगा।"

मैंने सिगरेट का लम्बा कश लिया और उसके चेहरे पर धुँआ उडेल दिया।

"तुम्हारी आदतों में झुंझलाहट शामिल हो गई है… तुम अब कुछ नहीं सुन सकते। "अब वह निराश था।

"हम्म… पर मैं सुनना चाहता… अच्छा चलो...मैं अपने जूते उतार कर इन झाड़ियों पर चढ़ जाता हूँ… तुम कहो, मैं सुनूँगा।"

"तुम्हारे जूते अकेले हो जाएँगे, मत उतारो उन्हें।" किस्से ने मेरे हाथ को पकड़ लिया और एक पेड़ की डाली पर मुझे बिठा दिया।

मेरे सामने मेरा बचपन चला आया और हँसने लगा। उसकी हँसी सुनकर मुझे गुस्सा आने लगा। मेरी पीपे के मुँह जैसी आँख एक बार फिर फैल गई और अपने बचपन को मैंने पी लिया। कानों पर लगे खुशबू की कैप को उतारकर आँखों के ऊपर लगा दिया।

मेरी नाक कुछ फड़फड़ाई लेकिन जल्दी शांत हो गई।

"तुम अब भी झुंझला रहे हो...। "उस किस्से ने कहा और अपने जंगल को समेटने लगा।

"नहीं नहीं, मैं बिल्कुल शांत हूँ...बिल्कुल उस नदी की तरह जो शहर में बहती है। " मैं पेड़ से उतर कर किस्से के पास आकर खड़ा हो गया।

"अब इस शहर में कोई नदी नहीं बहती ...एक नाला जरूर बहता है यहाँ… बदबूदार...।" उसने अपने चेहरे को घृणा से सिकोड़ लिया।

"नदी!… कहाँ चली गई वो...उसे तो इश्क़ था इस शहर से! " मैं आश्चर्य में था।

"उस इश्क़ ने ही तो उसे मौत दे दी। "दुखी हो किस्से ने कहा।

अब तक खामोश मेरी नाक सिसक उठी और उसनें खुद को जोर से बंद कर लिया। इतनी जोर से कि मेरी साँसें घुटने लगीं। मैं घबराकर किस्से के गले लग गया। उसने हौले से मेरी पीठ पर अपनी हथेली टिका दी। उसके स्पर्श से मेरी साँसों ने अपने रास्ते खोल दिए और मैं बच गया।

"तुम कुछ कह रहे थे, कहो न! "मैंने आग्रह किया।

उसने एक बार मेरी ओर ध्यान से देखा मैं सकपका गया और अपनी हथेली रगड़ने लगा।

हथेलियों की रगड़ने से कुछ बूँदें चूने लगी...।

उन बूँदों में नदी का अक्स दिखने लगा।

किस्से ने मेरी हथेलियों को पकड़ लिया और बोलना शुरू किया,

"कुछ किस्से बहुत आवाज करते हैं और कुछ खामोशी से आपको घेर लेते हैं। खामोश किस्सों के पास एक नाव होती है जिसकी पतवार अनदेखे,अनसुने किरदारों के हाथों में होती है। यह किरदार आपको हौले-हौले अपने साथ ले चलते हैं अपने किस्सों की नाव में बिठाकर और आप चल पड़ते हो चुपचाप।"

"पर तुम भी तो एक किस्सा हो! "मैंने उसे बीच में टोका। पर उसनें मेरी बात को अनसुना कर दिया और अपनी बात जारी रखी।

"आपको शायद पता न हो, इन किस्सों की एक गहरी नीली नदी होती है, जिसमें नीलम- सी सीपियाँ झिलमिलाती हैं; लेकिन कभी-कभी जाने क्यों यह सीपियाँ स्याह हो जाती हैं। किस्सों की महक में आप खुद को डूबो भी नहीं पाते कि तेज दुर्गंध आपको बेचैन कर देती हैं आप बंद कर लेते हैं अपनी नाक ....पर भूल जाते हैं कि किस्सों की दुर्गंध तो कानों से अंदर घुसती है... वह हँसती है आपकी मूर्खता पर....।" इतना कह वह जोर- जोर हँसने लगा।

उसकी बातें मुझे बेचैन कर रही थी, उसने मेरी नाक के सच को जान लिया था। मुझ पर घबराहट तारी होने लगी। मैंने अपनी आँखों को चौड़ा किया और उस किस्से को भी पी लिया। अपने कदमों की रफ्तार तेज कर दी।

….मेरे जूते मेरे साथ थे।

तभी एक मोड़ पर आकर मेरे कदमों को किसी ने बाँध दिया; लेकिन वहाँ कोई नहीं था। मेरे जूते मेरे पैरों को चुभने लगे। जाने कहाँ से कीलें खड़ी हो गई…अनगिनत कीलें; पर उन कीलों की नोक पर कुछ लिखा था। मेरी आँखें मिचमिचाते हुए उसे पढ़ने की कोशिश करने लगी। दो अक्षर थे शायद या फिर एक नाम, कौन -सा नाम यह समझ नहीं आया। जूतों पैरों से खुद ब खुद उतर गए और मेरी तरफ देख कर मुस्कुरा दिए। उनकी मुस्कुराहट जाने क्यों मुझे व्यंग्य लगी...ऐसा लगा जैसे मेरी हालत का मखौल बना रहे हो।

"तुम मुझे छोड़कर ऐसे नहीं जा सकते...। " मैंने पैरों में से कीलें निकालकर कहा।

"तुम हमें रोक नहीं सकते...।" बाएँ पैर के जूते ने कहा।

"मैं रोक सकता हूँ! " इतना कह मैंने अपनी बाँह को उठाया, तो वह नहीं उठी...वापस मेरे शरीर से चिपक गई। मैं जोर से चीखने की कोशिश करने लगा; लेकिन मेरे होंठ मेरी जुबान को पकड़कर बैठ गए। मैं अपने कदमों को सिकोड़ने लगा और पेट से चिपका दिए। मेरी आँखों से अब पानी बह रहा था… लेकिन यह क्या… उसमें मरी हुई नदी का अक्स था..बिल्कुल वैसे ही जैसे हथेलियों के गिरते पानी में...।"

तुम सो रहे हो या मर गए हो! "एक आवाज़ मेरे कानों से टकराई। मैंने आँखों को मिचमिचाते हुए खोला...। आसमान स्याह था; लेकिन सूरज चमक रहा था। एक परछाई मेरे जिस्म पर फैल गई।

"मैं तुमसे पूछ रहा हूँ…! तुम सो रहे हो या मर गए?" वह परछाई फिर बोली।

मेरी नजर अब साफ देख पा रही थी। उसके काँधे पर एक झोला था और एक हाथ में लकड़ी। जिसके सहारे वह खड़ा था। उस लकड़ी को देखकर मुझे अपने बचपन वाले पेड़ की याद आ गई। मेरी आँखों से वह बचपन कूदकर बाहर आ गया और परछाई की लकड़ी को पकड़कर खड़ा हो गया।

"लगता है यह मर गया है। तुम मेरे साथ चलो।" परछाई ने बचपन से कहा।

अब मुझे वह परछाई अपने बिल्कुल ऊपर नजर आई। वह जर्जर बूढ़े के जैसी दिख रही थी। मेरा बचपन उसके साथ चलने लगा...मेरे दिल ने जोर से मुझे धक्का दिया।

"रुको… मैं सो गया था, लेकिन अब उठ गया हूँ...तुम कौन हो?" मेरी आवाज कुछ तेज थी। मेरे होंठों ने जीभ को खोल दिया था।

"मैं इस शहर का एक हिस्सा हूँ...तुम भूल गए मुझे…!"- उसने अपनी लकड़ी को बजाते हुए कहा।

"ओह्...मैं पहचान गया… तुम उस पेड़ के साथ रहते थे न...पर तुम तो जर्जर हो गए हो!" मैंने आश्चर्य से पूछा।

"हाँ...वह पेड़ अब नहीं रहा ...उसके जाने से मेरी देह सूख गई....मेरे तन पर फफोले उग आए हैं… मैं जलता जा रहा हूँ...।" इतना कहकर उसने अपने शरीर से कमीज उतार दी ...। उसके शरीर पर फैले फफोलों से मवाद बह रहा था, दुर्गंध वाला मवाद...। मेरी नाक परेशान हो गई। इससे पहले की वह मेरी साँस को रोक ले, मैंने बूढ़े की कमीज वापस उसके शरीर पर डाल दी।

यह सब इतनी जल्दी हुआ कि मेरी उँगलियाँ उसके जिस्म पर रगड़ गई...। रगड़ने से खाल खुरच कर नीचे गिर गई। वह दर्द से चिल्लाया। मेरे दिल ने मुझे फिर एक जोर का धक्का मारा। अबकी बार मैं लड़खड़ा गया और बूढ़े के ऊपर गिर गया। मुझे अपने नीचे कुछ तरल नजर आया… वह बूढ़ा पानी बन गया था; लेकिन गंदला पानी...। मेरी आँखों ने अपने मुँह को फैलाया और उसे भी पी लिया। उसके झोले में कुछ शोर सुनाई देने लगा। मेरा बचपन एक ओर बूढ़े की लकड़ी थामे सहमा खड़ा था। वह धीरे से झोले के करीब आया और उसमें झाँका...धड़धड़ाते हुए मेरे जूते उसमें से बाहर आ गए और मेरे कदमों से लिपट गए। मुझे बहुत गुस्सा आया।

मैं अपने पैरों को झटकने लगा...।

"अब रहने दो न...वह तुम्हारे साथ चलना चाहते हैं। "बचपन ने हिम्मत जुटाकर कहा।

"तुम्हें बाहर नहीं आना था...चुपचाप पीपे में चलो जाओ...वहाँ से दिल में चले जाना...।" मैंने उसे घूरते हुए कहा।

"दिल में अँधेरा तो नहीं…!"

"रोशनी तुम्हें तलाशनी होगी… अँधेरी सुरंग के पार फूलों की दुनिया है जहाँ हँसी रहती है। "मैंने उसे कहा । उसने मुझे ध्यान से देखा…। चारों तरफ रहस्यमय धुआँ उठने लगा...धुआँ कुछ नीला था....नदी के नीले पत्थरों की तरह। मैं वहाँ से भागने लगा।

शहर के दरवाजे बंद होने लगे...मेरी दौड़ जारी थी...शहर की सड़कों पर खूँटियाँ टँगी थीं...जिनपर अनगिनत कोट टँगे थे...मुझे इन्हें नहीं देखना था...।

आखिरकार मैं वहाँ पहुँच गया… उस मोड़ पर। मेरी साँसें उखड़ रही थी; लेकिन मेरा दिल खुश था...। कानों से खुशबू की कैप हटाकर मैं अपने मन की सुनना चाहता था।

वह मोड़ अब भी चमक रहा था… मैं उस ओर चल पड़ा। अब खूँटियों पर कुछ दुपट्टे नजर आ रहे थे… लाल...पीले...। सबके अंदर गाँठ बँधी थी...ऐसा लग रहा था, जैसे मन्नतों को यहाँ बाँध दिया गया हो...। मेरे कदम और तेज हो गए। मैं उसके निकट था...बस कुछ देर में मैं उसकी चौखट पर पहुँच जाऊँगा...। तभी मेरा बचपन हँसते हुए मुझसे आगे निकल गया। नीला धुआँ उसके साथ था। मेरी आँखें फिर चौड़ी होने लगीं; लेकिन मैंने अपनी हथेलियों से उन्हें ढक दिया। वह कसमसाकर चुप हो गई। मैं अपने बचपन के साथ रेस करने लगा,वह खिलखिला रहा था। मेरे चेहरे पर एक हँसी पसर गई...। खूँटी पर टँगे दुपट्टे हवा में लहराने लगे। उसकी चौखट मेरे सामने थी। मैं घुटनों के बल बैठ गया। मेरे दोनों हाथ जुड़ गए। आँखों का बाँध टूट गया। आँसुओं की धार के साथ सारे किस्से बहने लगे...। कँटीली झाड़ियाँ पेड़ बन गई और साँप उनकी शाखाएँ। मैंने अपने होंठ चौखट पर रख दिए और उसे चूमने लगा…।

सारी दुर्गंध उस नीले धुएँ के साथ चली गई और चारों तरफ खुशबू की लहर बिखर गई...।

अब मैं अकेला नहीं था… वहाँ एक नदी थी...उसके शहर की नदी। ■■

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