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Apr 1, 2023

उदंती.com, अप्रैल 2023

वर्ष- 15, अंक- 8

पुस्तकों का मूल्य रत्नों से भी अधिक है, क्योंकि पुस्तकें अन्तःकरण को उज्ज्वल करती हैं।   - महात्मा गांधी

इस अंक में

अनकहीः  समान अवसर की कमी... – डॉ. रत्ना वर्मा

विश्व पुस्तक दिवसः ये जो ज़िन्दगी की किताब है -  ममता व्यास

कविताः पढ़ने को पुस्तक पाऊँ - रामनरेश त्रिपाठी

श्रद्धांजलिः वरिष्ठ पत्रकार डॉ. वेद प्रताप वैदिक का जाना

आलेखः मिलावटखोरों की सजा ऐसी हो - डॉ. वेदप्रताप वैदिक

आलेखः 1934 का प्रलयंकर भूकम्प - अंजनी कुमार सिन्हा

आलेखः टेढ़े-मेढ़े रास्ते - परमानंद वर्मा

जीव जगतः हमिंगबर्ड- भारतीय शकरखोरा - डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

कविताः प्रेम की अपूर्णता - डॉ. सांत्वना श्रीकान्त

पर्यावरणः सुधर रही है गंगा की सेहत - प्रमोद भार्गव

विश्व विरासत दिवसः भव्य इतिहास समेटे  डीपाडीह का पुरातत्व  - डॉ. रत्ना वर्मा

विज्ञानः धरती को ठंडा रखने धूल का शामियाना - स्रोत फीचर्स

कहानीः समय से पहले - हरेराम समीप

कविताः ऐसा क्यों होता है - विजय जोशी 

लेखकों की अजब गज़ब दुनियाः अजीब आदतों वाले लेखक - सूरज प्रकाश

संस्मरणः वो सोलह दिन - निरुपमा सिंह

लघुकथाएँ- 1. मरुस्थल के वासी -  श्याम सुन्दर अग्रवाल, 2. पाँव का जूता - डॉ. सतीश दुबे

 3. जानवर भी रोते हैं -  जगदीस कश्यप, 4. अंतहीन  सिलसिला - विक्रम सोनी

आधुनिक बोध कथाः पुनर्मूल्यांकन - सीताराम गुप्ता

कविताः लौट भी आओ - सुरभि डागर

किताबेंः 'मैं लहर तुम्हारी'  मानवीय चेतना को उज्जवित करती कविताएँ-  अनिमा दास

बाल कविताएँः 1.खुद सूरज बन., 2.रोटी कहाँ छुपाई, 3.करने दो आबाद - प्रभुदयाल श्रीवास्तव

अनकहीः समान अवसर की कमी...

- डॉ.  रत्ना वर्मा 

हर वर्ष की तरह पिछले महीने हमने महिला दिवस मनाकर महिलाओं के सम्मान के गुण गाए। उनकी उपलब्धियों को गिना कर उन्हें पुरस्कृत किया। उसके बाद भारतीय नव सत्संवर और चैत्र नवरात्रि के आरंभ के साथ ही लगा जैसे पूरे देश में एक नई ऊर्जा और जोश का संचार हो गया। सब देवी दुर्गा की आराधना में लीन होकर भक्ति में डूब गए। पर क्या सचमुच हम महिला दिवस मनाकर और इन नौ दिनों तक कन्या को देवी की तरह पूजते हुए नारी को जिस प्रकार से आदर और सम्मान देते हैं , क्या उसी तरह से अपनी जिंदगी में, अपने विचारें में अपने व्यवहार में भी  हम उन्हें वही मान- सम्मान दे पाते हैं? 

कहने को तो यह सब फिर वही पुरानी और घिसी- पिटी बात लग सकती है, और हम सब यह मानते भी हैं कि अब ज़माना बदल गया है, लड़कियाँ अब सिर्फ शादी और बच्चे पैदा करके घर में ही कैद रहने वाली नहीं रही, वह पढ़- लिखकर हर क्षेत्र में आगे बढ़ चुकी है आदि आदि... पर क्या आपने कभी यह सोचा है कि आज भी जब परिवार में पहला बच्चा लड़की होती है, तो दूसरे बच्चे के समय न केवल दादा दादी बल्कि माता- पिता भी यह कामना करते हैं कि अब एक लड़का आ जाना चाहिए; आखिर वही तो वंश को आगे बढ़ाएगा, माता- पिता की सेवा करेगा। तब यह सोचना ही पड़ता है कि इस पितृसत्तात्मक सोच को लेकर हम कौन- सी तरक्की पसंद बराबरी की दुनिया बसाना चाहते हैं। आप माने या न माने;  परंतु ये वंश को आगे बढ़ाने वाली सदियों पुरानी रूढ़िवादी मानसिकता से हम आज भी उबर नहीं पाए हैं। जो परिवार इस सोच को बदल पाए हैं, उनकी संख्या इतनी कम है कि उँगलियों पर गिनी जा सकती है। 

 इस संदर्भ में पिछले दिनों चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डी वाई  चंद्रचूड़ द्वारा स्त्री और पुरुष की इस असमानता को लेकर की गई टिप्पणियों की ओर सबका ध्यान आकर्षित करना चाहूँगी-  एक बच्चे की हत्या और अपहरण के एक फैसले पर रिव्यू के दौरान उन्होंने सुप्रीम कोर्ट की समीक्षा की पंक्तियों का जिक्र करते हुए कहा - ‘बच्चे की हत्या अपने आप में बहुत क्रूर कृत्य है। ऐसी हालत में कोर्ट के सामने यह विषय नहीं हो सकता कि छोटा बच्चा लड़का है या फिर लड़की। हत्या अपने आप में बहुत बड़ा दुख है। ऐसे में कोर्ट को यह नहीं कहना चाहिए कि वह लड़का था और वंश चलाता या फिर माँ-बाप का बुढ़ापे में ध्यान रखता। ऐसी टिप्पणियाँ अनजाने में ही सही फैसला देते समय पुरुष प्रधान और पितृ सत्तात्मक नजरिया को प्रस्तुत करती हैं, अतः इनसे दूर रहना चाहिए।’ 

न्याय व्यवस्था का स्थान हमारे देश में सर्वोपरि है। उनके फैसले का हम सब सम्मान करते हैं । हम  ऐसा मानते हैं कि न्याय की कुर्सी पर बैठा व्यक्ति किसी को सजा इसलिए नहीं सुनाता कि वह स्त्री या पुरुष है। व्यक्ति को सजा उसके किए गए अपराध के आधार पर सुनाई जाती है। ऐसे में चीफ जस्टिस की उपर्युक्त टिप्पणी चिंतन का विषय है और इस पर विचार अवश्य किया जाना चाहिए। 

महिला और पुरुष की असमानता को लेकर चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया की एक दूसरी टिप्पणी भी गौर करने लायक है, जिसमें उन्होंने कहा कि कानूनी पेशा महिलाओं को समान अवसर देने वाला पेशा नहीं है। उन्होंने एक उदाहरण देते हुए कहा कि तमिलनाडु में 50 हजार पुरुष रजिस्टर्ड हैं, जबकि महिलाओं की संख्या केवल पाँच हजार है। इसकी वजह महिलाओं में प्रतिभा की कमी नहीं है, बल्कि ऐसा इसलिए होता है ; क्योंकि हमारे कृत्य रूढ़िवादी धारणाओं पर आधारित हैं। 

जाहिर सी बात है कि काम करने वाली जगह में जहाँ पुरुषों का साम्राज्य है, महिलाओं को अपनी जगह बनाने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है। विभिन्न अध्ययन और सर्वेक्षण ने भी इस बात को प्रमाणित किया है कि महिला को अपना बॉस स्वीकार करने में पुरुष सहकर्मियों को तकलीफ होती है। जगजाहिर है कि पुरुषों की मानसिकता में भरी रूढ़िवादी सोच और पुरुष होने का अहंकार महिलाओं के आगे बढ़ने में आड़े आता है। 

जाहिर है अवसर कम होने के कारण कानूनी पेशे में महिलाएँ कम रुचि लेती हैं ; इसी प्रकार सामान्यतः मध्यमवर्गीय परिवारों में डॉक्टर व इजीनियर बनने के लिए लड़कियों को उतना प्रोत्साहित नहीं किया जाता, जितना लड़कों को । इतना ही नहीं, लड़कियों का पालन- पोषण बचपन से इस  प्रकार किया जाता है कि स्कूली शिक्षा पूरी हो जाने के बाद वे शादी कर लें। वही उनकी जिंदगी का ध्येय माना जाता है। दरअसल पीढ़ी- दर- पीढ़ी चली आ रही कुछ रूढ़ परंपराओं के कारण महिला और पुरुष में की जा रही लिंग भेद की इस असमानता के चलते महिलाओं को समान अवसर नहीं दिया जाता। उन्हें लगता है कि यह काम महिलाओं के बस की बात नहीं है, वे घर के काम करने में निपुण होती हैं, वे बच्चे अच्छे से संभालती हैं।  प्रकृति के नियमों तक तो बात मानी जा सकती है ; परंतु सिर्फ लिंग के आधार पर काम का बँटवारा आज के संदर्भ में स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। 

जब उच्च शिक्षा प्राप्त लोग इस मानसिकता की गिरफ्त में हैं तो फिर आम- जन जीवन में लोगों से हम यह कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वे इस सदियों पुरानी सोच से ऊपर उठकर महिलाओं के प्रति अपनी धारणाओं को बदलेंगे। किसी तिथि विषय पर, पर्व त्योहार पर नारी का आदर करना, सम्मान करना और देवी मानकर उनको पूजना एक बात है; परंतु जमीनी हकीकत में उनकी योग्यता के अनुरूप उन्हें काम देना, काम करने की आजादी देना, अलग बात है। जिस दिन हम इस मानसिकता से उबर पाएँगे उस दिन ही वास्तव में संविधान में लिखे गए स्त्री- पुरुष समानता की बात को स्वीकार कर पाएँगे। 

23अप्रैल- विश्व पुस्तक दिवसः ये जो जि़न्दगी की किताब है

 -  ममता व्यास

हम ज़िन्दगी भर अनगिनत किताबें पढ़ते हैं और इन किताबों में मन के प्रश्नों के उत्तर खोजते हैं, न जाने कितनी किताबें पढ़ीं और कितनी पढ़ के भूल गए, लेकिन कुछ किताबें हमें ताउम्र याद रहती हैं। किताबें हमें जीना सिखाती हैं और जीने का हुनर भी। हम सभी अपनी जिन्दगी जीते है, कोई अपने लिए जीता है तो कोई किसी और के लिए गुजार देता है। ये जीवन भी तो एक किताब ही है, जिसे हम जन्म के दिन से लिख रहे हैं और अंतिम दिन तक लिखेंगे क्या-क्या लिखा? कैसा लिखा? अधूरा लिखा या पूरा लिखा? खुशी लिखी या गम लिखा? कभी सोचा ही नहीं बस लिखते ही गए कभी इस किताब को पढ़ने की नहीं सोची और जिस दिन पढ़ने बैठे उस दिन किताब ही रूठ गई । बोली, अब नहीं बहुत देर हुई अब सो जाओ तुम।

क्यों समय रहते हमने अपनी जिन्दगी की किताब नहीं पढ़ी। अंतिम नींद के पहले सारी किताबें पढ़ लेनी थी। रोज हम नए-नए पन्नों पर हर पल का हिसाब लिखते चले गए। खाते-बही लिख-लिख कर खुश होते गए लेकिन खातों को, इन पोथियों को कभी गलती से भी उलट-पलटकर नहीं देखा, किसी दिन फुर्सत से अगर देखने बैठे तो पाएँगे कि हमारी जिन्दगी की किताब का पहला पन्ना हमारे जन्म से शुरू होता है और फिर हम गढ़ने लगते हैं रोज नई इबारत-बचपन की, वो कागज की कश्ती, बारिश का पानी और गुड़िया के ब्याह के रंग में रँगे कुछ पन्ने तो आम के पेड़ से कच्ची कैरियों को चुराने के आनन्द से सराबोर कुछ पृष्ठ... कुछ आगे बढ़े तो युवावस्था के इन्द्रधनुषी पन्ने जिनमें है प्रेम के सुर्ख गुलाब, तो कहीं है पीले, नारंगी अहसास।

कहीं फागुन के रंग तो कहीं सावन की भिगोती फुहार से भीगे-भीगे पन्ने होते हैं इस किताब में-कुछ पन्ने गुलाबी और थोड़े सुर्ख होते हैं जिन पर लिखी होती है प्रेम की, इजहार की और मिलन की इबारत ये पन्ने इस किताब के सबसे चमकीले पन्ने होते हैं, जो पूरी जिन्दगी हमें रोमांचित करते है हम इन्हें बार-बार पढ़ना चाहते हैं-प्रेम के पन्ने कभी बदरंग नहीं होते।

वो उम्र के हर मोड़ पर हमें लुभाते हैं। इन पन्नों पे हमने अपनी सबसे सुन्दर भावनाएँ दर्ज की होती हैं, लेकिन इस किताब के कुछ पन्ने स्याह क्यों? काले नीले और थोड़े बदरंग क्यों? राख जैसे धूसर से, जरूर ये दर्द दुख और पीड़ा के पन्ने हैं तन्हाइयों के पन्ने हैं इन्तजार के पन्ने है जो आँसुओं से भीग-भीग कर गल गए हैं इन्हें ज़रा आराम से उलटना वरना ये चूर-चूर हो जायेंगे ये दर्द के पन्ने हम दुबारा कभी भी पढ़ऩा नहीं चाहते इन्हें पढ़ने से हमारा अंतर-मन दुखता है। हम फिर से दुख के सागर में डूब जाते हैं।

ये काले धूसर पन्ने हमें बिलकुल नहीं सुहाते। आगे फिर इस किताब में कुछ सतरंगी पन्ने जगमगाते हैं। इनमें दर्ज है किसी की मुस्कुराहटें जो हमने सजाई थी किसी के लबों पर या किसी ने रख दी थी हमारे होठों पर, ये हँसी-खुशी के सतरंगी पन्ने भी चमक रहे है यहाँ। अरे, ये कुछ पन्ने हमने किताब में मोड़कर क्यों रखे? ये हमारे बिल्कुल निजी पन्ने  हैं शायद जिनमें हमने अपने निजी पलों को छुपा रखा है। जिन्दगी की किताब के ये पन्ने हमें जीने का हौसला देते है। तन्हाइयों में जब कोई पास नहीं होता तब ये प्यार की थपकी देते हैं, जब आँखों से आँसुओं की धारा बहती है और कोई नहीं साथ होता तब ये पन्ने कहते हैं- हम है ना! तुम्हारे-ये मुड़े पन्ने जिनमें छिपे है कई निश्छल रिश्ते, आत्मिक रिश्ते बिना, जरूरत के रिश्ते और उनकी ऊष्मा अभी है जीवित है। इन्हें छूना नहीं हाथ जल सकते हैं, आगे चलते हैं अरे इन आखिरी पन्नों पर तो कुछ लिखा ही नहीं है बिलकुल कोरे-क्यों? शायद ये वो पन्ने हैं, उन भावनाओं और संवेदनाओं के नाम हैं, उन ख्वाहिशों के नाम हैं, जिन्हें कभी व्यक्त ही नहीं किया गया, अनकही बातें लिखी हैं यहाँ।

भला शब्दों में इतनी सामर्थ्य कहाँ की वो भावनाओं को हुबहू व्यक्त कर दें। सारा अनकहा इन्हीं पन्नों में लिखा गया है। टूटी- फूटी ख्वाहिशें, आधे-अधूरे अरमान कुछ बेनाम रिश्ते, कुछ प्रेम भरे खत जो कभी लिखे ही नहीं गए,  कुछ आँसू जो पलकों पे सूख गए कुछ अनकही बातें, जो होठों के किनारों पे चिपकी रहीं, इन पन्नों को पढ़ने की नहीं महसूस करने की जरूरत है। इन्हें भी आप छुए नहीं बहुत कोमल हैं ये-मुरझाने का डर है और अंत में इस किताब के कुछ पन्ने फटे हुए से दिखते हैं जरूर,  ये वो पन्ने होंगे जो जिन्दगी की किताब से हमेशा के लिए दूर हो गए मगर उनके अलग होने के निशाँ किताब पर बखूबी देखे जा सकते हैं। ठीक वैसे जैसे कोई मासूम सा बच्चा अपनी गलतियाँ छिपाने के लिए और कॉपी को सुन्दर बनाए रखने के लिए कुछ पन्ने    फाड़ देता है। टीचर के दिए गए रिमार्क वाले पन्ने को भी फाड़ देता है और मन-ही-मन खुश होता है कि अब कोई कमी नहीं इस नोटबुक में सब ठीक कर दिया है, लेकिन फटे हुए पन्नों की चुगली बाकी पन्ने कर ही देते हैं।

तो साहब ये है ज़िन्दगी की किताब के पन्ने, हरेक की अपनी किताब है ये। हमें तय करना है हम उसे किस तरह से संजोते हैं, पढ़ते हैं। हमें कोई हमारे जाने के बाद भी प्रेम से पढ़े, हम ऐसी किताब बन जाये। किसी शायर ने क्या खूब कहा है-

'ये किताब भी क्या खिताब है

कहीं इक हँसी सा ख्वाब है

कहीं जानलेवा अजाब है

कहीं आँसू की है दास्ताँ

कहीं मुस्कुराहटों का है बयान,

कई चेहरे हैं इसमें छिपे हुए-

इक अजीब सा ये नकाब है

कहीं खो दिया, कहीं पा लिया

कहीं रो दिया, कहीं गा लिया

कहीं छीन लेती है हर खुशी

कहीं मेहरबान लाजवाब है।'

कविताः पढ़ने को पुस्तक पाऊँ

 23 अप्रैल- विश्व पुस्तक दिवसः

  - रामनरेश त्रिपाठी

कोई मुझको भूमंडल का एक छत्र राजा कर दे।
उत्तम भोजन, वस्त्र, बाग, वाहन, सेवक, सुंदर घर दे॥

पर मैं पुस्तक बिना न इनको किसी भाँति स्वीकार करूँ।
पुस्तक पढ़ते हुए कुटी में निराहार ही क्यों न मरूँ॥

पुस्तक द्वारा नीति-निपुण विद्वानों से बतलाता हूँ।
सत्पुरुषों के दिव्य गुणों से अपना हृदय सजाता हूँ॥

अगम अगाध समुद्रों को भी बिना परिश्रम तरता हूँ।
बिना खर्च के रण में वन में निर्भय नित्य विचरता हूँ॥

ऐसा श्रेष्ठ मित्र पुस्तक है मैं इससे सुख पाता हूँ।
मैं सारा अवकाश का समय इसके साथ बिताता हूँ॥

कुढ़ता नहीं, न कटु कहता है, सदा सुशिक्षा देता है।
नहीं छुपाता जो पूछूँ और नहीं कुछ लेता है॥

हँसता नहीं अबोध जानकर कभी नहीं यह सोता है।
यदि इसका अपराध करूँ कुछ तो भी रुष्ट न होता है॥

इस सुख को मैं छोड़ भला क्यों और सखों पर ललचाउँ।
ईश्वर से भी यही विनय है पढ़ने को पुस्तक पाऊँ॥

(जन्मः 04 मार्च 1889,  निधनः 16 जनवरी 1962)

श्रद्धांजलिः वरिष्ठ पत्रकार डॉ. वेद प्रताप वैदिक का चले जाना

वरिष्ठ पत्रकार डॉ. वेद प्रताप वैदिक का हृदय गति रुक जाने से 14 मार्च को सुबह निधन हो गया। उनकी उम्र 79 वर्ष थी। डॉ. वेदप्रताप वैदिक की गणना उन राष्ट्रीय अग्रदूतों में होती है, जिन्होंने हिंदी को मौलिक चिंतन की भाषा बनाया और भारतीय भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलवाने के लिए सतत संघर्ष और त्याग किया। महर्षि दयानंद, महात्मा गांधी और डॉ. राममनोहर लोहिया की महान परंपरा को आगे बढ़ानेवाले योद्धाओं में वैदिकजी का नाम अग्रणी है।

पत्रकारिता, राजनीतिक चिंतन, अंतरराष्ट्रीय राजनीति, हिंदी के लिए अपूर्व संघर्ष, विश्व यायावरी, प्रभावशाली वक्तृत्व, संगठन-कौशल आदि अनेक क्षेत्रों में एक साथ मूर्धन्यता प्रदर्षित करने वाले अद्वितीय व्यक्त्तिव के धनी डॉ. वेदप्रताप वैदिक का जन्म 30 दिसंबर 1944 को इंदौर में हुआ। वे रुसी, फारसी, जर्मन और संस्कृत के भी जानकार थे । उन्होंने अपनी पीएच. डी. के शोधकार्य के दौरान न्यूयार्क की कोलंबिया युनिवर्सिटी, मास्को के ‘इंस्तीतूते नरोदोव आजी’, लंदन के ‘स्कूल ऑफ ओरिंयटल एंड एफ्रीकन स्टडीज़’ और अफगानिस्तान के काबुल विश्वविद्यालय में अध्ययन और शोध किया।

वैदिकजी ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के ‘स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज’ से अंतरराष्ट्रीय राजनीति में पीएच. डी. की उपाधि प्राप्त की। वे भारत के ऐसे पहले विद्वान हैं, जिन्होंने अपना अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोध-ग्रंथ हिन्दी में लिखा। उनका निष्कासन हुआ। वह राष्ट्रीय मुद्दा बना। 1965-67 में संसद हिल गई। डॉ. राममनोहर लोहिया, मधु लिमये, आचार्य कृपालानी, इंदिरा गांधी, गुरु गोलवलकर, दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी, चंद्रशेखर, हिरेन मुखर्जी, हेम बरूआ, भागवत झा आजाद, प्रकाशवीर शास्त्री, किशन पटनायक, डॉ. जाकिर हुसैन, रामधारी सिंह दिनकर, डॉ. धर्मवीर भारती, डॉ. हरिवंशराय बच्चन, प्रो. सिद्धेश्वर प्रसाद जैसे लोगों ने वैदिकजी का डटकर समर्थन किया। सभी दलों के समर्थन से वैदिकजी ने विजय प्राप्त की, नया इतिहास रचा। पहली बार उच्च शोध के लिए भारतीय भाषाओं के द्वार खुले।

वैदिकजी ने अपनी पहली जेल-यात्रा सिर्फ 13 वर्ष की आयु में की थी। हिंदी सत्याग्रही के तौर पर वे 1957 में पटियाला जेल में रहे। बाद में छात्र नेता और भाषायी आंदोलनकारी के तौर पर कई जेल यात्राएँ की ! 

अनेक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों का आयोजन! राष्ट्रीय राजनीति और भारतीय विदेश नीति के क्षेत्र में सक्रिय भूमिका ! कई भारतीय और विदेशी प्रधानमंत्रियों के व्यक्तिगत मित्र और अनौपचारिक सलाहकार। लगभग 80 देशों  की कूटनीतिक और अकादमिक यात्राएँ। 1999 में संयुक्तराष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व! इसी वर्ष विस्कोन्सिन युनिवर्सिटी द्वारा आयोजित दक्षिण एशियाई विश्व-सम्मेलन का उद्घाटन! छात्र-काल में वक्तृत्व के अनेक अखिल भारतीय पुरस्कार। भारतीय और विदेशी विश्वविद्यालयों में विशेष व्याख्यान। अनेक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व। आकाशवाणी और विभिन्न टीवी चैनलों पर 1962 से अगणित कार्यक्रम। 

पुस्तकें: अफगानिस्तान में सोवियत- अमेरिकी प्रतिस्पर्धा, अंग्रेजी हटाओ: क्यों और कैसे?, हिन्दी पत्रकारिता- विविध आयाम, भारतीय विदेश नीतिः नए दिशा संकेत, एथनिक क्राइसिस इन श्रीलंका: इंडियाज ऑप्शन्स, हिन्दी का संपूर्ण समाचार- पत्र कैसा हो?, वर्तमान भारत, अफगानिस्तान: कल, आज और कल, महाशक्ति भारत, भाजपा, हिंदुत्व और मुसलमान, कुछ मित्र और कुछ महापुरुष, मेरे सपनों का हिंदी विश्वविद्यालय, हिंदी कैसे बने विश्वभाषा, स्वभाषा लाओ: अंग्रेजी हटाओ, आदि। अनेक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों और सम्मानों से विभूषित! 

पिछले 60 वर्षों में हजारों लेख और भाषण! वे लगभग 10 वर्षों तक पीटीआई भाषा (हिन्दी समाचार समिति) के संस्थापक-संपादक और उसके पहले नवभारत टाइम्स के संपादक (विचारक) रहे हैं। फिलहाल दिल्ली के राष्ट्रीय समाचार पत्रों तथा प्रदेशों और विदेशों के लगभग 200 समाचार पत्रों में भारतीय राजनीति और अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर डॉ. वैदिक के लेख हर सप्ताह प्रकाशित होते हैं।

प्रस्तुत है पाँच मार्च 2023 को  लिखा गया उनका आलेख- ‘मिलावटखोरों की सजा ऐसी हो’-

मिलावटखोरों की सजा ऐसी हो 
- डॉ. वेदप्रताप वैदिक

हमारी दो दवा-निर्माता कंपनियों के कारनामों से सारी दुनिया में भारत की बदनामी हो रही है। इस बदनामी से भी ज्यादा दर्दनाक बात यह है कि इन दोनों कंपनियों- मेडेन फार्मा और मेरियन बायोटेक- की दवाइयों से गांबिया में 60 बच्चों और उजबेकिस्तान में 16 बच्चों की मौत हो गई। जब पहले-पहल ये खबरें मैंने अखबारों में देखी तो मैं दंग रह गया। मुझे लगा कि भारत से अरबों रुप्ये की दवाइयों का जो निर्यात हर साल होता है, उस पर इन घटनाओं का काफी बुरा असर पड़ेगा। भारत की प्रामाणिक दवाइयों पर भी विदेशियों के मन में संदेह पैदा हो जाएगा। हमारी दवाएँ अमेरिका और यूरोप की तुलना में बहुत सस्ती होती हैं। मुझे यह भी लगा कि इस मामले ने यदि तूल पकड़ लिया तो एशिया और अफ्रीका के जिन गरीब मरीजों की सेवा इन दवाइयों से होती हैं, अब वे वंचित हो जाएँगे। हो सकता है कि गांबिया और उजबेकिस्तान के उन बच्चों की मौत का कारण कुछ और रहा हो। लगभग दो माह पहले जब ये खबरें आईं तो यह भी अपुष्ट सूत्रों ने कहा कि इन दवाइयों के नमूनों की जांच यहीं की गई है और वे ठीक पाई गई हैं लेकिन इन देशों के जाँच कर्ताओं ने अब जांच पूरी होने पर कहा है कि इन दवाइयों में कुछ नकली और हानिकर तरलों को मिला देने के कारण ही ये जानलेवा बन गई थीं। इस निष्कर्ष की पुष्टि अब एक अमेरिका की एक जांच कंपनी ने भी कर दी है। भारत सरकार ने इन कंपनियों के खिलाफ पुलिस में रपट लिखवा दी है और उनके कुछ कर्मचारियों को गिरफ्तार भी कर लिया है लेकिन दोनों कंपनियों के मालिक और वरिष्ठ प्रबंधक फरार हैं। यदि उनको विश्वास है कि उनकी दवाइयों में कोई मिलावट नहीं की गई है तो उन्हें डरने की जरूरत क्या है? यह भी हो सकता है कि मालिकों और मैनेजरों की जानकारी के बिना भी मिलावट की गई होगी। यदि ऐसा है तो उन कर्मचारियों को कठोरतम सजा दी जानी चाहिए और यदि मालिक और प्रबंधक भी इस जानलेवा मिलावटखोरी के लिए जिम्मेदार हैं तो उनकी सजा तो और भी सख्त होनी चाहिए। इन लोगों पर दस-बीस लाख या करोड़ रुपये. का जुर्माना बेमतलब होगा। इन सबको 76 बच्चों की सामूहिक हत्या का जिम्मेदार मानकर इनकी सजा भी इतनी भयंकर होनी चाहिए कि भावी मिलावटखोरों की नींद हराम हो जाए। यह सजा जल्दी से जल्दी दी जानी चाहिए ताकि आम लोगों को पता चले कि किस कुकर्म के लिए उन्हें दंडित किया गया है। उन्हें जेल के बंद दरवाजों के पीछे नहीं, चौराहों पर लटकाया जाना चाहिए और हर टीवी चैनल पर उसका जीवंत प्रसारण किया जाना चाहिए। उसके बाद आप देखेंगे कि देश में किसी भी तरह के मिलावटखोर आपको ढूंढने से भी नहीं मिलेंगे।
05.03.2023

आलेखः 1934 का प्रलयंकर भूकम्प

 -  अंजनी कुमार सिन्हा

15 जनवरी, 1934 सोमवार का वह दिन बिहार और नेपाल के लोग कभी भूल नहीं सकते। यद्यपि अब भूकम्प के प्रत्यक्षदर्शियों में से शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति बचा हो जो उस समय को याद कर आँखों देखा हाल बयान कर सके, लेकिन हमारी सामूहिक चेतना में वह दिन आज भी एक डरावने सपने की तरह विद्यमान है:

Fear at my heart, as at cup,

My life-blood seems to sip!

अपने बचपन और किशोरावस्था में मैंने अपने घर और पड़ोस के बड़ों से उस भूकम्प का ऐसा रोचक, बल्कि भयावह वर्णन सुना है कि उन बातों को याद कर प्रकम्पित हो जाता हूँ। वे लोग बताते थे कि दोपहर (सवा दो बजे दिन) में अचानक धरती के भीतर से भारी गड़गड़ाहट की आवाज़ हुई। मकान, पेड़-पौधे, सजीव-निर्जीव सब  हिलने-काँपने लगे। दीवारें दरक गईं। कमज़ोर और पुराने घर ढह गये। अनेक मकान इस तरह गिरे कि एक मकान दूसरे पर और दूसरा तीसरे पर आ पड़ा और यह पता लगना कठिन हो गया कि कहाँ कौन-सा मकान खड़ा था। कई जगह ज़मीन में दरारें पड़ गईं। उन दरारों से पानी का सोता फूट पड़ा। बालू भी निकल आया। सड़कें टूट-फूट गईं और यातायात ठप हो गया। रेल लाइन टेढ़ी-मेढ़ी हो गईं। पुल धँस गए। बहुत-से लोग और माल-मवेशी गिरते घरों में दब कर ज़िन्दा दफ़न हो गए या ज़मीन में फटी दरारें उन्हें निगल गईं।

इस भूकम्प की तीव्रता 8.5 थी और इसका केन्द्र माउंट एवरेस्ट के दक्षिण में लगभग 9.5 किलोमीटर पूर्वी नेपाल में स्थित था। केवल बिहार में लगभग 11 हज़ार लोग इस भूकम्प का ग्रास बन गए। नेपाल की राजधानी काठमांडू और बिहार के चम्पारण, मुज़फ़्फ़रपुर, दरभंगा और पूर्णिया आदि में सर्वाधिक जन-धन की क्षति हुई। मुंगेर शहर को इस भीषण भूकम्प ने मलबे का ढेर बना दिया था। जहाँ तक दृष्टि जाती थी तबाही और बर्बादी का मंज़र नज़र आता था।

नेपाल में काठमांडू, भक्तपुर और पाटन बुरी तरह तहस-नहस हो गए थे। अनगिनत इमारतें ध्वस्त हो गई थीं और ज़मीन में बड़ी और गहरी दरारें पड़ गई थीं। नेपाल में क़रीब 10 हज़ार लोग मारे गये। इस प्रकार, भारत और नेपाल में लगभग 21,000  लोग मृत्यु का ग्रास बन गये।

इन दिनों राजेन्द्र बाबू हज़ारीबाग़ जेल में बन्द थे। इन्हें इलाज के लिए पटना लाया गया था। विशेषज्ञों की अनुशंसा पर इन्हें 17 जनवरी, 1934 को रिहा कर दिया गया। अगले दो दिनों में अनेक अन्य कांग्रेसी नेताओं की भी रिहाई हो गई। रिहा होते ही राजेन्द्र बाबू भूकम्प-पीड़ितों को राहत पहुँचाने की फ़िक्र में लग गये। एतदर्थ केन्द्रीय रिलीफ़ कमिटी के नाम से एक ग़ैर सरकारी संस्था स्थापित की गई। राजेन्द्र बाबू इसके अध्यक्ष बनाये गये। कमिटी का उद्देश्य धन संचय कर भूकम्प-पीड़ितों को सहायता पहुँचाना था।

राजेन्द्र बाबू के आग्रह पर महात्मा गांधी, मालवीय जी तथा रवीन्द्रनाथ टैगोर एवं अन्य नेताओं ने भी सहायता करने की अपील जारी की। नतीजतन, धन, खाद्यान्न, रज़ाई, कम्बल, दवाएँ इत्यादि आने लगीं। वायसराय लॉर्ड विलिंगडन ने भी भूकम्प राहत अधिकोष बनाया। कलकत्ता के महापौर सन्तोष कुमार बोस ने भी एक राहत अधिकोष खोला जिसमें 4,75000/- रुपये की धनराशि जमा हुई। भूकम्प-पीड़ितों को राहत पहुँचाने का सिलसिला चल निकला। 

21 जनवरी, 1934 को राजेन्द्र प्रसाद ने तार देकर महात्मा गांधी को सारी स्थिति से अवगत कराया। 11 मार्च को गांधीजी पटना आये और सेन्ट्रल रिलीफ़ कमिटी के कार्यालय में ठहरे। 14 मार्च को गांधीजी तथा राजेन्द्र बाबू मोतिहारी आये। चम्पारण सत्याग्रह (1917 ई•) के ज़माने से ही महात्मा गांधी चम्पारण की जनता में अत्यन्त लोकप्रिय थे। एक बार फिर से अपने प्रिय नेता को अपने बीच पाकर भूकम्प-पीड़ित जन का हौसला बढ़ा। गांधीजी सभा को सम्बोधित करने खड़े हुए तो लोगों ने 'महात्मा गांधी की जय' का नारा बुलन्द किया। गांधीजी ने जन-समूह को एक मार्मिक सन्देश दिया : "काम करो, भीख मत मांगो, जो काम मिले उसे ईमानदारी के साथ पूरा करो।" उन्होनें मोतिहारी और उसके इर्द-गिर्द के भूकम्प-प्रभावित इलाक़ों का दौरा किया और लोगों को समझाया कि जो लोग हट्ठे-कट्ठे हैं वे यदि बिना काम किये किसी से कुछ मांगते या भिक्षाटन करते हैं तो वे गीता के शब्दों में चोर हैं।

27 मार्च को गांधीजी छपरा पहुँचे। उनके साथ राजेन्द्र प्रसाद, श्रीमती प्रभावती देवी (जयप्रकाश नारायण की पत्नी), श्रीमती भागवती देवी (राजेन्द्र बाबू की बहन) तथा अनेक अन्य गणमान्य लोग थे। आगे उन्होंने सोनपुर, दानापुर, मुज़फ़्फ़रपुर, सीतामढ़ी, मधुबनी, राजनगर, भागलपुर और सहरसा का भी दौरा किया। जहाँ कहीं भी वे पहुँचते, उन्हें देखने तथा उनका सम्बोधन सुनने के लिए भारी जन-सैलाब उमड़ पड़ता था। 

3 अप्रैल को वे मुंगेर पहुँचे। यहीं पर एक युवक ने उन्हें उपहार में एक लाठी दी जिसे गाँधीजी हमेशा अपने साथ रखते थे।

भूकम्प-क्षेत्रों का दौरा करते हुए गांधीजी तथा राजेन्द्र बाबू सारण तथा मुज़फ़्फ़रपुर के कुछ ऐसे इलाक़ों से भी गुज़रे जहाँ लोगों तथा मवेशियों के लिए पेयजल की गम्भीर समस्या थी। दोनों नेताओं की अपील पर प्रत्येक समस्याग्रस्त गाँव में श्रमदान से कम-से-कम एक कुआँ खोदने की योजना बनी। अन्ततः 25,000 कुएँ खोदे गये जिससे पेयजल की समस्या से काफ़ी राहत मिली।

इन दौरों में गांधीजी को एक कटु अनुभव से भी दो-चार होना पड़ा। बड़हिया में कुछ सनातनियों ने काले झण्डे दिखाये। गांधीजी ने गोस्वामी तुलसीदास के सन्देश का स्मरण दिलाया: 'दया धरम का मूल है, पाप मूल अभिमान।'

अन्त में एक अजीब बात। भूकम्प के बारे में सब लोग अपनी-अपनी राय ज़ाहिर कर रहे थे। इसमें सबसे विचित्र राय स्वयं महात्मा गांधी की थी। पूरे बिहार के तमाम भूकम्पग्रस्त इलाक़ों का परिभ्रमण करने के पश्चात् गांधीजी ने लिखा कि बिहार का भूकम्प अस्पृश्यता-उन्मूलन में भारत की विफलता के लिए सम्भावित प्रतिशोध था।

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सम्पर्क : एम• ए• कॉन्वेंट स्कूल लेन, नवीन कॉलोनी. सन्त कबीर रोड, बानूछापर, बेतिया।, चलभाष : 7543015792 / 7717754195


आलेखः टेढ़े-मेढ़े रास्ते

 - परमानंद वर्मा 

काँटा जब पैर में चुभता है तब दर्द तो होता ही है, बिछुआ जब डंक मारे अथवा सर्प डँस जाए, तब तन, बदन व्याकुल हो जाता है। अचेतावस्था की स्थिति भी आ जाती है और कभी-कभी तो ऐसे व्यक्ति की मौत भी हो जाती है। दवाइयाँ और डॉक्टर के प्रयास धरे के धरे रह जाते हैं। 

मनुष्य का जीवन भी सरल और सपाट होता है। युवावस्था तक निश्छल मन से समय गुजर जाता है। राग-द्वेष, न छल-कपट, न काम और क्रोध की स्थिति। लेकिन इसके बाद जैसे-जैसे जीवन उत्तरोत्तर पायदान तय करता है तब स्थिति और परिस्थिति वह सब सबक सिखाने लगता है जिससे वह लगभग अनभिज्ञ रहता है। समाज, देश, काल में घट रहे वारदात व वातावरण भी मन-मस्तिष्क पर प्रभाव डालने लगता है। जो बातें व ज्ञान विद्यालयों और महाविद्यालयों में नहीं मिलता वह सब धीरे-धीरे समाज, घर-परिवार के सदस्यों के व्यवहार सिखा देता है और यहीं से वह सीख-समझकर अपना आचरण व व्यवहार का निर्माण करता है। 

अब यदि परिवार का कोई सदस्य भ्रष्टाचारी है, कदाचरण करता है, मां अथवा बहनों का आचरण व व्यवहार ठीक नहीं है, तब इसका व्यवहार बेटे अथवा बेटियों पर क्या पड़ेगा ? समाज व देश में अनैतिक कार्य हो रहे हैं सत्ता के लिए राजनीतिकों द्वारा दूसरे दलों के प्रतिनिधियों की खरीददारी, तोडफ़ोड़, इसका भी प्रभाव शुद्ध व सात्विक जीवन जीने का सपना संजोये युवकों पर पड़े बिना नहीं रह सकता। यही हथकंडा तो आगे चलकर वह अपनाएगा। राजनैतिक शुचिता की जगह तोडफ़ोड़ कर सत्ता हथियाने की होड़ ने देश, समाज व काल को कलुषित करने पर आमादा कर दिया है। सत्ताधारी दल के सदस्यों को धन का लालच देकर या यों कहें उन्हें खरीदकर निर्वाचित सरकारों को गिराकर स्वयं सत्तासीन होने पर षडयंत्र, किसी के भी मन पर प्रभाव डाले बिना कैसे रह सकता है। सब कहते हैं यह गलत हो रहा है, घिनौना कार्य है, प्रजातंत्र के माथे पर धब्बा है, कलंक है लेकिन कौन सुनता है? यह भी एक तरह का राजनैतिक आतंकवाद है, सत्तासीन दल का। निर्वाचित सरकारों को गिराने का षडयंत्र एक तरह से पाप नहीं है तो और क्या है? 

इसी तरह की कुटिल और घिनौनी चालें औद्योगिक प्रतिष्ठानों में भी देखी जा सकती है कि किस तरह दूसरे उद्योग को कमजोर करने की प्रतिस्पर्धा और एकाधिकार प्राप्त करने की होड़ ने अर्थजगत् में भी कोहराम मचाया हुआ है। इस गलाकाट स्पर्धा से देश व समाज को भी नुकसान होता है। आर्थिक आतंकवाद भी देश व समाज में अपनी गहरी जड़ें जमा चुका है। जिन उद्योगपतियों की सरकारों से मिलीभगत होती है, दोस्ती होती है उसका उद्योग, व्यवसाय चांदी काटने लगता है। दिन दूनी, रात चौगुनी मुनाफा कमाने लगता है और देखते ही देखते ऐसे उद्योगपति रातों-रात अरबपतियों की श्रेणी में आ जाते हैं। देश-विदेश में इनका औद्योगिक  प्रतिष्ठानों का जाल फैल हो जाता है। कैसे इनके पास इतना धन आ जाता है, हर कोई जानता है। इन लोगों के पास ऐसी कोई जादू की छड़ी नहीं होती कि देखते ही देखते धन कुबेर बन जाए। बैंकों का घोटाला सरकारी संसाधनों का दोहन करने वाले, बेनामी संपत्ति के मालिक बनने वाले ऐसे लोगों पर सरकार का वरदहस्त होता है। बिचौलिये और दलाली में इनके कारिंदों का ही हाथ होता है। 

आज स्थिति यह है कि सीधे रास्ते से कोई सफर नहीं कर सकता और करने की कोशिश करता है तो उसे डंडी मारकर गिरा दिया जाता है। कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं बचा है जो साफ-सुथरा हो। हर क्षेत्र चाहे वह प्रशासनिक हो अथवा शैक्षणिक, न्यायिक व धार्मिक, वहां कदम रखते ही अव्यवस्था, अराजकता व पाखंड की बू आती है। काजल की कोठरी की तरह बन गया है पूरा देश-विदेश। इस दमघोटू परिवेश में आज का नौनिहाल जब कदम रखने को सोचता है तो उसे समझ में ही नहीं आता कि कौन सा रास्ता अख्तियार करें। जब घर-परिवार का ही परिवेश साफ-सुथरा नहीं है और उसकी नजर सब कुछ कलुषित दिखता है तब समाज व देश-विदेश के बारे में उनके मन पर क्या प्रभाव पड़ेगा, यह विचारणीय है। इस तरह के टेढ़े-मेढ़े रास्ते को देखकर आज की युवा पीढ़ी दिग्भ्रमित नहीं होगी, उसके लिए जिम्मेदार कौन? सर्प जब रेंगता है तो सीधा ही टेढ़े-मेढ़े रेंगना उसे पसंद नहीं। क्या हम और हमारा समाज व सरकार सर्पों से भी गए गुजरे हो गए हैं? 

जिंदगी का सफर इतना आसान नहीं है कि राह चलते मंजिल मिल जाए। बड़ी-बड़ी बाधाएँ, रुकावटें, पहाड़ सी समस्याएँ, दुर्गम व टेढ़ी-मेढ़ी रास्ते से गुजरना पड़ता है। बड़े लोगों की तो बड़ी बातें होती है वे चौसर और शतरंज की बाजियाँ जानते हैं, उनकी बाधाओं को दूर करने के लिए अनेक मददगार सामने आ जाते हैं लेकिन जिन लोगों ने अभी-अभी अपना कैरियर बनाना शुरू किया है, उनके कोई गाड फादर नहीं होते, कोई मित्र और मददगार नहीं होते, ऐसे लोग उदास, निराश हो जाते हैं। अनेक क्षेत्रों से इस तरह की खबरें आती हैं। वे डिप्रेशन में चले जाते हैं। और तो औार अपने लोग ही धोखेबाज और ठग की भूमिका में आ जाते हैं। कैरियर बर्बाद होने की स्थिति आ जाती है तब दुखी मन में ऐसे लोगों को आत्महत्या जैसे घृणित कार्य के लिए विवश हो जाना पड़ता है। इतना सुंदर सुखमय जीवन जिसको जीना चाहिए, निर्माण करना चाहिए, वह नरक बन जाता है। यह सिलसिला जारी है, कब थमेगा, रुकेगा, बंद होगा किसी को नहीं पता ?

जीव जगतः हमिंगबर्ड- भारतीय शकरखोरा

 - डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

एज़्टेक लोगों द्वारा हमिंगबर्ड को एक नाम दिया गया था ह्यूतज़िलिन यानी ‘सूर्य की किरण’। मूलत: अमेरिकी महाद्वीप के इस पक्षी की साढ़े तीन सौ प्रजातियों के इंद्रधनुषी रंगों ने अक्सर कवियों और आभूषण डिज़ाइनरों की कल्पना को पंख लगाए हैं।

हमिंगबर्ड आकार में छोटे होते हैं: मधुमक्खी हमिंगबर्ड बमुश्किल 5 सेंटीमीटर लंबी होती है और इसका वज़न 2 ग्राम होता है। वे अपने पंखों को एक सेकंड में 50 बार तक फड़फड़ा सकती हैं, जिसके कारण एक गुनगुनाहट (हम) जैसी आवाज़ पैदा होती है और यही आवाज़ उनके नाम को परिभाषित करती है। वे फूल से रस चूसते हुए शानदार ढंग से मंडरा सकती हैं, और यहां तक कि उल्टी दिशा में (पीछे की ओर) भी उड़ सकती हैं। वे मकरंद के लिए नलीनुमा फूल, जो चमकीले लाल या नारंगी रंग के होते हैं, जैसे लैंटाना और रोडोडेंड्रोन, को वरीयता देती हैं।

उनके पंखों के विश्लेषण से पता चलता है कि उनके हाथ की हड्डियाँ बहुत लंबी होती हैं लेकिन बांह की हड्डियाँ बहुत छोटी होती हैं जो निहायत लचीले बॉल-एंड-सॉकेट जोड़ के माध्यम से शरीर से जुड़ी होती हैं। यह जोड़ आधा फड़फड़ाने के बाद पंखों को घुमाने के काबिल बनाता है, जिससे उनमें फुर्तीलापन आता है और पीछे की ओर उड़ना संभव हो पाता है।

समानताएँ

भारत में सनबर्ड्स या शकरखोरा पाई जाती हैं। हालांकि यह हमिंगबर्ड्स की सम्बंधी नहीं हैं, लेकिन अभिसारी विकास में ये दोनों पक्षी कई विशेषताएँ साझा करते हैं। सनबर्ड्स को नेक्टेरिनिडे कुल में रखा गया है। हालांकि थोड़ी बड़ी सनबर्ड थोड़े समय के लिए मधुमक्खियों की तरह मंडरा भी सकती हैं, और सुर्ख, नलीदार फूलों पर जा सकती हैं। वे जंगल के अंगार सरीखे रंग वाले (पीले-नारंगी) फूलों की महत्वपूर्ण परागणकर्ता हैं।

अलबत्ता खाते समय उन्हें बैठना पड़ता है। हमिंगबर्ड की तरह वे कीट पकड़ सकती हैं, खासकर अपने बच्चों को खिलाने के लिए। भारत में आम तौर पर बैंगनी सनबर्ड दिखने को मिलती हैं। इनके बड़े व चमकीले नर का रूप-रंग मार्च में अपने प्रजननकाल में शबाब पर होता है।

एक ही जगह रुककर उड़ने के लिए बहुत अधिक ऊर्जा की ज़रूरत होती है। द्रव्यमान के हिसाब से देखें, तो कशेरुकियों में, हमिंगबर्ड्स की चयापचय दर (प्रति मिनट कैलोरी खपत) अधिकतम होती है। इस ऊर्जा का अधिकांश भाग मकरंद से मिलता है। उनके पाचन तंत्र द्वारा तेज़ी से शर्करा उपभोग यह सुनिश्चित करता है कि वे ऊर्जा हाल ही में गटके गए मकरंद से लेते हैं।

इसके अलावा, समान साइज़ के स्तनधारियों की तुलना में उनके फेफड़े हवा से ऑक्सीजन अवशोषित करने में 10 गुना बेहतर होते हैं।

विरोधाभास देखिए कि मनुष्यों में अत्यधिक व्यायाम रक्त शर्करा के स्तर में वृद्धि करता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि त्वरित तौर पर ऊर्जा की आवश्यकता के लिए आपका शरीर ग्लूकोनियोजेनेसिस का सहारा लेता है – ग्लूकोनियोजेनेसिस यानी मांसपेशियों के प्रोटीन जैसे संसाधनों को ग्लूकोज़ में परिवर्तित करना। इसका एक नकारात्मक परिणाम यह होता है कि आप इतनी मशक्कत के बाद भी न तो मांसपेशियाँ बना पाते हैं और न ही वसा कम कर पाते हैं।

हमिंगबर्ड में अति गहन गतिविधियाँ करने पर क्या होता है? हाल ही के जीनोम अध्ययनों से पता चला है कि विकास के दौरान, हमिंगबर्ड में जब मंडराने की गतिविधि उभरने लगी तब ग्लूकोनियोजेनेसिस के लिए ज़िम्मेदार एक प्रमुख एंज़ाइम का जीन उनमें से लुप्त हो गया। प्रयोगशाला में संवर्धित पक्षी कोशिकाओं से इस जीन को हटाने पर इन कोशिकाओं की ऊर्जा दक्षता में वृद्धि दिखी।

नकल और नृत्य

तोते और कुछ सॉन्गबर्ड की तरह, हमिंगबर्ड भी किसी अन्य की आवाज़ निकाल (मिमिक्री कर) सकते हैं। जब हमिंगबर्ड के जोड़े को अलग-थलग पाला गया, तो इन दोनों द्वारा गाया गया गीत उनकी प्रजातियों द्वारा गाए जाने वाले मानक गीत से तनिक-सा अलग था।

गौरतलब बात यह है कि वे कान तक पहुंचने वाली ध्वनि और अपनी मांसपेशियों की हरकत का तालमेल बैठा सकते हैं - यानी नृत्य कर सकते हैं।

टफ्ट्स युनिवर्सिटी के न्यूरोसाइंटिस्ट अनिरुद्ध पटेल ने सिद्धांत दिया है कि आवाज़ की नकल करने के लिए गले की मांसपेशियों को नियंत्रित करने की क्षमता के लिए पहले ध्वनियों के साथ लय में थिरकने की क्षमता होना ज़रूरी है। हालांकि, हमिंगबर्ड हम मनुष्यों की तरह जोड़े या समूहों में नृत्य नहीं कर सकते हैं।  (स्रोत फीचर्स)

कविताः प्रेम की अपूर्णता

  -  सांत्वना श्रीकान्त

स्त्री ने अपने पाँव के नाखून को 

ध्यान से देखा

सौन्दर्य की परिभाषा से

स्वआकलन किया

रोटी की गोलाई और ब्रह्माड के आकार में, 

अंतर खोजा

आँखों के नमक और समुद्र के 

खारेपन तक की  थाह ली

पाया कि

प्रकृति का समर्पण 

और वह स्त्री पूरक थे ।

पूर्णता की समस्त परीक्षा में 

अव्वल आने पर ही

चुना गया था उसे । 

देर तक सोचती रही।।

प्रेम हमेशा अपूर्ण ही क्यों रहा 

उसके लिए

कभी ईश्वर के गूँगेंपन को कोसती 

कभी प्रेमी के  स्वभाव को 

दरअसल वह प्रेम की अपूर्णता 

और अपने अभागेपन में 

अपूर्ण होती गई।

पर्यावरणः सुधर रही है गंगा की सेहत

  -  प्रमोद भार्गव

‘नमामि गंगे’ परियोजना की सरहाना संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण कार्यक्रम (सीओपी 15) के दौरान एक रिपोर्ट में की गई। यह सम्मेलन कनाडा में संयुक्त राष्ट्र का पन्द्रहवाँ जैव विविधता सम्मेलन है। यह एक बड़ी उपलब्धि है, क्योंकि गंगा केवल एक पानी की नदी भर नहीं है, बल्कि उसके किनारों पर 52 करोड़ लोग रहते हैं, भारत की कुल जीडीपी का 40 प्रतिशत हिस्सा इसी गंगा के पानी से उपजने वाली फसल और पर्यटन से चलती हैस;  क्योंकि गंगा के किनारे बसे प्रत्येक प्रमुख शहर से भारतीय संस्कृति की एक ऐसी कहानी जुड़ी हुई है, जो सनातन संस्कृति और धर्म को मूल्यवान बनाती है। वाराणसी का अभूतपूर्व कायाकल्प हो जाने से इस धर्मनगरी का महत्व विश्व पर्यटन में स्वीकार हुआ है, नतीजतन यहाँ देश के साथ-साथ दुनिया से आने वाले पर्यटकों की उम्मीद से कहीं ज्यादा संख्या बढ़ी है। जैव विविधता की दृष्टि से भी इस जीवनदायी नदी की सफाई जरूरी थी, जिससे 52 करोड़ लोग नीरोग रहते हुए जीवन-यापन कर सकें। 

संयुक्त राष्ट्र जैव विविधता सम्मेलन में जारी हुई रिपोर्ट में स्वीकार किया है कि हिमालय से बंगाल की खाड़ी तक 2,525 किमी की लंबाई में बहने वाली इस नदी को जलवायु परिवर्तन, जनसंख्या वृद्धि, प्रदूषण और औद्योगिकरण से बड़ा नुकसान हुआ है। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा ‘नमामि गंगे’ परियोजना ने नदी के 1500 किमी के हिस्से को प्रदूषण मुक्त कर इसे पूनर्जीवित किया है। इस क्षेत्र में नदी के जलग्रहण क्षेत्र की सफाई के साथ-साथ इसके किनारों पर तीस हजार एकड़ में नए वन लगाने के साथ, पुराने जंगल का भी उचित संरक्षण किया गया। ऐसा यूएन का अनुमान है कि यदि इस जंगल की बहाली नहीं होती तो 2030 तक 25 करोड़ टन कार्बन उत्सर्जन की मात्रा बढ़ती, जो इस क्षेत्र की आबादी, जल-जीवों और पशु-पक्षियों के लिए बड़े संकट का सबब बन सकती थी। लेकिन  कॉर्बन उत्सर्जन की मात्रा अब निरंतर घट रही है। इस परियोजना के लक्ष्यों में वन्यजीव प्रजातियों का संरक्षण एवं उन्हें पुनर्जीवित करना भी था। इनमें डॉल्फिन, घड़ियाल, कछुए, ऊदबिलाव और हिल्सा मछली मिल हैं। पर्यावरण सुधरेगा तो अन्य पशु-पक्षियों को भी जीवनदान मिलेगा। इसीलिए इसे संयुक्त राष्ट्र ने दुनिया के दस प्रमुख प्रयासों में से एक माना है।

केंद्र सरकार की इस अत्यंत महत्त्वपूर्ण योजना के अंतर्गत गंगा में गिरने वाले जल को रोकने के साथ-साथ इसके दोनों किनारों पर वन क्षेत्र विकसित करने का अभियान अभी भी चल रहा है। हालांकि यह परियोजना करीब 35 साल पहले गंगा कार्ययोजना के रूप में शुरू हुई थी। तबसे इस पर सैंकड़ों करोड़ रुपये खर्च कर दिए गए हैं। नरेंद्र मोदी ने गंगा की चिंता वाराणसी से 1914 में लोकसभा का प्रत्याशी बनने के साथ जताई थी। इसीलिए उन्होंने सत्तारूढ़ होने के बाद इस परियोजना को नमामि गंगे नाम देते हुए इसकी सफाई के लिए एक अलग मंत्रालय भी बना दिया। इसके बाद ही इसके कारगर परिणाम देखने में आए हैं। इसके किनारों पर जो हरित पट्टी विकसित की गई है। उससे न केवल इन इलाकों की खेती की सेहत सुधरेगी, बल्कि मनुष्य और दुधारू पशुओं की भी सेहत सुधरेगी। लोगों को पीने के लिए भी स्वच्छ जल मिलेगा।      

केंद्र के वित्त पोषण से शुरू हुई इस योजना से भारतीय सभ्यता, संस्कृति और आजीविका की जीवन रेखा कहलाने वाली गंगा का न केवल कायाकल्प हो रहा है, बल्कि इसका सनातन स्वरूप भी बहाल हो रहा है। वाराणसी का कायाकल्प इसका साक्षात उदाहरण है। अब तक गंगोत्री से गंगासागर तक के सफर में गंगा जल को औद्योगिक हितों के लिए निचोड़कर प्रदूषित करने में चमड़ा, चीनी, रसायन, शराब और जल विद्युत परियोजनाएँ सहभागी बन रही थीं। इनमें से अनेक को या तो बंद कर दिया गया है या फिर दूषित जल के शुद्धिकरण के संयंत्र स्थापित करा दिए गए हैं। 

गंगा सफाई की पहली बड़ी पहल राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व कार्यकाल में हुई थी, लेकिन गंगा नाममात्र भी शुद्ध नहीं हुई। इसके बाद गंगा को प्रदूषण के अभिशाप से मुक्ति के लिए संप्रग सरकार ने इसे राष्ट्रीय नदी घोषित करते हुए, गंगा बेसिन प्राधिकरण का गठन किया, लेकिन हालत जस के तस रहे। भ्रष्टाचार, अनियमितता, अमल में शिथिलता और जवाबदेही की कमी ने इन योजनाओं को दीमक की तरह चट कर दिया। भाजपा ने गंगा को 2014 के आम चुनाव में चुनावी मुद्दा तो बनाया ही, वाराणसी घोषणा-पत्र में भी इसकी अहमियत को रेखांकित किया। सरकार बनने पर कद्दावर, तेजतर्रार और संकल्प की धनी उमा भारती को गंगा मंत्रालय का प्रभार देकर इसके जीर्णोद्वार का भगीरथी दायित्व सौंपा गया। जापान के नदी सरंक्षण से जुड़े विशेषज्ञों का भी सहयोग लिया गया। 

‘नमामि गंगे’ की शुरूआत गंगा किनारे वाले पाँच राज्यों में 231 परियोजनाओं की आधारशिला, सरकार ने 1500 करोड़ के बजट प्रावधान के साथ 104 स्थानों पर 2016 में रखी थी। इतनी बड़ी परियोजना इससे पहले देश या दुनिया में कहीं शुरू हुई हो, इसकी जानकारी मिलना असंभव है। इनमें उत्तराखंड में 47, उत्तर-प्रदेश 112, बिहार में 26, झारखंड में 19 और पश्चिम बंगाल में 20 परियोजनाएँ आरंभ हुई जिनके परिणाम संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में सामने आए हैं।  हरियाणा व दिल्ली में भी 7 योजनाएँ गंगा की सहायक नदियों पर भी शुरू हुई हैं। अभियान में शामिल परियोजनाओं को सरसरी निगाह से दो भागों में बांट सकते हैं। पहली, गंगा को प्रदूषण मुक्त करने व बचाने की। दूसरी गंगा से जुड़े विकास कार्यों की। गंगा को प्रदूषित करने के कारणों में मुख्य रूप से जल-मल और औद्योगिक ठोस व तरल अपशिष्टों को गिराया जाना था। अब जल-मल से छुटकारे के लिए अधिकतम क्षमता वाले जगह-जगह सीवेज संयंत्र लगाए गए हैं। गंगा के किनारे आबाद 400 ग्रामों में ‘गंगा-ग्राम’ नाम से उत्तम प्रबंधन योजना शुरू हुई हैं। इन सभी गाँवों में गड्ढे युक्त शौचालय बनाए गए हैं। सभी ग्रामों के शमशान घाटों पर ऐसी व्यवस्था को अंजाम दिया गया है, जिससे जले या अधजले शवों को गंगा में बहाने से छुटकारा मिले। शमशान घाटों की मरम्मत के साथ उनका अधुनीकीकरण हुआ है। अनेक विद्युत शवदाह गृह बनाए गए हैं, जिससे लकड़ी-कंडों का उपयोग न्यूनतम हो गया है। साफ है, ये उपाय संभव होने से ही गंगा सफाई अभियान को यूएन ने सराहा है। 

 विकास कार्यों की दृष्टि से ग्रामों में 30,000 हेक्टेयर भूमि पर पेड़-पौधे लगाए जाने हैं। जिससे उद्योगों से उत्सर्जित होने वाले कॉर्बन का शेषण कर वायु शुद्ध होती रहे। ये पेड़ गंगा किनारे की भूमि की नमी बनाए रखने का काम भी कर रहे हैं। गंगा किनारे आठ जैव विविधता संरक्षण केंद्र भी विकसित किए गए हैं। वाराणसी से हल्दिया के बीच 1620 किमी के गंगा जल मार्ग में बड़े-छोटे सवारी व मालवाहक जहाज चलाने की असंभव परिकल्पना की गई थी, जिस पर अमल हो गया है और अब इस बीच मालवाहक जहाज चलने लगे हैं। इस हेतु गंगा के तटों पर बंदरगाह भी बनाए गए हैं। इस नजर से देखें तो नमामि गंगे परियोजना केवल प्रदूषण मुक्ति का अभियान मात्र न होकर विकास व रोजगार का भी एक बड़ा पर्याय बना है। 

सम्पर्कः शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी म.प्र., मो. 09425488224, 09981061100


18 अप्रैल- विश्व विरासत दिवसः भव्य इतिहास समेटे डीपाडीह का पुरातत्व

  -  डॉ. रत्ना वर्मा

प्राचीन मंदिरों के लिए प्रसिद्ध डीपाडीह छत्तीसगढ़ के सरगुजा सम्भाग के बलरामपुर जिले का महत्त्वपूर्ण पुरातात्त्विक स्थल, है जो अंबिकापुर से 73  किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। सरगुजा जिले में सरगुजा का 50 फीसदी हिस्सा जंगलों और पहाड़ों से घिरा हुआ है, यहाँ के जंगलों में सरना  के पेड़ बहुतायत से पाए जाते हैं। 

रामायण और महाभारत जैसे महान ग्रंथों में भी सरगुजा का उल्लेख है। दक्षिण कौशल का ये भूभाग पाटलीपूत्र से जगन्नाथपुरी तक जाने का मुख्य मार्ग था। पुराणों के अनुसार यह प्रमाण भी मिलता है कि भगवान राम ने अपने 14 सालों के वनवास का कुछ समय सरगुजा में भी बिताया था।

 सन्‌ 1988 में डीपाडीह के बारे में अध्ययन के लिए जब पुरातत्व विभाग पहुँचा तो डीपाडीह के पहाड़ी टीले में नंदी की एक भव्य मूर्ति (जो छत्तीसगढ़ के अब तक ज्ञात प्रतिमाओं में विशालतम है) तथा सामंत राजा की एक मूर्ति दिखाई दे रही थी। जैसे- जैसे खुदाई का काम आगे बढ़ते गया डीपाडीह का भव्य इतिहास भी सामने आता गया। यहाँ कई मंदिरों के खंडित अवशेष प्राप्त हुए हैं जो प्राचीन इतिहास की कहानी कहते हैं। पुरातात्त्विक प्रमाणों के आधार पर डीपाडीह का सांस्कृतिक वैभव 7-8 वीं से 12-13 वीं सदी ईसवी का माना जाता है जहाँ शैव एवं शाक्य संप्रदाय के पुरातात्त्विक अवशेष बिखरे हुए हैं। खुदाई में अनेक शिवलिंग, नदी तथा देवी दुर्गा की कलात्मक मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं।

 लगभग 6 किलोमीटर के दायरे में प्राचीन भग्न मंदिरों के अवशेष टीलों के रूप में यत्र- तत्र बिखरे हुए हैं। लगभग 30 मंदिरों के ध्वंसावशेष, शैव, सौर, वैष्णव, तथा शाक्य धर्म से सम्बंधित अवशेष, मानवाकार विशाल मूर्तियाँ- श्री गणेश, शिव, विष्णु, महिसासुरमर्दिनी, देवी गंगा, यमुना, सूर्य, भेरव, ब्रम्हा, कार्तिकेय, नृसिंह, सामत राजा, सिंह, कुबेर, मिथुन इत्यादि मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं । यहाँ का द्वारशाखा, अति विशिष्ट है इसके सिरदल में गजलक्ष्मी का अंकन है। इस क्षेत्र के दर्शनीय स्थालों में प्रमुख रूप से सामत झरना, रानी पोखर, चामुण्डा मंदिर, पंचायतन मंदिर है।

खुदाई के दौरान प्राप्त अनेक मंदिरों में  अधिकांश शिव मंदिर है। सामत झरना का शिव मंदिर इन मंदिरों में सबसे बड़ा एवं भव्य है। शाक्ये एवं शैव समुदाय के भी पुरातात्विक अवशेष प्राप्त हुए हैं। इन अवशेषों में महिषासुर मर्दिनी, शिवलिंग, उमामहेश्ववर, एवं भैरव की रुद्र प्रतिमाएँ शामिल हैं। ब्रह्मा जी की एक मूर्ति भी प्राप्त हुई है, जिसकी दाढ़ी मूँछ नहीं है। इस पहाड़ में एक प्राचीन अभिलेख भी प्राप्त हुआ है, जिस पर नागरी लिपि में "ओम नमो विश्कपर्माय' अंकित है।

 प्राप्त साक्ष्य के आधार पर डीपाडीह प्राचीन काल में भगवान शिव के आराधना का एक बड़ा केन्द्र रहा होगा। खुदाई में प्राप्त विभिन्न देवताओं की प्रतिमाओँ से यह भी पता चलता है कि कलचुरी और सामंती राजा भगवान शिव के बहुत बड़े उपासक थे।

लगभग एक दशक की खुदाई के बाद खुदाई  के दौरान मिले अवशेषों  के आधार पर  पुरातत्वविदों ने इन्हें चार समूहों में बांट दिया है- 

1. सामंत सरना , 2.बीरजा टीला, 3. रानी पोखर मंदिर , 4. उरांव टोला मंदिर

इनमें सबसे पहला और महत्त्वपूर्ण समूह है सामंत सरना है। इस समूह में एक विशाल  शिवमंदिर, चामुंडा मंदिर और छोटे बड़े आकार के अनेक मंदिर स्थित हैं। प्रमुख शिव मंदिर के प्रवेश द्वार पर द्वारपाल और मंदिर के चारों कोनो में चार अलग- अलग देवता विराजमान हैं। मंदिर के द्वार पर गंगा और यमुना नदी देवियाँ खड़ी है। मंदिर में मंडप के एक कोने में मोर की सवारी करते कार्तिकेय, दूसरी तरफ गणेश, तीसरी तरफ सोलह भुजी विष्णु की मुर्ति और चौथी तरफ महिषासुरमर्दिनी माँ नवदुर्गा की प्रतिमा स्थित है। भगवान शिव के इस विशाल मंदिर के पास ही वर्गाकार चबूतरे पर चामुण्डा मंदिर के भग्न अवशेष मिले हैं।

प्राचीन मंदिरों का दूसरा समूह बीरजा टीला के नाम से जाना जाता है इस समूह में सूर्य देवता को प्रमुख माना गया है। इस मंदिर के पास ही तत्कालीन आवासीय मठों के अवशेष भी मौजूद है। 

तीसरे समूह के रुप में रानी पोखर मंदिर समूह है। यहाँ चार मंदिर थे। लेकिन अब वहाँ सिर्फ चबूतरे ही शेष रह गये हैं। 

 चौथे समूह में उराँव टोला मंदिर आता है जिसका निर्माण 8वीं सदी का माना जाता है। यहाँ के स्तंभों में देव प्रतिमाएँ मिथुन युगल मूर्तियाँ और नायिकाओं की मूर्तियाँ अंकित है।

सोमवंशी, बंगाल और मगध के पालवंशी राजाओं के अलावा त्रिपुरी के कलचुरी राजाओं के बनवाए गए अवशेषों की भी इस जगह पर भरमार है। माना जाता है कि प्राचीन काल में इन मूर्तियों का निर्माण भी यही पर होता था। इस क्षेत्र की खुदाई में प्राप्त अनेक मूर्तियों को सहेजकर मूर्तिशाला में रखा गया है जिनमें भैरव, ब्रह्मा, कालमहेश्वर, गणेश, सूर्य और चामुंडा आदि देवी देवता शामिल हैं।

क्षेत्रीय किंवदंती के अनुसार इस स्थान पर भगवान राम का भव्य महल था जहाँ रात-दिन अखण्ड रूप से एक विशाल दीपक जलता रहता था। इसका कारण इसका नाम दीपा पड़ा तथा बाद में इसका नाम डीपाडीह हो गया। एक दूसरी किंवदंती के अनुसार यहाँ टांगीनाथ और सामत राजा के बीच युद्ध हुआ था जिसमें राजा के वीरगति  प्राप्त होने के बाद उसकी रानियों ने बावड़ी में कूदकर प्राण त्याग दिए थे। 

 पुरातात्विक पर्यटन स्थलों को देखने में रुचि रखने वालों के लिए छत्तीसगढ़ से अच्छा और कोई स्थान हो ही नहीं सकता।  अनेक महत्त्वपूर्ण पुरातन क्षेत्रों के साथ डीपाडीह के प्राचीन मंदिर को देखने के लिए एक बार अवश्य जाना चाहिए। यहाँ पर आपको  मंदिरों के इतने अधिक अवशेष देखने को मिलेंगे कि उस काल के कारीगरों की कला की दाद दिए बगैर आप नहीं रह सरते। यहाँ मंदिरों के अवशेष 5 किमी. के क्षेत्र में बिखरे पड़े हैं। जो एक खुले मैदान में संग्रहालय की तरह है। तो एक बार छत्तीसगढ़ अवश्य आइए और मंदिरों की इस पुरातन नगरी डीपाडीह की भव्यता को निहारते हुए सरगुजा के जंगल और पहाड़ों का आनंद लीजिए। 

विज्ञानः धरती को ठंडा रखने धूल का शामियाना

कुछ खगोल भौतिकविदों ने प्लॉस क्लाइमेट में पृथ्वी को ठंडा रखने के लिए सुझाव दिया है कि चंद्रमा से धूल का गुबार बिखेरा जाए ताकि सूर्य के प्रकाश को कुछ हद तक पृथ्वी तक पहुँचने से रोक जा सके।

शोधकर्ताओं की टीम ने एक ऐसा मॉडल तैयार किया है जिसमें अंतरिक्ष में बिखेरी गई धूल से पृथ्वी तक पहुँचने वाली धूप के प्रभाव को 1 से 2 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है। टीम के मुताबिक इसका सबसे सस्ता और प्रभावी तरीका चंद्रमा से धूल के गुबार प्रक्षेपित करना है जो एक शामियाना सा बना देगी। इस विचार को कार्यान्वित करने के लिए जटिल इंजीनियरिंग की आवश्यकता होगी। 

वैसे जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने की और भी रणनीतियाँ हैं जिनको निकट भविष्य में अपनाया जा सकता है लेकिन कई शोधकर्ता इस विचार को एक बैक-अप के रूप में देखते हैं। कुछ जलवायु वैज्ञानिक ऐसे विचारों को वास्तविक समाधान से भटकाने वाला मानते हैं।   

सूर्य के प्रकाश को रोकने के लिए किसी पर्दे के उपयोग का प्रस्ताव पहली बार नहीं आया है। लॉरेंस लिवरमोर नेशनल लेबोरेटरी के जेम्स अर्ली ने वर्ष 1989 में सूर्य और पृथ्वी के बीच 2000 किलोमीटर चौड़ी कांच की ढाल स्थापित करने का और 2006 में खगोलशास्त्री रॉजर एंजेल ने धूप को रोकने के लिए खरबों छोटे अंतरिक्ष यानों से छाते जैसी ढाल तैयार करने का विचार रखा था। इसके अलावा पिछले वर्ष एमआईटी शोधकर्ताओं के समूह ने बुलबुलों का बेड़ा तैनात करने का विचार रखा था। 

लेकिन इन सभी विचारों से जुड़े असंख्य मुद्दे हैं। जैसे सामग्री की आवश्यकता एवं अंतरिक्ष में खतरनाक और अपरिवर्तनीय निर्माण। उदाहरण के लिए  सूर्य की रोशनी के प्रभाव को कम करने के लिए 10 अरब किलोग्राम से अधिक धूल की आवश्यकता होगी। अलबत्ता, नए प्रस्ताव के प्रवर्तक अंतरिक्ष में धूल फैलाकर सूर्य के प्रकाश को रोकने के विचार को काफी प्रभावी मानते हैं। टीम के मॉडल के मुताबिक चंद्रमा की धूल इसके लिए सबसे उपयुक्त है। इसमें सबसे बड़ी समस्या 10 अरब कि.ग्रा. धूल को एकत्रित करना है जिसको बार-बार फैलाना होगा। इस सामग्री को सही स्थान पर पहुँचाना भी होगा। टीम ने धूल को प्रक्षेपित करने के विभिन्न तरीकों को कंप्यूटर पर आज़माया है।        

वर्तमान सौर इंजीनियरिंग तकनीक से हटकर कई वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए अन्य तरीकों का भी सुझाव दिया है। एक विचार समताप मंडल में गैस और एयरोसोल भरने का है। ऐसा करने से अंतरिक्ष में सूर्य के प्रकाश को परावर्तित करने वाले बादल तैयार किए जा सकते हैं। लेकिन इस तकनीक को विकसित करने में अभी समय लगेगा और ज़ाहिर है कि इसको अपनाने में कई चुनौतियाँ भी होंगी। इसमें एक बड़ी समस्या अंतर्राष्ट्रीय स्तर की सहमति बनाना होगी जिसको सभी राष्ट्र, वैज्ञानिक समुदाय और संगठन स्वीकार करें। इस बीच यह विचार करना आवश्यक लगता है कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के पारंपरिक उपायों पर गंभीरता से अमल किया जाए। (स्रोत फीचर्स)

कहानीः समय से पहले

 - हरेराम समीप

रेलवे प्लेटफार्म के पीछे-पीछे समानान्तर बढ़ी इंदिरा कॉलोनी सुबह के घने कोहरे की गिरफ्त में थी उस दिन। पलवल- दिल्ली लोकल अपने समय पर आ गई थी। बीड़ियों का तेज तल्ख धुआँ अपने-अपने फेफड़ों और शेष डिब्बों के नाम करके श्रमिक बाहर निकले और फैक्ट्रियों के जबड़ों में समाने भागने लगे।

गाड़ी सरकी तब देखा- गुंबदी इंदिरा कॉलोनी के बोर्ड की कोहरे की दीवार पार कर, तेज दौड़ते हुए आ रहा था। बढ़ते हुए हैंडिल और हाथ की अँगुलियों की दूरी कम करते प्लेटफार्म के सिरे तक आ पहुँचा था। यात्रियों की-‘‘छोड़ दे गाड़ी- मर जाएगा- छोड़ दे’’ की परवाह किए बिना उसने समूची शक्ति एकत्रित की, गाड़ी की गति से मेल बैठाया और घिसटते हुए चढ़ ही गया।

‘‘बाप रे, जान बित्ते भर की है और जोखिम हाथ भर का।’’ वह बैठे हुए यात्रियों की बातचीत का विषय बन गया। वैसे भी गाड़ी में बैठते ही लोग फालतू हो जाते हैं और जो बात उन्हें तुरंत मिल जाए, उसे चूसने लगते हैं। आज गुंबदी इनके दांतों और होठों के बीच था।

वह हॉफते हुए वहीं संडास के दरवाजे से टिक कर पसर गया। लोगों की नज़रें उसे चाटती रहीं, कभी उसके चिकने मासूम गालों पर जमे मैल से होकर पांव और हाथ की बिवाई तक तो कभी कड़ाके की ठण्ड से युद्ध करते उसके तीन- रंगी चोगे और गले पर बँधे तीन रंगी गमछे तक। चोगा, जो न कुर्ता था न ही कमीज़।

मैं ही क्या अधिकांश डेली- पैसंजर्स भी जानते थे उसे। आठ- नौ साल का था यह गुंबदी। झोपड़ियों की उस इंदिरा-कॉलोनी में अपनी माँ और दो छोटे भाइयों के साथ रहता था। उसने बताया था कि वह कनॉट प्लेस के किसी ढाबे का ‘छोटू’ है। साँवले चिकने चेहरे पर लटकते घुँघराले बाल और मासूम निगाहों से कहीं- न- कहीं वह सामने वाले को सम्मोहित कर लेता था और लोग उसे देखे बिना नहीं रह पाते थे। हाँ, इसमें उसकी उस विचित्र वेशभूषा का हाथ भी कम न था। उसने बताया एक दिन कि हरियाणा के पिछले चुनावों में उसकी बस्ती में नेता आए थे और खूब झंडे बांटे थे उन्होंने। एक के झंडे छोड़कर सभी के छोटे-छोटे साइज के थे,‘‘मेरे भाइयों ने भी बड़े-बड़े ही बटोरे। फिर चुनाव के बाद तीन- रंगी बैनर भी उन्होंने ही उतारने थे। इतने इकट्ठे हो गए कि माँ ने हम तीनों को दो- दो जोड़ी नए कपड़े सिल दिए।’’ और तीन- रंगी बैनर का एक गमछा भी था जो उसके गले के चारों तरफ बैल्ट की तरह उस दिन भी कसा था।

मैंने उसे सीट पर बैठने का इशारा किया तो वह पोंद की धूल झाड़ते हुए मेरे बगल में आकर बैठ गया। उसकी हाफ कम होते देख मैंने बात शुरू की-‘‘क्यों भाग रहा था चलती गाड़ी पकड़ने? अगली से आ जाता। घंटे भर की ही तो बात थी।’’

वह ठिठुरते हुए आँखों में प्रश्न भरे बोल पड़ा-‘‘सवेरे वहाँ भट्टी कौन सुलगाएगा, कौन पानी भरेगा, कौन बर्तन माँजेगा? नौ बजे तो पानी चला जाता है, पता है तब दूर के पम्प से सारा दिन लाला पानी ढो आएगा, तब!’’ उसकी साँसों की सड़न से लग रहा था कि वह सीधे उठकर आया था। रह- रहकर बुदबुदाता रहा,‘‘अम्मा के पेट में बहुत दर्द रहता है। उसकी पाँवों की सूजन सेंक भी मुझे ही करनी पड़ती है। ननकू और संटी काम- चोर हो गए हैं। शहर की गलियों और कचरा-घरों में खेलते रहते हैं और ज्यादा कबाड़ा नहीं बीन पाते हैं। रुपए-आठ आने के कबाड़े से क्या बनता है? अम्मा के पेट में फिर बच्चा आ गया है। जब पूछो यही कहती है- तुम्हारा कोई बाप नहीं है, तुम्हें अपनी रोटी खुद कमानी है। कभी ठीक रहती है तो किसी मिस्त्री के साथ बेलदारी पर चली जाती है, मगर साल के ज्यादा दिन सोते- कराहते ही काटती है। इस साल की उसकी सूजन तो दिन- पर- दिन बढ़ती जा रही है, फिर वह भी न करे, तो कौन करे....?’’

मैं फिर उसकी समझ और उम्र के गणित में उलझ गया था। लगता रहा वह जीवन के सभी अनुपात पार कर समय से पहले, समय का सवाल बनकर खड़ा हो गया है। मैंने पूछा था-‘‘वह फरीदाबाद में किसी ढाबे पर क्यों नहीं लग जाता? क्यों ठिठुरते हुए दिल्ली आता है?’’ कहा था उसने,‘‘वहाँ भी किया था, बीस रुपया और एक टाइम रोटी पर, यहाँ दो टाइम और पच्चीस मिलने लगे तो आ गया।’’

‘‘पर इससे तो तेरा ही पेट भरा, फिर घर का?’’ उसने बताया था,‘‘मैं एक टेम में इतना खा लेता हूँ कि फिर जरूरत ही नहीं होती और दूसरे टाइम का इस गमछे में बाँधकर अम्मा, ननकू और संटी के लिए ले आता हूँ।’’ अपनी तरकीब पर वह स्वयं गदगद होते कहे जा रहा था-‘‘फिर दो-तीन साल की ही बात है, ननकू कहीं लग जाएगा, फिर संटी फिर सब ठीक...’’

मैं सोचता रहा उसकी आशाओं और सपनों के उस न्यून आकार को जिसमें वह कितनी शिद्दत से समर्पित हो गया है-उसके खून में न विषाद है, न विद्रोह।

न क्षोभ, न प्रतिकार। न जाने कितनी पीढ़ियों से अशक्त और जर्जर होती आ रही जीवन- श्रृंखला की कड़ी है यह। आखिर कौन इनकी शक्तिक्षय का कारण है? कैसे टूटेगा यह शक्ति- क्षय का क्रम?

शिवाजी ब्रिज प्लेटफार्म पर गाड़ी पूरी तरह रुक भी न पाई कि वह लंगड़ाते हुए, बगल से कनाट प्लेस की ओर बढ़ गया।

गुबंदी से मिले तीन दिन हो गए थे। वह सुबह की शटल पर न होता तो मेरी बेचैनी बढ़ जाती- न जाने क्या हुआ हो उसे- मेरी नज़रों उसे तलाशती रहतीं। वह उसी दिन देर रात की वापसी शटल में मिला। मैं उसकी दोनों हथेलियों में तेल से चिकटे कपड़े लिपटे देख चिंतित स्वर में बोला,‘‘ये क्या हुआ गुबंदी?’’ उसने बताया,‘‘लाला बर्तन धोने का सस्ता सोडा खरीद लाया था, बर्तन धोते ही हाथ जल गए। दो दिन तो उसने ग्राहकों के गिलास भी न उठाने दिए। कहता रहा, ग्राहकी खराब होती है, कहीं और काम देख- आज लगाया था, देर हो गई लौटने में।’’ मैंने तपाक से राय दे डाली,‘‘तो उससे दवा के पैसे मांग- उसी के कारण तो तेरे हाथ जले हैं न, लड़ उससे-देख़, दवा करा ले इसकी वर्ना मुसीबत में फँस जाएगा।’’

तब वह मुस्कराते हुए पूछने लगा‘‘किसके लिए लड़ूँ बाबू, पेट के लिए या हाथों के लिए?’’ और तब मेरी सहानुभूति का जैसे उसने पर्दा फाड़कर सच मेरे ही सामने खड़ा कर दिया था। उसने जब कपड़ा हटाकर दिखाया तो मैं काँप गया। उसकी हथेलियों से जैसे किसी ने खुरचकर मांस निकाल दिया हो- मांस के ऊपर जगह-जगह पानी की बूँदें रिस रही थीं- पुनः कपड़ा लपेट उसने हथेलियों को घुटनों के बीच दबा लिया। लग रहा था, वह दर्द को कहीं भीतर अपनी ताकत से दबा रहा है। उसकी बुदबुदाहट भरे स्वर बेहद गर्म होकर कानों में पड़ रहे थे-‘‘बाबूजी, जब तक ताकत है, रोटी तो लानी है। अम्मा और भाई इस रोटी की पोटली का इंतजार करते हैं। हाँ, आजकल लाला बड़ी आनाकानी करने लगा है। आप कह रहे थे न उस दिन, कहीं फरीदाबाद में आप ही लगवा दीजिए न मुझे!’’

हमदर्दी के जिस स्वप्निल आकाश में उड़ता हुआ मैं अब तक अपने को बड़ा लग रहा था, उसके इस एक प्रश्न से ही निरीह और पंगु होकर जमीन पर घिसटने लगा। मैं जानता था, यह मेरे वश की बात नहीं फिर भी एक सांत्वना दे ही गया-‘‘हाँ- हाँ क्यों नहीं, पहले अपने हाथ तो ठीक कर ले, लगवा दूँगा कहीं- न- कहीं...’’

दर्द के मारे वह पोटली नहीं उठा पा रहा था। मैंने कहा,‘‘चल मैं पहुँचा देता हूँ।’’ एक हाथ में अपना ब्रीफकेस और दूसरे में पोटली लिए उसके पीछे-पीछे उसकी झुग्गी तक पहुँचा। उसने ननकू को आवाज लगाई और मुझे वहीं बाहर पोटली रख देने को कहा। दो जोड़ी चमकीली आँखों ने झाँककर आवाज़ दी-‘‘अम्मा, भाई आ गया।’’

‘‘कौन आया है साथ में?’’ उसकी अम्मा की कराहती आवाज़ भीतर से बाहर आई।’’

‘‘एक बाबू हैं, रोटी रखने आए हैं!’’ गुबंदी ने पोटली ननकू को थमाते हुए कहा।

‘‘ठीक है।’’ टूटी- सी अम्मा की आवाज़ ठण्डी पड़ी।

मैंने जिज्ञासावश भीतर झाँककर देखा। मोटे- मोटे नंगे पड़े  पाँव और सूजा हुआ चेहरा। मुझे देखते ही लालटेन की टिमटिमाती लौ भभक पड़ी जैसे, उसकी आँखों में हिकारत जल रही थी। मैं संवेदना जाहिर करने के ध्येय से जैसे ही मुस्कराया कि वह चीख उठी,‘‘देख गुबंदी देख, ये मुझे कैसे देख रहा है- कह दे इससे चला जाए, मैं खाली नहीं हूँ, मैं बीमार हूँ।’’ और वह करवट ले गई। मैं सकपका गया। मुझे अहसास हुआ, सचमुच इतनी रात गए मुझे यहाँ नहीं आना था- इसका कोई और भी अर्थ होता है। गुबंदी तभी बोला था,‘‘नहीं, अम्मा ये वैसे नहीं, बड़े अच्छे आदमी हैं, मैं जानता हूँ इन्हें।’’

मैं एक पल भी वहाँ न ठहर सका, लौटते हुए जब सुनाई दिया-‘‘अरे कलमुँहे, यहाँ सभी अच्छे बनकर आते हैं और चिकनी चुपड़ी बातें बनाकर फौज छोड़कर जाते हैं तेरे पालने वास्ते। समझा, ला रोटी ला, भूख लगी है।’’ तो लगा जैसे शब्दों का गर्म- गर्म सीसा कानों में घुसकर पूरे मस्तिष्क में फैल गया हो। बेतहाशा घर की ओर भागा। पत्नी और बच्चों में मिल बैठकर भी गुंबदी के घर से उड़ी शब्दों की किरमिच पूरे बदन को काटती रही। मैं वहाँ क्यों गया? कोई लफड़ा हो जाता तो! यहाँ अपनी ही जिंदगी सुलट जाए तो बहुत है, फिर गुबंदी की सोचूँ....

और धीरे- धीरे गुबंदी से बनता आया एकात्म रिश्ता संध्या की धूप की तरह सिमटने लगा।; लेकिन अभी हफ्ता भी नहीं हुआ था कि कल शाम फरीदाबाद पहुँचते ही गाड़ी में फुसफुसाहट और बातचीत का सैलाब फैलते- फैलते मेरे कानों तक पहुँचा कि आगे के डिब्बे में गुबंदी की लाश पड़ी है तो मैं एक बारगी चौंक गया। भागकर उसे देखा, गुबंदी की रोटियाँ चारों तरफ फैल गई थीं और वह तीन- रंगी गमछे में ढका निश्चल शांत पड़ा था। पुलिस ने डिब्बे को घेर लिया था और पूछ रहे थे-‘‘कोई जानता है इसे?’’ यद्यपि उसकी वेशभूषा के कारण अधिकतर उसे जानते थे; लेकिन सभी ने उसे पहचानने से इंकार कर दिया। एक बार मेरे मन में भी आया न जाने किस मुसीबत में ये पुलिस वाले फँसा दें, परंतु अपरिचय का मेरा स्वांग गुबंदी के पिछले निश्चल व्यवहार ने चलने नहीं दिया। मैंने पुलिस को बताया कि वह पास की झुग्गी में रहता है और वह उसे जानता है। तभी खबर पा उसकी अम्मा आती दिखाई दी। मैंने आगे बढ़कर कहा-‘‘आपका गुबंदी... शायद हाथ की सेप्टिक से...’’

उसने घूरकर मुझे देखा, रुकी, पहले रोटी पूछी और वापस जाने लगी-‘‘मर गया?’’ अजीब प्रश्न भरी निगाह से देखते हुए पलटकर बोली ‘‘अब रोटी नहीं लाएगा न!’’ जैसे कह रही हो फिर ये मेरा कोई नहीं...कोई नहीं...’’

वह तेज कदमों से प्लेटफार्म से उतरने लगी। ननकू और संटी उससे लिपटकर रोने लगे, तो वह वहीं पसरकर माथा पीटते कहने लगी-‘‘क्या होगा मेरा कलमुँहे! क्या होगा तुम्हारा...’’ जमा दर्शक मंत्रमुग्ध उसकी दहाड़ती आवाज सुन रहे थे- तभी मैंने ननकू की सख्त और संयत आवाज़ सुनी,‘‘तू रो मत अम्मा- रो मत, कल से मैं ढाबे पर जाऊँगा।’’

कविताः ऐसा क्यों होता है

- विजय जोशी 

 (पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक, भेल, भोपाल (म. प्र.)

ऐसा क्यों होता है
कि कभी- कभी
कुछ अपरिचित चेहरे
जिन्होंने  हमारा
कुछ भला नहीं किया
जिनके साथ हमने
एक क्षण भी नहीं जिया
अचानक लगने लगते हैं 
अपनों से
पिछले पहर के 
सुखद सपनों से
और हमें बहुत भाते हैं
अंतरतम तक सुहाते हैं
जबकि कभी- कभी
ऐसा भी होता है कि
कुछ जाने पहचाने चेहरे
जिन्होंने हमारा
कोई नुकसान नहीं किया
हमसे कभी कुछ नहीं लिया
हमें बिल्कुल नहीं भाते
जरा भी नहीं सुहाते।  
 
एक दिन यह बात
जब मैंने तुमसे कही
तो पहले तो तुम सकुचाई
फिर मुस्काई और बोली
यही बात
जब मैंने पहले पहल
तुमसे कही थी
तो तुम्हें यकीन नहीं आया
तुमने इसे
मेरा भ्रम बताया
इसीलिए
आज फिर दोहराती हूँ
वही लय
दुबारा गुनगुनाती हूँ
कि संबंध
देश, काल, सीमा
जाति, धर्म, भाषा
रंग, रूप, उम्र
सबसे परे होते हैं
और हम उन्हीं के साथ जागते
तथा उन्हीं के साथ सोते हैं।
 
और यह भी
बिलकुल जरूरी नहीं कि
हर रिश्ते के पीछे
कोई तर्कसंगत कारण ही हो
जीवन में कुछ चीजें
अकारण भी तो होती हैं
जो हमारे जीवन में
सुख के बीज बोती हैं
तथा इस तरह
उस ईश्वर की सत्ता से
हमारा साक्षात्कार कराती हैं
आत्मा को 
परमात्मा से मिलाती हैं
वरना उसका वजूद
कौन मानता
और उसके होने का एहसास
कोई कैसे जानता।  
 
तुम्हारी बात ने
एक बार फिर मुझे
अंदर तक छुआ
हृदय की गहराई में
बहुत कुछ हुआ
और मैंने
मन के नक्शे पर
तुम्हारे अस्तित्व को
एक बार फिर
पूरी शिद्दत के साथ 
महसूस किया
उस एक पल को मैंने
केवल तुम्हारे साथ जिया।
 
हाँ तुम ठीक कहती हो
मैं ही नादान था
ज़िंदगी की उलझनों में 
परेशान था
पर अब इस रूहानी  रिश्ते को
पूरे मन से स्वीकारता हूँ
और ऐसा क्यों कर रहा हूँ
यह भी अच्छी तरह जानता हूँ
यही नहीं अब तो
तुम्हारे प्रेम की गहराई को
अंतरतम तक पहचानता हूँ।
 
इसलिए अब तुम्हें
मुझसे कोई शिकायत 
नहीं रहेगी
तुम जब जिस क्षण
मुझे चाहोगी
अपने पास पाओगी
अंदर झाँकोगी
अपना ही जानोगी
मेरी बात का विश्वास
तुम्हारी मजबूरी नहीं
तुम मेरी हर बात मानो
यह भी जरूरी नहीं
यदि सच कहूँ तो
मेरे तुम्हारे बीच
अब कोई दूरी नहीं
अब तो यह मन
तुम्हारे प्रति
पूरी तरह समर्पित है
और मेरी बात
यहीं खत्म नहीं होती
मेरे सारे पुण्यों का फल भी
अब केवल तुमको
और केवल तुम्हीं को
अर्पित है।  

सम्पर्क: 8/ सेक्टर-2, शांति निकेतन (चेतक सेतु के पास), भोपाल-462023,
मो. 09826042641, E-mail- .joshi415@gmail.com

लेखकों की अजब गज़ब दुनिया

- सूरज प्रकाश

किसी भी लेखक की अपनी खुद की दुनिया बहुत पेचीदगी भरी होती है और कई बार उसे उसके लिखे हुए के जरिये नहीं पहचाना जा सकता। लेखक के भीतरी और बाहरी संघर्ष, उसकी कुछ खास आदतें, उसकी जीवन शैली, लिखने के लिए खुद को तैयार करने के कुछ नायाब तरीके, उसकी तकलीफें और कई बार उसकी जीवन शैली के हैरान कर देने वाले पक्ष हमें लेखक के नज़़दीक ले जाते हैं और हमें यकीन होने लगता है कि लेखन करना अय्याशी करने जैसा तो नहीं ही होता। लेखन एक ऐसी साधना है जिसकी अभिव्‍यक्‍ति के किसी अन्‍य माध्‍यम से तुलना नहीं की जा सकती।

दुनिया भर के लेखकों के बारे में पढ़ने पर पता चलता है कि शायद ही कोई ऐसा लेखक हो जिसे तरह-तरह की तकलीफ़ों से न गुज़रना पड़ा हो। किसी लेखक का बचपन ही बचपनविहीन रहा तो किसी लेखक को भयंकर आर्थिक और दूसरी तरह की तकलीफों से दो चार होना पड़ा। कई ऐसे भी लेखक रहे जो जीवन के आये दिन के संघर्षों का डट कर मुकाबला नहीं कर पाये और शराब की शरण में चले गये। कुछ लेखक बेहतरीन रच कर खुदकुशी कर बैठे। कई लेखक ऐसे भी रहे जिन्‍होंने अद्भुत रचा लेकिन उन्‍हें  उनके  काम की तुलना में मान्‍यता या तो मिली ही नहीं या कम मिली या देर से मिली या मिली तो मरने के बाद मिली।। चाहे कुछ भी रहा हो, हर लेखक ने अपना बेहतरीन लेखन आने वाली पीढ़ियों को दिया। दुनिया का हर लेखक अपने शब्‍दों के जरिये हमारे बीच आज भी ज़िंदा है। वैसे भी कहा जाता है कि लेखक कभी मरता नहीं, वह अपने शब्‍दों  के जरिये देश, काल और भाषा की सारी सीमाएँ लांघता हुआ हमेशा ज़िंदा रहता है। 

हर लेखक दूसरे लेखक से अलग होता है। उसकी आदतें, उसकी लिखने की शैली, उसका लेखन के लिए खुद को तैयार करना अपने आप में रोचक अध्‍ययन होता है। हर लेखक इस मायने में अनूठा होता है कि वह दिन के किस समय लिखता है, एकांत में लिखता है या शोर- शराबे में लिखता है। शब्‍द गिनकर लिखता है या हर तरह के लेखन के लिए अलग रंग के कागज स्‍याहियाँ चुनता है। कई ऐसे भी लेखक रहे जो खड़े हो कर या लेट कर लिखते थे। कोई लेखक पहाड़ पर जा कर ही लिख पाता है तो किसी को घर का शोर- शराबा ही लिखने के लिए प्रेरणा देता है। कुल मिला कर ये एक बहुत ही रोचक अध्‍ययन है और इस बात पर भी रोशनी डालता है कि लेखक कुछ न कुछ रचते रहने या राइटर्स ब्‍लॉक से बचने के लिए क्‍या क्‍या जुगतें नहीं भिड़ाता।

आइये इस अंक से क्रमशः पढ़ते हैं दुनिया भर के लेखकों की कुछ ऐसी रोचक बातें जो लेखकों की भीतरी दुनिया में ले जाती है-

 अजीब आदतों वाले लेखक-1
• अर्नेस्‍ट हेमिंग्वे, चार्ल्‍स डिकेंस, वर्जीनिया वुल्‍फ, लेविस कैरोल और फिलिप रोथ और आचार्य नगेन्‍द्र जैसे लेखक खड़े होकर लिखते या टाइप करते थे। बीच-बीच में हरिवंश राय बच्‍चन भी खड़े होकर लिखते रहे।
• आगाथा क्रिस्‍टी अपने उपन्‍यासों के लिए कत्‍ल के प्‍लॉट सोचने के लिए बाथ टब में बैठकर सेब कुतरा करती थीं।
• गर्टूड स्‍टेन पार्क की गई कार में लिख सकते थे।  
• व्‍लादीमीर नबोकोव भी कार में बैठ कर लिखते थे। कार के भीतर का सन्‍नाटा लिखने के लिए एकदम उम्‍दा माहौल देता था। वे कई बार बाथ टब में लेटे हुए लिखने का आनंद उठाते थे। उन्‍होंने अपने अधिकतर नॉवेल 3X5 इंच के कार्डों पर लिख कर ही तैयार किये जिन्हें वह पेपर क्लिप लगा कर छोटे छोटे बक्सों में तरतीब से लगा कर रखते थे।
• जॉर्ज ऑर्वेल, मार्क ट्वेन, एडिथ वार्टन, विंस्टन चर्चिल और मार्सेल प्रोउस्ट आदि लेखक अपना अधिकतर लेखन बिस्तर में लेटकर ही करते थे।
• फ्रांसीसी नाटककार एडमंड रोस्‍ताँ भी अपने बाथ टब में बैठ कर लिखा करते थे।
• रेमंड कार्वर जिन्‍हें अपनी कहानियों के लिए अमेरिकी चेखव का खिताब हासिल था, अपनी कार में बैठ कर लिखा करते थे। 
• जोसेफ हेल्‍लर को बस की सवारी में ही लिखने के विचार आते थे।
• ट्र्युमैन कपोते पीठ के बल लेट कर लिखते थे। एक हाथ में शेरी और दूसरे हाथ में पेंसिल। लगातार सिगरेट के कश लगाते और कॉफ़ी पीते। जब शाम ढलने लगती तो कॉफ़ी की जगह मिंट चाय आ जाती। फिर शेरी और अंत में मार्टिनी। वे अपना बेहतरीन लेखन हाइवे पर बने मोटल में ही कर पाते थे। एक बार एक स्‍क्रिप्‍ट लिखनी थी तो एक ट्रेन टिकट खरीदकर वे पूरी यात्रा में लिखते रहे। न्‍यूयार्क और शिकागो के बीच वे 140 पन्‍ने घसीट चुके थे। 
• हिंदी कवि दिविक रमेश शुरू- शुरू में शहतूत के पेड़ पर बैठकर कविता लिखते थे।
• पंजाबी कहानी के जनक नानक सिंह गरीबी के बावजूद पहाड़ पर जाकर लिखते थे।
• हिंदी कहानीकार मोहन राकेश भी पहाड़ पर जा कर लिखते थे। वे अपना लेखन टाइराइटर पर करने वाले हिंदी के शुरुआती लेखकों में से थे।
• मौका निकाल कर राजेन्‍द्र यादव और उपेन्‍द्र नाथ अश्‍क भी लिखने के लिए पहाड़ों पर जाते रहे।
• नाजिम हिकमत ने अपनी कविताएँ जेल में रहते हुए सिगरेट की डिब्बियों पर लिखी थीं।
• बेन फ्रेंकलिन पहले अमरीकी थे जिन्‍होंने बाथ टब खरीदा था। वे उसी में लेट कर लिखते थे।
• मार्क ट्वेन और राबर्ट लुई स्‍टीवेन्‍सन लेटकर लिखते थे जबकि लेविस कैरोल, थॉमस वुल्‍फ खड़े होकर लिखते थे।
• सर वाल्‍टर स्‍कॉट घोड़े की पीठ पर सवार होकर कविता रचते थे।
• फिलिप रोथ अमेरिकी लेखक खड़े हुए, चहलकदमी करते हुए सोचते हुए लिखते हैं। हर पन्‍ना लिखने के बाद आधा मील चलते हैं।
• जैक केरॉक ने ऑन द रोड का पहला ड्राफ्ट 120 फुट लंबे टेलिटाइप रोल पर तीन हफ्ते में लिखा था।
• फ्रांज काफ्का न्‍यूडिस्‍ट कैंपों में जाया करते थे; लेकिन अपनी पैंट उतारने से मना कर दिया करते थे। उन्‍हें बाकी लोग The Man in the Swimming Trunks के रूप में जानते थे।
• नोएल कावर्ड का ये दावा था कि वे हर सुबह टाइम्‍स में मृत्‍यु के शोक संदेशों वाला कॉलम पढ़कर अपना दिन शुरू करते थे। अगर उसमें उनका नाम नहीं होता था, तो वे काम करना शुरू कर पाते थे।
• मौलियर की मृत्‍यु अपने ही एक नाटक में अभिनय करते हुए मंच पर ही हुई थी। संयोग से वे भ्रम रोगी (हाइपोकांड्रियाक) की भूमिका कर रहे थे।
• मिकी स्‍पीलेन ने अपने उपन्‍यास किस मी, डैडली की 50,000 प्रतियाँ इसलिए वापिस मँगवा ली थीं;  क्‍योंकि शीर्षक में कौमा (,) लगना रह गया था। ये प्रतियाँ नष्‍ट कर दी गयी थीं।
• वेस्‍टर्नस लुई लामौर के लेखक की रचनाएँ प्रकाशित होने से पहले 200 बार उनकी रचनाएँ लौट चुकी थीं। अब उनके उपन्‍यासों की दुनिया भर में 32 करोड़ प्रतियाँ बिक चुकी हैं।
• 1862 में उपन्‍यासकार सर एडवर्ड बुलवेर लिटन ने सबसे पहले कहा था कि कलम में तलवार से ज्‍यादा ताकत होती है (the pen is mightier than the sword) इस वाक्‍यांश के लिए उन्‍हें ग्रीस का राजमुकुट देने की पेशकश की गयी थी। 
• आधुनिकतावादी कथाकार कैथरीन मैंसफील्‍ड ने अपनी पहली शादी में शोक का जोड़ा पहना था और शादी की रात को ही पति को छोड़ कर चली गयी थी। 
• टूमैन कपोते अपना कोई भी काम शुक्रवार को शुरू नहीं कर पाते थे। यहां तक कि अगर उनके होटल के कमरे का नंबर 13 हो तो वे कमरा बदल लेते थे। वे ऐशट्रे में सिगरेट के तीन टोटों से ज्‍यादा कभी नहीं छोड़ते थे। अगर टोटे ज्‍यादा हो जाएँ तो अपने कोट की जेब में ठूँस लेते।
क्रमशः आगामी अंक में- 

संस्मरणः वो सोलह दिन

 - निरुपमा सिंह

वो सोलह दिन जो आज भी यादों में ताजा हैं सुनहरी भोर की तरह। बहुत समय पूर्व की बात है, पिताजी की पोस्टिंग एक दूर दराज थाने में हुई थी जो कि शहर से कहने को तो दूरी अधिक नहीं थी परंतु उस स्थान को जाने वाला रास्ता बेहद खराब, ऊबड़ -खाबड़  बीहड़ जंगल से होकर गुजरता था। बेटी के जन्म के पश्चात सोचा कि अब वो दो माह की हो गई है चलो अब मायके ही घूम आऊँ, बहुत समय से कही घर के बाहर नहीं निकली हूँ। उसके दूसरे ही दिन हम दोनों पति-पत्नी गंतव्य की ओर बस में सवार होकर निकल पड़े। बदायूँ पहुँचते- पहुँचते ही साँझ ने पाँव पसार दिए। उस स्थान के लिए उस समय एक ही प्राइवेट बस चलती थी पहली और आखिरी भी। 

बहुत उत्साह था मन में माता-पिता से मिलने का। बहुत समय पश्चात बस के कुछ दूर जाने के पश्चात बस की लाइटें बुझा दी गईं। वह बीहड़ जंगल था जहाँ से बस होकर गुजर रही थी। उस पर कंडक्टर का बताने का अंदाज ऐसा की मानों अभी डाकू आएँगे घोड़ों  पर सवार होकर, और हमला बोल देंगे। मैंने अपनी दो माह की बेटी को सीने से चिपका लिया और मन ही मन अपने ईष्ट को याद करने लगी। तीस किलोमीटर का रास्ता मानों तीन सौ किलोमीटर लम्बा हो गया हो। पूरे चार घंटे लगे हमें अपनी मंजिल तक पहुँचने  में। बहुत थकान भरा सफर था और रोमांचकारी भी। प्रथम अनुभव था जो कि बहुत डरावना भी था। 

जब हम अपनी मंजिल पर पहुँचे  तो मानों सारी थकान भूल चुके थे। मेरी माँ  की देख -रेख  में बढ़िया पकवान बनवाए गए थे, सो दिनभर के भूखे पेट की प्राथमिकता भोजन ही थी। नींद भी पुरजोर आ रही थी। मैं बेटी को सीने से चिपका कर नींद के आगोश चली गई। अचानक से कानों में एक भयंकर गर्जना सुनाई पड़ी, मानों कोई हाथी चिंघाड़  रहा हो। माँ बोली, “कुछ नहीं है, सो जाओ।“ पर नींद तो कोसो दूर जा चुकी थी। भोर होने पर प्रतीत हुआ कि सूर्योदय का इतना विहंगम दृश्य तो शायद कभी देखा ही नहीं था। सीधे उठ कर मैं बरामदे में से होते हुए आँगन में गई जो कि बहुत वृहद आकार का था। उसमें खड़े दो आम्रवृक्ष और एक जामुन का विशाल पेड़ मन को बहुत लुभा रहे थे। जो किसी प्रकार की नाराजगी थी सरकारी सिस्टम पर सब पल भर में काफूर हो गई थी। कभी सपने में भी नहीं सोचा था जिस जगह के विषय में स्थानीय लोगों के अतिरिक्त कोई नहीं जानता था, वो इतनी नैसर्गिक सुंदरता लिए होगी । कौतूहलवश मैने माँ से पूछा, “कि रात को वो गर्जना कैसी थी ?” तब उन्होंने कहा, “आँगन का पीछे वाला दरवाजा खोलो, स्वयं ही देख कर समझ जाओगी।“ दरवाजा खोलते ही जो दृश्य इन आँखों ने देखा उसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। ठीक कुछ ही फासले की दूरी पर रामगंगा नदी, जो गंगा की तरह ही पूजनीय है, कल-कल बह रही थी। मैं  बेटी को माँ के पास छोड़ कर कुछ समय के लिए बिना नाश्ता किए ही आश्चर्यचकित सी रामगंगा के किनारे पड़े एक विशाल आकार के पत्थर पर बैठ गई और उसकी लहरों के वक्ष पर नृत्य करती सूर्य की किरणों को मंत्रमुग्ध होकर बहुत समय तक देखती रही। कुछ सीपियाँ-शंख एकत्र भी किए और जंगली फूलों के बीच से निकलने वाली पगडंडी से अनमनी सी घर आ गई। अनमनी इसलिए कि हम बस दो-चार दिनों के लिए ही आए थे और अब जाने का बिल्कुल मन नहीं था। 

शाम को चाय की चुस्कियाँ लेते अचानक एक ख्याल मन में आया कि यहाँ के लोग कैसे जीवन-यापन करते होंगे? मेरा अभिप्राय फल- सब्जी तथा अन्य रोजमर्रा की वस्तुओं से था। तभी एक बुजुर्ग ताजी सब्जियाँ तथा कुछ ताजे फल जैसे पपीता, अमरूद, शकरकंद आदि घर पर देने के लिए आए। मैनें शिष्टाचारवश उनको नमस्ते की। दूसरे ही पल वह बुजुर्ग मेरे पाँव छूने के लिए बढ़े।  मैंने झट से उनके कँपकँपाते हाथ थाम लिए, ''काका, आप ये क्या करने जा रहे थे?'' वो आँखों में आँसू भरकर बोले, ''बिटिया, हम्मार ईहां  बेटी दामाद के पांव छुए की रीत भई।'' मैं उनका वात्सल्य देख कर अभिभूत हो गई और सोचने लगी कितने सहज और सरल लोग हैं ये। मैं  बोली, “काका, कल हमें कहीं घूमाने ले चलो आस-पास।” काका बोले, “बिटिया कल नौका से पल्ली पार चलिहैं।” 

अगले दिन हम सुबह नाश्ता करके नौका-विहार पर निकल पड़े। मैं उन पलों में डूबी हुई थी कि नाव वाले भैय्या बताने लगे, “बिटिया यहाँ मछलियों की दुर्लभ प्रजातियाँ पाईं जाती हैं, बहुत सुंदर, छोटी-बड़ी सभी प्रकार की। 

साँझ होने को आई थी। भूख भी जोरों पर लगी थी। वहाँ से लौटते हुए बारिश भी शुरू हो गई थी। वे सुंदर पल स्थायी रूप से मन मस्तिष्क में बस चुके थे। मैं  सोच ही रही थी कि काश कुछ दिन और रुक जाते। वहाँ के लोगों की सादगी, तथा स्नेह देख कर मन भाव विभोर था। शुद्धता ही शुद्धता थी वहाँ की हर चीज में। फिर रात को पिताजी का कहना कि ‘बच्चों कुछ दिन और रुककर जाना’ ये आग्रह शायद भगवान ने भी सुन लिया था। रात को जम कर बारिश हुई तो सुबह पता चला जो बस जाती है, वह कुछ दिन के लिए बंद हो गई है। हम भी खुश थे। मौसम खुलने पर नदी किनारे बहुत देर तक घूमते रहते तथा रेत पर मनपसंद घरौंदे बनाते हुए कब सोलह दिन व्यतीत हो गए पता ही नहीं चला। वे सोलह दिन आज भी हृदय पर अपना आधिपत्य जमाएँ हुए हैं। ये यादें ही तो हैं, जो याद आतीं हैं।  

सम्पर्कः मोहल्ला महादेवपुरम, बिजनौर, 91407-45907