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Mar 1, 2023

जीवन दर्शनः मोह के मायाजाल से मुक्ति

   -विजय जोशी (पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक, भेल, भोपाल (म. प्र.) 

 ईश्वर ने इंसान को ज्ञान, बल तथा बुद्धि की थाती के सुर समाहित गुणों सहित धरती पर भेजा इनके सदुपयोग को परखने के लिए। लेकिन साथ ही लोभ, मोह, लालसा, लालच रूपी असुर भी यह देखने के लिए कि वे उसे पथभ्रष्ट कर पाते हैं या नहीं। यही उसके विवेक की परीक्षा के पल हैं कि वह किस मार्ग को चुनता है।  संभावित कठिनाई का सुपथ या फिर फिसलन समाहित कुपथ। 

राजा भोज बहुत ज्ञानी थे तथा ज्ञानी जन की संगति में जीवन के नए आयाम खोजने को सदैव उत्सुक रहते थे। एक बार उन्होंने सभा- जनों से पूछा कि ऐसा कौन सा कुआँ है जिसमें गिरने के बाद आदमी बाहर नहीं निकल पाता। जब कोई भी उत्तर नहीं दे पाया तो उन्होंने राज पुरोहित को आदेश दिया कि वह सात दिनों में उत्तर तलाश कर दरबार में प्रस्तुत हों और ऐसा न कर पाने की स्थिति में वे राजदंड के अपराधी बनेंगे।

 उत्तर खोजने में राज पुरोहित के छह दिन व्यर्थ हो गए तो वह जंगल की ओर निकल गए जहाँ उनका सामना एक गड़रिये से हुआ, जिसने उन्हें चिंतातुर देख कारण जानना चाहा।

राज पुरोहित ने उसे निरक्षर जान कुछ नहीं कहा, लेकिन गड़रिये ने बगैर निराश हुए उनके चेहरे की उदासी को देख कहा- आप विद्वान हैं पर हो सकता है मेरे पास आपकी समस्या का समाधान हो

और तब राज पुरोहित ने उसे पूरी बात बताई। सब कुछ जानने के बाद गड़रिये ने कहा -  मेरे पास एक पारस है जिससे आप खूब सोना बना सकते हैं। तब लाखों भोज आपके पीछे- पीछे घूमेंगे। चाहिए क्या? पर उसके लिये मेरी एक शर्त है और वह यह कि तुम्हें मेरा चेला बनना होगा।

राज पुरोहित में पहले तो अहंकार जागा, लेकिन स्वार्थ पूर्ति के मद्देनजर वह इसके लिये तैयार हो गए।

गड़रिया बोला- तुम्हें पहले भेड़ का दूध पीना होगा।     

राज पुरोहित ने कहा- असंभव। मेरी बुद्धि मारी गई है क्या ?

गड़रिये ने कहा- तो ठीक है पारस नहीं मिलेगा।

राज पुरोहित बोले- ठीक है दूध पी लूँगा। आगे क्या।

अब गड़रिये ने आगे कहा- पहले मैं जूठा करूँगा फिर दूँगा।

राज पुरोहित ने धैर्य खोकर बोला- यह तो हद कर दी तूने। ब्राह्मण को जूठा पिलाओगे।

गड़रिये ने शांत चित्त से कहा- तो ठीक है लौट जाइए।

पुरोहित ने सँभलते हुए कहा- नहीं, नहीं,  मैं तैयार हूँ।

गड़रिया यहीं नहीं थमा अब उसने आगे कहा- वाह बात बन गई। अब सामने जो इंसान की खोपड़ी पड़ी है, मैं उसमें दूध भरकर जूठा करूँगा और फिर तुम्हें दूँगा। तभी तुम्हें पारस प्राप्त हो सकेगा।

लोभ की आसक्ति में गाफ़िल राज पुरोहित ने खूब विचारा और कहा- है तो कठिन, पर मैं तैयार हूँ।

और अब अंतत: गड़रिये ने अपनी बात का समापन किया- मित्र यही तो वह कुआँ है लोभ, लालच, तृष्णा का जिसमें यदि एक बार आदमी गिर जाए, तो फिर कभी बाहर नहीं निकल पाता। तुम भी तो पारस पाने के लालच में लोभरूपी कुएँ में गिरते ही चले गए। यही समझाना मेरा उद्देश्य था। मेरे पास कोई पारस नहीं है।

 निष्कर्ष बहुत सरल और सीधा है। विवेक का सदुपयोग तथा उससे समाहित समाधान ही हमें मृगतृष्णा रूपी रेगिस्तान में नखलिस्तान के दिग्दर्शन में सहायक हो सकता है। विवेक तो अंतस में ही समाया है। बस एक बार अंदर झाँकने की ज़रूरत है। जो हमें सही मार्ग की ओर उन्मुख कर हमें सुपथ सुलभ कर सकता है। वरना कबीर तो कह ही गए हैं :

माया मरी न मन मरा, मर- मर गया शरीर ।

आशा तृष्णा ना मरी, कह गए दास कबीर ।।

सम्पर्क: 8/सेक्टर-2, शांति निकेतन (चेतक सेतु के पास), भोपाल- 462023, मो. 09826042641,                        E-mail- v.joshi415@gmail.com


66 comments:

शिवजी श्रीवास्तव said...

सुंदर आलेख

Anonymous said...

Ati sundar lekh

राम कुमार तिवारी said...

आपने बहुत सुंदर और सटीक संदेश दिया। धन्यवाद

Gunjan Doshi said...

पहला कदम ही आखिरी कदम है सवाल केवल इतना है कि वह कदम मूर्छा में लिया गया है या चेतन चित की दशा में लिया गया है

Mahesh Manker said...

सर, अति उत्तम लेख .
प्राणी की न माया मरती है, न मन मरता है, यह शरीर ही बार-बार मरता है।
"विवेक का सदुपयोग तथा उससे समाहित समाधान " ही एकमात्र पथ है।

Anonymous said...

Very nice article. There is so much wisdom in Kabirs words...
Vandana Vohra

Hemant Borkar said...

पिताश्री अति उत्तम और अप्रतिम वर्णन किया है आपने
मोह माया जाल से मुक्ति का। पिताश्री को सादर धन्यवाद और चरण स्पर्श 🙏🌹🙏

Anonymous said...

Manish Gogia- nice article

Kishore Purswani said...

अति उत्तम समझाने का इससे बेहतर उदाहरण नहीं हो सकता
लोभ और लालच में पड़कर ज्ञानी भी इस हद तक गिर सकता hai

मंगल स्वरूप त्रिवेदी said...

पंच विकारों में जो मोह नामक विकार कब हमें सुर से असुर बना देता है पता भी नहीं चलता। इस मृगतृष्णा में पल पल हम और गहरे डूबे जाते हैं और अधिकांश लोगों को तो जीवन में यह पता ही नहीं चलता कि वह जीवन यात्रा में कहां से कहां पहुंच गए। कुछ लोग जो गुरु कृपा अथवा सत्संगति से इस बात को जान जाते हैं उनमें भी बहुत कम ऐसे लोग होते हैं जो इस रोग से निजात पा पाते हैं। जीवन दैविक प्रवृत्तियों का विकास कर मोह और माया जैसे विकारों से स्वयं को दूर रखकर बुद्धत्व की प्राप्ति के लिए ईश्वर का अनुपम उपहार होता है।
जो इसे समझ जाए वह भवसागर से पार हो जाता है और जो न समझे वह इसी में फंसा 84 के चक्कर को पता रहता है।
बहुत ही उत्कृष्ट और चिंतन, मनन तथा जीवन के शाश्वत सत्य को परिभाषित करते हुए आलेख के लिए आदरणीय श्री जोशी सर का बहुत-बहुत आभार।

Anonymous said...

Mukesh Shrivastava
अति सुन्दर लेख

Nusrat Mehdi said...

सुन्दर और प्रेरक आलेख

विजय जोशी said...

आदरणीय, हार्दिक आभार। सादर

विजय जोशी said...

राम भाई, आपका स्नेह अद्भुत है। हार्दिक आभार। सादर

विजय जोशी said...

प्रिय महेश, आपकी सज्जनता व सरलता का मैं कायल हूं। हार्दिक धन्यवाद। सस्नेह

विजय जोशी said...

प्रिय हेमंत, दिली आभार। सस्नेह

विजय जोशी said...

Dear Vandana, You have carried with you the fragrance of Bhopal to Gujrat. Thanks very much. With affection.

विजय जोशी said...

Thanks very much Dear Manish for keeping Bhopal culture vibrant in down south. Sasneh

विजय जोशी said...

आदरणीया, आपकी सद्भावना बहुत मायने रखती है। शुक्रिया दिल से। सादर

विजय जोशी said...

भाई मुकेश, हार्दिक धन्यवाद। दक्षिण प्रवास से वापिस लौट आइये। सस्नेह

देवेन्द्र जोशी said...

आजकल सबसे आगे निकलने की होड़ ने बचपन से विवेक को दबा कर आगे बढ़ना अधिकतर बच्चों को सिखाया जाता है। इसीलिए हर स्तर एवं हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार सुनने को मिलता है। स्कूलों में संतोष सिखाने की बहुत आवश्यकता है, लेकिन यह आधुनिक प्रबंधन विचार धारा से मेल नहीं खाता है । आप हमेशा ही बहुत महत्वपूर्ण विषय की ओर ध्यान खींचने का प्रयास करते हैं, लेकिन पता नहीं इससे कितने लोग प्रभावित हो रहे हैं । आप निष्काम भाव से अपने प्रयास जारी रखे हुए हैं। आपका साधुवाद!

Sharad Jaiswal said...

आदरणीय सर,
बहुत ही सुंदर संदेश । अति उत्तम ।
साधुवाद ।
लोभ और लालच में फंसे हुए इंसान की स्तिथि वैसे ही होती है जैसे
"माखी गुड में गडी रहे, पंख रहे लिपटाए ।
हाथ मले और सर धुनें, लालच बुरी बलाय ।"

Anonymous said...

Eye opening article.

Anonymous said...

आपने सटीक ढंग से अति सुन्दर संदेश"मोहमाया"का मृगतृष्णा में
हम कैसे फंसकर डूब जाते हैं , उसकी
अतुलनीय वर्णन किया जो अति प्रशंसा की अपेक्षा रखती हैं।

विजय जोशी said...

Dear Dr. Gunjan,
मेडिकल जीवन की व्यस्तताओं के बावजूद आपकी साहित्यिक एवं दर्शन शास्त्र में अभिरुचि अद्भुत है। हार्दिक आभार। सादर

विजय जोशी said...

हार्दिक आभार मित्र

विजय जोशी said...

प्रिय मंगल स्वरूप,
अद्भुत सत्य का सार से आप्लावित है आपका विचार। विवेक को परे रख आदमी धंसता ही चला जाता है और जब बात समझ में आती है समय समाप्त हो चुका होता है। सुर रहित ही तो है असुर।
- माया मरी न मन मरा, मर मर गया शरीर
- आशा तृष्णा ना मरी, कह गए दास कबीर
हार्दिक धन्यवाद सहित सस्नेह।

विजय जोशी said...

किशोर भाई, जीवन यात्रा में दो ही सुविधा प्राप्त हैं हमें विवेक या वासना। तय हमें तय करना है अपना पथ। पर्दा तो एक दिन गिरना ही है। हार्दिक आभार सहित सादर

Dil se Dilo tak said...

वाह्ह्हह्ह्ह्ह.. शिक्षाप्रद लेख.. बधाई सर 💐💐🙏🏼🙏🏼

विजय जोशी said...

प्रिय रजनीकांत, आज व्यस्त हो शायद। हार्दिक धन्यवाद सस्नेह

विजय जोशी said...

प्रिय मित्र, हार्दिक आभार। सादर

विजय जोशी said...

प्रिय शरद, तुम तो मेरे स्थायी पाठक और प्रशंसक हो। इससे मुझे साहस और शक्ति दोनों प्राप्त होती है।
- माया मरी न मन मरा, मर मर गया शरीर
- आशा तृष्णा ना मरी, कह गए दास कबीर
हार्दिक धन्यवाद। सस्नेह

विजय जोशी said...

आदरणीय, आप के साथ काम करने का सुख मेरा सौभाग्य रहा है। उम्र के इस दौर में जानी अनजानी गलतियों के प्रायश्चित का विनम्र प्रयास है शायद। गो लिखता तो आरंभ से रहा हूं।
- जिनका काम खुदगर्ज़ी है वो उसे जानें
- मेरा पैगाम मोहब्बत है जहां तक पहुंचे
हार्दिक आभार सहित सादर

Mandwee Singh said...

आदरणीय सर
सादर अभिवादन
आपकी लेखनी की सबसे बड़ी विशेषता है,किस्सागोई के माध्यम से जीवन - दर्शन का पाठ पढ़ाना।कबीर की तरह जागरूक करना। वाकई लोभ ,लालच, मोह माया संसार को मृगतृष्णा बनकर छका रहा है,लेकिन अज्ञानता वश मनुष्य उसी को अपना रहा है।बहुत सारगर्भित और शिक्षाप्रद आलेख।

Anonymous said...

अति सुन्दर आलेख। आँखें खोलने वाला।सत्य कहा विवेक तो मनुष्य के अन्तर्मन में है।
-वी.बी.सिंह,लखनऊ।

Sk Agrawal said...

Robotics, A I , के ज़माने में मानवीय मूल्यों की बात ( भूत के मुहँ से राम नाम) जैसा है.
गिरते मानदंडों को देखने, स्वीकार करने के लिये मजबूर
हम जो जहर पीकर खुश रहने का अभिनय करने के लिये
बाध्य हो गये हैं, उस समय मानवीय मूल्यों की चर्चा बहुत सुखद अनुभव है
मित्र को साधुवाद Dr S K AGRAWAL GWALIOR

प्रेम चंद गुप्ता said...

जब भी शास्त्रीय विषय अथवा दार्शनिक विषय पर कोई लिखता है तो निश्चय ही वह क्लिष्ट और उबाऊ हो ही जाता है। लेखक का दोष नहीं विषय की प्रकृति इसका कारण है। और इस कारण का सशक्त निवारण है कथा। कथा एक ऐसी विधा है जिसके माध्यम से गम्भीर से गम्भीर बात को बड़ी सहजता और सरलता से सुगम अथवा सुबोध कर दिया जाता है। यही कारण है कि हमारी संस्कृति में पुराणों का इतना महत्व है।
लेकिन लोक संस्कृति की लोक कथाएं पौराणिक कथाओं से भी कहीं आगे तक जाती हैं क्योंकि इनमें भाषागत सुगमता होती है। शिल्प, विधान, कथ्य, शैली आदि दुरुहता से दूर।
आपकी कथा इसी अप्रतिम लोक कथा का ज्वलन्त उदाहरण है। इसे पढ़ कर मुझे एक लोक कथा याद आ गई जिसे मैंने कभी किशोरावस्था में "चंदामामा" नामक पत्रिका में पढ़ा था।जिसका सार कुछ इस प्रकार है।
एक राजा को मोक्ष प्राप्ति की इच्छा होती है। वह अपनी इच्छा अपने राजपुरोहित से बात कर उससे मोक्ष प्राप्ति का उपाय जानना चाहता है। राजपुरोहित अपनी असमर्थता व्यक्त करते हैं परन्तु राजा समझता है कि राजपुरोहित उसे जान बूझ कर बताना नहीं चाहता। अतः राजा उन्हें बताने के लिए एक सप्ताह का समय देता है तथा नहीं बताने पर सपरिवार मृत्युदंड। राजपुरोहित बड़े संकट में आ जाते हैं और अत्यंत उदास मुद्रा में घर पहुंचते हैं। उनकी बेटी उनसे उदासी का कारण पूछती है तो थोड़ी टाल मटोल के बाद सब कुछ बता देते हैं। लड़की कहती है कि इसमें उदास होने की कोई बात नहीं है ककल आप मुझे राजदरबार में अपने साथ ले चलना बाकी काम मेरा है।
पंडित जी वैसा ही करते हैं। जब राजा अपने राजकीय कार्यों में संलग्न हो जाते हैं तो वह लड़की एक खम्भे को पकड़कर जोर जोर से चिल्लाने लगती है कि मुझे छुड़ाओ, मुझे छुड़ाओ। राजा छोटी बच्ची को देखकर कहते हैं खम्भा तो तुमने खुद पकड़ रक्खा है और हमसे छुड़ाने की बात कहती हो। तुम खुद ही क्यों नहीं छोड़ देती। बच्ची कहती है महाराज मैं भी यही कह रही कि संसार को तो आपने खुद ही पकड़ रखा है और मेरे पिता जी से छुड़ाने की बात कह रहे हैं।
आपकी कथा पढ़ कर आनंद आ गया। बहुत साधुवाद।

विजय जोशी said...

आदरणीय, हार्दिक आभार। कैसी है लखनऊ की फ़िज़ां इन दिनों। सादर

विजय जोशी said...

प्रिय डॉ. अग्रवाल, हम अपना काम करते रहें, वे अपना। यह जंग तो सदियों से जारी है। हार्दिक आभार। सादर

विजय जोशी said...

प्रिय मांडवी, प्रयागराज में बैठकर भी लिखा, कितनी बड़ी बात है। अद्भुत हैं आप। किस्सागोई शब्द मेरे जेहन में भी नहीं था। मेरे लिये तो यह वक़्त कटी का माध्यम है। हार्दिक आभार। सस्नेह

विजय जोशी said...

आदरणीय, आप निश्चित ही सबसे अलग हैं। हम सबने बचपन में चंदामामा, अमर चित्र कथाएं पढ़ी हैं और उनका गहरा प्रभाव आज भी है मन में।
लोक कथा सर्वश्रेष्ठ माध्यम है बात साझा करने का। आपने जो दृष्टांत दिया यह उसीकी बानगी है।
हार्दिक आभार सहित सादर

Anonymous said...

मानवीय सिद्धांतों पर टिके रहना ही एकमात्र उपाय है। अति सुंदर लेख

विजय जोशी said...

हार्दिक आभार मित्र

Anonymous said...

बहुत खूब सूरत सरजी।
काम क्रोध मद से बाहर आने केलिए कठिन परिश्रम चाहिए।
धन्यवाद सरजी

ABHISHEK GARG said...

Bahut hi skishaprad lekh sir...aur lekhni bhi bahut saral aur samvad sthapit Karne wali.

राजेश दीक्षित said...

संदेश बहुत सहजता से आप ने समझाया है पर उसका पालन कर पाना आज के युग मे लगभग असंभव सा है। लोभ और मोह ही आज मुख्य प्रेरक है (मेरा क्या? तो मुझ को क्या?) सब कुछ जानते हुए भी कि
काम क्रोध मद लोभ सब, नाथ नरक के पथं।
आपका लेख प्रेरक और सटीक है। हार्दिक बधाई एवंम शुभकामनाए ।

Anonymous said...

आदरणीय भाईसाहब प्रणाम
बहुत ही सुन्दर और उत्तम आलेख, सरल लेकिन ज्ञानवर्धन उदाहरणों से आप बहुत प्रेरक बात सहजता से कह जाते हैं जो हमारा मार्गदर्शन करती हैं.
सादर हार्दिक बधाई
Madhulika sharma

विजय जोशी said...

प्रिय मधु बेन, पसंदगी के लिये हार्दिक अनुभूति सहित। सस्नेह

विजय जोशी said...

प्रिय अभिषेक, हार्दिक धन्यवाद। सस्नेह

विजय जोशी said...

आदरणीय आनंदा जी,
भेल, भोपाल यूनिट में बहैसियत इकाई प्रमुख आपको सादगी, विनम्रता के साथ ही पारिवारिक वातावरण निर्माण की कार्यपद्धति के लिये सदा याद रखा जाएगा। हम प्रत्यक्ष रूप से कभी नहीं मिले, किंतु आपकी सज्जनता की सुगंध का सौभाग्य मुझ जैसों तक भी पहुंच जो गई:
- बड़े बड़ाई ना करें बड़े न बोलें बोल
- हीरा मुख से कब कहे लाख टका मम मोल
हार्दिक आभार सहित सादर

विजय जोशी said...

राजेश भाई,
बिल्कुल सही विवेचना की है आपने। शास्त्रों में तो इन्हें नरक का द्वार ही कहा गया है।
हार्दिक आभार सहित सादर

Anonymous said...

आदरणीय श्री जोशी साहब ने "मोह के मायाजाल से मुक्ति" नामक शीर्षक से जीवन दर्शन का एक उत्तम पाठ पढ़ाया है। इससे बहुत सारे बुद्धिजीवी और विवेकशील लोग लाभान्वित होंगे। बस इस सिद्धांत को अपने जीवन में उतारना है और हम पाएंगे कि हम बहुत सारे झंझटओं से मुक्ति पा गए।।
एक ऐसा ही प्रसंग या कहानी हमने बचपन में पढ़ी थी। यह यह कहानी भी जीवन दर्शन का ऐसा ही संदेश देती है। कहानी मैं संक्षिप्त में प्रस्तुत कर रहा हूं । एक ब्राह्मण बनारस से चारों वेद की शिक्षा पूर्ण कर घर लौटा। उम्मीद थी कि पत्नी, अन्य परिवार जन व मोहल्ले के सब लोग उसके ज्ञान का बहुत सम्मान करेंगे और अपने सिर आंखों पर बिठाएंगे ।सँयोग से पहली मुलाकात उसकी पत्नी से ही हो गई। जैसे ही विद्वान ने अपनी पंडिताई का रौब दिखाना शुरू किया कि पत्नी ने पूछा "पंडित जी साहब यह बताइए कि पाप का बाप कौन है।" पंडित जी तो सकपका गए। यह पाठ तो उन्हें नहीं पढ़ाया गया था। पत्नी ने उन्हें वापस लौटाया और कहा कि पहले यह पाठ पढ़ कर आओ, तब घर आना।
मरता क्या न करता, पंडित जी वापस बनारस की गलियों में घूमने लगे। पर कोई भी पत्नि के पूँछे गए प्रश्न का पाठ नहीं पढ़ा पाया। इस सुंदर नौजवान को विकट निराशा की हालत में देख एक चतुर वैश्या स्त्री ने नौजबान ब्राह्मण को इशारे से बुलाया और उनसे उनकी चिंता का कारण पूछा। कारण बताने पर वैश्या स्त्री ने विश्वास दिलाया कि वह यह पाठ जानती है और पंडित जी को पाठ सिखा देगी ।
निरा मूड़ ब्राह्मण थोड़ी हील हुज्जत के बाद "पाप का बाप" की शिक्षा पाने को उस वैश्या स्त्री के बताएं अनुसार उसके चबूतरे पर आने को तैयार हो गया। वैश्या ने फिर कहा कि आप नहा धो लीजिए , सुबह से कुछ खाया पिया नहीं है आपने। अतः कृपया अपनी रसोई इसी चबूतरे पर बना लीजिए। ब्राह्मण इसके लिए तैयार हो गया। फिर वैश्या बोली आप क्यों कष्ट करते हो, मैं ही अपने हाथों से आपका भोजन बना देती हूं, और मैं इसके लिए आपको पांच स्वर्ण मुद्राएं दूंगी। पंडित जी इसके लिए मान गए। फिर उस चतुर वैश्या स्त्री ने नवयुवक ब्राह्मण को लालच दिया कि भोजन तो मैंने आपका बना ही दिया है , लेकिन अगर आप एक ग्रास मेरे हाथ से ले लेंगे तो मेरा जीवन धन्य हो जाएगा और मैं इसके लिए आपको 10 स्वर्ण मुद्राएं दूंगी । यह भी कहा कि यह बात किसी को पता भी नहीं चलेगी। पंडितजी ने लालच में आकर उस वैश्या स्त्री से भोजन का एक ग्रास लेने के लिए जैसे ही मुंह खोला, उस वैश्या ने एक जोर का थप्पड़ पंडित जी को लगाया और बोला- यही लोभ प्रवृत्ति ही "पाप का बाप है"।
आप चारों वेदों के ज्ञाता, एक उच्च कोटि के ब्राह्मण लोभ के वशीभूत होकर, वैश्या के चबूतरे पर आए, स्नानादि किया और फिर हमारे हाथ से भोजन बनबाया और अब खाने को भी तैयार हो गए। आपका विवेक कहां मर गया था।। आगे से ध्यान रखना यह लोभ/ लालच ही बाप का बाप है।

और यह लोभ लालच ही व्यक्ति को नरक में धकेल देता है। बस कहानी समाप्त हुई।।
आशा है आपको यह दृष्टान्त अच्छा लगा होगा।।

विजय जैन भोपाल, 9589833133
vk.jain@yahoo.co. in
(आदरणीय श्री जोशी जी का बीएचईएल का एक पूर्व साथी)।।

Dil se Dilo tak said...

व्यस्त नहीं थे सर.. पूरा पढ़े.. लालच बुरी बला है.. अच्छे उदाहरण के माध्यम से बताया आपने.. बच्चों की नैतिक शिक्षा की किताबों लायक लेख है 👌🏼🙏🏼

Ananda C said...

धन्यवाद सर जी

Kishore Purswani said...

अति उत्तम

Anonymous said...

Daisy C Bhalla

Well written infact it touched core- we are caught in rigmarole n deny it to our own self.

विजय जोशी said...
This comment has been removed by the author.
विजय जोशी said...

So Nice of you Dear Daisy, extremely happy to see you here. Thanks very much. With Regards

विजय जोशी said...

अद्भुत अद्भुत मेरे हमनाम मित्र भाई विजय जैन जी,
सेवाकाल के दौरान व्यस्तताओं के मद्देनजर कभी आपकी इस नैसर्गिक प्रतिभा से रूबरू नहीं हो पाया। मेरा यह सौभाग्य देर से उदय हुआ। खैर देर आयद दुरुस्त आयद।
वर्णित प्रसंग अधिक रुचिकर है। यही मित्रता बनी रहे इसी कामना के साथ । हार्दिक आभार। सादर

Anonymous said...

हमारे मुख्यमंत्री श्री योगी जी की कृपा से उत्तर प्रदेश में अति सुन्दर एवं शान्त माहौल है। MP व MLA माफिया जो पहले सरकार चलाते थे, अब जान की भीख माँग रहे हैं। सरकार व पुलिस का इक़बाल क़ायम हो गया है।

Vijendra Singh Bhadauria said...

हम सब भी जाने अनजाने इस कुएं में गिरते रहते हैं।
आपके लेख हमें उन से बाहर आने में सहायता प्रदान करते हैं।
धन्यवाद

विजय जोशी said...

प्रिय डॉ. विजेंद्र, आप तो मेरी नज़र में निष्कामकर्मी हैं। मेरे हर online lecture के power point presentation आपने सहर्ष बनाये। हार्दिक धन्यवाद सहित सस्नेह

Anonymous said...

श्रीमान आदरणीय जोशीजी साहब, सादर नमस्कार । बीएचईएल में आपके साथ एक ही विभाग में करीब 24 वर्ष साथ रहने का मौका मिला। इस दौरान आपसे काफी कुछ सीखने को मिला। आपके कुछ गुण तो नैसर्गिक और देव-प्रदत्त हैं।

मेरा यह सौभाग्य रहा कि हम लोग लंबे समय तक एक ही विभाग में साथ रहे। फिर आपका नाम राशि होने से और दोनों के इनिशियल "VJ" होने से आपका प्रेम सानिध्य मिलना स्वाभाविक ही था।

और जैसा कि मैं पूर्व में लिख चुका हूं कि कोई आपके संपर्क में आए और आपके व्यक्तित्व का स्थाई प्रभाव उस पर ना पड़े, यह संभव नहीं है। अतः हमें आपके बहुत सारे गुणों का समावेश करने का सौभाग्य मिला। यद्यपि आपके पास अगर 101 सदगुण हैं तो उनमें से शायद 11 अच्छी बातों को मैं भी आपसे आत्मसात कर पाया।
वास्तव में आप बहुत बहुयामी है और आपका व्यक्तित्व सर्विस के दौरान भी और सेवा उपरांत तो और भी विशाल हो गया।
हम भगवान श्री 1008 जिनेन्द्रदेव जी से प्रार्थना करते हैं कि आपकी कीर्ति की पताका हमें कभी क्षितिज में दिखें, तो अति प्रसन्नता होगी। आपको अत्यंत हार्दिक व अनन्य स्नेह पूर्ण शुभकामनाओं के साथ, शेष शुभ !!
आपका ही अनुगामी साथी !!
विजय जैन, 9425604220 (W) // 9589833133 ..

Anonymous said...

प्रिय बंधु विजय जैन,
आपके स्नेह और सद्भावना के लिये क्या कहूं। जिस देश में सरकारें पूरे 5 वर्ष ठीक से नहीं चल पातीं वहां संबंध 25 वर्ष की अवधि तक निर्मलता पूर्वक प्रवाहित होता रहे, इससे बड़ा सुख भला क्या हो सकता है। आपका साथ मेरे लिए सत्संग समान रहा है और आगे भी रहेगा।
- हम सुख दुख के साथी है एवं एक दूसरे का सहारा। आदतों से आधा जैन मुझे माना ही जा सकता है। मुनि क्षमासागर, तरुण सागर जी लेकर बड़े बाबा तथा प्रमाण सागर जी तक से आशीर्वाद का सौभाग्य मिला है मुझे।
- में निर्गुणी ही हूं और वही रहना चाहता हूं। अच्छाई तो आपके नज़रिये में है
- आपके उद्गार मुझे साहस और शक्ति दोनों प्रदान करते हैं। अस्तु हार्दिक आभार सहित सादर

सुरेश कासलीवाल said...

जोशी जी, लोभ और तृष्णा की गर्त में पड़ा व्यक्ति आसानी से निकल नहीं पाता यह बात एक छोटे से दृष्टांत से आपने अच्छी तरह से समझाई है। मुझे इस वक्त आदि शंकराचार्य का वह कथन याद आता है
अंगं गलितं पलितं मुंडम्
दशन विहिनं जातं तुंडम्
वृद्धों याति गृहित्वा दंडम्
तदपि न मुंचत्याशा पिंडम्
अर्थात घोर बुढ़ापे में भी व्यक्ति का लोभ छूटता नहीं।

विजय जोशी said...

आदरणीय, बहुत गूढ़ तत्व को खोज साझा किया आपने। विरासत को विगत बनाने की भूल का ही परिणाम है आज का परिदृश्य। हार्दिक आभार सहित सादर