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Jan 1, 2023

दोहेः सुबह सुहानी धूप

 - शील कौशिक

चकाचौंध है शहर में, पर चुप हैं मनमीत।

हवा शहर की ले गई, गौरैया के गीत।।

 

सोई है संवेदना, सोए हैं सम्बन्ध।

वासंती अहसास का, कैसे हो अनुबन्ध।।

 

चिड़िया बैठी डाल पर, रस्ता रही निहार।

बिछुड़े साथी जब मिलें, आए तभी बहार।।

 

हवा निगोड़ी गुम हुई, कहाँ गयी बदजात।

बढ़ी निराशा वृक्ष की, चुप बैठे हैं पात।।

 

ऋतुपति की पदचाप सुन, उपवन करे पुकार।

कोयल-भँवरे, गुल-कली, दौड़े बाँह पसार।।

 

हुलस-हुलसकर कह रही, गेहूँ की हर बाल।

सखी! सयानी हम हुईं, कब पहुँचें ससुराल।।

 

पवन बसंती छू गई, जब से मेरा गात।

चंचल मन उड़ता फिरे, कहने को निज बात।।

 

रंग और मकरंद की, हुई खूब बरसात।

मद में डूबे सब करें, ऋतु बसंत की बात।।

 

पीत चुनरिया ओढ़कर, निखरा सरसों वेश।

हरियाला परिधान है,  दुल्हन- सा परिवेश।।

 

त्याग-भावना फूल की, देती है संदेश।

कुछ दिन का जीवन मिला, महकाओ परिवेश

 

ठिर-ठिर सर्दी आ गई, जमी धूप में खाट।

तेज हवा ज्यों ही चली, लगी धुंध की बाट।।

 

था-थैया कत्थक करे, सुबह सुहानी धूप।

कौतुक यह सब देखते, कैसा रूप अनूप।।

 

करके माथे पर तिलक, सकुचाती है धूप।

मैं भी भैया क्या करूँ, मैका लगे अनूप।।

 

कुहरे का पहरा लगा, प्रकृति हो गई मौन।

सूरज दादा हैं छुपे, टक्कर ले अब कौन।।

4 comments:

विजय जोशी said...

बहुत ही सुंदर

Anonymous said...

बहुत सुंदर दोहे। बधाई

Anita Manda said...

एक से बढ़कर एक दोहे।

Anonymous said...

बहुत सुंदर दोहे। बधाई शील जी। सुदर्शन रत्नाकर