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Oct 1, 2022

व्यंग्यः एक और युग का अंत

- विनोद साव

युग प्रवर्तन अब दिनों दिन आसान होता जा रहा है। हर क्षेत्र में प्रवचन देने वाले अब केवल प्रवचनकार नहीं रहे वे प्रवर्तक हो रहे हैं। वे प्रवचनकार की मुद्रा में नहीं हैं; बल्कि किसी प्रवर्तक की मुद्रा में आ गए हैं। वे और उनके समर्थक ये मानकर चल रहे हैं कि उनके गुरु महराज अब किसी सिद्धांत के ही नहीं बल्कि समूचे युग के प्रवर्तक हो गए हैं। सम्पूर्ण युग का अब वही दिशा निर्देश करेंगे। वही धरम करम की बात करेंगे और वही सरकार चलाएँगे। संस्कृति की परिभाषा वे ही व्याख्यायित करेंगे और उन्हीं की कलाकारी होगी। दंगल में वे उतरेंगे और सबका मंगल वे करेंगे। उनका जब मन नाचेगा ऊँची छलांग लगाएँगे, जब मन डूबेगा समाधि लगा लेंगे। समाधि स्थल पर भीड़ थी। बाहर जय जयकार थी – ‘बाबा बाहर आ गए?’ किसी श्रद्धालु की आवाज आई।

‘आ जावेंगे बाबा’ संयत स्वर में एक सहायक ने कहा।

‘कुछ दिव्य सन्देश देंगे?’

‘देंगे देंगे.. सब कुछ देंगे।’ सहायक ने आश्वस्त किया।

‘हाँ.. जब इतने दिनों की समाधि लगाई थी, तब कुछ न कुछ तो प्राप्त होगा?’ बाहर लोगों को भी यही विश्वास था।  बाबा लंगोटी सहित बाहर आ गए थे।  अपने सिकुड़े हुए पेट को हाथ में लिए हुए थे, कहा ‘मुझे भीतर पता चल गया था सत्ता परिवर्तन होने का। इस परिवर्तन के पीछे मेरी शक्ति लगी है।  चिंता की कोई बात नहीं, अब सब के अच्छे दिन आ रहे हैं।’

भीड़ में किसी ने चिंतापूर्ण होकर कहा ‘लेकिन ये तो लंगोटी में हैं। ये दूसरों को कितना देंगे? ये क्या नहाएँगे और क्या निचोड़ेंगे?

‘अरे दादा.. उनके पास लंगोटी तो है । बहुतों के पास तो वो भी नहीं है।’

उनके समर्थकों ने उन्हें घेरा और उन्हें कार में लेकर चलते बने। एक सहायक ने बताया कि ‘समाधि लगाकर बाबा ने जो सत्ता परिवर्तन किया है, इसके कारण उन्हें दिल्ली से बुलावा आया है। अब इस देश में एक नए युग की शुरुआत होगी।  हमने पुराने युग को उखाड़ फेंका है।’ उपस्थित जन ने देखा कि बड़े से बड़ा प्रवर्तक भी किस तरह राज्याश्रय के सहारे टिका होता है।  भीतर उन्हें जो प्राप्त हुआ है उसका प्रतिसाद उन्हें बाहर मिलेगा। उनके अच्छे दिन आ गए हैं।

साहित्य के एक युग प्रवर्तक जी सड़क किनारे मिल गए थे। उनके बहुआयामी व्यक्तित्व में एक साथ कई बातें थीं।  वे जब भी दिखाई देते उनके हाथ में चौबीस इंची साइकिल होती थी। वे अक्सर साइकिल चलाते हुए कम दिखते बल्कि साइकिल को लेकर पैदल चलते हुए अधिक दिखते थे। उनके हाथ में साइकिल थी पर उनके पाँव जमीन पर थे। कुर्ता- पाजामा पहने हुए थे। इक्कीसवीं सदीं में भी उनके सिर के बाल उन्नीसवीं सदीं के कवियों की तरह लहलहा रहे थे।  मूँछे घनी थीं पर मूँछों से भी ज्यादा घनी उनकी भौंहें थीं। उनका चेहरा भौंह प्रधान था। एक बारगी उनके चेहरे को देखने से उनके चेहरे पर दो मूँछें दिखलाई देती। एक नाक के नीचे और दूसरी नाक के ऊपर। उनके पुराने मित्र उन्हें साधिकार कह उठते थे कि ‘तुम अपनी भौंहों को कंघी कर उनकी चोटी बाँध लिया करो।’ तब वे कहने वाले को टिपिर- टिपिर देखते थे।

‘इधर बहुत दिनों से आपका लिखा कुछ दिखा नहीं।’ मैंने उन्हें पूछा।  वे रुके नहीं और साइकिल लिए पैदल चलते हुए ही बोले कि ‘अब लिखने के लिए रह भी क्या गया है?’

‘पर आपके समकालीन तो अभी भी लिखते हुए दिख रहे हैं।’ मैंने उनसे साहित्य चर्चा छेड़ी।

‘जो दिख रहे हैं वे क्या लिख रहें हैं। यह भी देखा जाना चाहिये।’

‘पर किताबें तो खूब छप रहीं हैं!’

‘छप रहीं हैं लेकिन उनमें कृतियाँ सामने नहीं आ रही हैं। हर गली मोहल्ले में स्क्रीन प्रिंटिंग की दुकान खुल गई हैं। उन्हें भी तो जीने के लिए काम चाहिए। ऐसे में जो लिख रहे हैं वे लेखक तो जीवित हैं पर उनकी रचनाएँ मरी हुई है।’

‘तो अब आपकी क्या योजना है?’ मैंने उन्हें ससम्मान पूछा।

‘हमारी अब कुछ नहीं हैं । बस सम्मान सेवी संस्थाएँ हैं। वे बुलाते हैं हम चले जाते हैं। आज भी ऐसे ही एक सम्मान ग्रहण के लिए जा रहा हूँ।’  सम्मान के लिए उनके साइकिल पर सवार होने का समय आ गया था। वे पैडल मारते हुए निकल पड़े।  ये साहित्य के एक युग प्रवर्तक थे, सच्चे साहित्य साधक थे।  साहित्य में उनके युग की शुरुआत साइकिल से हुई थी और साइकिल में ही खतम हो रही थी।  वे यह भी प्रमाणित कर रहे थे कि चाहे जितना भी बड़ा युग हो उसे साइकिल में ढोया जा सकता है।

‘साइकिल में ही क्यूँ। ट्रेनों और जहाजों में भी ढोने वाले लोग हैं।’ एक सुधि श्रोता ने ध्यानाकर्षण किया।  संस्कृति समागम में जो युग प्रवर्तक आ रहे हैं वे तो सब ट्रेन ए. सी. क्लास और एरोप्लेन में आ जा रहे हैं। उनका कहना है कि ‘हम इक्कीसवीं सदी में संस्कृति का बोझा साइकिल में नहीं ढो सकते। संस्कृति का क्या हम अपना खुद का बोझा भी साइकिल में नहीं ढो सकते।’  सुधिगण कहते हैं ‘देखा नहीं। वाजपेयी जी को। वे रोज सुबह दिल्ली से संस्कृति पर व्याख्यान देने निकलते हैं तो शाम-रात तक दिल्ली वापस आ जाते हैं। वे हवाई टिकटों को ही ओढ़ते बिछाते हैं।  वे हमारी संस्कृति के आई. एस. आई. मार्का प्रवर्तक हैं। वे संस्कृति की हवा को हवाई टिकटों पर ही फैलाते हैं। हालाँकि हमारे इन संस्कृति प्रवर्तकों की वैसी हैसियत नहीं बनी है जैसी यूरोप में हैं जहाँ प्रवर्तकों के व्याख्यान सुनने के लिए टिकट बेचे और खरीदे जाते हैं।  यहाँ अगर इनके टिकट बेचने लगें तो फिर इनकी हवाई यात्रा बंद हो जाएगी। हवा निकल जाएगी। उनके हवा हवाई सांस्कृतिक प्रवर्तन के एक युग का अंत हो जाएगा।

आजकल बहुत से युग प्रवर्तकों की गाथा श्मशानों में गूँजती है।  पहले शब्द छोटे और ओछे जान पड़ते थे क्योंकि ‘जग भूखे भावना’ पर विश्वास था। पर अब शब्दहीन भावना के भाव गिरे हैं। चुप्पी भरे आँसुओं का मोल नहीं है। अब इन आँसुओं से पगे कुछ शब्द हो जाएँ, लच्छेदार बातें हो जाएँ। राग-विराग में कुछ गीत हो जाएँ। तब जाकर गमगीनों की महफ़िल सजेगी।  युग प्रवर्तक को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।  कार्यक्रम संचालक सामने आए और अपने को ग़मगीन किया फिर शुरू हो गए:  टोपी शुक्ला जी हमारे सच्चे युग प्रवर्तक थे। वे अपने दौर के भले इंसान थे। ‘ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर’ की सूक्ति पर बिलकुल खरे उतरते रहे।  ‘ना उधो से लेना ना माधो को देना’। कोउ नृप होई हमें का हानि के विरक्त भाव से उन्होंने जीवन को जिया और सदैव अपने बनाये मार्ग पर ही चले थे। आज हम जो शब्दांजलि यहाँ देंगे वही उनके प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी। उनके साथ ही एक अद्भुत आत्म-केंद्रित युग का अंत हुआ।

‘यदि इसी तरह लोग युग- युगों का अंत करते रहेंगे तो हमारे लिए बचेगा क्या ? हम कहाँ जायेंगे? किस युग में रहेंगे? हमारे जीने के लिए भी कोई युग रहेगा कि बस हर प्रवर्तक की तरह मामला खल्लास?’ किसी नई पीढ़ी के ओजस्वी इंसान का विरोधमय स्वर सुनाई दिया।

‘बचेगा आप के लिए भी बचेगा।  आपके साथ भी कोई न कोई युग जायेगा। आप भी अपने युग के एक प्रवर्तक हो सकते हैं। जिस तरह चन्द्रमा के साथ उसका वातावरण रहता है, सूरज के साथ उसका वातावरण होता है उसी तरह अपना वातावरण आप बना, आपके साथ आपका वातावरण होगा। अपने युग का अंत आप स्वयं करेंगे कोई दूसरा भांजी नहीं मारेगा। निश्चिन्त रहें।

‘पर देश भी आजाद हो गया है। लड़ने के लिए कोई लड़ाई बाकी नहीं रह गई है। साहित्य में अंग्रेजी का बोलबाला हो रहा है।  हम लिखें किस भाषा में और कौन पढ़ेगा? हमारे मूल्यवान विचारों का होगा क्या ? जनता जनार्दन भजन कीर्तन में भिड़ गई है । हमारी राग सुनेगा कौन? जो बच गए हैं वे आइनाक्स और शापिंग माल से बाहर निकल नहीं रहे हैं – हमारे हुनर को देखेगा कौन ? हमारा युग हमारे हाथ में नहीं आ रहा है आखिर किस विषय का प्रवर्तन करेंगे हम ?

‘आप सारे युग प्रवर्तकों के योगदान का स्मरण करने वाली एक संस्था का गठन कर लें। सरकारी भाषा में इसे एन. जी. ओ. कहते हैं। किसने इतिहास बनाया ? किसने पुराने कीर्तिमान को भंग किया? किसने नए कीर्तिमान गढ़े? किसने अपने युग को प्रभावित किया और किसने दुष्प्रभावित किया ? इन सबका लेखा- जोखा आप रखें।  युग प्रवर्तकों के जन्म दिवस या उनके पुण्य दिवस, उनकी जन्म शताब्दी पर कार्यक्रम करवाएँ और नेता अभिनेता लोगों को बुलवाएँ और अपने सम्पर्क बढ़ाएँ।  इसके लिए आप अनुदान प्राप्त कर सकते हैं। चंदा देने वाले आपके सामने आएँगे। ऐसा कर आप एक नए युग की शुरुआत कर सकते हैं। शासन- प्रशासन में आपके रुके- पिटे काम भी समय आने पर निपट जाएँगे।’ यह सुनकर वे जोश से भर गए और योजना की रूप- रेखा बनाने निकल पड़े।

‘मेरे साथ भी एक युग का अंत हो जायेगा ऐसा लग रहा है।’ षष्ठिपूर्ति संपन्न महाशय मेरे सामने खड़े थे।

‘आपने क्या किया महोदय?’ मैंने जिज्ञासु की भांति उन्हें देखा।

‘18 की उम्र में नौकरी शुरू की थी, 60 में रिटायर हो रहे हैं। 42 साल नौकरी कर ली है। विगत बीसवीं शताब्दी की आधी सदी को पार कर लिया और अब 21 वीं सदी के भी 20 बरस निकाल लिये हैं। चार बच्चे पैदा किए उन्हें भी पाल पोसकर बड़ा कर दिया, सबका ब्याह कर दिया, वे भी लग गए सब अपनी- अपनी लाइन पर। सरकार की कृपा से अच्छा खासा मकान है, दो चार प्लाट हैं। मोटर गाड़ी है।  इस युग में हमने सब कर तो लिया है और क्या होना?’

नौकरी में थे वे रिटायर हो रहे हैं। उनके साथ एक बड़े युग का अंत हो रहा है। कार्यालयीन काम काज में अपने युग का प्रवर्तन किया। विभागीय दायित्वों के दौरान फाइलों को लटकाने, लाल फीताशाही दिखाने विभागीय सम्पदा को अपना समझ भरपूर दोहन करने में उनका जवाब नहीं था। जाहिर है ऐसे तेजस्वी जन की कमी तो उनके विभाग वालों को शिद्दत से महसूस होगी।  उनके विदाई समारोह में विभाग वाले उसांसे भरते हुए कह रहे थे कि भई। कुछ भी हो गुप्ता साहब गुप्ता साहब थे।  उनकी जगह कोई नहीं ले सकता।  इस विभाग में वे हमारे पथ प्रदर्शक थे उनकी सेवा-निवृति के साथ ही हमारे विभाग में एक और युग का अंत हुआ।

सम्पर्कः मुक्तनगर, दुर्ग 491001, मो। 9009884014

1 comment:

Anonymous said...

आज की परिस्थितियों,व्यवस्थाओं पर करारा तंज करता आलेख। बधाई। सुदर्शन रत्नाकर