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Oct 1, 2022

उदंती.com, अक्टूबर - 2022

चित्रकारः डॉ. सुनीता वर्मा
वर्ष - 15, अंक – 2

शुभ संकल्प हृदय में जागें,

दुनिया को सुखी बनाएँगे।

रोग-शोक घर-घर से भागें,

मिल ऐसी ज्योति जगाएँगे।

-रामेश्वर  काम्बोज ‘हिमांशु’

                        इस अंक में

अनकहीः उजाले का संकल्प... -डॉ. रत्ना वर्मा

पर्व-संस्कृतिः जस जंवारा- माँ दुर्गा का यशोगान - डॉ. सुनीता वर्मा

वन्य जीवनः चीतों के स्वागत में देश - प्रमोद भार्गव

कविताः यह दीप अकेला  - अज्ञेय

आलेखः ढाई आखर सिखाने वाले कवि कबीर - डॉ. शिवजी श्रीवास्तव

कविताः जीवन के अँधेरों में - रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

कहानीः दीवाली की मिठाई - हरीश कुमार ‘अमित’

सामयिकः कार्पोरेट गिफ्ट में छिपी सम्बंध प्रगाढ़ करने की कला - डॉ. महेश परिमल

व्यंग्यः एक और युग का अंत - विनोद साव

प्रकृतिः सदी की सबसे भीषण बाढ़ - स्रोत फीचर्स

सभ्यता- संस्कृतिः अस्मिता खोती मोक्षदायिनी नदियाँ -प्रो. अश्विनी केशरवानी

प्रेरकः प्रकाश की एक किरण - ओशो

बालकथाः नकलची नाई - गिजुभाई बधेका

कविताः मन का रावण -डॉ. उपमा शर्मा

कविताः हथियार नहीं डालूँगी - रश्मि विभा त्रिपाठी

लघुकथाः मुआयना – स्व. हरदर्शन सहगल

लघुकथाः सवाल माँ का - श्याम सुन्दर अग्रवाल

किताबेंः मल्हार गाते हुए सोदेका- रमेश कुमार सोनी

कविताएँः ओठंगनी, जिउतिया पर्व  - सारिका भूषण

आधुनिक बोध कथाः10- भिखारी बनने की कथा - सूरज प्रकाश

जीवन दर्शनः गरीबी बनाम अमीरी की इबारत - विजय जोशी 

पर्यावरणः दीपावली, पटाखे और प्रदूषण -सुदर्शन सोलंकी

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अनकहीः उजाले का संकल्प...

-डॉ. रत्ना वर्मा

उजालों के त्योहार दीपावली की इस बार बहुत जोर-शोर के साथ मनाने की तैयारी चल रही है। भारत के सभी त्योहार इस बार कुछ अधिक ही उत्साह के साथ मनाए जा रहे हैं। दो साल के लॉकडाउन के बाद तो ऐसा होना ही था। लॉकडाउन ने जहाँ एक ओर हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक और पारिवारिक रिश्तों को कुछ तोड़- सा दिया था, बहुतों ने बहुत कुछ अपना खोया था। वहीं उस दौरान हमें कुछ अच्छी बातें भी सीखने को भी मिली थीं, जिसे लॉकडाउन खत्म होते ही हम भुलाते जा रहे हैं। हमने पिछले दो सालों में अपनी जीवन शैली में अनेक बदलाव लाए थे - जैसे अपने पर्यावरण के प्रति दिखावे के लिए नहीं;  बल्कि सच में जागरूक हो गए थे, खान- पान को लेकर भी बहुत सावधानी बरतनी शुरू कर दी थी, और सबसे जरूरी रिश्तों की अहमियत को इस दौरान सबने बहुत ही करीब से महसूस किया था;  इसलिए रिश्तों के प्रति अधिक संवेदनशील हुए थे। आधुनिकता की ओर बढ़ रहे भारत जैसे देश में मानवता, सहयोग, संवेदनशीलता जैसी भावना विलुप्त होते जा रही थी। अनेक ऐसी कई अच्छी बातों के प्रति हम सचेत हुए और जीवन को अधिक गंभीरता से लेना शुरू किया।

इसी प्रकार इस वर्ष आजादी के अमृत महोत्सव पर 75 वर्ष की आजादी को भी पूरे देश ने बहुत जोर- शोर से मनाया। प्रत्येक देशवासी ने अपने घरों में झंडा फहराकर अपने देशभक्त होने का परिचय दिया। अनेक अभियान चलाए गए, संकल्प लिये गए। प्रधानमंत्री ने पंच प्रण लेकर 2047 तक देश को बहुत आगे ले जाने की बात कही।  उन्होंने आगामी 25 साल के कालखंड को ‘अमृत काल’ का नाम देकर अपनी आँखों के सामने इसे विकसित भारत बना कर पूरा करने की बात कही। इसी प्रकार जनता से एक संकल्प लेने के लिए प्रोत्साहित किया गया,  जो किसी भी रूप में हो सकती थी।  किसी ने बीमारों की सहायता का संकल्प लिया,  तो किसी ने अपने शहर अपने मोहल्ले या गली को साफ- सुथरा करने का संकल्प लिया।  किसी की पढ़ाई के लिए सहयोग हो, या फिर पुस्तकें प्रदान करना हो।  जैसे जब किसी ने कहा कि उसने अपने पास रखी सैकड़ों पुस्तकों को पुस्तक प्रेमियों को देने का संकल्प लिया, अपने घर के एक कोने को पुस्तकालय बना दिया या किताबें किसी पुस्तकालय को दे दिया। अच्छा काम करने के अनेक विकल्प हैं।

लेकिन इसे विडंबना नहीं तो और क्या कहेंगे कि जब पूरा देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा था,  तब देश में अनेक भ्रष्टाचार के मामले भी उजागर हो रहे थे। एक ओर तो पंच प्रण लेकर  2047 तक देश को विकसित भारत बनाने का सपना दिखाया जा रहा था, वहीं दूसरी ओर कुछ लोग आजादी के बाद से ही देश- सेवा के नाम पर देश का पैसा अपनी झोली में भरकर देश को खोखला करने की साजिश में लगे हुए थे। भला ऐसे में कैसे हम विकसित देश की कल्पना कर सकते हैं।  इस बार जिस तरह के भ्रष्टाचार के मामले उजागर हुए हैं, नोटों के बंडल और सोने की ईंटे जिस तादाद में बरामद हुई हैं, उन्हें देखकर तो यह दीवाली काली दीवाली के नाम से याद की जानी चाहिए।

अब जरा ताजी और शुद्ध हवा की बात करें। जब लॉकडाउन था तब पर्यावरणविदों ने कहा कि मात्र एक दिन के लॉकडाउन से जब पर्यावरण का स्तर इतना सुधर सकता है, तो यह लॉकडाउन तो सामान्य दिनों में भी पर्यावरण की शुद्धता के नाम पर प्रतिवर्ष की जानी चाहिए।

पर मनुष्य तो अपने स्वभाव को बदलना ही नहीं चाहता जैसे ही कोरोना के भय से मुक्त हुए पुरानी बाते भूल कर फिर वही पुरानी भेड़ चाल चलने लगते हैं। इस बार गणेश चतुर्थी के अवसर पर सारे नियम- कायदों को ताक में रखकर बड़ी से बड़ी गणेश प्रतिमा बनाने की अनुमति दे दी गई।  जाहिर है फिर देश भर के नदी तालाब गणेश प्रतिमाओं के विसर्जन के बाद प्रदूषित हो गए। जाहिर है ऐसे माहौल में इस बार दीपावली पर पटाखे फोड़ने की पाबंदी पर भी छूट मिलेगी और लोग उत्साह और उमंग के नाम पर बिजली के लट्टुओं से अपने घरों को और ज्यादा रोशन करेंगे और इतने पटाखे फोड़ेंगे कि पिछले दो सालों में प्रदूषण को कम करने का जो संकल्प हमने लॉकडाउन के दौरान लिया था, वह सब धरा का धरा रह जाएगा।

बेहतर कल के लिए प्रत्येक इंसान प्रयत्नशील रहता है। वह चाहता है उसका कल खुशियों से भरा-पूरा हो चाहे वह देश की बात हो समाज की बात हो या परिवार की। सब कोई खुशियों भरे माहौल की कामना करते हुए जीवन जीना चाहते हैं। बेहतर कल के लिए सपने देखना, उन्हें पूरा करना, सकारात्मक सोच रखना अच्छा है;  परंतु इन सब को पूरा करने के लिए प्रयत्न भी करना पड़ता है। बेहतर काम करने के लिए स्वच्छ वातावरण, बेहतर माहौल और रहने लायक सामाजिक आर्थिक सुरक्षा भी जरूरी है। सिर्फ प्रण कर लेने से कुछ नहीं होता। उन्हें पूरा करने के लिए प्रयास करना होता है।

ऐसे में क्या हमें गंभीरता से सोचना नहीं चाहिए कि काली दीवाली मनाने के बजाय स्वच्छता और प्रदूषण से मुक्त उजालों वाली दीपावली मनाएँ। क्यों न ऐसा संकल्प लें कि देश को कालाबाजारी, जमाखोरी, मुफ्तखोरी और काली कमाई करने वालों के चंगुल से मुक्त करके इस दीवाली हर घर की चौखट पर मिट्टी के पाँच दीये जलाकर दीवाली मनाएँ।

पर्व- संस्कृतिः जस जंवारा - माँ दुर्गा का यशोगान

- डॉ. सुनीता वर्मा

इस चित्र में  जंवारा विसर्जन के लिए कतारबद्ध होकर जाती
 हुई महिलाओं को डॉ. सुनीता ने बड़ी खूबसूरती से उकेरा है
छत्तीसगढ़ के त्योहार प्रकृति के गहरे सानिध्य से उपजे उल्लास हैं। प्रकृति के निरंतर परिवर्तन की लय को हम लोग त्योहारों रूप में मनाते हैं। हमारे उत्सव के रूप भी प्रकृति द्वारा संचालित है । मातृशक्ति के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन का पर्व नवरात्र है,  जिसे वर्ष में दो बार मनाते हैं- चैत्र मास में और आश्विन मास में।

जस जँवारा माँ दुर्गा का यशोगान है जो नवरात्रि में देवी स्थापना से नौ दिनों तक देवी मंदिर प्रांगण में गाया जाता है छत्तीसगढ़ की ग्राम देवियाँ  महामाया, बम्लेश्वरी, दंतेश्वरी, मावली माता, शीतला माता का मंदिर माता देवाला कहलाता है। अखंड ज्योति कलश की स्थापना के साथ -साथ पहले दिन जंवारा बोया जाता है। नौ दिनों तक इसकी सेवा की जाती है, जिसकी अभिव्यक्ति ‘जस’ गीतों के माध्यम से की जाती है । और नवमी के दिन उसका विसर्जन होता है। जब विसर्जन करने जाते हैं तो महिलाएँ निम्न गीत गाती हुई आगे बढ़ती हैं-

तुम खेलव दुलखा

रन बन रन बन हो

का तोर लेवय रइँय बरम देव

का तोर ले गोरइंया

का लेवय तोर बन के रक्सा

रनबन रन बन हो ..

इसी प्रकार फूलों से देवी माँ की साज शृंगार करती हुई महिलाएँ गाती हैं-

‘माता फूल गजरा गूँथव हो मालिन के देहरी,

हो फूल गजरा।

काहेन फूल के गजरा काहेन फूल के हार,

काहेन फूल के माथ मकुटिया सोलहों सिंगार…

चंपा फूल के गजरा चमेली फूल के हार,

जसवंत फूल के माथ मकुटिया, सोलहों सिंगार…

माता फूल गजरा…।’

पारंपरिक रूप से गाए जाने वाले ‘जस’ गीतों में माता की महिमा, शृंगार, स्थानीय देवियों का वर्णन एवं धार्मिक प्रसंगों को जोड़कर गाया जाता है जिसमें नित नए प्रयोग हो रहे हैं।

माँ आदिशक्ति के प्रति असीम श्रद्धा को प्रदर्शित करता ‘जसगीत’ स्वर लहरियों एवं मांदर, ढोल, मंजीरा, चाँग जैसे वाद्यों के माध्यम से ओजपूर्ण  शौर्य से भरे संगीत में लोगों के मन में आध्यात्मिक अलौकिक ऊर्जा का भाव उमड़ पड़ता है। लोग ‘जस गीत’ की स्वर लहरियों में थिरकते  हुए बोल -बम, बोल -बम कहते हुए माता के प्रति अपनी श्रद्धा प्रदर्शित करते हैं।

 मातृ शक्ति देवी दुर्गा की सखियाँ देवी धनैया और देवी कोदय्या का ज़िक्र गान में आता है। धान और कोदो छत्तीसगढ़ के प्रमुख फ़सल की देवियाँ हैं । इन देवियों का कोई मंदिर नहीं होता ये खेत खलिहानों में, जस जँवारा गीतों के माध्यम से लोगों के हृदय में निवास करती है। ... लोक गीतों में देवी दुर्गा मूल मातृका के रूप में आती हैं और उन्हें बूढ़ी-माय कहा जाता है।

"लिमवा के डारा मं गड़ेला हिंडोंलवा,

लाखों आये, लाखों जाये कौन ह झूले कौन ह झुलाए?

कौन ह देखन आए? बूढ़ी माय झूले

कोदैया माय झुलाए धनैया देखन आये।"

"कौन माई पहिरे गजरा? कौन माई पहिरे हार?

कौन माई पहिरे माथ मटुकिया

सोला ओ सिंगार मैया फूल गजरा

धनैया पहिरे गजरा कोदैया पहिरे हार।

बुढ़ी माई पहिरे माथ मटुकिया

सोलाओं सिंगार मैया फूल गजरा।।

प्राचीन काल में जब चेचक एक महामारी के रूप में पूरे गाँव में फैल जाता था तब गाँवों में चेचक प्रभावित व्यक्ति के घरों में इसे गाया जाता था।

शाम को पुरुष एक जगह इकट्ठे हो कर  गाँव की सड़कों से गुज़रते हुए माता देवालय की ओर गाते बजाते जाते हैं रास्ते में लोग जुड़ते ही जाते हैं।

मंदिर- प्रांगण में बैठकर घंटों ‘जस गान’ चलता रहता है। प्रथम दिन देवी के आह्वान के गीत होते हैं । देवी सिंह पर चढ़कर आती है । ‘जस गीत’ भक्तिपरक, प्रश्नोत्तर के रूप में गीत के बोल होते हैं । सभी देवी- देवताओं का आह्वान करते हुए गाते हैं - पहली मय सुमरेंव हों मइया चंदा सूरज ला. दूसरे में सुमरेंव हो तो आकाश हो माई ….सुमरन करने एवं न्यौता देने का यह क्रम लंबा चलता है। आकाश, पाताल, दसो दिशाओं के ज्ञात -अज्ञात देवी देवताओं को याद किया जाता है । जो कोई देव छूट गया हो तो फिर सवाल जवाब का क्रम चलता है।

गीतों में स्थानीय प्रसंग जीवन और पौराणिक कथाएँ भी होती हैं। पाँचवे दिन देवी के शृंगार वाले गीत गाए जाते हैं। अष्टमी के दिन हवन पूजन के साथ दुर्गा सप्तशती के मंत्रों से सारा वातावरण भक्तिमय हो जाता है। नौंवे दिन प्रातः मंदिर से ज्योत जँवारा को सिर में उठाए महिलाएँ कतारबद्ध होकर निकलती हैं। गीत में मस्त नाचते गाते भक्तों का कारवां नदी पहुँचता है जहाँ ज्योत जँवारा को विसर्जित किया जाता है । सभी भक्त माता को प्रणाम कर अपने गाँव की सुख समृद्धि का वरदान माँगते हैं । ‘जस गीत’ में माता के विदाई का गीत गाते हुए वे लौट जाते हैं।

आवरण चित्र 

उदंती का आवरण पृष्ठ पर इस बार डॉ. सुनीता वर्मा ने छत्तीसगढ़ में मनाया जाने वाला प्रमुख पर्व जस जँवारा के परिदृश्य को अपनी तूलिका से उकेरा है तथा यहाँ प्रस्तुत उपर्युक्त आलेख में जस जँवारा के बारे में जानकारी भी दी है। डॉ. सुनीता वर्मा अपनी पेंटिंग्स के माध्यम से रंग और प्रकृति के साथ पारंपरिक दृश्य एवं लोकजीवन को एक नया रूप तो देती ही हैं, साथ ही छत्तीसगढ़ की बेटी होने के नाते वे अपनी लोक संस्कृति के भी बहुत करीब हैं यही वजह है कि उनके चित्रों में छत्तीसगढ़ का लोकजीवन झलकता है। चित्रकला के क्षेत्र में राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना चुकी डॉ. सुनीता को छत्तीसगढ़ सरकार की अनुशंसा पर भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के तहत ललितकला अकादमी (राष्ट्रीय कला संस्थान) का जनरल काउंसिल मेंबर तथा चित्रकला और मूर्तिकला के लिए छत्तीसगढ़ शासन के संस्कृति परिषद में सदस्य मनोनीत किया गया है।

परिचयः जन्म: 1964, छत्तीसगढ़ राजनांदगाँव में,  शिक्षा : इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़ से मास्टर ऑफ फाइन आर्ट्स में पी-एच.डी., पुरस्कार : मध्य दक्षिणी सांस्कृतिक केंद्र नागपुर में फोक एंड ट्राइबल पेंटिंग पुरस्कार। अखिल भारतीय चित्रकला एवं मूर्तिकला में कालिदास पुरस्कार तथा कई राज्य स्तरीय सम्मान, प्रदर्शनीः  रायपुर, भिलाई, भोपाल, जबलपुर, उज्जैन, इंदौर के साथ देश के सभी बड़े शहरों दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद, केरल, कोलकाता, कोचीन, नागपुर आदि में चित्रकला प्रर्दशनी के साथ ही कई राष्ट्रीय कला -प्रदर्शनी प्रतियोगिता एवं चित्रशाला में भागीदारी।  सम्प्रतिः भिलाई छत्तीसगढ़ के दिल्ली पब्लिक स्कूल में आर्ट टीचर के रुप में कार्यरत उनका पता है- फ्लैट नं.-242, ब्लाक नं.-11, आर्किड अपार्टमेंट, तालपुरी, भिलाई (छत्तीसगढ़) , मो. 094064 22222       

वन्य जीवनः चीतों के स्वागत में देश

-प्रमोद भार्गव

लंबे प्रयास के बाद भारत में चीतों की वापसी श्पुोयर जिले के कूनो-पालपुर अभ्यारण्य में हो रही है। देश की आजादी के 75वें वर्ष के अमृत महोत्सव के उपलक्ष्य में पेट्रोलियम, पर्यावरण एवं प्राकृतिक ऊर्जा मंत्रालय ने अखबारों में विज्ञापन देकर इनके स्वागत की शुरूआत कर दी है। चीता लाए जाने के लिए भारत और नामीबिया सरकार के बीच समझौता हो चुका है। चीतों को अभ्यारण्य में लाए जाने के बाद करीब एक माह एकांत वास में रखा जाएगा। जिससे चिते यहाँ के वातावरण में ढल जाएँ। चीतों की सुरक्षा के लिए इन्हें जिस बाड़े में रखा जाना है, उस क्षेत्र में मौजूद 70 तेंदुओं को बाहर किया गया है और चीतों को भरपूर भोजन मिले, इसके लिए कुछ चीतल पेंच राष्ट्रीय उद्यान से लाए जा रहे हैं। 27 चीतलों की यह खेप आ भी चुकी है। हालाँकि इस पूरे क्षेत्र में हजारों की संख्या में चीतल, साँभर, नीलगाय, जंगली सूअर और खरगोश जैसे प्राणी मौजूद हैं। चीतों की पहली खेप में चार नर और चार मादा लाए जा रहे हैं। फिलहाल इन्हें पाँच किलोमीटर व्यास के बाड़े में रखा जाएगा। 

यह संयोग ही है कि करीब 75 साल पहले भारत की धरती से चीते विलुप्त हो गए थे, लेकिन अब सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से चीतों के पुनर्वास की अनुमति मध्य- प्रदेश सरकार के वन-विभाग को मिली थी। जिसपर अमृत महोत्सव के दौरान क्रियान्वयन होने जा रहा है। यह अनुमति राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) की याचिका पर दी गई है। टाइगर स्टेट का दर्जा प्राप्त मध्य- प्रदेश में इन चीतों को दक्षिण अफ्रीका से लाकर कूनो-पालपुर अभ्यारण्य में नया ठिकाना बनाया गया है। यहां पिछले दो दशक से चीतों को बसाने की तैयारी के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ बनाई जा रही हैं। दरअसल

, चीते को घास के मैदान वाले जंगल पसंद हैं और कूनो में घास के जंगल खूब हैं। हालांकि इन्हें बसाने के विकल्प के रूप में सागर जिले के नौरादेही अभ्यारण्य, राजस्थान के शाहगढ़ व जैसलमेर के थार क्षेत्र भी तलाशे गए थे, लेकिन इन वनखंडों में चीतों के अनुकूल प्राकृतिक आहार, प्रजनन व आवास की सुविधा न होने के कारण कूनो को ही ज्यादा श्रेष्ठ माना गया।

एक समय था जब चीते की रफ्तार भारतीय वनों की शान हुआ करती थी। लेकिन 1947 के आते-आते चीतों की आबादी पूरी तरह लुप्त हो गई। 1948 में अंतिम चीता छत्तीसगढ़ के सरगुजा में देखा गया था। जिसे मार गिराया गया। चीता तेज रफ्तार का आश्चर्यजनक चमत्कार माना जाता है। अपनी विशिष्ट एवं लोचपूर्ण देहयष्टि के लिए भी इस हिंसक वन्य जीव की अलग पहचान थी। शरीर में इसी चपलता के कारण यह जंगली प्राणियों में सबसे तेज दौड़ने वाला धावक है। इसलिए इसे जंगल की बिजली भी कहा गया। हालांकि भारत में चीतों के पुनर्वास की कोशिशें असफल रही हैं। दरअसल, दक्षिण अफ्रीका के जंगलों से 1993 में दिल्ली के चिड़ियाघर में चार चीते लाए गए थे, लेकिन छह माह के भीतर ही ये चारों चीते मर गए। चिड़ियाघर में इनके आवास, परवरिश व प्रजनन के पर्याप्त उपाय किए गये थे, लिहाजा उम्मीद थी कि यदि इनकी वंशवृद्धि होती है तो देश के अन्य चिड़ियाघरों व अभ्यारण्यों में ये चीते स्थानांतरित किए जाएँगे। हालांकि चीतों द्वारा चिड़ियाघरों में प्रजनन अपवाद घटना होती है। नतीजतन प्रजनन संभव होने से पहले ही चीते मर गए।

बीती सदी में चीतों की संख्या एक लाख तक थी, लेकिन अफ्रीका के खुले घास वाले जंगलों से लेकर भारत सहित लगभग सभी एशियाई देशों में पाया जाने वाला चीता अब पूरे एशियाई जंगलों में गिनती के रह गए हैं। राजा चीता (एसिनोनिक्स रेक्स) जिम्बाब्बे में मिलता है। अफ्रीका के जंगलों में भी गिने-चुने चीते रह गए हैं। तंजानिया के सेरेंगती राष्ट्रीय उद्यान और नामीबिया के जंगलों में गिने-चुने चीते हैं। प्रजनन के तमाम आधुनिक व वैज्ञानिक उपायों के बावजूद जंगल की इस फुर्तीली नस्ल की संख्या बढ़ाई नहीं जा पा रही है। यह प्रकृति के समक्ष वैज्ञानिक दंभ की नाकामी है। जूलॉजिकल सोसायटी ऑफ लंदन की रिपोर्ट को मानें तो दुनिया में 91 प्रतिशत चीते 1991 में ही समाप्त हो गए थे। अब केवल 7100 चीते पूरी दुनिया में बचे हैं। एशिया के ईरान में केवल 50 चीते शेष हैं। अफ्रीकी देश केन्या के मासीमारा क्षेत्र को चीतों का गढ़ माना जाता था, लेकिन अब इनकी संख्या गिनती की रह गई है। 

बीती सदी के पाँचवे दशक तक चीते अमरीका के चिड़ियाघरों में भी थे। प्राणी विशेषज्ञों की अनेक कोशिशों के बाद इन चीतों ने 1956 में शिशुओं को जन्म भी दिया, परंतु किसी भी शिशु को बचाया नहीं जा सका। चीते द्वारा किसी चिड़ियाघर में जोड़ा बनाने की यह पहली घटना थी, जो नाकाम रही। जंगल के हिंसक जीवों का प्रजनन चिड़ियाघरों में आश्चर्यजनक ढंग से प्रभावित होता है, इसलिए शेर, बाघ, तेंदुए व चीते चिड़ियाघरों में जोड़ा बनाने की इच्छा नहीं रखते हैं। भारत में चीतों की अंतिम पीढ़ी के कुछ सदस्य बस्तर- सरगुजा के घने जंगलों में थे, जिन्हें 1947 में देखा गया था। प्रदेश अथवा भारत सरकार इनके संरक्षण के जरूरी उपाय करने हेतु हरकत में आती, इससे पहले ही चीतों के इन अंतिम वंशजों को भी शिकार के शौकीन राजा-महाराजाओं ने मार गिराया और वन की इस तेज गति के ताबूत में अंतिम कील भी ठोंक दी। इस तरह भारतीय चीतों की नस्ल पर पूर्ण विराम लग गया था।

हमारे देश के राजा-महाराजाओं को घोड़ों और कुत्तों की तरह चीते पालने का भी शौक था। चीता शावकों को पालकर इनसे जंगल में शिकार कराया जाता था। राजा लोग जब जंगल में आखेट के लिए जाते थे, तो प्रशिक्षित चीतों को बैलगाड़ी में बिठाकर साथ ले जाते थे। इनकी आँखों पर पट्टी बांध दी जाती थी, जिससे यह किसी मामूली वन्य जीव पर न झपटे। जब शिकार राजाओं की दृष्टि के दायरे में आ जाता था, तो चीते की आँखों की पट्टी खोलकर शिकार की दिशा में हाथ से इशारा कर दिया जाता था। पलक झपकते ही शिकार चीते के कब्जे में होता। शिकार का यह अद्भुत करिश्मा देखना भी एक आश्चर्यजनक रोमांच की बात रही होगी ?

भारत के कई राजमहलों में पालतू चीतों से शिकार कराने के अनेक चित्र अंकित हैं। मुगल काल में अकबर ने सैंकड़ों चीतों को बंधक बनाकर पाला। मध्य प्रदेश में मांडू विजय से लौटने के बाद अकबर ने चंदेरी और नरवर (शिवपुरी) के जंगलों में चीतों से वन्य प्राणियों का शिकार कराया। नरवर के जंगलों में अकबर ने जंगली हाथियों का भी खूब शिकार किया। ग्वालियर रियासत में सिंधिया राजाओं ने भी चीते पाले हुए थे, लेकिन चीतों को पाले जाने का शगल ग्वालियर रियासत में बीसवीं सदी के अंत तक ही संभव रहा। मार्को पोलो ने तेरहवीं शताब्दी के एक दस्तावेज का उदाहरण देते हुए बताया है कि कुबलई खान ने अपने ठिकानों पर एक हजार से भी अधिक चीते पाल रखे थे। इन चीतों के लिए अलग-अलग अस्तबल थे। चीते इस पड़ाव की चौकीदारी भी करते थे। बड़ी संख्या में चीतों को पालतू बनाने से इनके प्रकृतिजन्य स्वभाव पर प्रतिकूल असर तो पड़ा ही, इनकी प्रजनन क्रियाओं पर भी बेहद प्रतिकूल असर पड़ा। गुलामी की जिंदगी गुजारने व सईस के हंटर की फटकार की दहशत ने इन्हें मानसिक रूप से दुर्बल बना दिया, जिससे चीतों ने विभिन्न शारीरिक क्रियाओं में रुचि लेना बन्द कर दिया। जब चाहे तब भेड़-बकरियों की तरह हांक लगा देने से भी इनकी सहजता प्रभावित हुई। चीतों की ताकत में कमी न आए इसके लिए इन्हें मादाओं से अलग रखा जाता था। बैलों की तरह नर चीतों को बधिया करने की क्रूरताएँ भी राजा-महाराजाओं ने खूब अपनाईं। इन सब कारणों से जंगल की इस बिजली की रोशनी मंद पड़ती गई और इक्कीसवीं शताब्दी के मध्य के आसपास एशिया भर में बुझ भी गई।

चिड़ियाघरों में चीतों की आयु 15-16 वर्ष तक देखी गई है। इनकी औसत उम्र 20 साल होती है। दरअसल एक ओर तो हम विलुप्त होते प्राणियों के सरंक्षण में लगे हैं, दूसरी तरफ आधुनिक विकास इनके प्राकृतिक आवास उजाड़ रहा है। पर्यटन से हम आमदनी की बात चाहे जितनी करें, लेकिन पर्यटकों को बाघ, तेंदुआ व अन्य दुर्लभ प्राणियों को निकट से दिखाने की सुविधाएँ, इनके स्वाभाविक जीवन को अंततः बुरी तरह प्रभावित करती हैं। यहाँ विचारणीय प्रश्न यह भी है कि जब चीता विलुप्ति के निकट पहुँच रहा था, तभी इसको बचाने के उपाय सफेद शेर की तरह क्यों नहीं किए गए ? चीते जैसे प्राणियों के आचार-व्यवहार के साथ संकट यह भी है कि ये नए जलवायु में आसानी से ढल नहीं पाते हैं।

सम्पर्कः शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी म.प्र.मो. 09425488224, 09981061100

कविताः जीवन के अँधेरों में

 - रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

जीवन के अँधेरों में

बाधा बने घेरों में

सभी द्वारे दीपक जलाए रखना ।

 

खुशियाँ ही जग को मिलें

मुस्कान के फूल खिलें

थोड़ी-सी रौशनी बचाए रखना ।

 

इन नयनों की झील में

झिलमिल हर कन्दील में

प्यार के कुछ दीये, सजाए रखना ।

 

वही धरा का रोग हैं,

जो स्वार्थ-भरे लोग हैं

तनिक दूरी उनसे, बनाए रखना ।

कविताः यह दीप अकेला

 - अज्ञेय


यह दीप अकेला स्नेह भरा

है गर्व भरा मदमाता पर

इसको भी पंक्ति को दे दो ।

 

यह जन है : गाता गीत जिन्हें फिर और कौन गाएगा

पनडुब्बा : ये मोती सच्चे फिर कौन कृति लाएगा?

यह समिधा : ऐसी आग हठीला बिरला सुलगाएगा

यह अद्वितीय : यह मेरा : यह मैं स्वयं विसर्जित :

 

यह दीप अकेला स्नेह भरा

है गर्व भरा मदमाता पर

इस को भी पंक्ति दे दो ।

 

यह मधु है : स्वयं काल की मौना का युगसंचय

यह गोरसः जीवन-कामधेनु का अमृत-पूत पय

यह अंकुर : फोड़ धरा को रवि को तकता निर्भय

यह प्रकृत, स्वयम्भू, ब्रह्म, अयुतः

इस को भी शक्ति को दे दो

 

यह दीप अकेला स्नेह भरा

है गर्व भरा मदमाता पर

इस को भी पंक्ति दे दो ।

 

यह वह विश्वास, नहीं जो अपनी लघुता में भी काँपा,

वह पीड़ा, जिसकी गहराई को स्वयं उसी ने नापा,

कुत्सा, अपमान, अवज्ञा के धुँधुआते कड़वे तम में

यह सदा-द्रवित, चिर-जागरूक, अनुरक्त-नेत्र,

उल्लम्ब-बाहु, यह चिर-अखंड अपनापा

जिज्ञासु, प्रबुद्ध, सदा श्रद्धामय

इस को भक्ति को दे दो

 

यह दीप अकेला स्नेह भरा

है गर्व भरा मदमाता पर

इस को भी पंक्ति दे दो ।

कहानीः दीवाली की मिठाई

- हरीश कुमार ‘अमित’

ज्यों-ज्यों दीवाली का दिन नज़दीक आता जा रहा थामेरी चिन्ता और घबराहट बढ़ती जा रही थी। मैं क्या मेरी पत्नीसुधाकी हालत भी ऐसी ही थी। वजह इसकी यही थी कि घर के लिए रोटी कमानेवाला मैं अकेला ही था। सुधा तो कहीं नौकरी करती नहीं थी। करती क्या नहीं थीख़ुद मैं ही नहीं चाहता था कि वह कोई नौकरी करे। शादी करने से पहले ही मेरी यह धारणा बन चुकी थी कि पत्नी अगर कामकाजी न हो और सिर्फ गृहिणी बनकर रहेतो वह घर-परिवार और बच्चों का ज़्यादा अच्छी तरह ध्यान रख सकती है। इस तरह घर चलाने के लिए सिर्फ मेरी तनख़्वाह ही होती थी।

मेरी नौकरी भी बस ठीक- ठाक-सी ही थी। स्कूल- कॉलेज के दिनों में मैं बेशक पढ़ाई में काफ़ी तेज़ हुआ करता थामगर नौकरी मुझे कोई बहुत बढ़िया नहीं मिल पाई थी। यह ज़रूर है कि करते-करते मैं अफ़सर बन गया थापर सरकारी दफ्तर के इस अफ़सर को प्राविडेंट फंडइन्कम टैक्स वगैरह की कटौतियों के बाद जो तनख़्वाह मिलती थीउससे घर-खर्च चलाना हर महीने एक टेढ़ी खीर ही साबित होता था।

और फिर कोढ़ में खाज वाली बात यह थी कि मुझे न जाने कैसे एक रोग लग गया हुआ था - ईमानदारी का रोग। दफ्तर का काम पूरी ईमानदारी से करना और ग़लत तरीकों से कोई कमाई करने की सोचना भी नहीं - बस यही उसूल थे मेरी दफ्तरी ज़िन्दगी के।

लिहाज़ा कट-कटाकर जो तनख़्वाह हाथ में आती थीउससे पूरा महीना बड़ा घिसट-घिसटकर चलता था। तनख़्वाह के तौर पर मिले रुपयों में से सबसे पहले तो मकान का किराया निकल जाता था। दिल्ली जैसे शहर में दो कमरे के मकान का किराया भी कुछ कम नहीं था। और फिर ज़रूरत पड़ने पर किसी सोसायटी वगैरह से लिए गए उधार की किश्त भी तो चुकानी होती थी। श्रेयाहमारी छह साल की बेटीके स्कूल की फीस दिए बग़ैर भी काम नहीं चलता था। इन सब खर्चों के बाद घर की दाल-रोटी के लिए जितना पैसा बच पाता थाउससे घर चलाना वाकई तलवार की धार पर चलने जैसा ही था।

ऐसे हालात में इस बार दीवाली का महीने की 28 तारीख़ को आना मुझे भयभीत-सा कर रहा था। सच बात तो यह है कि दीवाली का इस तरह महीने के आखिर में आना मुझे साल के शुरू से ही डरा रहा था। मैंने बहुतेरी कोशिशें की थीं कि किसी तरह कुछ पैसा दीवाली के मौके पर होनेवाले खर्चों के लिए अलग से बचाकर रख लिया जाएपर ऐसी हर कोशिश नाकामयाब ही साबित हुई थी। ऐसी खस्ता आर्थिक हालत में कुछ पैसा जोड़कर अलग से रख पाना ऐसा ही था जैसे हथेली पर सरसों उगाना।

करते-करते अक्तूबर भी आ गया थाजिस महीने दीवाली थी। महीने के शुरू से ही मैंने और सुधा ने सलाह-मश्विरा कर-करके घर के खर्चों में कतर-ब्योंत करने की भरसक कोशिशें शुरू कर दी थींमगर तरह-तरह के ज़रूरी खर्चों के आगे अक्सर हमारी यह कतर-ब्योंत बेकार साबित होती।

श्रेया को हम क्या समझाते कि घर खर्च में इतनी कंजूसी करना क्यों ज़रूरी है। हमें लगता कि इस छोटी-सी उम्र में ही उसे ज़िंदगी की कड़वी सच्चाइयों से क्यों रूबरू करवाया जाए। एक तो हम वैसे भी उसे कोई बहुत ज़्यादा सुविधापूर्ण जीवन दे नहीं पा रहे थे। फिर ऊपर से उसे मानसिक अशांति देना तो हमें बहुत ज़्यादा ग़लत बात लगती थी।

यूँ दीवाली भी हम कोई ऐसी धूमधाम से नहीं मनाया करते थेमगर फिर भी दीवाली के मौक़े पर कुछ अतिरिक्त खर्च तो होता ही था।

मेरी दो शादीशुदा बड़ी बहनें भी दिल्ली में ही रहती थीं। दीवाली के मौक़े पर उनके घर मिठाई का एक-एक डिब्बा तो मैं हर साल दिया ही करता था।

पिछले दो-तीन सालों से हम लोग दीवाली आने से दो-तीन महीने पहले ही यह योजना बनाने लगते थे कि मेरी दो बहनों को दीवाली पर इस बार तो सिर्फ एक-एक मिठाई का डिब्बा नहीं देना है। साथ में कुछ और भी देंगे। यूँ तो बाज़ार में बहुत सी चीज़ें मिलती थीं। जो मिठाई के डिब्बे के साथ दी जा सकती थींपर हमारा सपना तो बस इतना ही रहता था कि डिब्बे के साथ दो-अढ़ाई सौ रुपए तक की कोई और चीज़ भी दी जा सकेलेकिन हमारी यह योजना दीवाली आते-आते रेत के ताजमहल की तरह ढह जाया करती थी। किसी साल किसी कारण से और किसी साल किसी दूसरे कारण से अपना यह सपना पूरा कर पाना मुमकिन ही नहीं हो पाता था और हर साल की तरह मेरी दोनों बहनों को मिठाई का सिर्फ एक-एक डिब्बा देकर ही हमें संतोष करना पड़ता था।

मगर इस साल की स्थिति तो और भी विकट हो गई थी। अक्तूबर के महीने में दीवाली से कुछ दिन पहले एक नहींदो नहींपूरे तीन-तीन शादी के कॉर्ड हमें मिले थे। कार्ड रिश्तेदारों के यहाँ से आए थे। इन शादियों में जाना ज़रूरी था और शादी में जाने का मतलब था शगुन भी देना।

बस इसी कारण इस महीने हमारी आर्थिक स्थिति मानो रसातल तक ही पहुँच गई थी। दूसरे तमाम खर्चों पर बहुतेरी लगाम कसने के बावजूद हम इस स्थिति में भी नहीं रह गए थे कि मेरी दोनों बहनों को मिठाई का एक-एक डिब्बा भी दे सकें।

खुद अपने घर के लिए दीवाली के त्योहार पर मिठाई ख़रीदने की ज़रूरत हमें पड़ती ही नहीं थी। दरअसल हर साल होता यह था कि मेरी बहनें भी दीवाली पर हमें मिठाई का एक-एक डिब्बा दिया करती थीं। उस मिठाई को हम लोग दीवाली वाले दिन और उसके बाद खाया करते थे।

मुझे यही चिन्ता खाए जा रही थी कि बहनों को देने के लिए मिठाई के एक-एक डिब्बे का इन्तज़ाम कैसे किया जाए। श्रेया को तो हमने किसी तरह समझा लिया था कि पटाखों से प्रदूषण फैलता हैइसलिए इस बार पटाखे न ख़रीदे जाएँ। न जाने कैसे श्रेया इस बार पटाखे न खरीदने के लिए राज़ी हो भी गई थी। इस साल सुधा और मैंने दीए भी न ख़रीदने का फैसला किया था। बस थोड़ी-सी मोमबत्तियाँ ख़रीदकर ही दीवाली मना सकने की स्थिति थी इस बार।

          मिठाई के इन डिब्बों का आदान-प्रदान दीवाली के दिन से एक-दो दिन पहले हुआ करता थामगर इस बार मेरी बड़ी बहन न जाने क्यों तीन दिन पहले ही मिठाई का डिब्बा हम लोगों को दे गई थी। वे लोग हमारे घर से ज़्यादा दूर नहीं रहते थे। वह मिठाई का डिब्बा उसी कॉलोनी की एक मिठाई की दुकान से ही ख़रीदा हुआ था।

बड़ी दीदी के मिठाई देकर हमारे घर से निकलने से पहले ही मेरे दिमाग़ में यह योजना बन गई थी कि इस डिब्बे को छोटी बहन के घर में दे दिया जाए। डिब्बा चूँकि उसी कॉलोनी की मिठाई की दुकान का थाजिस कॉलोनी में हम रहते थेइसलिए छोटी दीदी को यह पता चल पाने का डर भी नहीं था कि किसी और के यहाँ से मिला हुआ मिठाई का डिब्बा हमने उसे दे दिया है। छोटी बहन मुझसे उम्र में बड़ी थी और मैं उसे छोटी दीदी बुलाया करता था। इसीलिए बड़ी दीदी के हमारे घर से चलने से पहले ही मैंने कोई बहाना बनाकर डिब्बे को फ्रिज के ऊपर रख दिया था। मुझे डर था कि बड़ी दीदी को दरवाज़े तक छोड़ने के लिए जब हम जाएँगेतो इस बीच श्रेया डिब्बे को खोल न ले।

बड़ी दीदी के जाने के बाद हमने किसी तरह श्रेया को बहला-फुसलाकर इस बात के लिए राज़ी कर लिया था कि उस डिब्बे को फिलहाल नहीं खोलना और इसे दीवाली वाले दिन ही खोलना है।

मिठाई के उस डिब्बे को हमने फ्रिज में रख दिया था। हालाँकि श्रेया बीच-बीच में यह ज़िद पकड़ लेती थी कि डिब्बे को खोल लिया जाएपर हम किसी-न-किसी तरह उसे बहला लिया करते थे। जब श्रेया ने डिब्बा खोल लेने की ज़िद कुछ ज़्यादा ही पकड़ लीतो हम लोगों ने यह कहकर उसे बहला लिया कि छोटी बुआ (यानी मेरी छोटी दीदी) के आने पर इसे खोल लेंगे। यह तो निश्चित था ही कि छोटी दीदी ने दीवाली पर मिठाई देने हमारे घर आना था।

मैंने सोच लिया था कि अगले दिन शाम को दफ्तर से घर वापिस आकर मैं यह मिठाई का डिब्बा छोटी दीदी को दे आऊँगालेकिन समस्या इसमें यह थी कि उस वक्त श्रेया अगर यह डिब्बा लेकर जाते हुए मुझे देख लेतीतो बड़ा हल्ला मचाती। आखिर इसका इलाज भी मैंने सोच लिया था। मैंने सोचा था कि श्रेया को उस वक्त टी. वी. के सामने बिठा देंगे। टी. वी. में तो जैसे उसकी जान बसती थी। जब श्रेया का ध्यान टी. वी. की तरफ़ हो जाएगातो मैं डिब्बे को चुपचाप फ्रिज से निकालकर छोटी दीदी के घर चला जाऊँगा। टी. वी. और फ्रिज अलग-अलग कमरों में हुआ करते थे।

मगर ऐसा हो नहीं पाया। अगले दिन मैं अभी दफ्तर में ही था कि छोटी दीदी का फोन आ गया कि वे लोग आज शाम को हमारे घर आएँगे।

शाम को मेरे घर आने के कुछ देर बाद ही छोटी दीदी व जीजा जी आ गए। साथ में उनके दो बच्चे भी थेजो श्रेया से कुछ बड़े थे।

मैं ड्राइंगरूम में छोटी दीदी और जीजा जी के साथ बैठा था। दीदी के बच्चे भी ड्राइंगरूम में ही थे।

उन लोगों के सामने चाय-वाय के साथ मिठाई थी रख पाने की स्थिति तो अपनी थी नहींइसलिए सुधा के कहने पर मैं दफ्तर से घर आते हुए बाज़ार से चीनी के बने कुछ खिलौने ले आया था। हम लोगों ने सोचा था कि चाय के साथ यह बहाना बनाते हुए इन्हें सामने रख देंगे कि ये खिलौने खाते वक्त बच्चों को बहुत मज़ा आएगा।

सुधा रसोई में चाय बना रही थी। तभी रसोई से श्रेया की हल्की-हल्की-सी आवाज़ सुनाई दी। वह सुधा से कह रही थी, ‘‘खोल लो न! खोल लो न!’’

उसके बाद श्रेया के गाल पर ज़ोरदार चपत लगने की आवाज़ के बाद श्रेया का दिल दहला देनेवाला चीत्कार सुनाई दिया।

ड्राइंगरूम में बैठे लोग हक्के-बक्के-से रह गए। एकाएक किसी को समझ ही नहीं आया कि यह हुआ क्या हैमगर ड्राइंगरूम में बैठे-बैठे अपनी आँखों से बिना कुछ देखे ही मैं जान गया था कि रसोई में क्या हुआ था।

तभी छोटी दीदी मुझसे पूछने लगी, ‘‘क्या हुआ श्रेया को?’’

मैं सन्न-सा चुपचाप कुर्सी पर बैठा रह गया। श्रेया का चीत्कार मानो मेरे दिल पर आरियाँ चला रहा था।

रचनाकार के बारे में- प्रकाशन 1,000 से अधिक रचनाएँ (कहानियाँकविताएँ/ ग़ज़लेंव्यंग्यलघुकथाएँबाल कहानियाँ/ कविताएँ आदि) विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशितएक कविता संग्रह ‘अहसासों की परछाइयाँ’एक कहानी संग्रह ‘खौलते पानी का भंवर’एक ग़ज़ल संग्रह ‘ज़ख़्म दिल के’एक लघुकथा संग्रह ‘ज़िंदगी ज़िंदगी’एक बाल कथा संग्रह ‘ईमानदारी का स्वाद’बाल उपन्यास ‘दिल्ली से प्लूटो’ व ‘साधु और जादूगर’ तथा तीन बाल कविता संग्रह ‘गुब्बारे जी’, ‘चाबी वाला बन्दर’ व ‘मम्मी-पापा की लड़ाई’ प्रकाशित। बाल उपन्यास ‘ख़ुशियों की आहटतथा बाल विज्ञान उपन्यास ‘मेगा 325’ का ऑनलाइन प्रकाशन28 विभिन्न संकलनों में रचनाएँ संकलित,  सम्प्रतिः भारत सरकार में निदेशक के पद से सेवानिवृत्तसम्पर्कः 304एम.एस.4केन्द्रीय विहारसेक्टर 56गुरुग्राम- 122011 (हरियाणा)दूरभाष- 9899221107,          ईमेल- harishkumaramit@yahoo.co.in

आलेखः ढाई आखर सिखाने वाले कवि कबीर

 - डॉ. शिवजी श्रीवास्तव

आज हम कबीर के जन्म के लगभग सवा छह सौ वर्षों बाद उनको याद कर रहे हैं, उनके साहित्य का मूल्यांकन कर रहे हैं, वर्तमान में उनकी प्रासंगिकता तलाश रहे हैं तो इसलिए कि कबीर एक अद्भुत कवि हैं, उनकी कविताओं में जीवन का सार तत्त्व छुपा है। कबीर ही ऐसे कवि हैं जो लोगों को हर अवसर पर याद आते हैं। हमें क्रांति की बात करनी हो, तो कबीर याद आते हैं, शांति की बात करनी हो तो भी कबीर याद आते हैं, समाज में रहने का सलीका सीखना हो या ईश्वर से निकटता स्थापित करनी हो तो भी कबीर ही राह दिखाते हैं। कबीर हमें हर अँधेरे के खिलाफ एक प्रकाश स्तम्भ की भाँति खड़े नजर आते हैं।

कबीर के काव्य में विलक्षण विरोधाभास है, एक ओर वे इतनी सहज साखियाँ रचते हैं, जो किसी अनपढ़ के लिए भी सहजग्राह्य हैं यथा -

साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।

जाके हिरदै साँच है, ताके हिरदै आप।।

इसी के साथ वे इतनी जटिल उलटबांसियों की रचना करते हैं, जिसकी व्याख्या में बड़े-बड़े ज्ञानिजन भी सोचने के लिए विवश होते हैं यथा-

एक अचम्भा देखा रे भाई, ठाड़ा सिंह चरावै गाई,

पहले पूत पीछे भई माई, चेला के गुरु लागे पाई

जल की मछली तरुवर ब्याई, पकड़ बिलाई मुर्गी खाई।

दरअसल कबीर का समय बड़ा अराजक समय था,वे हर प्रकार की अव्यवस्था और रूढ़ियों के विरुद्ध सतत संघर्षरत रहकर विरोधों में जीते हुए विरोधों के मध्य ही मार्ग  निकालते रहे। वे अपनी कविताओं के माध्यम से विद्रोह का बिगुल भी फूँकते रहे और शांति की रागिनी भी बजाते रहे। उनकी कविताओं की जितने आयामों से व्याख्या की जाए कम है।

कबीर सत्य के शोधक हैं पर वे सत्य की ओर उस मार्ग से जाने का निषेध करते हैं जो परम्परागत हैं । वह मार्ग आडम्बरों से भरा है। पंडितों द्वारा बताए गए मार्ग को कबीर झूठा बतलाते हैं-

पण्डित, वाद बदन्ते झूठा,

राम कह्या दुनिया गति पावै खाण्ड कह्या मुख मीठा।

×××××××

नर के साथ सुआ हरि बोले, हरि परताप न जानै

जो कबहूँ उड़ि जाए जंगल में, बहुर न सूरतै आनै।

   कबीर की दृष्टि में पंडित जन केवल उलझाते हैं, किताबी ज्ञान बतलाते हैं। किताबों को पढ़कर कभी सच्चा ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता सच्चे ज्ञान का आधार तो प्रेम है-

पोथी पढ़- पढ़ जग मुआ, पण्डित भया न कोय।

ढाई आखर प्रेम के पढ़े सो पण्डित होय।।

   कबीर प्रेम पढ़ने की बात करते हैं जो व्यक्ति प्रेम के तत्त्व को जान लेगा वह ईश्वर के मर्म को जान लेगा। संसार मे दो धर्मों के मध्य झगड़े भी इसीलिए हैं कि कोई  मर्म को समझने का कोई प्रयास नही करता-

अरे, इन दोउन राह न पाई

हिन्दू कहे मोह राम पियारा, तुरक कहे रहमाना

आपस मे दोऊ लरि- लरि मूए  मरम न कोऊ जाना।

लड़ने का कारण स्पष्ट है किसीने भी मर्म को नहीं जाना है। ये मर्म क्या है? यही कबीर जीवन भर समझाते रहे,वह मर्म है प्रेम करने की कला। प्रेम ही ईश्वर से साक्षात्कार कराता है, प्रेम ही समाधि की अवस्था तक ले जाता है। उस प्रेम को सीखने की ही आवश्यकता है।प्रेम ही सबसे बड़ा धर्म है।

   प्रेम शब्द कहने में जितना सरल है जीवन में उतारने में उतना ही कठिन है । प्रेम को पढ़ने से ही सारा पांडित्य सारा ज्ञान अन्तस् में उतर आता है। यूँ तो संसार में हर कोई प्रेम करने के दावे करता है-स्त्री से प्रेम, संतान से प्रेम, धन-संपत्ति से प्रेम पर संसार में चलने वाले इस प्रेम को कबीर प्रेम नहीं मानते।वे स्पष्ट कहते हैं-

प्रेम प्रेम सब कोउ कहै, प्रेम न चिन्हे कोई।

जा मारग हरि जी मिले, प्रेम कहावै सोई।।

या फिर

प्रीत बहुत संसार मे, नाना विधि की सोय

उत्तम प्रीति सो जानिए, हरि नाम से जो होय।।

   स्पष्ट है जिस मार्ग से ईश्वर का साक्षात्कार हो जाए, वही प्रेम है। ईश्वर से प्रेम ही उत्तम प्रेम है। ईश्वर के नाम से प्रेम करना ही सच्चा प्रेम है, ये प्रेम जीवन मे बहुत कठिनाई से आता है।

 संसार से प्रेम और ईश्वर से प्रेम में अंतर ये है कि सांसारिक प्रेम बाँधता है और ईश्वरीय प्रेम मुक्त करता है। संसार का प्रेम अधिकार माँगता है,अहंकार बढ़ाता है। लोग संसार मे अपनी वस्तुओं से प्रेम करते है ,अपने पद से अपनी हैसियत से प्रेम करते हैं या अपने सगे-सम्बन्धियों से प्रेम करते हैं। यह प्रेम चाहे जड़ वस्तुओं से हो या चेतन से अपने साथ मैं और मेरा का भाव ले कर आता है। मेरा मकान, मेरी जमीन, मेरा पद, मेरी सम्पत्ति, मेरी स्त्री, मेरा पुत्र इत्यादि। जहाँ 'मैं' आता है वहाँ बीच मे माया आ जाती है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी कहा है-

मैं अरु मोर तोर तैं माया। जेहि बस कीन्हें जीव निकाया।।

..अर्थात ये मैं हूँ ये मेरा है यही माया है। सारे जीवों को इसने अपने अधीन कर रखा है।

कबीर इसी माया को  बीच से हटाने की बात करते हैं। इसी 'मैं' को मारने की बात करते हैं। जब तक 'मैं' रहेगा, अहंकार विलीन नहीं होगा तब तक प्रेम के घर मे प्रवेश नही  मिलेगा-

यह तो घर है प्रेम का खाला का घर नाहिं।

सीस उतारे भुइँ धरे सो पैठे इहि माँहिं।।

  प्रेम के घर मे प्रवेश की यही शर्त है कि अपने सिर को उतार कर जमीन पर रख दो। अहंकार मिटा दो। द्वैत भाव समाप्त कर दो। जब अहंकार मिटेगा, द्वैत समाप्त होगा तो अंदर प्रेम आएगा। ये प्रेम ही परमात्मा होगा। गीता में भगवान कृष्ण ने भी कहा है- 'सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज'- सभी धर्मों को छोड़कर केवल मेरी शरण मे आओ...परमात्मा को पाने के लिए सारे सांसारिक धर्मों को छोड़ना पड़ता है।

प्रेम का अर्थ माँगना नहीं अपने को दे देना होता है। प्रेम समर्पण करता है अपने को प्रिय की सत्ता में विलीन कर देता है। अल्लामा इकबाल ने भी लिखा है-

मिटा दे अपनी हस्ती को अगर कुछ मर्तबा चाहे।

 कि दाना ख़ाक में मिलके गुलो- गुलज़ार होता है।

...अर्थात् बिना स्वयं को मिटाए प्रेम के राज्य में प्रवेश नहीं हो सकता। प्रेम का अर्थ ही है अपने को मिटा देना। क्योंकि जहाँ दो की भावना होती है वहाँ याचना होती है, कामना होती है, आकर्षण होता है, तृष्णा होती है, अधिकार-लिप्सा होती है;  पर प्रेम नहीं होता। प्रेम में द्वैत नहीं होता,  हृदय में या तो संसार का प्रेम रहेगा या ईश्वर का। दोनों एक साथ नहीं रह सकते; इसीलिए कबीर प्रेम की गली को बहुत सँकरी बतलाते  हैं-

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं

प्रेम गली अति साँकरी जामें दो न समाहिं।

  प्रश्न है कि प्रेम का अधिकारी कौन है, तो उसके लिए कबीर कोई विभाजन नहीं करते। प्रेम पाने के लिए कबीर परम्परा से चले आ रहे सारे बंधनों को नकारते हैं। हिन्दू-मुस्लिम, ऊँच-नीच, जाति-वर्ण जैसे किसी बंधन को वे नहीं मानते। प्रेम के साम्राज्य में हर वह व्यक्ति प्रवेश कर सकता है जो अहंकार छोड़ सकता  हो-

प्रेम न बाड़ी ऊपजे, प्रेम न हाट बिकाय।

राजा परजा जेहि रुचै, सीस देइ ले जाय।।

   कबीर तो चाहते हैं कि हर व्यक्ति को प्रेम में हो जाना चाहिए बिना प्रेम के जीवन मुर्दे के समान है-

जा घट प्रेम न संचरै, सो घट जान मसान।

जैसे खाल लुहार की, साँस लेत बिनु प्रान।।

परमात्मा के इस प्रेम को प्राप्त करने के लिए किसी कर्मकांड, किसी व्रत-उपवास किसी तीर्थ-तप को भी अवश्यक नहीं मानते।उनके ईश्वर का स्पष्ट उद्घोष है-

मोको कहाँ ढूँढता बन्दे मैं तो तेरे पास में

××××××

न मैं कौनो क्रिया करम में, न जप तप उपवास में।

   ईश्वर हृदय में विद्यमान है जरा -सा अहंकार विसर्जित करने की देर है ईश्वर मिल जाएगा। अहंकार विसर्जन या प्रेम करने की कला गुरु सिखाते हैं, पर सीखने की ललक स्वयं पैदा करनी होती है-

गुरु गोविन्द तो एक है, दूजा यह आकार।

आपा मेट जीवित मरै, तो पावै करतार।।

  गुरु के सामने भी अहंकार लेकर नही जा सकते। गुरु भी तभी मिलता है जब ईश्वर कृपा करता है-

ज्ञान प्रकास्या गुरु मिला,  सो जनि बीसर जाइ।

जब गोविंद कृपा करी,तब गुर मिलया आइ।।

      ईश्वर तभी कृपा करेगा जब प्रेम आएगा।

हृदय में प्रेम आने के बाद सहज समाधि की अवस्था मिल जाती है वही परमानन्द की अवस्था है। इस अवस्था मे आने के बाद कुछ पाने की लालसा शेष नही रहती। सहज समाधि में पहुँचे व्यक्ति को हर समय हर कार्य मे ईश्वर की उपस्थिति की अनुभूति रहती है। यही ढाई आखर सीखने का रहस्य है। ढाई आखर सीखने के बाद कुछ और सीखने की आवश्यकता नहीं रह जाती।