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Sep 1, 2022

आलेखः हम अपनी गलतियों से ही सीखते हैं

- सीताराम गुप्ता

  गलतियाँ किससे नहीं होतीं? सबसे होती हैं। इसीलिए कहा गया है कि इनसान गलतियों का पुतला होता है;  लेकिन अपनी गलतियों से सीखकर ही वो आगे बढ़ता है। केवल वे लोग ही गलतियाँ नहीं करते या कर सकते जो कुछ भी नहीं करते क्योंकि न तो वे कुछ करेंगे और न गलतियाँ होने की संभावना होगी। लेकिन गलतियाँ न होने की स्थिति में क्या होगा? हम कुछ भी नहीं सीख पाएँगे। कुछ भी नहीं सीख पाएँगे तो आगे कैसे बढ़ेंगे? आगे बढ़ने के लिए सीखना अनिवार्य है और सीखने की प्रक्रिया में गलतियों का होना स्वाभाविक है लेकिन इसका ये तात्पर्य कदापि नहीं कि इनसान गलतियाँ ही करता रहे। किसी गलती को वह बार-बार दोहराता रहे। गलतियाँ होना स्वाभाविक है लेकिन उन्हें दोहराना अपराध से कम नहीं क्योंकि गलतियों को बार-बार करके ही हम उनके अभ्यस्त हो जाते हैं और पहले छोटी-छोटी गलतियाँ और बाद में बड़ी-बड़ी गलतियाँ करके अपराध तक करने लगते हैं।

व्यक्ति अपनी गलतियों से ही सीखता है और आगे बढ़ता है लेकिन इसके लिए ज़रूरी है कि व्यक्ति अपनी गलतियों को जाने, उन्हें स्वीकार करे और उन्हें दूर करे। प्रायः ऐसा होता है कि जब कोई हमारी किसी गलती की ओर संकेत करता है तो हम उसे स्वीकार करके उसे तत्क्षण सुधारने के बजाय उसे ठीक ठहराने की कोशिशों में लग जाते हैं। उसके लिए तर्क-वितर्क ही नहीं कुतर्क करने से भी परहेज नहीं करते। कई बार इस प्रकार का वाद-विवाद फसाद का रूप ले लेता है। यदि कोई हमारी गलती की ओर संकेत करता है तो कई बार हम अपनी गलती को स्वीकार करने के बजाय सामने वाले की गलतियाँ ही निकालने या गिनवाने लग जाते हैं। कई बार अपनी गलती को स्वीकार करने के बजाय हम उसे गलती ही नहीं मानते और प्रायः कह देते हैं कि ये तो आम बात है या ऐसा तो सभी करते हैं फिर मैं कैसे गलत हुआ? इस प्रकार के तर्क देते-देते व ऐसा आचरण दोहराते-दोहराते कब पूरा समाज रसातल में पहुँच जाता है, पता ही नहीं चलता।

प्रायः जब हमसे कोई गलती हो जाती है, तो उसे स्वीकार करना हम अपनी प्रतिष्ठा के लिए घातक मानते हैं। सोचते हैं कि इससे हमारी प्रतिष्ठा पर आँच आएगी। हम दोषी मान लिये जाएँगे। इससे हमारी इमेज खराब हो जाएगी। हमारी इज़्ज़त चली जाएगी। वास्तव में गलती स्वीकार करने पर हमारी प्रतिष्ठा पर कोई आँच नहीं आती;  अपितु ऐसी स्थिति में लोग हमें सत्यनिष्ठ व ईमानदार मानने लगते हैं। यदि ऐसा है तो हम फिर भी अपनी गलतियों को स्वीकार करने में क्यों हिचकिचाते हैं? वास्तव में गलतियों को स्वीकार करना भी साहस का कार्य है और हम अपेक्षित साहस नहीं जुटा पाते। जब हम बार-बार गलतियाँ करते हैं और उन्हें स्वीकार नहीं करते तो कई बार चाहते हुए भी हम अपनी किसी एक गलती को ये सोचकर स्वीकार नहीं कर पाते कि अब एक गलती को मान लेने से भी क्या हो जाएगा? अब नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली के हज को जाने का क्या औचित्य होगा? वास्तव में इस दुष्चक्र को तोड़ना अनिवार्य है।

किसी भी सूरत में अपनी गलती स्वीकार न करना वास्तव में हमारी उस काल्पनिक छवि को बचाए रखने के प्रयास के कारण होता है, जिसे हम किसी भी हालत में बदलते हुए देखना नहीं चाहते। प्रायः गलत बात पर अड़े रहने अथवा किसी भी सूरत में अपनी गलती न मानने को कुछ लोग एक गुण अथवा दृढ़ता के रूप में लेते हैं। कुछ लोग दूसरों को गलत सिद्ध करने के लिए भी अपनी गलत बात पर अड़ जाते हैं। वास्तव में इस प्रकार का आचरण एक बहुत बड़ा अवगुण ही नहींअपितु एक बहुत बड़ी कमज़ोरी भी है। हम भोजन बनाते समय कुछ मसालों का प्रयोग करते हैंजिससे भोजन स्वादिष्ट ही नहीं पौष्टिक व सुपाच्य भी बनता है। यदि हम किसी एक मसाले को भी उचित मात्रा में न डालें अथवा एक ख़राब मसाला डाल दें
, तो पूरा भोजन ही ख़राब हो जाएगा। इसी प्रकार से एक गुण की कमी अथवा एक अवगुण के कारण हमारा व्यक्तित्व व चरित्र भी बुरी तरह से प्रभावित होता है। चरित्रवान अथवा नैतिक होने के लिए मात्र कुछ अच्छे गुणों का होना ही अनिवार्य नहीं अपितु अपनी गलतियों व कमज़ोरियों को सबके समक्ष स्पष्ट रूप से स्वीकार करने का गुण होना भी अनिवार्य है।

अपनी गलती को स्वीकार करना वह गुण है, जो वास्तविक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करने में सक्षम होता है। इस संदर्भ में एक प्रसंग याद आ रहा है-  सड़क सँकरी थी,  फिर भी बस तेज़ी से दौड़ी जा रही थी; क्योंकि ड्राइवर अत्यंत कुशल था। अचानक बस की गति धीमी हो गई। सामने से गन्नों से लदी हुई ट्रॉलियाँ आ रही थीं;  अतः उनको रास्ता देने के लिए भी बस की गति कम करना अनिवार्य था। जब बस गन्नों से लदी हुई ट्रॉलियों के पास पहुँची,  तो वे सड़क से थोड़़ा नीचे उतरकर सड़क के किनारे लगकर खड़ी हो गईं। यह एक पर्यटक बस थी;  जिसमें शिक्षा विभाग के उच्च अधिकारी और अध्यापक सवार थे,  जो भारत-भ्रमण पर निकले थे। गन्नों को देखकर कई लोगों के मुँह में पानी आ गया; लेकिन किसी की हिम्मत नहीं हुई कि किसी ट्रॉली में से एक गन्ना भी खींच ले, क्योंकि विभाग के सबसे बड़े अधिकारी भी बस में उपस्थित थे। चाहे कितने भी कामचोर अथवा भ्रष्ट कर्मचारी क्यों न हों; लेकिन अपने विभाग के बड़े अधिकारियों की उपस्थिति में तो वे अधिकाधिक अनुशासनप्रिय, कर्मठ और ईमानदार होने का प्रमाण ही प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं। कुछ ऐसी ही विवशता यहाँ भी दिखलाई पड़ रही थी।

बस की गति भी अत्यंत धीमी हो गई थी और बस सड़क के किनारे खड़ी गन्नों से लदी एक ट्रॉली को पार कर रही थी। इतने में शिक्षा अधिकारी महोदय ने बाहर हाथ निकाला और झटपट एक गन्ना खींच लिया। बस फिर क्या थासारी वर्जनाएँ टूट गईं। केवल बस की दाईं और बैठे यात्रियों ने ही नहीं, अपितु विपरीत दिशा में बैठे यात्रियों ने भी दूसरी तरफ आ-आकर गन्ने खींचने शुरू कर दिए। बस में भगदड़ जैसी स्थिति हो गई। इतने में एक नवयुवक ने खड़े होकर कहा, ‘‘अरे आप सब लोग ये क्या कर रहे हो? एक किसान, जो इतनी मेहनत से फसल उगाता है, उसे यूँ ही मुफ़्त में झपट रहे हो।’’ इतना कहकर नवयुवक ने शिक्षा अधिकारी की ओर मुँह किया और कहा, ‘‘सर आप भी!’’ सहयात्री नवयुवक को आग्नेय नेत्रों से घूरने लगे और एक व्यक्ति ने कहा, ‘मिस्टर अपनी औक़ात में रहो। शिक्षा अधिकारी से इस तरह बात करने की जुर्अत कैसे की तुमने?’’

अब शिक्षा अधिकारी की बारी थी। वे खड़े हो गए और बोले, ‘‘ठीक ही तो कह रहा है ये नवयुवक। हमें क्या अधिकार है किसी की चीज़ यूँ उठाने का। और चोरी के बाद अब सीनाज़ोरी। नहीं, हम सबने गलत किया है।’’ इसके बाद उन्होंने कहा कि पहले मैंने गलती की और बाद में आप सबने उसे दोहराया। मुझे फ़ख़्र है कि पूरी बस में एक व्यक्ति तो है , जिसमें ईमानदारी व नैतिकता के साथ-साथ निडरता से अपनी बात कहने का साहस भी है, जिसने अपने उच्च अधिकारी की भी ख़बर लेने की हिम्मत की। मैं अपनी गलती स्वीकार करता हूँ और अपने नवयुवक मित्र की ईमानदारी, नैतिकता और साहस की प्रशंसा करता हूँ।

दुर्लभ होते हैं ऐसे नवयुवक और उससे भी अधिक दुर्लभ होते हैं ऐसे उच्च अधिकारी। पद से कोई व्यक्ति बड़ा नहीं होता अपितु बड़ा होता है पद की गरिमा बनाए रखने से और उदात्त जीवन मूल्यों को नष्ट होने से बचाए रखने से। अपनी गलती को स्वीकार करना एक उदात्त जीवन मूल्य है और उसे स्वीकार करने वाला एक बड़ा व्यक्ति।

 एक और घटना याद आ रही है। एक बहुत अच्छे व्यक्तित्व विकास एवं मानव संसाधन विकास प्रशिक्षक हैं। सचमुच बहुत अच्छे प्रशिक्षक। एक बार एक कार्यक्रम में उन्हीं के द्वारा प्रशिक्षित व्यक्तियों की एक प्रतियोगिता चल रही थी। उस प्रतियोगिता के निर्णायकों में वे स्वयं भी थे। प्रतियोगिता अंतिम दौर में थी। अंत में बचे दो प्रतिभागियों में से एक को विजयी घोषित किया जाना था। अंतिम मुक़ाबले के बाद उन्होंने अपनी पसंद के प्रतिभागी को सही बतलाकर उसे विजयी घोषित कर दिया। उनका इतना सम्मान था कि लोग उनकी गलत बात का भी विरोध नहीं कर पाते थे;  लेकिन उस दिन वहाँ उपस्थित अधिकतर लोगों ने उनके निर्णय को गलत बतलाते हुए उनका विरोध किया। इस पर उन्होंने बॉस इज़ ऑल्वेज राइट कहकर सबको चुप रहने के लिए विवश कर दिया। उसके बाद इस प्रकार का आचरण करना उनके लिए सामान्य बात हो गई।

 उनके इस प्रकार के आचरण से उनकी प्रतिष्ठा पर अत्यंत प्रतिकूल प्रभाव पड़ा; क्योंकि उनके सामने सही बोलने का महत्त्व कम होता चला गया अतः सही लोग उनसे दूर होते चले गए और केवल चापलूस क़िस्म के लोग उनके साथ रह गए। उनके कुछ सहयोगी प्रशिक्षक भी उनको छोड़कर चले गए,  जिससे उनके व्यावसायिक हित भी बुरी तरह से प्रभावित हुए। ऐसे अनेक व्यक्ति मिल जाएँगे, जो अपनी हैसियत अथवा प्रतिष्ठा के दंभ में अपनी गलती को स्वयं स्वीकार करना और उसे सुधारना तो दूर उनकी गलती को बतलाने पर भी वे उसे स्वीकार करने और सुधारने को तैयार नहीं होते। कई बार कुछ निहित स्वार्थों अथवा पक्षपातपूर्ण रवैये के कारण भी लोग गलती करते हैं, अतः ऐसी दशा में उनके द्वारा की गई गलती की स्वीकृति और सुधार का प्रश्न ही नहीं उठता। लेकिन जान-बूझकर गलती करने अथवा अपनी गलती को स्वीकार करके उसे नहीं सुधारने का ख़मियाज़ा तो अवश्य ही भुगतना पड़ता है।

प्रायः देखने में आता है कि अधिकतर व्यक्ति अपने से कमज़ोर अथवा कम हैसियत वाले लोगों व अपने विरोधियों में गलतियाँ निकालते रहते हैं व अपने से अच्छी हैसियत वाले लोगों व अपने प्रियजनों अथवा समर्थकों की गलतियों को न केवल नज़रअंदाज़ करते रहते हैं;  अपितु उनकी गलतियों को गलतियाँ न मानकर उन्हें महिमामंडित करने के प्रयासों में लगे रहते हैं। साथ ही एक सही व्यक्ति पक्षपातरहित होकर किसी की गलती को नज़रअंदाज़ करने के बजाय उसे स्पष्ट रूप से कह देता है। वास्तव में गलती तो किसी से भी हो सकती है लेकिन केवल महान व्यक्ति ही अपनी गलती का अहसास होने या कराए जाने पर उसे स्वीकार करने में देर नहीं लगाते। भूल अथवा गलतियाँ होना स्वाभाविक हैं। गलतियों को स्वीकार किए बिना उनका सुधार करना अथवा होना भी असंभव है। हम अपनी गलतियों से ही सबसे ज़्यादा सीखते हैं अतः जो व्यक्ति भी अपनी गलतियों को स्वीकार कर सुधार लेते हैं वे न केवल महान बन पाते हैं अपितु सही अर्थों में वे ही महान होते हैं।

सम्पर्कः ए.डी. 106- सी., पीतमपुरा, दिल्ली- 110034, मो. 9555622323, Email : srgupta54@yahoo.co.in

2 comments:

साधना said...

बहुत खूब...आत्म मंथन हेतु सहायक सामग्री के रूप में लेख की प्रस्तुति प्रशंसनीय है।

Anonymous said...

गलती को स्वीकार कर लेना आत्म शुद्धि है। बहुत कुछ कहता सुंदर आलेख। सुदर्शन रत्नाकर