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Aug 1, 2022

आजादी का अमृत महोत्सवः वीरता की मिसाल अजातशत्रु संजोग छेत्री

- शशि पाधा

कल्पना कीजिये कि कोई सिंह शावक कैसे पर्वतों पर कुदालें भरता हुआ एक टीले से दूसरे टीले पर पहुँच जाता है। कभी जब जंगल में वृक्षों की डालियों से उलझ-उलझ कर खेलता है तो उसके चेहरे पर कितनी मासूमियत, कितनी खुशी विद्यमान रहती होगी। फिर बड़ा होते-होते वह मासूम शावक जंगल में रहने के सभी नियम, सभी दाँव पेंच सीखता चला जाता है और वह योद्धा हो जाता है- जंगल का राजा या यूँ कहूँ - अजात शत्रु!  संजोग छेत्री के विषय में मैं जब भी सोचती हूँ, मेरी आँखों के सामने कुछ ऐसा ही  चित्र उभरता  है।

मैं संजोग से कभी नहीं मिली थी। दो बरस पहले भारतीय सेना की प्रतिष्ठित पलटन, 9 पैरा स्पैशल फोर्सेस के 50वें स्थापना दिवस के अवसर पर मैंने उसकी कांस्य मूर्ति देखी थी। पलटन के मुख्य भवन के सामने एक छोटे से  टीले पर अपने अन्य तीन साथियों  के साथ वह  शौर्य का प्रतिमान बन कर खड़ा था। गर्व की बात यह थी कि ये चारों भारत के सर्वोच्च सम्मान ‘अशोक चक्र’ के विजेता थे और चारों ही अपने कर्तव्य का पालन करते हुए मातृभूमि की रक्षा में शहीद हो गए थे।

पलटन के स्थापना दिवस के अवसर पर लगभग एक हज़ार सैनिक और उनके परिवार एकत्र हुए थे। चारों ओर उत्सव जैसा वातावरण था। स्थापना दिवस की सुबह सबसे पहले पलटन के चार अशोक चक्र विजेताओं की मूर्तियों पर श्रद्धा सुमन अर्पण करने का कार्यक्रम था। शहीद मेजर अरुण जसरोटिया, शहीद मेजर सुधीर कुमार वालिया और शहीद लांस नायक मोहन गोस्वामी के परिवार के सदस्य उस समरोह में उपस्थित थे। लेकिन पैराट्रूपर संजोग के परिवार से कोई नहीं आया था। 

आता भी कैसे? संजोग अनाथ था। संसार में रिश्तों के नाम पर केवल उसकी छोटी बहन थी और वह भी किसी परिवार के सदस्य के पास रह रही थी। केवल 21 वर्ष की आयु में शहीद होने वाले संजोग की छोटी बहन तो और भी छोटी होगी। मैं बहुत देर तक उस वीर बाल योद्धा की कांस्य- मूर्ति निहारती रही। उसी संवेदनशील क्षण में मेरा उससे भावनात्मक रिश्ता जुड़ गया। मैं संजोग के बारे में सब कुछ जानने के लिए उत्सुक थी। उस दिन मैं पलटन में उन सैनिकों से मिली जो संजोग के मित्र भी थे और अभियान में भी उसके साथ थे।

26 जून, 1981 में जन्मे संजोग मात्र 19 वर्ष की आयु में सेना में भर्ती हो गए थे। ट्रेनिंग के बाद उन्होंने भारतीय सेना की ऐसी पलटन में सम्मिलित होने का निर्णय लिया जो सदा सीमाओं पर ही तैनात रहती थी और आतंकवादियों से जूझने के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षित थी। लगभग एक वर्ष के बाद ही उन्हें अपनी पलटन की एक टुकड़ी के साथ आतंकियों के साथ युद्ध का अवसर मिला था।

पैराट्रूपर संजोग छेत्री की पलटन 9 पैरा स्पेशल फोर्सेस जम्मू-कश्मीर में तैनात थी । यह पलटन नियमित रूप से आतंकवाद विरोधी अभियानों में सक्रिय थी। 22 अप्रैल, 2003 को खुफिया सूत्रों से जम्मू के सुरनकोट जिले की पहाड़ियों के  ‘हिल काका’ क्षेत्र  में कुछ कट्टर आतंकवादियों के छिपने  की सूचना मिली थी। यहाँ एकत्रित हुए ये आतंकवादी जम्मू-कश्मीर के अन्य इलाकों में आतंक फैलाने की योजना बना रहे थे।

9 पैरा स्पैशल फोर्सेस के चार अशोक चक्र विजेताओं की
 कास्य मूर्ति- बाएँ से दाएँ-  पैराट्रूपर संजोग छेत्री,
मेजर सुधीर कुमार वालिया, कैप्टन अरुण सिहं जसरोटिया,
 और लांस नायक मोहन गोस्वामी 
 उपलब्ध सूचना  का विश्लेषण करने के बाद 9 पैरा (एसएफ) द्वारा आतंकवादियों को उस पहाड़ी क्षेत्र से बाहर निकालने के लिए एक अभियान की योजना बनाई गई थी। ऑपरेशन के लिए 20 कमांडो वाली एक आक्रामक टीम का चयन किया गया था जिसका कोड नाम ‘ऑप सर्प विनाश’ रखा गया था। पैरा ट्रूपर संजोग छेत्री इस ख़तरनाक ऑपरेशन के लिए चुने गए कमांडो में से एक थे।

 उस रात भारतीय सेना की  टीम ने संदिग्ध इलाके की घेराबंदी कर दी । हालाँकि  जैसे ही कमांडो आगे बढ़े और आतंकवादियों का ठिकाना, जो कि एक गुफा के बीच था के पास पहुँचे, आतंकवादियों ने उन्हें खुले में देख लिया और उन पर गोलियाँ चला दीं। भारी हथियारों से लैस आतंकवादी सुरक्षित स्थानों से गोलीबारी कर रहे थे और खुले में आगे बढ़ते हुए सैनिकों के लिए गंभीर खतरा पैदा कर रहे थे। एक टीले के पास पहुँचते हुए  संजोग छेत्री ने महसूस किया कि उनकी टीम के साथी दुश्मन के फायर की सीधी रेखा में थे और खतरे में थे। अचानक अपने साथियों पर आए गंभीर ख़तरे को भाँपते हुए संजोग अपने दुर्लभ साहस का परिचय देते हुए लगभग 100 गज की दूरी तक रेंगते हुए गुफा के नजदीक पहुँच गए। आतंकियों ने उन्हें ऊपर से देख लिया था और उन पर अंधाधुंध गोलियाँ बरसाई गईं। आती हुई गोलियों की बौछार को अपने शरीर पर झेलते हुए संजोग ने अपने साथ लाये ग्रनेड फेंक कर आतंकवादियों पर हमला बोल दिया और एक आतंकवादी को मार गिराया। इस भीषण गोलाबारी में  संजोग छेत्री घायल हो गए और उनके शरीर से काफी खून बहने लगा। लेकिन वह अपनी जगह से नहीं हटे और एक और आतंकवादी का सफाया कर दिया। तब तक इन्हें  कई गोलियाँ लग चुकी थीं और वह गंभीर रूप से घायल हो गए थे । शत्रु का सफाया करते-करते वह गुफा के मुख्य द्वार  तक पहुँच  गए थे। आतंकवादियों ने इन पर पुन:  गोलियाँ  दागी  लेकिन इन्होंने  हिम्मत नहीं हारी। शत्रु को बिलकुल सामने पाकर गुत्थमुत्था युद्ध में प्रशिक्षित  कमांडो संजोग ने अपने शरीर पर बँधे  कमांडो के विशेष हथियार ‘कमांडो डैगर (चाकू ) से अंतिम आतंकवादी पर घातक  प्रहार किया जिससे वह वहीं पर ढेर हो गया । इस आमने-सामने के युद्ध में  संजोग छेत्री भी अपनी देश की आन, बान और शान के लिए  शहीद हो गए। सर्वोच्च  बलिदान और साहस के इस दृश्य को उनके साथियों ने अपनी आँखों से देखा तो उनकी शिराओं  में बहता हुआ रक्त खौलने लगा। अब उनके सामने  वहाँ  छिपे शत्रु का सफाया करना ही मुख्य उद्देश्य था। इनके  साथी उस घुप अँधेरे में आगे बढ़े और उन्होंने  उस रात  उस जंगल में छिपे 13 आतंकियों को मार गिराया। एक पाक प्रशिक्षित आतंकी जो कि गम्भीर रूप  से घायल था,  को कब्जे में कर लिया।

पैराट्रूपर  संजोग छेत्री को उनके अदम्य साहस और सर्वोच्च बलिदान के लिए देश का सर्वोच्च शांति काल वीरता पुरस्कार, ‘अशोक चक्र’ से सम्मानित किया गया। उस समय संजोग केवल 21 वर्ष के थे।

शहीद संजोग छेत्री की बहन
संजोगिता, राष्ट्रपति
 एपीजे अब्दुल कलाम के हाथों
अशोक चक्र ग्रहण करते हुए

सिक्किम के एक छोटे से गाँव में जन्मे संजोग के पिता भी सेना में सेवाएँ दे चुके थे अत: सैनिक बनना उनका जन्मसिद्ध अधिकार भी था और ध्येय भी। इनकी छोटी अवस्था थी , जब इनके पिता की मृत्यु हो गई और परिवार ने इनकी माँ का पुनर्विवाह कहीं दूर कर दिया। माँ भी चली गई,  तो संजोग और उनसे छोटी बहन संजोगिता अनाथ हो गए। मौसी ने दया करके पाला; लेकिन जीवन वैसा नहीं  रहा, जैसा माँ-पिता की छत्र-छाया में था। फिर भी यह होनहार बालक जीवन की चुनौतियों से एक सिंह की तरह लड़ता रहा।

शौर्य और संगीत का अद्भुत संगम मैंने बहुत से सैनिकों में देखा है । उनके मित्रों के अनुसार संजोग भी पॉप संगीत को पसंद करते थे और अपनी प्रिय गिटार के सुरों के साथ गीत गाकर सभी का दिल बहलाते थे। फौज में भर्ती हुए, तो अपनी प्रिय गिटार भी साथ ही ले आए । अभियान में जाने से पहले इन्होंने अपनी गिटार अपने सामान के साथ पलटन में ही रखी थी।  वो गिटार इनकी अमूल्य धरोहर की तरह अभी भी पलटन के मोटिवेशन हाल में इनकी तस्वीर के साथ रखी हुई है।

अदम्य साहस और वीरता से  वर्दी की  पेटी से बँधे कमांडो डैगर से सामने खड़े खूंखार शत्रु पर अचूक प्रहार करने वाले किशोर संजोग के व्यक्तित्व में कोमल भाव भी कूट कूटकर समाहित थे। अपने स्कूल  के दिनों में चित्रकारी भी करते थे। उनके द्वारा बनाये कई चित्र उनके मित्रों ने अपने पास सहेज के रखे हुए हैं। इनके स्कूल और कॉलेज में भी इनके चित्र लगे हुए हैं। इनके स्कूल के अध्यापक अपने आप को सौभाग्यशाली मानते हैं कि उन्हें ऐसे दृढसंकल्प, शूरवीर एवं मेहनती शिष्य को शिक्षा देने का अवसर मिला। उनके मित्रों के अनुसार संजोग को खेलकूद के क्षेत्र में भी छात्रवृत्ति मिली थी और वह राजकीय स्तर पर फुटबाल खेलते थे।

एक गायक, चित्रकार, फ़ुटबाल के खेल में दक्ष छात्र के लिए जीवन जीने के लिए बहुत से मार्ग थे । वह इनमें से किसी को भी चुन सकते थे। किन्तु संजोग एक बहादुर सैनिक पिता के पराक्रमी पुत्र थे । उनकी रगों में एक सेनानी  का रक्त था। सैनिक धर्म ही उनके लिए सर्वोपरि था और भारत माँ की रक्षा ही उनके जीवन का एक मात्र लक्ष्य था।

जिस प्रकार महाभारत काल में अल्प आयु में वीरगति प्राप्त करने वाले वीर अभिमन्यु के शौर्य  की कहानियाँ आज भी दोहराई जाती हैं, ठीक वैसे ही आज पैराट्रूपर संजोग छेत्री के अद्भुत पराक्रम और बलिदान की वीरगाथा  युगों-युगों तक आने वाली  पीढ़ियों को प्रेरित करेगी।

कौन कहता है कि वह अनाथ था। आज भारत के जन-जन के ह्रदय में वह पुत्रवत् स्नेहिल  स्थान पा चुका है।

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सम्पर्कः वर्जिनिया, यूएसए, Email:shashipadha@gmail.com


4 comments:

Sonneteer Anima Das said...

वाह्ह्ह!!! गर्व है.... 🙏🙏 अति प्रेरणास्पद आलेख Mam 🙏🌹

विजय जोशी said...

अद्भुत अद्भुत अद्भुत योगदान देश के लिये

Anonymous said...

💔

Rajni kapoor said...

🙏🙏