उदंती.com को आपका सहयोग निरंतर मिल रहा है। कृपया उदंती की रचनाओँ पर अपनी टिप्पणी पोस्ट करके हमें प्रोत्साहित करें। आपकी मौलिक रचनाओं का स्वागत है। धन्यवाद।

Jul 1, 2022

कहानीः माँ से मायका….

- डॉ. रंजना जायसवाल

रात का घना अँधेरा पसरा हुआ था, रात के चादर तले इन्सानों के साथ-साथ अब तो सारे सितारें भी सो चुके थे पर ईशा की आँखों में नींद कहाँ... एक अजीब सी बेचैनी ईशा महसूस कर रही थी। अंकुर नींद के आगोश में डुबे हुए थे।  घड़ी की सुई की टिक-टिक से भी उसे झुंझलाहट महसूस हो रही थी।  पता नहीं क्यों कुछ छूटता हुआ महसूस हो रहा था। अंशु भाभी का अभी थोड़ी देर पहले ही फोन आया था।

नाना जी नहीं रहे…’

कब…?’

अभी थोड़ी देर पहले उन्होंने अंतिम साँस ली।’

दिल में कहीं कुछ चटक सा गया, शायद ननिहाल से जुड़ा हुआ वो अंतिम धागा ...क्योंकि उनके जाने के साथ ही ननिहाल शब्द जीवन से खत्म हो गया।  ईशा को ननिहाल हमेशा से बहुत पसंद था, ये वो जगह थी जहाँ लोग उसकी माँ को उनके नाम से पहचानते थे।  यहाँ वह राम गोपाल जी की बहू नहीं, रमेश की पत्नी नहीं और न ही ईशा की माँ थी। यहाँ वो कमला थी सिर्फ कमला…जहाँ उनके आगमन का लोगों को इंतजार रहता था, जिनकी वापसी के नाम पर लोगों के चेहरे पर उदासी पसर जाती थी।

इतनी जल्दी…कितने दिनों बाद आई हो, कुछ दिन तो रुको…

माँ का चेहरा जितनी तेजी से खुशी से चमकता उतनी ही तेजी से धप्प भी पड़ जाता।  खुशी इस बात की कुछ लोग आज भी उसके आने का इंतज़ार करते हैं, गम इस बात का जो दूसरे ही पल इस बात का इज़हार कर देता है कि अब वह पराई हो चुकी है। सिर्फ अपनों के लिए ही नहीं इस शहर के लिए भी...

दीदी क्या सोचा है आपने...कब चलेंगी। उनकी बहू कह रही थी, बीमार चल रहे थे सबका इंतज़ार करेंगे ,तो कैसे चलेगा मिट्टी खराब हो जाएगी।’

मिट्टी...एक जीता-जागता इंसान पल भर में मिट्टी हो गया। महीनों तक गर्मी की छुट्टी का इंतज़ार करने वाले नाना जी को आखिर बार देखना भी नसीब न होगा।  माँ के जाने के बाद उन्होंने ही तो सहेजा था हम दोनों भाई-बहन को...माँ जब इस दुनिया से गई बच्चे नहीं थे हम पर प्यार के दो मीठे बोल, ममता भरा हाथ तो हर उम्र में चाहिए होता है। माँ बहुत कष्ट में थी, हर बार की किमियोथरिपी निराशा की ओर धकेल रही थी...डॉक्टर हर बार कहते अब वो ठीक है पर माँ जानती थी सब कुछ ठीक नहीं था। डॉक्टर से मिलने के बाद पापा हमेशा हम भाई-बहन के सामने मुस्कराने का प्रयत्न करते, ‘सब कुछ ठीक है चिंता की कोई बात नहीं’ पर हर बार पापा के माथे की लकीरों को अनपढ़ माँ न जाने कैसे पढ़ लेती थी। आज सोचती हूँ तो लगता है पापा के लिए कितना मुश्किल रहा होगा सब कुछ... हम सब के चेहरे पर खुशी के कुछ हसीन पल देखने के लिए वो मुस्कुराने का प्रयत्न करते थे...पर मुस्कुराते रहना कोई आसान बात नहीं बहुत दर्द से गुजरती थी उनकी वो हँसी हम सब के चेहरे पर खुशी के चंद लम्हें देखने के लिए... ईशा को आज वो दिन बार-बार याद आ रहा था। माँ का शरीर कैंसर से दिन पर दिन कमजोर होता जा रहा था पर उससे ज्यादा कमजोर होती जा रही थी उनके जीने की इच्छा शक्ति… पर न जाने क्यों मायके की दहलीज उन्हें बार-बार खींच रही थी। पापा के बार-बार मना करने के बावजूद माँ हमें समेटे नाना-नानी से मिलने चली गई थी।  नानाजी ने बार-बार कहा भी था, ‘तुम चिंता न करो हम तुमसे मिलने आएँगे’ पर उस दहलीज उन दीवारों का मोह उनसे छूट नहीं रहा था।  छूटता भी क्यों जीवन की न जाने कितनी यादें जुड़ी थी उन दीवारों से, उन गलियारों से...उन्हें हमेशा लगता था शहर के चौराहे, वो नुक्कड़ उनका राह आज भी तक रहे हैं।

 एक-एक चीज का हिसाब रखने वाली माँ नानी के घर जाकर न जाने क्यों भुलक्कड़ हो जाती थी।  नानी के बार-बार कहने पर भी कुछ न कुछ सामान हर बार छूट ही जाता था। हर समय हर चीज़ को सहेजने वाली माँ खुद को सहेजना भूल जाती थी। जिसकी उँगलियों पर एक-एक चीज़ होती वो न जाने क्यों मायके से लौटते समय चीज़ें रखकर भूल जाती, शायद वो उस घर में अपनी वजूद की खूशबू बनाये रखना चाहती थी पर उस बार वो सामान नहीं शायद अपने आप को भूल आई थी। कभी-कभी इंसान मौत से पहले ही मर जाता है...माँ शायद अपना अंत जानती थी

हमेशा बोलने वाली माँ अचानक से चुप हो जाती या फिर बहुत बोलने लगती। बहुत कुछ कहना था। उन्हें पर शायद हम ही उन्हें सुन नहीं पाए। कुछ था जो माँ के साथ ही अनकहा रह गया। अबकी बार वो लौट कर आई तो कुछ था जो उन से छूट रहा था पर माँ मुँह से कुछ भी न कहती। रिश्तों और संबंधों को हमेशा सहेजने और समेटने वाली माँ सूख रही थी। माँ हमेशा कहती थी-  ‘वृक्षों से हमें संबंधों को गहराई की कला सीखनी चाहिए, कुल्हाड़ी की एक चोट से सिर्फ जड़ें नहीं मरती पेड़ भी मर जाता है।’

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः। ।’

अंतिम आहुति के साथ पूजा सम्पन्न हुई।  ईशा अपनी सोच के दायरे से बाहर आ गई।  नाना जी तस्वीर में मुस्कुरा रहे थे।  स्वागत करने वाले हाथ, दुलारने वाले हाथ आज तारीख़ बन चुके थे।  सभी लोग प्रसाद ग्रहण कर आँगन में ही बैठ गए। बड़े मामा जी के लड़के ने नाना जी के जीवन पर एक छोटा सी वृत्तचित्र बनाया था।  ईशा हर कोने में बिखरी बचपन की यादों को आँचल में समेट रही थी। पता नहीं अब कब आना हो, हो भी या शायद...नाना जी का मुस्कुराता चेहरा आँखों में समा गया।  ऑफिस जाते नाना जी, पोते की शादी में नाचते नाना जी, परिवार के साथ खाना खाते नाना जी, ईशा की आँखों के आँसू रुक नहीं रहे थे। अंशु भाभी ने धीरे से उसके हाथों पर हाथ रखाl पर स्नेह और आश्वासन का स्पर्श भी उन आँसुओं को रोक न सका। अंकुर ने धीरे से रुमाल ईशा की तरफ सरक दिया।

कुछ था जो ईशा किसी से भी बाँट नहीं पा रही थी।  पूजा संपन्न हो चुकी थी। धीरे-धीरे घर से सभी पड़ोसी, दोस्त और रिश्तेदार प्रसाद लेकर अपने-अपने घरों की ओर लौटने लगे। अंकुर ने भी धीरे से इशारा किया, ‘अगर अभी निकल लेंगे तो रात तक घर पहुँच जाएँगे।’ रुकने का कोई मतलब भी नहीं था और रोकने वाला भी दूर-दूर तक कोई नहीं था।  रोकने और मनुहार करने वाले हाथ तो न जाने कब का हाथ छुड़ाकर इस दुनिया से जा चुके थे। ईशा ने सबसे इजाजत माँगी, मामी जी ने अंकुर और ईशा का टीका किया और घर के लोगों के लिए डिब्बे में प्रसाद बाँधकर दे दिया।  ईशा ने एक भरपूर नजर घर पर डाली, कितना कुछ समेट लेना चाहती थी वो... शायद रिश्ते, शायद घर या फिर शायद ये शहर सब कुछ तो छूट रहा था। गाड़ी धूल उड़ाती आगे बढ़ गई।  रास्ते भर ईशा ने किसी से कोई बात नहीं की पर अंशु कुछ-कुछ समझ रही थी। वो उसके चेहरे को पढ़ने का प्रयास कर रही थी, उम्र में उससे छोटी ही थी पर दुनिया की उसे बड़ी अच्छी समझ थी।

जीजाजी! बड़ी देर से गाड़ी चल रही है, कहीं ढाबा देखकर गाड़ी रोक लीजिए। चाय पीने का मन कर रहा है।’

अंशु समझ चुकी थी, कुछ ऐसा था जो ईशा को चुभ रहा था।  ईशा बेचैन थी अंशु ये अच्छी तरह समझ रही थी।  नाना के घर से हमेशा के लिए नाता कहीं न कहीं टूट रहा था, सब लोग ढाबे की ओर चल पड़े।  ईशा भरे हुए कदमों से कुर्सी की तरफ बढ़ ही रही थी कि अंशु ने हाथ पकड़कर उसे रोक लिया।

दीदी! आप बुरा ना माने तो एक बात कहूँ।’

हाँ बोल न..’

नाना जी का जाना हम सब के जीवन में एक खालीपन भर गया है ; पर इस दुनिया में जो आया है, उसे एक दिन तो जाना ही है। नाना जी अपनी सारी जिम्मेदारियाँ पूरी करके गए हैं, मुझे ऐसा लगा, आपके आँसुओं का कारण सिर्फ नाना जी का जाना नहीं था।  ऐसा कुछ था जो आपको कचोट रहा था, आप के आँसू थम नहीं रहे थे।’

ईशा चुपचाप अंशु के चेहरे पर देखती रही, अंशु न जाने कैसे उसके दिल के दर्द को समझ गई थी।

अंशु! तुमसे आज तक कुछ भी छिपा नहीं है, आज भी तुमसे मैं कुछ भी नहीं छुपाऊँगी।  जिस घर में मेरी माँ पली-बढ़ी जिसकी हर सांस मायके से शुरू होती थी और मायके पर ही खत्म होती थी।  आज नाना जी के घर जब वह वृत्तचित्र चला,  तो मामा जी के बेटे, बहू, नाती-पोते सब की तस्वीरें थी;  पर मेरे पापा और मेरी माँ की एक तस्वीर भी नहीं थी। नाना जी की सन्तान, मेरी माँ उस घर की बेटी भी थी । किसी की बहन, किसी की बुआ भी थी। आज न जाने क्यों मुझे ये महसूस हुआ- माँ का वजूद उनकी मृत्यु के साथ ही खत्म नहीं हुआ, बल्कि उस घर में तो उनका अस्तित्व कब का ख़त्म हो चुका था। माँ से जुड़ा हुआ यह नाता शायद उसी दिन खत्म हो गया था, जिस दिन माँ मरी , पर इसका एहसास मुझे आज हुआ। अंशु लोगों की थोड़ी सी अनदेखी सिर्फ रिश्ते को ठंडा नहीं करती इंसान को भी ठंडा कर देती है। आज मैंने महसूस किया, कुछ साल पहले मेरी माँ मरी तो सिर्फ उनका शरीर मरा था पर लोगों की नजरों में उनका अस्तित्व तो बहुत पहले ही मर गया था।  जानती हो अंशु छोटी चाची गरीब परिवार से थी, दादी ने उनकी सुंदरता देखकर चाचा से शादी की थी। माँ बताती थी, चाची के मायके वाले इस रिश्ते के लिए तैयार नहीं हो रहे थे, क्योंकि उन्हें लगता था, जीवन भर वो इतने सम्पन्न परिवार के साथ अपने कर्तव्यों का निर्वाह नहीं कर पाएँगे।’

कर्तव्य…?’

कर्तव्य… मतलब लेन-देन। भारतीय परिवारों में हर मौके तीज-त्योहार पर आने वाला नेग, न्योछावर,लेन-देन बहू के घर वालों और समधियानें का कर्तव्य ही तो है।’

ईशा की बात सुन अंशु मुस्कुरा दी।

अंशु! उस पर से तुर्रा ये कि इसमें नया क्या है, दुनिया करती है।  दादी ने चाची की सुंदरता पर मोहित होकर उन्हें दो कपड़ों में लाना मंजूर तो किया था पर शादी होते ही दादी यह बात भूल चुकी थी कि चाची के परिवार के लोगों की ऐसी स्थिति नहीं है कि वह हर मौके पर नेग-न्योछावर भेजते रहें पर चाची ने अपने मायके वालों की इज्जत रखने के लिए न जाने कितनी बार चाचा जी से बचा-बचा कर रखे पैसों से कभी मिठाई तो कभी कपड़े खरीद कर मायके की इज्जत रखी।  दादी इंसान के तौर पर बहुत अच्छी थी पर सास…दादी समझ जाती थी कि ये सारा सामान किस तरह से एकत्र किया गया हैं।  ‘सैंया का दाम और भैया का नाम’ दादी का ये एक वाक्य चाची को नश्तर की तरह चुभता पर वह बेचारी क्या करती। घर में जेठानी भी थी, एक अनदेखी सी प्रतिद्वंद्विता बनी ही रहती। आश्चर्य की बात ये प्रतिद्वंद्विता उन दोनों के मन में कभी नहीं उपजती। माँ के चाची से हमेशा से अच्छे संबंध रहे पर दादी, बुआ और नाते- रिश्तेदारों तुलना कर ही देते थे।

एक बार चाची ने मन की गाँठों को माँ के सामने खोलकर रख दिया था।  उन्होंने रोते-रोते माँ को बताया था कि भाई भाभी के आने के बाद बिल्कुल ही बदल गए हैं पर मायके की इज्जत रखने के लिए मन पर पत्थर रखकर वहाँ जाना ही पड़ता है।  औरत का जीवन कभी ससुराल में मायके की इज्जत रखने तो कभी मायके में ससुराल की इज्जत रखने में ही बीत जाता है। माँ अच्छी तरह से समझती थी कि विदाई में मिली चाची की साड़ियाँ ,उनकी खुद की खरीदी हुई होती थी, पर आज समझ में आता है कहीं ना कहीं माँ भी तो मायके की इज्जत ही रख रही थी।  नाना-नानी अपने सामर्थ्य अनुसार सब कुछ कर ही रहे थे पर आज मामा के परिवार का व्यवहार देखकर यह महसूस हुआ कि मायके की दहलीज माँ के हाथ से कब की निकल चुकी थी। जिस परिवार के पास नाना के परिवार के नाम पर उनकी बेटी और उसके परिवार की एक तस्वीर भी उपलब्ध न हो सकी, वो भला माँ से जुड़े हुए रिश्तों की क्या कद्र करेगा।

माँ बस नाना- नानी का मुँह देख कर आती- जाती रही, शायद ससुराल में मायके का सम्मान बचाए रखने के लिए…

अंशु ईशा के चेहरे को देख रही थी और ईशा आसमान में बिखरे उन बादलों के बीच डूबते सूरज को… रिश्तों की भीड़ में आज एक रिश्ता कहीं डूब गया था। 0

सम्पर्कः लाल बाग कॉलोनी, छोटी बसही, मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश -231001, Email- ranjana1mzp@gmail.com

3 comments:

Bharati Babbar said...

बहुत मर्मस्पर्शी कहानी जिसमें हर स्त्री किसी न किसी बिंदु पर स्वयं को खड़ा पा सकती है।

karuna said...

सत्यबोध कराती कहानी

Anonymous said...

रिश्तों का यथार्थ। मर्मस्पर्शी क़र्ज़। सुदर्शन रत्नाकर