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Jul 1, 2022

विनोद साव से बातचीतः 'व्यंग्य' हिन्दी साहित्य का एक नवोन्मेष है

साक्षात्कारकर्ता : राजशेखर चौबे

साहित्य की अन्य विधाओं की तुलना में हिन्दी व्यंग्य ज्यादा प्रकाशित हो रहे हैं। व्यंग्यकारों की संख्या अब पहले जैसी उँगलियों में गिने जाने योग्य भर नहीं रहीं। व्यंग्य के आयोजन भी भरपूर हो रहे हैं। सम्मान पुरस्कार भी खूब बँट रहे हैं। बावजूद इनके हिन्दी व्यंग्य के मूल्यांकन को लेकर पशोपेश की स्थिति अभी भी बनी हुई है। प्रगतिशील आलोचकों का एक बड़ा वर्ग इसे विधा नहीं मानता;  इसलिए उनकी पत्रिका व आलोचना के एजेंडे से व्यंग्य बाहर है। इसे विधागत लेखन नहीं मानने के कारण लिखे जा रहे व्यंग्य की सम्यक् आलोचना नहीं हो पा रही है। साहित्य अकादमियों, परिषदों, सृजनपीठों ने विशाल व्यंग्य जगत् से अपना मुँह फेरे रखा है। ऐसे विश्वासघाती माहौल में व्यंग्य अपनी ट्रैक पर सबसे आगे तो दौड़ रहा है पर उसे प्रतियोगिता से बाहर माना जा रहा है। इन और ऐसे कई प्रश्नों पर हमारे दौर के चर्चित व्यंग्यकार विनोद साव से व्यंग्यकार राजशेखर चौबे की बातचीत यहाँ दी जा रही है, ताकि, हिन्दी साहित्य के इस सबसे असरदार नवोन्मेष पर विधा दुविधा और सुविधा पर खुलकर चर्चा हमारे पाठकों के सामने आ सके और कोई रास्ता खुल सके।   - संपादक

प्रश्न -  विनोद जी.. आप व्यंग्य के जाने माने लेखक हैं और पिछले तीन दशक से व्यंग्य लिख रहे हैं। आपके समय में व्यंग्य की क्या स्थिति थी ?

उत्तर - राजशेखर जी.. वर्ष 1990 से मैंने लिखना शुरू किया । मैंने देर से लेखन शुरू किया था तो मुझे लगा कि ‘देर से लेखन शुरू करने का एक बड़ा लाभ यह है कि अपनी आरंभिक रचनाओं के लिए शर्मिंदा होना नहीं पड़ता।’ सामयिक संदर्भ में लिखता था। विधा निश्चित नहीं थी । फिर अख़बारों ने मेरे कुछ सामयिक आलेखों को व्यंग्य बताकर छापा तब लगा कि मेरी रचनाएँ व्यंग्य की तरह बन रहीं है । बाद में मैंने उसी ‘स्पिरिट’ में लिखना शुरू कर दिया था। इस तरह मेरे व्यंग्य लेखन का मार्ग प्रशस्त हुआ।

उस समय हिंदी व्यंग्य की स्थिति बहुत समृद्ध थी राजशेखर भाई। यह आजादी के बाद समृद्ध हुआ था। मुझ जैसे नए व्यंग्य लेखक के लिए व्यंग्य लिखना और छपना बड़ी चुनौती का काम था क्योंकि उस समय के सभी अखबारों व पत्रिकाओं में वही लेखक छपा करते थे जिन्हें हम आज व्यंग्य के शीर्षस्थ लेखक मानते हैं । उस समय व्यंग्य लिखना- मतलब सीधा अपने पुरोधाओं से मुठभेड़ करना था । हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, रवीन्द्रनाथ त्यागी, श्रीलाल शुक्ल, मनोहर श्याम जोशी, के.पी.सक्सेना, शंकर पुण्ताम्बेकर, गोपाल चतुर्वेदी जैसे दर्ज़न भर स्तरीय लेखक धुआँधार लिख रहे और छप रहे थे। वे सभी अखबारों व पत्रिकाओं में स्तंभ लेखन कर रहे थे और भारी संख्या में लिख रहे थे। नवभारत टाइम्स में शरद जोशी दैनिक स्तंभ ‘प्रतिदिन‘ लिखते थे। अब आप बताइए इन निष्णात स्थापित व्यंग्यकारों के बीच में कोई नया लेखक कैसे जगह पाए, कैसे छपे ? यह स्थिति कहानी और कविता के साथ वैसी  नहीं थी।; क्योंकि कहानी -कविता एक पत्रिका में कई - कई छपा करतीं थीं जबकि व्यंग्य के लिए केवल एक रचना का ही कोटा ही सुनिश्चित था और तब व्यंग्य की स्वतंत्र कोई पत्रिका निकलती भी नहीं थी। अख़बारों और साहित्यिक पत्रिकाओं का ही सहारा था। ऐसी स्थिति में किसी पत्रिका में एक रचना का भी छप जाना एक नए लेखक के लिए बड़ी उपलब्धि होती थी ।

प्रश्न - फिर आपने इन स्थितियों का सामना कैसे किया और अपनी जगह कैसे बनाई ?

उत्तर - मैंने एक बार रवीन्द्रनाथ त्यागी जी को पत्र लिखा कि आप लोग सभी जगह काबिज हैं। अब बताइए हम लोग कहाँ छपे?  इस पर त्यागी जी का जवाब आया ‘तो विनोद तुम क्या चाहते हो, हम लोग मर जाए।’ बाद में शरद जोशी के इस सूत्र को ध्यान में रखा कि ‘लाल डिब्बे पर भरोसा रखो।’ यह मानकर मैं निरंतर रचनाएँ लिखता रहा और पोस्ट बॉक्स में डालता रहा । व्यंग्य को स्थापित करने में अखबारों की भूमिका बड़ी रही । प्रायः सभी अखबारों में व्यंग्य के स्तंभ छपा करते थे । कई ऐसे अखबार भी हैं, जो व्यंग्य के दैनिक स्तंभ भी छाप रहे थे। व्यंग्य के लिए ज्यादा स्कोप अखबारों में तब भी रहा और आज भी है बल्कि व्यंग्यकार बिरादरी को इन समाचारपत्रों के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए, जो भले ही लेखकों को पारिश्रमिक नहीं देते हैं पर उन्हें छापते तो हैं।

प्रश्न - विनोद जी  क्या वजह है कि साहित्यिक पत्रिकाओं की तुलना में व्यंग्य को अखबारों ने हाथों- हाथ उठाया?

उत्तर -  राजशेखर जी..  ऐसा है कि अखबार सामयिक घटनाओं को महत्त्व देते हैं और व्यंग्य भी सामयिक घटनाओं पर ज्यादा लिखे गए;  इसलिए अखबारों ने सामयिक संदर्भों वाले व्यंग्यों को ज्यादा तवज्जो दी । पत्रकारिता जगत को साहित्य की सभी विधाओं में व्यंग्य जो है अपने ज्यादा करीब लगता रहा । पत्रकारों को व्यंग्य अपनी बिरादरी का लेखन लगता रहा । व्यंग्य विचारों से साहित्यमुखी रहा;  लेकिन अभिव्यक्ति में पत्रकारिता के तेवर लिए रहा । यह कह सकते हैं कि व्यंग्य ने साहित्य और पत्रकारिता के बीच सेतु का काम किया! इसलिए अन्य विधाओं की तुलना में व्यंग्य में यह तत्परता ज्यादा देखी गई कि कभी भी वह साहित्य के टेबल से उठकर पत्रकारिता के डेस्क पर आ जाता है । फिर आधुनिक हिन्दी में गद्य- व्यंग्य अपने आरंभिक काल से ही पत्रकारिता के साथ रहा है। भारतेन्दु युग में ही सुगठित और सुचिंतित स्वरूप में लिखे जा रहे व्यंग्य के तमाम लेखक पत्र- पत्रिकाओं से जुड़े थे या स्वयं द्वारा सम्पादित पत्र निकाल रहे थे। वह अंग्रेजों का शासनकाल था,  तब उनकी व्यवस्था की खिंचाई करने ऐसे छद्म और वक्रोतिपूर्ण लेखन से व्यंग्य लिखे जा रहे थे कि हुक्मरानों को पता भी न चले और लेखन का उद्देश्य भी सार्थक हो जाए।

प्रश्न - आपने जब व्यंग्य लेखन प्रारंभ किया उस समय का परिदृश्य और आज जब आप एक स्थापित लेखक हो चुके हैं, तो आज के परिदृश्य - इनमें आप क्या अंतर देखते है ?

उत्तर - हिन्दी व्यंग्य में व्यंग्य के तीन कालखंड निर्धारित किए जा सकते हैं – पहला - कबीर युग, दूसरा - भारतेन्दु युग, और तीसरा परसाई युग । आलोचना शास्त्र की दृष्टि से यह मान्य हो या ना हो;  पर अपनी सुविधा की दृष्टि से हम ऐसा कुछ निर्धारित कर सकते हैं । इन तीनों कालखण्डों में एक समानता यह देखी गई कि इनमें व्यंग्य का विद्रोही रूप उजागर और स्पष्ट हुआ। इन तीनों कालखण्डों के प्रणेता अपने समय के बड़े एक्टिविक्ट कहे जा सकते हैं। ये बड़े प्रतिक्रियावादी रहे;  पर रचनात्मक और सुधारवादी रहे। अपने- अपने युग के साहित्यिक वैचारिक प्रवर्तक और प्रवक्ता रहे। इन्होंने केवल व्यंग्य को लिखा नहीं;  बल्कि व्यंग्य को सामाजिक जागरण के लिए एक बड़े हथियार की तरह इस्तेमाल किया। भारतेंदु और परसाई ने पत्रिकाएँ भी निकाली और विभिन्न सामाजिक संगठनों से भी जुड़े और अपने विचारों को आंदोलन का बड़ा रूप दिया ।

इनमें व्यंग्य का उत्तर आधुनिक काल परसाई का रहा और हम सभी आज भी परसाई और उनके समकालीन लेखकों के प्रभाव में चल रहे हैं । व्यंग्य लेखन का रूप जो दिख रहा है उसमें हम आज भी परसाई और शरद जोशी की शैली adopt किए हुए हैं।  इस प्रभाव में हम लोगों की पीढ़ी में व्यंग्य के क्षेत्र में जो नाम उभरकर आए उनमें ज्ञान चतुर्वेदी का लेखन प्रतिनिधि लेखन रहा और वे समकालीन व्यंग्य के प्रमुख हस्ताक्षर हैं। उनके साथ कैलाश मण्डलेकर, गौतम सान्याल, प्रेम जनमेजय, रमेश सैनी, डॉ. रमेश तिवारी, गिरीश पंकज, वीरेंद्र सरल, राजशेखर चौबे जैसे कई नाम व्यंग्य साहित्य में उभरते रहे और आज भी सक्रिय हैं। नए लोग भी अच्छा लिख रहे हैं।

देखिए.. तब और अब के व्यंग्यकारों के विषय या उनके लक्षित क्षेत्र में ये अंतर रहा है कि परसाई- युग पराधीनता और स्वाधीनता का संधि-युग था । स्वतंत्रता के बाद के मोहभंग की स्थितयाँ इन रचनाकारों के लक्ष्य में रहीं। जनआकांक्षा के अनुकूल व्यवस्था न पाकर इनका विद्रोह जागा और व्यवस्था पर प्रहार किया। ज्ञान चतुर्वेदी के दौर के जो लेखक उभरकर आए वे बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक के थे और इस समय वैज्ञानिक अविष्कारों के कारण आई सूचना एवं संचार-क्रांति बाजारवाद, जनाधिक्य, सार्वजनिक उद्योगों के बदले निजी उद्योगों और विशेषकर कॉरपोरेट घरानों के बीच जनता का धन धंसा देने की कोशिश, बैंकों से हजारों करोड़ का ऋण लेकर उद्योगपतियों के चंपत होने और देश से बाहर भागने जैसे आर्थिक हादसे, संस्कृति के सेक्सी हो जाने वाले खतरे जैसे कई क्षेत्र हैं जहाँ समस्याएँ मुँह बाए खड़ी हैं उस पर बदलते राजनीतिक परिवेश में लेखकों बुद्धिजीवियों पर हमले व हत्याएँ ये सब चुनौतियाँ पनप रही हैं.. जो आज के व्यंग्य और कथालेखन के लिए बड़े मुफीद माल हैं। इन्हें लक्षित कर व्यंग्य लिखे गए और निरंतर लिखे जाने चाहिए।

प्रश्न - हिन्दी व्यंग्य को मध्य भारत के लेखकों ने अधिक अपनाया, इसका क्या कारण आप देखते हैं?

उत्तर- आपका यह प्रश्न सही है क्योंकि देश भर में होने वाले व्यंग्य के आयोजनों में मैं जहाँ भी गया, लोगों ने यह प्रश्न मुझसे किया.. और यह सही है कि यहाँ परसाई, शरद जोशी, अजातशत्रु लतीफ घोघी व्यंग्य के स्थापक लेखक हुए और भी कई लेखक हुए उनकी भी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। आज ज्ञान चतुर्वेदी यहाँ लिख रहे हैं।  संभवत: उसका कारण इसकी भौगोलिक स्थिति हो सकती है – यह क्षेत्र देश के बीचोंबीच स्थित होने से देश भर के लोगों का आगमन तुलनात्मक रूप से यहाँ अधिक होता रहा। भिन्न भाषा, भिन्न संस्कृति और भिन्न आचार व्यवहार मध्य भारत में विपुल मात्रा में उपस्थित हुआ और व्यंग्य ने इसी भिन्नता के बीच सेंध लगाई और अपने लिये व्यंग्य, हास्य, विनोद लेखन के लिए कच्चा माल हासिल किया।

प्रश्न - हिंदी साहित्य का जो आलोचना- जगत् है,  उसमें व्यंग्य का स्थान तो बड़ा गौण दिखाई देता है। क्या आलोचकों ने व्यंग्य को दोयम दर्जे का लेखन माना है या साहित्य नहीं मानकर इसे कुछ लेखकों का खिलंदड़ा या मसखरा पन मानते है ?

उत्तर -  दरअसल.. व्यंग्य की आलोचना के लिए जो मनीषा चाहिए या फिर जिस बौद्धिक मानसिक स्तर की तैयारी होनी चाहिए जैसा कि श्रीलाल शुक्ल का मानना है, उसका हिन्दी आलोचकों के पास बड़ा अभाव रहा है। एक कारण यह हो सकता है और दूसरा कारण ऐसे सांगठनिक आलोचक जो अपने को प्रतिबद्ध मानते है इन्होंने व्यंग्य को विधागत लेखन नहीं माना और इसलिए यह उनकी आलोचना के एजेंडे में कभी नहीं रहा। यह हिन्दी आलोचना का दुर्भाग्य रहा कि परसाई, शरद जोशी जैसे लेखकों ने आधुनिक हिन्दी साहित्य को जो एक नवोन्मेष दिया, उसे अपनी संकीर्ण आलोचना पद्धति में वे नहीं समझ पाए। परसाई ने व्यंग्य को शूद्र से क्षत्री बनाया था। उसे आलोचक फिर से शूद्र बना देने पर तुले रहते है। ले देकर परसाई ने व्यंग्य लेखन की एक सुव्यवस्थित परम्परा का निर्माण कर उसे समृद्ध किया था, जिसे परसाई के समकालीन व्यंग्यकारों ने इस परम्परा को और मज़बूत किया था। पर इन रचनाकारों के समकालीन आलोचकों ने साहित्य की एक नई विकसित होती परम्परा को धो डाला। उन्हें ये भी भान नहीं हुआ कि अपनी हेकड़ी में वे अनजाने ही एक नवोन्मेष को खत्म करने की नादानी कर रहे हैं।  उनकी आलोचना- दृष्टि परसाई की सुपुष्ट की हुई परम्परा के खिलाफ हो गई है। वे नहीं जान पा रहे हैं कि वे क्या कर रहे हैं!

परसाई व्यंग्य के प्रथम पुरुष हैं और वसुधा पत्रिका के संस्थापक रहे । यह विडम्बना है कि उनकी पत्रिका ने ही व्यंग्य रचनाओं को नहीं छापा । इन आलोचकों ने परसाई को भी व्यंग्यकार नहीं माना उन्हें निबंधकार, कहानीकार बताकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री की। परसाई के लेखन को केवल इसलिए महत्त्वपूर्ण माना;  क्योंकि उनके ज्यादातर लेखन का आधार मार्क्सवादी चिंतन था। शरद जोशी भी उनके लिए महत्त्वपूर्ण नहीं रहे;  क्योंकि शरद जोशी मार्क्सवादी नहीं थे। देहरादून में जब मेरी मुलाकात रवीन्द्रनाथ त्यागी से हुई, तब उन्होंने यह चौंकाने वाली टिपण्णी की कि परसाई अगर मार्क्सवादी नहीं होते, तो शरद जोशी व्यंग्य के टॉप पर होते ।’

हिन्दी साहित्य में गद्य- व्यंग्य के बहाने विधा की एक ऐसी नई प्रवृत्ति जन्म लेकर सुन्दर साकार रूप ग्रहण कर रही थी जो देश की अन्यान्य भाषाओं में दुर्लभ थी। इस नवोन्मेष का श्रेय हिन्दी जगत को मिलने जा रहा था। देश की अन्य भाषाएँ परसाई, शरद जोशी की रचनाओं और श्रीलाल शुक्ल के ‘रागदरबारी’ व मनोहर श्याम जोशी के व्यंग्य से लबरेज उपन्यासों जैसी अनमोल कृतियों को अभिभूत होकर अचम्भे से देख रहीं थी और अपनी भाषाओं में हिन्दी व्यंग्य की तल्खी और तेवर को आजमाने की कोशिश कर रही थी, पर संकीर्ण और किताबी दिमाग से भरी हिन्दी आलोचना ने सब गुड़- गोबर करके रख दिया। यह हमारी वीभत्स राजनीति से प्रेरित उसी तरह की पैंतरेबाज़ी है जिसमें एक पार्टी अपने गुणों का बखान तो कर नहीं सकती पर हाँ दूसरी पार्टी और उसके नेताओं की मिट्टी-पलीद तो कर सकती है। यहाँ भी कर दिया। अब ‘व्यंग्यालोचन’ की गेंद व्यंग्यकारों के पाले में है ,इसी आपाधापी में से ही कोई रास्ता निकले तो निकले।

विश्व आलोचना साहित्य में अंग्रेजी के हास्य-व्यंग्य लेखकों का बड़ा नाम और स्थान रहा है पर हिन्दी साहित्य और हिन्दी फिल्में दोनों ही जगह में हास्य और विनोद प्रियता को सतही और अगंभीर प्रदर्शन माना गया।

आपने जो खिलंदड़ेपन की बात उठाई यह भी व्यंग्य का दुर्भाग्य है कि व्यंग्य के गहन सामाजिक सरोकारों से उठकर पत्नी साली सास या स्त्री की दयनीय स्थितियों को लक्षित कर भोंडा उपहास आज भी किया जा रहा है! ऐसे लेखकों को छापने वाले संपादक भी दोषी हैं!

प्रश्न - विनोद जी व्यंग्य के अतिरिक्त आपने कहानी, यात्रा- वृतांत, उपन्यास भी लिखे और पुरस्कृत हुए पर इन रचनाओं में आपके व्यंग्य का प्रभाव नहीं दिखता ।

उत्तर - उपन्यास में तो है! दो उपन्यास हैं – चुनाव और भोंगपुर-30 कि.मी. ये दोनों ही व्यंग्य उपन्यास हैं और मुझे ज्यादातर पुरस्कार इन्हीं दो कृतियों पर मिले हैं। विगत दिनों अपने समग्र लेखन के लिए ‘सत्पर्णी सम्मान’ दिया गया। आपके  इस प्रश्न के जवाब में आप सम्मान पत्र में लिखी गई इन पंक्तियों को उद्धृत कर सकते हैं – “छत्तीसगढ़ प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मलेन श्री विनोद साव, दुर्ग को उनके सुदीर्घ साहित्यिक अवदान के लिए ईश्वरी प्रसाद मिश्र स्मृति सप्तपर्णी सम्मान 2018 प्रदान करते हुए आनंद का अनुभव करता है. सर्वप्रथम एक व्यंग्य लेखक के रूप में चर्चित व प्रशंसित होकर उन्होंने कहानी विधा की और रुख किया। इसके समानांतर यात्रावृत्तांत लेखन में भी उनकी रुचि जागृत हुई। इस तरह तीन विभिन विधाओं में समान गति से लिखते हुए उन्होंने अपने सामर्थ्य का परिचय दिया। उनकी कहानियों के विषय निरूपण में संवेदनशीलता व शैली में सरसता है, जबकि यात्रा विवरण में वे बारीक़ विवरणों में जाते हैं और सुन्दर कोलाज पाठकों के सामने रखते हैं।  सम्मेलन, श्री विनोद साव को शुभकामनाएँ देता है कि उनकी लेखनी इसी तरह सक्रिय बनी रहे। ”

 सम्पर्कः 295/, रोहिणीपुरमरायपुर , मो. 9425596643

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