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Jul 1, 2022

यादें- जीवन के सफर में राही मिलते हैं बिछड़ जाने को...

 - वीणा विज ‘उदित’

तन्हाई का मंजर हो और पुराने फिल्मी गीत पार्श्व में बज रहे हों, तो अतीत के गवाक्ष या झरोखे खुलने लग जाते हैं और मन की गहराइयों से कई तस्वीरें उतरकर सामने मुँह निकालकर आपको उसी दौर में बुलाने लगती हैं । मंत्रमुग्ध से खिंचे चले जाते हैं उस दौर के दीवाने हम जैसे...!

नजर लागी राजा तोरे बंगले पर

जो मैं होती राजा तुम्हरी दुल्हनिया

मटक रहती राजा तोरे बंगले पर’.....

किशोरी बाई का किरदार निभाती नलिनी जयवंत नवकेतन फिल्म्स की ‘काला पानी’ फिल्म में मटकती हुई आज भी आँख के समक्ष आ जाती है। पुराने जमाने में हर कामयाब हीरोइन एक बार कोठे वाली का रोल अवश्य करती थी, तभी वह उच्च कोटि की सफल अभिनेत्री मानी जाती थी। देवानंद और मधुबाला की रोमांटिक जोड़ी के साथ नलिनी जयवंत कोठेवाली बनी थी। इस फिल्म में नलिनी जयवंत को फिल्म फेयर का बेस्ट स्पोर्टिंग एक्ट्रेस का अवार्ड मिला था। नरगिस, बीना राय, मीना कुमारी, मधुबाला, रेखा, ऐश्वर्या सभी ने कोठे वालियों के मशहूर रोल निभाए हैं अपने जीवन में। 1958 में यह फिल्म रिलीज हुई थी और हिट साबित हुई थी।

 इससे 2 साल पहले देवानंद और नलिनी जयवंत की रोमांटिक फिल्म ‘मुनीमजी’ देखी थी ।

हम जवाँ होती लड़कियों के बदन में हार्मोनल बदलाव आ रहे थे, तो स्वाभाविक है- रोमांटिक मूवी से अधिक ही रोमांचित और प्रभावित हो रही थीं हम सब! हमारे स्कूल की दसवीं की एक मॉडर्न सिंधी छात्रा राधा लालवानी ने  तो  लगातार 9 दिन पिक्चर हॉल में जाकर यह फिल्म देखी थी! छोटा शहर था यह बात बहुत फैल गई थी। सबकी जुबान पर उसका चर्चा था। मुझे याद है हमारे ग्रुप ने भी राधा के कारण ‘मुनीमजी’ देखी और मन ही मन उसे धन्यवाद देते हुए, बहुत पसंद की थी।

उसी वर्ष मैं नौवीं कक्षा में पढ़ती थी। हमारे स्कूल की ओर से पहली बार तब इंदौर में ए.सी.सी. का सोशल सर्विस कैंप लगने जा रहा था। कुल पंद्रह लड़कियाँ ,कटनी से इंदौर एक हफ्ते के कैंप के लिए चुनी गईं थीं और साथ में मिस शाह( क्रिश्चियन) टीचर जा रही थीं। एक हफ्ते के टूर का सारा इंतजाम इंदौर की कोई संस्था कर रही थी। बहुत उत्साह और रोमांच था हवाओं में! खुशी के मारे जमीन पर पैर नहीं पड़ रहे थे हम सहेलियों के । यह सोचकर कि हम दिन-रात इकट्ठे रहेंगी! क्योंकि उस जमाने की बंदिशों के मुताबिक हम सपने में भी ऐसी बातें नहीं सोच सकते थे।

 खैर, निश्चित दिन कटनी से सुबह रेलगाड़ी में जनाना डब्बे में हमें प्रिंसिपल मिसेज कुक ने बिठाकर विदा किया। उस जमाने में औरतों के लिए जनाना डब्बे होते थे। जबलपुर से होते हुए हम जब तक खंडवा पहुँचे तब तक सूर्य सिर पर था और धूप आसमान पर तेजी बिखेर रही थी। खंडवा में 10 मिनट का स्टापेज था..,,,, उसके बाद इंदौर के लिए 5 घंटे का सफर अभी बाकी था। 10 मिनट के बाद, जैसे ही गाड़ी चलने लगती,  चक्के की चरमराहट की आवाज रेल की पटरियों पर अभी आरंभ ही होती कि फिर रुक जाती !  ऐसा बार - बार हो रहा था।  हम सब साथ में खिड़की से मुँह निकालकर बाहर झाँकने लगीं;  क्योंकि यह लकीर से हटकर रवैया हो रहा था । उन दिनों खिड़कियों पर लोहे की छड़ें नहीं होती थीं। खिड़की बंद करने के लिए धड़ाम से कपाट नीचे गिरता था, जिसमें उँगली या हाथ आने का डर बना रहता था। उसमें लगे लकड़ी के हैंडल से खींचकर उसे ऊपर टिकाना पड़ता था। और कोयले का ईंधन इंजन में जला करता था, जिससे मुँह बाहर निकालते ही इंजन से निकलते धुँए में कोयले के कण से आँख में किरकिरी हो जाती थी। खैर ,हमने बाहर देखा तो हैरान रह गए यह देखकर कि वहाँ सैकड़ों लोग खड़े थे, स्टेशन पर और रेलगाड़ी के आसपास। बहुत से लोग इंजन को आगे बढ़ने से रोकने के लिए रेल की पटरियों पर बिछे जा रहे थे।

 हम सब सहेलियाँ तरह-तरह की अटकलें लगा रही थीं कि तभी पिछले दरवाजे से बुर्के में लिपटी एक औरत हमारी बोगी में चढ़ी और उसे छोड़कर कुछ लोग पीछे से ही नीचे उतर कर गायब हो गए थे।  वह मोहतरमा चुपचाप बुर्का ओढ़े एक सीट पर हम सब के बीच आकर बैठ गई थीं। काफी देर बाद गाड़ी ने चलना आरंभ किया और हल्के- हल्के गाड़ी खिसकने लगी। तब हमने अपने चेहरे भीतर की ओर घुमाए और अपने एकछत्र साम्राज्य में एक घुसपैठिया देखकर चुपचाप आँखों के इशारे करने लगीं। हाँ, इतना चैन जरूर आया कि घंटे बाद रेल गाड़ी चली, तो सही आखिर।

हमारी एक साथिन विजय तिवारी बहुत चुलबुली थी उसने उस बुर्के वाली के पैर देखे और हम सबको इशारा किया कि उधर देखो। हम देखकर हैरान थे कि उस काले बुर्के के पैर सफेद संगेमरमर के लग रहे थे एक शानदार सैंडल में।  शायद उस मोहतरमा ने हमारी नजरों को पर्दे की जाली  के अंदर से भाँप लिया और पैर छुपाने के चक्कर में उसने हाथों से बुर्का पैरों पर डालने का यत्न किया, तो उन खूबसूरत हाथों को देखकर तो हम सभी की आँखें फटी की फटी रह गईं। अब ‘बिल्ली के गले में घंटी कौन बाँधे ?’ सबकी नजर मुझ पर आकर ठहर गईं। मानो कह रही हों कि तुम पता करो यह कौन है। लो जी, जब गाड़ी ने रफ्तार पकड़ ली, तो कुछ सहज होते हुए मैंने हिम्मत करी और उनके पास जाकर बैठ गई।  वह भी शायद अब सहज होने का यत्न करने लगी थीं। हमारी मैडम तो किसी पंगे में नहीं पड़ना चाहती थी। वह मस्त कोई उपन्यास पढ़ने में मशगूल थीं।  मैंने जैसे ही पूछा, ‘आप भी इंदौर चल रही है क्या ?’ तो उन्होंने इधर- उधर देख कर इत्मीनान से अपना बुर्का पलट दिया। लगा,  चौदहवीं का चाँद आसमाँ की हदों को पार कर हमारी बोगी में आ गया हो।  बला की खूबसूरत थीं वह मोहतरमा!

हम सब लड़कियों की दिल की धड़कनें मानो रुक गई थीं। मुँह खुले रह गए थे।

मैं,  नलिनी जयवंत !’

 क्या आप, फिल्म हीरोइन नलिनी जयवंत हैं?’

 तो चेहरे पर एक मीठी मुस्कान बिखेरते हुए उन्होंने आँखों की मस्ती से ‘हाँ’ कहा । बड़ा दिलकश स्टाइल था उनका!

 क्या अदा थी!

 उस पुराने जमाने में फिल्मी अदाकार पर्दे की चीज हुआ करते थे। आम आदमी की पहुँच से परे ...लोग उनसे ख्वाबों में ही मिल सकते थे। हकीकत में उनको देखना मिलना या बात करना तो कोई सोच ही नहीं पाता था। हम सबकी बैठे -बिठाए लॉटरी लग गई थी। मैडम भी उपन्यास बीच में ही छोड़कर हमारे बीच पहुँच गई।

काले फ्रॉक पर सफेद बताशे वाला प्रिंट, सफेद सलवार और काली जाली का दुपट्टा ओढ़े उस संगेमरमर की मूरत को हम सब अपलक निहार रहे थे । उसी वर्ष उनकी नई फिल्म ‘काला पानी’  रिलीज हुई थी।  उत्सुकतावश मैंने पूछ लिया,’आप बंबई से खंडवा कैसे आ गईं? क्या यहाँ  की रहने वाली हैं?’

 नहीं, फिल्म की शूटिंग खत्म करके मैं रिलैक्स होने के लिए अशोक कुमार जी के परिवार में खंडवा आई थी कुछ दिनों के लिए।  ऐसी खबरें छुपती नहीं, फैल जाती हैं। आज मुझे वापस जाना था बंबई। यह भी रेलवे स्टेशन वालों से या कहीं से जनता को पता लग गया। सब मुझे देखना और मुझसे मिलना चाहते थे। इस चिलचिलाती धूप में भी रेल की पटरी पर बारी-बारी से लोग लेटे जा रहे थे कि जब तक मैं उनको नहीं मिलूँगी ,वह गाड़ी को आगे नहीं जाने देंगे। तभी आप लोगों को भी इतनी देर यहाँ रुकना पड़ा। पर एक इसी बोगी में केवल आप लोग थीं, सो मेरे बॉडीगार्ड मुझे यहाँ छोड़ गए कि मैं यहाँ बची रहूँगी। इस आकस्मिक मुसीबत से मेरी रक्षा करने के लिए आप सब का शुक्रिया!’

    ‌ वह बोल रही थीं और हमें लग रहा था उनके होंठों से फूल झड़ रहे हैं। बहुत मीठी और सुरीली आवाज थी उनकी। लगा कोई इतना खूबसूरत कैसे हो सकता है! स्वर्ग की अप्सराएँ भी ऐसी ही होती होंगी अवश्य! तभी तो ब्रह्म ऋषि विश्वामित्र भी विमुग्ध हो गए थे मेनका पर और काम वासना में लिप्त हो गए थे।

मैडम ने अचानक पूछ लिया,  आप खंडवा ही क्यों आईं ?  कहीं और चली जातीं।’

असल में मैं अशोक कुमार जी (दादा मोनी) से मिलना चाहती थी। हमारे संबंध आत्मीय हैं हम पिछले कई वर्षों से एक साथ रहते हैं। फिल्म समाधि, संग्राम और मिस्टर एक्स में हम दोनों ने 1950 में इकट्ठे काम किया था जिससे हमारी नजदीकियाँ काफी बढ़ गई थीं। अभी वह अपने परिवार में आए हुए थे । मैं फिल्म शूटिंग समाप्त होने पर उनके पास ही आना चाहती थी- सो आ गई थी।’

आप कब से फिल्मों में काम कर रही हैं?’

उन्होंने प्यार से हमें देखा और  बताना शुरू किया…

‘12- 13 वर्ष की थी ! अपनी चचेरी बहन नूतन की माँ शोभना समर्थ के जन्मदिन पर उनके घर गई थी। तब वहाँ आए प्रोड्यूसर डायरेक्टर कांति भाई देसाई (शायद) ने मुझे देखते ही फिल्म ऑफर की और मैं तभी से अब तक ढेरों फिल्में कर चुकी हूँ।’

कोई चार -पाँच घंटे हम लोग साथ थे और ढेरों बातें चल रही थीं। उन्होंने भी हमसे पूछा ,

आप लोग इकट्ठे होकर कहाँ जा रही हैं ? कितना अच्छा लगता है ना ऐसी आजाद , मस्त जिंदगी जीना!’

हमने अपने ट्रिप की डिटेल उनको बताई।  हीरोइन बनने के बाद आजादी खत्म हो जाती है, यह तो हम उनको देखकर समझ ही रहे थे; क्योंकि उनकी हसरतें जाहिर हो रही थीं। वह बोलीं ,चलो हम सब गाना गाते हैं…

जीवन के सफर में राही मिलते हैं बिछड़ जाने को

और दे जाते हैं यादें, तन्हाई में तड़पाने को --हो हो- हो हो’

और तालियाँ बजा -बजाकर हम सब उनकी ही फिल्म ‘मुनीम जी’ का गाना गा रहे थे। बहुत ही सधे स्वर में गा रहीं थीं वो। पूछने पर उन्होंने बताया कि कई फिल्मों में वे अपने गीत स्वयं ही गाती रहीं थीं।

     एक दूसरे से सवाल- जवाब करने से हम आपस में जुड़ते चले जा रहे थे। शायद वह इस बात से बेफिक्र थीं कि उनकी कोई बात पत्रिका या किसी अखबार में लीक हो जाएगी। उस जमाने में हम लोग एक दम लल्लू थे। हमें इतना भी होश नहीं था कि हम उनका पता ले लेते! फोटो खींचने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता था। उनके पास से कोई खुशबू धीरे- धीरे हमारे मन को भा रही थी-आज सोचती हूँ उन्होंने अवश्य कोई इत्र लगाया होगा। लगता था यह सफर कभी खत्म ना हो! लेकिन अंत तो हर सफर का होता है। इंदौर में हम जब स्टेशन पर उतर रहे थे, तो नामालूम कैसे उस काले बुर्के में वो एकदम से गायब हो गईं। और हम उनके गाने की लाइन दोहराते रहे...

जीवन के सफर में राही मिलते हैं बिछड़ जाने को’  

4 comments:

विजय जोशी said...

बहुत सुंदर

Bharati Babbar said...

वाह बहुत सुंदर संस्मरण!वाक़ई उस ज़माने में फिल्मी कलाकार आम लोगों से इतनी दूर होते थे कि उनसे मुलाकात स्वप्नमयी होती थी,अब उनकी सच्चाई इतनी करीब है कि उसकी विद्रूपता छुपाये नहीं छुपती।

anju dua gemini said...

बहुत अच्छा संस्मरण

Anonymous said...

बेहतरीन संस्मरण । पढ़कर खूब आनंद आया । हमारे ज़माने का वर्णन ।वाह । बधाई ।