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Jul 1, 2022

उदंती.com, जुलाई- 2022

वर्ष - 14, अंक - 11

हज़ार बर्क़ गिरे लाख आँधियाँ उट्ठें

वो फूल खिल के रहेंगे जो खिलने वाले हैं

                          - साहिर लुधियानवी

इस अंक में

अनकहीः क्या हम भ्रष्टाचार रोक पाएँगे... -डॉ. रत्ना वर्मा

समाजः अमेरिका में बंदूक संस्कृति के दुष्परिणाम - प्रमोद भार्गव

आधुनिक बोध कथा- 7ः  तेरी बारी - सूरज  प्रकाश

रहन- सहनः वृद्धावस्था में देखभाल का संकट - जुबैर सिद्दिकी

हाइबनः सर्कस का शेर - भीकम सिंह

 विनोद साव से बातचीत  व्यंग्य हिन्दी साहित्य का एक नवोन्मेष है- राजशेखर चौबे

ग़ज़लः सोचा नहीं - धर्मेन्द्र गुप्त

यादेंः जीवन के सफर में राही, मिलते हैं बिछड़ जाने को... - वीणा विज ‘उदित’

मालवी लोककथाः तीन प्रश्न - चंद्रशेखर दुबे

कहानीः माँ से मायका - डॉ. रंजना जायसवाल

क्षणिकाएँः मेरे कमरे की खिड़की - प्रीति अग्रवाल

व्यंग्यः पद्मश्री और मैं - यशवन्त कोठारी

कविताः परिंदा -स्वाति शर्मा 

लघुकथाः एक रिश्ता यह भी - डॉ. उमेश महादोषी

लघुकथाः नेताजी गाँव में - विजयानंद विजय

कविताः अक्सर याद आता है गाँव - लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव

चोकाः मन्नत के जो धागे - रश्मि विभा त्रिपाठी

किताबेंः धन्य हैं लोकतंत्र के धकियारे! - मुकेश राठौर

प्रेरकः जितनी लम्बी चादर, उतने ही पैर पसारें - निशांत

जीवन दर्शनः क्षितिज पर ऊँटों की आहट - विजय जोशी

अनकहीः क्या हम भ्रष्टाचार रोक पाएँगे...

 डॉ. रत्ना वर्मा
भारत में कोई सरकार अपने ही मंत्री को भ्रष्टाचार या कमीशनखोरी के लिए बर्खास्त करे या गिरफ्तार करवाए, तो चौंकने वाली खबर तो बनती है। हाल ही में पंजाब सरकार ने अपने ही मंत्री को कमीशनखोरी के आरोप में जेल भेजकर एक ईमानदार पहल की है। काश ऐसी पहल सभी प्रदेश के मुख्यमंत्री करने लगें, तो देश में तरक्की के रास्ते खुल जाएँपर ऐसा सोचना तो फिलहाल स्वप्न जैसा ही है।  वैसे पंजाब सरकार ने जनता से किए वादे के अनुसार भ्रष्टाचार मुक्त सरकार देने के अपने वादे को पूरा किया है, विरोधी दल भले ही इसे राजनीतिक पब्लिसिटी स्टंट बता रहे होंपरंतु लगातार बढ़ते भ्रष्टाचार को देखते हुए जनता के लिए यह खुशी की बात है और देश के लिए भीक्योंकि चुनाव में प्रत्येक पार्टी भ्रष्टाचार- मुक्त सरकार देने का वादा तो करती है, परंतु जैसे ही सत्ता में आती है, सब भूलकर स्वयं भी उसी व्यवस्था में लिप्त हो जाती है।

हमारे देश के लिए भ्रष्टाचार कोई नई समस्या नहीं है, आजादी के बाद से ही भ्रष्टाचार ने देश में अपनी जड़े जमानी शुरू कर दी थीं, यही वजह हैं कि भ्रष्टाचार को लोगों ने जीवन में ऐसे स्वीकार कर लिया है, जैसे चाय में चीनी या दाल में नमक। इतना ही नहीं इसे भ्रष्टाचार नहीं, शिष्टाचार का नाम तक दे डाला है; क्योंकि चाहे कितना भी बड़ा काम हो या कितना भी छोटा, बगैर रिश्वत दिए आपका काम होगा ही नहीं। यहाँ तक कि अपने वाजिब अधिकार के लिए भी आपको हर कदम पर रिश्वत देनी पड़ती है। जो इस व्यवस्था के खिलाफ बात करते हैं, उन्हें भी कुछ ले- देकर मामला खतम करना ही बेहतर उपाय लगता है। सच भी है, यदि आप ईमानदारी की लड़ाई लड़ने जाएँगे, तो वहाँ भी न्याय कब मिलेगा, नहीं कह सकते। जब सरकार, व्यवस्था, पुलिस और कानून सब इसमें लिप्त हैं, तो कौन भला इससे अछूता रह सकता है।

रिश्वतखोरी, मुनाफाखोरी चोरी, डकैती जैसे छोटे- बड़े सभी अपराधों के लिए नियम कानून बने हैं। सजा भी होती है, तो लोग बरी भी हो जाते है।  सब कुछ होने के बाद भी आखिर चोरी, हत्या, लूटमार सब कुछ तो जीवन में होता है, उन्हें जेल होती है, मुकदमा चलता है, वैसे ही भ्रष्टाचार भी अबाध गति से जारी है। हम सोचते हैं कि आज एक चपरासी भी रिश्वत के बिना अंदर नहीं जाने देता, तो अंदर बैठा बाबू और अधिकारी, तो हाथ में बगैर कुछ रखे बात भी नहीं करेगा; इसीलिए जब किसी भी सरकारी काम-काज के लिए निकलते हैं, तो पहले व्यक्ति अपनी जेब टटोलता है कि देने के लायक उनके पास पैसे हैं या नहीं।

इस तरह के विचार हमारे जीवन में इतने रच-बस गए हैं कि भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे को गंभीर चिंतन के रूप में हम लोगों ने देखना ही बंद कर दिया है। यही सब कारण है कि लोगों ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज उठाना, तो बहुत दूर की बात है बात करना भी लोगों ने बंद कर दिया है। हम सोचते हैं कि एक बाबू और अधिकारी को रिश्वत लेते पकड़वाकर क्या हम भ्रष्टाचार को खत्म कर सकते हैं? जहाँ ऊपर तक भ्रष्टाचार की जड़ें जमी हों वहाँ भला एक अदना से बाबू को रिश्वत लेते पकड़वाने से क्या हो जाएगा। बड़े बड़े घोटालों में जैसे- आइपीएल घोटाला, 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला, राष्ट्रमंडल खेल घोटाला, आदर्श घोटाला आदि -आदि... अफसोस इस बात पर है कि जनता में भ्रष्टाचार के खिलाफ जो जनाक्रोश होना चाहिए, वह कहीं दिखाई नहीं देता। सरकारें आती हैं, चली जाती हैं; पर भ्रष्टाचार है कि पंख पसारे पूरी व्यवस्था को अपनी गिरफ्त में लिए चले जा रहा है।

अब देखा जाए कि भ्रष्टाचार रोकने के लिए बने कानून कितने कारगर है। 2018 में सरकार ने दोनों सदनों में प्रिवेंशन ऑफ करप्शन अमेंडमेंट एक्ट पास तो करा लिया, यह कहते हुए कि यह कानून भ्रष्टाचार रोकने में कारगर साबित होगा। परंतु दिग्गज कानून विशेषज्ञ ही इस कानून में कई खामियाँ निकाल रहे हैं जैसे- नए कानून के अनुसार पहले सबूत देना होगा, फिर सरकार जाँच की अनुमति देगी।  इससे भ्रष्टाचार में निवारण तो दूर बल्कि बढ़ावा ही मिलेगा। बिना जाँच के कोई सबूत कहाँ से लाएगा। इसी तरह आय से अधिक संपत्ति को लेकर बनाए गए संशोधित कानून पर भी सवाल उठ रहे हैं. संशोधित कानून में यह साबित करना होगा कि आय से अधिक संपत्ति गलत नीयत से, गलत तरीके से बनाई गई है। इतना ही नहीं रिश्वत देने वाले पर रिश्वत लेने वालों के बराबर मुकदमा चलाए जाने को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं। पहले तो लोग सरकारी गवाह के तौर पर सरकारी एजेंसियों की जाँच में सहायक होते थे।; लेकिन नए कानून में 7 दिन के बाद दोनों समान रूप से जिम्मेदार माने जाएँगे। ऐसे में रिश्वत लेने और देने वाले कभी भी एक दूसरे का भंडाफोड़ करने से हिचकिचाएँगे,

क्योंकि कानून की नजर में दोनों समान रूप से दोषी करार दिए जाएँगे। सजा का जो प्रावधान है, उसे भी सही नहीं माना जा रहा है। भ्रष्टाचार चाहे छोटा हो या बड़ा, दोनों समान रूप से सजा के भागीदार होंगे। तो बड़ा भ्रष्टाचार करो और गलत तरीके से कमाए पैसे देकर थोड़ी- सी सजा पाकर छूट जाओ।, तो सबसे पहले कानून को सख्त करना होगा।

 साथ ही सबसे ज्यादा जरूरी है शीर्ष पर बैठे राजनेता ईमानदार हों। यदि सरकारें आरंभ में ही इसपर लगाम लगाने को दृढ़संकल्पित होतीं, तो आज देश इस दलदल में नहीं फँसा होता। इसकी शुरूआत तो ऊपर से नीचे की ओर करनी होगी। जिस दिन शीर्ष स्तर का नेतृत्व भ्रष्टाचार से मुक्त होगा, तभी वह अपने से नीचे की व्यवस्था और नौकरशाही पर लगाम लगा सकेगा। अब यदि इसकी शुरूआत पंजाब से हो चुकी है, तो इसे एक दिन की खबर बनाकर समाप्त नहीं करना चाहिए। मीडिया के भी अपने फायदे- नुकसान हैं। वह भी उन्हीं खबरों को प्रमुखता से प्रकाशित करता हैं, जिनसे उन्हें फायदा होता है । यहाँ तक कि बड़े- बड़े घोटाला करने वाले राजनेता और व्यापारी, जो आज जेल की हवा खा रहे हैं, उनकी सजा की खबर को भी एक छोटे से कॉलम में छापकर अपनी जिम्मेदारी से बरी हो जाते हैं। जैसे अभी हाल ही में यह खबर समाचार- पत्र के भीतर के पेज में एक कोने में सिंगल कॉलम में छपी थी– ‘सीबीआई की एक विशेष अदालत ने शुक्रवार को हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला को आय के ज्ञात स्रोतों से अधिक संपत्ति जमा के लिए चार साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई। अदालत ने 50 लाख का जुर्माना लगाया और पूर्व सीएम की चार संपत्तियों को भी जब्त कर लिया।’ कहने का तात्पर्य है कि भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए देश के प्रत्येक जिम्मेदार नागरिक और समूचे समाज को आगे आ कर आवाज उठानी होगी। चुप बैठे रहने से तो जैसे आजादी के 75 साल गुजर गए ; आगे कई 75 साल और गुजर जाएँगे। भ्रष्ट नौकरशाहों और भ्रष्ट राजनेताओं के बीच घिरी जनता बस तमाशबीन बनकर रह जाएगी। जनता चाहे तो अपनी ताकत दिखा सकती है, वह उसे ही अपने प्रदेश का मुखिया चुने, जो अपनी जनता को भ्रष्टाचार मुक्त राज्य देने का वादा करे।

समाजः अमेरिका में बंदूक संस्कृति के दुष्परिणाम

- प्रमोद भार्गव

यह सच्चाई कल्पना से परे लगती है कि विद्या के मंदिर में पढ़ाई जा रही किताबें हिंसा की रक्त रंजित इबारत लिखेंगी ? लेकिन हैरत में डालने वाली बात है कि इन हृदयविदारक घटनाओं का एक लंबे समय से सिलसिला हकीकत बना हुआ है। देश के महानगर और शैक्षिक गुणवत्ता की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण माने जाने वाले देश अमेरिका के रॉब एलीमेंट्री प्राथमिक विद्यालय में एक 18 वर्षीय छात्र साल्वाडोर रैमोस ने अँधाधुँध गोलीबारी करके 19 छात्रों समेत 21 लोगों की हत्या कर दी। इनमें उसकी दादी भी शामिल है। घर पर दादी की हत्या के बाद ही उसने स्कूल में पहुँचकर यह तांडव रचा था। इस घटना के बाद अमेरिका ने चार दिन के राष्ट्रीय शोक की घोषणा तो कर दी, लेकिन हथियार बेचने वाली बंदूक लॉबी पर अंकुश लगाए जाने के कोई ठोस उपाय अमेरिका जैसा ‘शक्तिशाली देश नहीं कर पा रहा है। हालांकि अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने राष्ट्र के नाम दिए संबोधन में कहा है कि ‘स्कूल में बच्चों ने अपने मित्रों को ऐसे मरते देखा, जैसे वे किसी युद्ध के मैदान में हों। एक बच्चे को खोना ऐसा है, जैसे की आपकी आत्मा का एक हिस्सा चीर दिया गया हो। बावजूद इसके क्या हमें नहीं सोचना चाहिए कि आखिर हम बंदूक संस्कृति के विरुद्ध कब खड़े होंगे? और कुछ ऐसा करेंगे, जो हमें करना चाहिए।’ साफ है, बाइडेन का इशारा संसद की तरफ था, जिससे वह संविधान में संशोधन कर ऐसा कानून बनाए, जिससे बंदूक रखने पर अंकुश लगे।

अमेरिका में कोरोना कालखंड में भी ऐसी ही घटना देखने में आई थीं, जब दसवीं कक्षा के एक 14 वर्षीय नाबालिग छात्र ने  तीन छात्रों की शाला परिसर में गोली मारकर हत्या कर दी थी। हत्यारे आरोपी छात्र ने अपने पिता की सेटमी स्वचालित बंदूक से करीब 20 गोलियाँ दागी थीं। अचरज में डालने वाली बात है कि कोरोना के भयावह संकटकाल में भी अमेरिका में बंदूकों की माँग सात गुना बढ़ गई थी। इनमें से 62 प्रतिशत बंदूकें गैर श्वेतों के पास हैं। इस बीच महिलाओं में भी बंदूकें खरीदने की दिलचस्पी बढ़ी है। महिलाएँ पिंक पिस्टल खरीद रही हैं। बंदूकों की इस बढ़ी बिक्री का ही परिणाम है कि 2021 में ही फायरिंग की 650 घटनाएँ घट चुकी हैं और दस छात्रों की मौत इस एक साल में हो चुकी थी। इस साल इसी प्रकृति की अमेरिका में 200 से ज्यादा घटनाएँ घट चुकी हैं। साफ है, आधुनिक और उच्च शिक्षित माने जाने वाले इस देश में हिंसा की इबारत लिखने का खुला कारोबार चल रहा है। जाहिर है, यहाँ के शिक्षा संस्थानों में किताबों से संस्कार ग्रहण करने वाली शिक्षा शायद हिंसा की इबारत कैसे लिखी जाए, यह पाठ पढ़ा रही है ?

अमेरिका ‘गन कल्चर’ से उबर नहीं पा रहा है। सार्वजनिक स्थानों, विद्यालयों, संगीत समारोहों आदि में आए दिन बंदूक की आवाज सुनाई दे जाती है। नतीजतन युनाइटेड स्टेट का यह गन कल्चर उसके लिए आत्मघाती दस्ता साबित हो रहा है;  इसलिए अमेरिका में रोजाना 53 लोगों की गोली मारकर हत्या होती है। अमेरिका में होने वाली हत्याओं में से 79 प्रतिशत लोग बंदूक से मारे जाते हैं। अमेरिका की कुल आबादी लगभग 33 करोड़ है, जबकि यहाँ व्यक्तिगत हथियारों की संख्या 39 करोड़ हैं। अमेरिका में हर सौ नागरिकों पर 120.5 हथियार हैं। अमेरिका में बंदूक रखने का कानूनी अधिकार संविधान में दिया हुआ है। ‘द गन कन्ट्रोल एक्ट’1968 के मुताबिक, रायफल या कोई भी छोटा हथियार खरीदने के लिए व्यक्ति की उम्र कम से कम 18 साल होनी चाहिए। 21 वर्ष या उससे अधिक उम्र है तो व्यक्ति हैंडगन या बड़े हथियार भी खरीद सकते हैं। इसके लिए भारत की तरह किसी लाइसेंस की जरूरत नहीं है। इसी का परिणाम है कि जब कोरोना से अमेरिका जूझ रहा था, तब 2019 से लेकर अप्रैल 2021 के बीच 70 लाख से ज्यादा नागरिकों ने बंदूकें खरीदी हैं। यहाँ घटने वाली इस प्रकृति की घटनाओं को सामाजिक विसंगतियों का भी नतीजा माना जाता है। अमेरिकी समाज में नस्लभेद तो पहले से ही मौजूद है, अब बढ़ती धन-संपदा ने ऊँच-नीच और अमीरी-गरीबी की खाई को भी खतरनाक ढंग से चौड़ा कर दिया है। टेक्सास के प्राथमिक विद्यालय का हमलावर यह छात्र भी अत्यंत गरीब परिवार से था। इसके सहपाठियों ने बताया है कि उसके सस्ते कपड़ों के कारण अन्य छात्र उसकी खिल्ली उड़ाया करते थे। गरीबी को इंगित करने वाला यह मजाक 21 लोगों की जान पर भारी पड़ गया।

दरअसल अमेरिका ही नहीं, दुनिया के उच्च शिक्षित और सभ्य समाजों में परिवार या कुटुंब की अवधारणा समाप्त होती चली जा रही है। परिवार निरंतर विखंडित हो रहे हैं। यहाँ पति और पत्नी दोनों को अपने विवाहेतर संबंधों की मर्यादा का कोई ख्याल नहीं है। नतीजतन तलाक की संख्या बढ़ रही है। ऐसे में उपेक्षित और हीन भावना से ग्रस्त युवा आक्रोश, असहिष्णुता एवं हिंसक प्रवृत्ति की गिरफ्त में आकर मानसिक रूप से विक्षिप्त हो रहा है। इन मानसिक बीमारियों को बढ़ाने में बेरोजगारी भी बड़ा कारण बन रही है। अवसाद की स्थिति में जब युवकों को आसानी से बंदूक हाथ लग जाती है, तो वे अपने भीतरी आक्रोश को हिंसा की इबारत लिखकर तात्कालिक उपाय कर लेते हैं;  किंतु उनका और उनके परिजनों का दीर्घकालिक जीवन कानूनी दुविधाओं के चलते लगभग नष्ट हो जाता है। गन कल्चर नाम से कुख्यात इस प्रवृत्ति पर अंकुश के लिए अमेरिका में पचास साल से चर्चाएँ तो हो रही हैं,

लेकिन संविधान में बदलाव दूर की कौड़ी बना हुआ है। अमेरिकी नागरिक को बंदूक रखने पर गर्व की अनुभूति होती है और वह इस अधिकार को बने रहना चाहता है। बंदूक लॉबी विज्ञापनों के जरिए इस माहौल को गर्वयुक्त बनाए रखने की पृष्ठभूमि रचती रहती है।     

 विद्यालयों में छात्र- हिंसा से जुड़ी ऐसी घटनाएँ पहले अमेरिका जैसे विकसित देशों में ही देखने में आती थीं, लेकिन अब भारत जैसे विकासशील देशों में भी क्रूरता का यह सिलसिला चल निकला है। हालाँकि भारत का समाज अमेरिकी समाज की तरह आधुनिक नहीं है कि जहाँ पिस्तौल अथवा चाकू जैसे हथियार रखने की छूट छात्रों को हो। अमेरिका में तो ऐसी विकृत संस्कृति पनप चुकी है, जहाँ अकेलेपन के शिकार एवं माँ-बाप के लाड-प्यार से उपेक्षित बच्चें घर, मोहल्ले और संस्थाओं में जब-तब पिस्तौल चला दिया करते हैं। आज अभिभावकों की अतिरिक्त व्यस्तता और एकांगिकता जहाँ बच्चों के मनोवेगों की पड़ताल करने के लिए दोषी है, वहीं विद्यालय नैतिक और संवेदनशील मूल्य बच्चों में रोपने में सर्वथा चूक रहे हैं। छात्रों पर विज्ञान, गणित और वाणिज्य विषयों की शिक्षा का बेवजह दबाव भी बर्बर मानसिकता विकसित करने के लिए दोषी हैं। आज साहित्य, समाजशास्त्र व मनोविज्ञान की पढ़ाई पाठ्यक्रमों में कम से कमतर होती जा रही है,

जबकि साहित्य और समाजशास्त्र ऐेसे विषय हैं जो समाज से जुड़े सभी विषयों और पहलुओं का वास्तविक यथार्थ प्रकट कर बाल-मनों में संवेदनशीलता का स्वाभाविक सृजन करने के साथ सामाजिक विसंगतियों से परिचत कराते हैं। इससे हृदय की जटिलता टूटती है और सामाजिक विसंगतियों को दूर करने के कोमल भाव भी बालमनों में अंकुरित होते हैं। महान और अपने-अपने क्षेत्रों में सफल व्यक्तियों की जीवन-गाथाएँ (जीवनियाँ) भी व्यक्ति में संघर्ष के लिए जीवटता प्रदान करती हैं। लेकिन दुर्भाग्य से हमारे यहाँ ऐसा कोई पाठ्यक्रम पाठशालाओं में नहीं है, जिसमें कामयाब व्यक्ति की जीवनी पढ़ाई जाती हो ? जीवन-गाथाओं में जटिल परिस्थितियों से जूझने एवं उलझनों से मुक्त होने के सरल, कारगर और मनोवैज्ञानिक उपाय भी होते हैं।

वैसे मनोवैज्ञानिकों की मानें तो आमतौर से बच्चे आक्रामकता और हिंसा से दूर रहने की कोशिश करते हैं। लेकिन घरों में छोटे पर्दे और मुट्ठी में बंद मोबाइल पर परोसी जा रही हिंसा और सनसनी फैलाने वाले कार्यक्रम इतने असरदार साबित हो रहे हैं कि हिंसा का उत्तेजक वातावरण घर-आँगन में विकृत रूप लेने लगा है, जो बालमनों में संवेदनहीनता का बीजारोपण कर रहा है। मासूम और बौने से लगने वाले कार्टून चरित्र भी पर्दे पर बंदूक थामे दिखाई देते हैं, जो बच्चों में आक्रोश पैदा करने का काम करते हैं। कुछ समय पहले दो किशोर मित्रों ने अपने तीसरे मित्र की हत्या केवल इसलिए कर दी थी कि वह उन्हें वीडियो गेम खेलने के लिए तीन सौ रुपये नहीं दे रहा था। लिहाजा छोटे पर्दे पर लगातार दिखाई जा रही हिंसक वारदातों के महिमामंडन पर अंकुश लगाया जाना जरूरी है। यदि बच्चों के खिलौनों का समाजशास्त्र एवं मनोवैज्ञानिक ढंग से अध्ययन एवं विश्लेषण किया जाए तो हम पाएँगे की हथियार और हिंसा का बचपन में अनाधिकृत प्रवेश हो चुका है।

सम्पर्कः शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी म.प्र., मो. 09425488224

आधुनिक बोध कथा- 7 - तेरी बार

 - सूरज प्रकाश

एक गाँव में दो लड़के रहते थे। दोनों कोई काम धाम नहीं करते थे और न ही पढ़ते ही थे।। दिन भर ऊधम मचाते।

एक दिन दोनों के पिताओं ने एक फैसला लिया कि इन्हें धंधे पर लगाया जाए। पहले लड़के के पिता ने उसे केले लेकर दिए और दूसरे बच्चे के पिता ने उसे अमरूद खरीद कर दिए कि जाओ और बेचो तथा अपनी जिंदगी शुरू करो।

दोनों बाजार में अपना -अपना सामान लेकर बैठ गए। अब हुआ यह कि केले वाले का पहला केला बिक गया। उसकी बोहनी हो गई। अमरूद वाले की जब बहुत देर तक बोहनी नहीं हुई, तो केले वाले ने दोस्ती निभाते हुए अमरूद वाले से कहा - चल मैं तेरी बोहनी करा देता हूँ। ये ले पैसे ले और एक अमरूद मुझे दे दे। इस तरह दोनों की बोहनी हो गई।

अब हुआ यह कि दिन भर दोनों के पास कोई ग्राहक नहीं आया; लेकिन दोनों बारी-बारी से, केले वाला अमरूद वाले से और अमरूद द्वारा केले वाले से फल खरीद कर खाते रहे और एक दूसरे की बिक्री कराते रहे।

शाम हो गई। सारे अमरूद खत्म हो गए और सारे केले भी खत्म हो गए; लेकिन कमाई के नाम पर दोनों के पास सिर्फ एक ही सिक्का था। वे खुश- खुश घर चले आए कि सारा माल बिक गया।

आगे चलकर उनमें से एक राजनीति में चला गया और दूसरा नामी उद्योगपति बना।

दोनों ने एक दूसरे का ख्याल रखना जारी रखा।

वे आज भी वही कर रहे हैं। माल जनता का और वे दोनों दिन भर इधर से उधर, उधर से इधर करते रहते हैं।

आज भी वे इस बात की परवाह नहीं करते कि शाम के समय सिक्का किसके पास है। बस वे इसी बात को लेकर खुश रहते हैं कि जनता से औने पौने दाम से खरीदा या हड़पा पूरा माल खप गया।

अब उनके साथ ब्यूरोक्रेसी भी जुड़ गई है जो दोनों के फायदे के लिए योजनाएँ बनाने के एवज में दो पैसे अपने लिए भी रख लेते हैं।

डिस्‍क्‍लेमर – ये विशुद्ध बोधकथा है और इसके सारे पात्र काल्पनिक हैं। इसका किसी देश की राजनीति से या अर्थव्यवस्था के स्तम्भों से कुछ लेना देना नहीं है।

9930991424, kathaakar@gmail.com

रहन- सहनः वृद्धावस्था में देखभाल का संकट

- जुबैर सिद्दिकी

विश्वभर में वृद्ध लोगों की बढ़ती आबादी के लिए वित्तीय सहायता और देखभाल का विषय राजनैतिक रूप से काफी पेचीदा है। इस संदर्भ में विभिन्न देशों ने अलग-अलग प्रयास किए हैं।

यू.के. में 2017 में और उसके बाद 2021 में सरकार द्वारा सोशल-केयर नीति लागू की गई थी। इसमें सामाजिक सुरक्षा हेतु धन जुटाने के मकसद से राष्ट्रीय बीमा की दरें बढ़ा दी गई थीं। यह एक प्रकार का सामाजिक सुरक्षा टैक्स है जो सारे कमाऊ वयस्क और उनके नियोक्ता भरते हैं।

कोविड-19 के दौरान वृद्धाश्रमों में मरने वाले लोगों की बड़ी संख्या ने इस मॉडल पर सवाल खड़े दिए। तो सवाल यह है कि बढ़ती बुज़ुर्ग आबादी की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए स्वास्थ्य सेवाओं में किस तरह के पुनर्गठन की ज़रूरत है।

लगभग सभी उन्नत और बढ़ती हुई अर्थव्यवस्थाएँ इस चुनौती का सामना कर रही हैं। जैसे 2050 तक यूके की 25 प्रतिशत जनसंख्या 65 वर्ष से अधिक आयु की होगी जो वर्तमान में 20 प्रतिशत है। इसी तरह अमेरिका में वर्ष 2018 में 65 वर्ष से अधिक आयु के 5.2 करोड़ लोग थे जो 2060 तक 9.5 करोड़ हो जाएँगे। इस मामले में जापान का ‘अतिवृद्ध’ समाज अन्य देशों के लिए विश्लेषण का आधार प्रदान करता है। 2015 से 2065 के बीच जापान की आबादी 12.7 करोड़ से घटकर 8.8 करोड़ होने की संभावना है जिसमें 2036 तक एक तिहाई आबादी 65 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों की होगी।      

हालाँकि भारत, जो विश्व का दूसरा सबसे अधिक वाली आबादी वाला देश है, की वर्तमान स्थिति थोड़ी बेहतर है लेकिन अनुमान है कि 2050 तक 32 करोड़ भारतीयों की उम्र 60 वर्ष से अधिक होगी।

मुंबई स्थित इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पापुलेशन साइंसेज़ के प्रमुख कुरियाथ जेम्स बताते हैं कि भारत में बुज़ुर्गों की देखभाल मुख्य रूप से परिवारों के अंदर ही की जाती है। वृद्धाश्रम अभी भी बहुत कम हैं। भारत में संयुक्त परिवार आम तौर पर पास-पास ही रहते हैं जिससे घर के वृद्ध लोगों की देखभाल करना आसान हो जाता है। लेकिन इस व्यवस्था को अब जनांकिक रुझान चुनौती दे रहे हैं।

गौरतलब है कि भारत अंतर्राष्ट्रीय प्रवासियों का सबसे बड़ा स्रोत है। 1990 के दशक की शुरुआत से लेकर अब तक विदेशों में काम करने वाले भारतीयों की संख्या दुगनी से अधिक होकर 2015 तक 1.56 करोड़ हो गई थी। इसके अलावा कई भारतीय काम के सिलसिले में देश के ही दूसरे शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। 2001 की जनगणना के अनुसार 30 प्रतिशत आबादी अपने जन्म स्थान पर नहीं रह रही थी। यह संख्या 2011 में बढ़कर 37 प्रतिशत हो गई थी। जेम्स के अनुसार इस प्रवास में आम तौर पर व्यस्क युवा होते हैं जो अपने माता-पिता को छोड़कर दूसरे शहर चले जाते हैं। नतीजतन घर पर ही वृद्ध लोगों की देखभाल और कठिन हो जाती है।        

2020 में लॉन्गीट्यूडिनल एजिंग स्टडी इन इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार 60 वर्ष से अधिक आयु के 26 प्रतिशत लोग या तो अकेले या सिर्फ अपने जीवनसाथी (पति-पत्नी) के साथ रहते हैं। फिलहाल भारत में पारिवारिक जीवन अभी भी अपेक्षाकृत रूप से आम बात है जिसमें 60 से अधिक उम्र के 41 प्रतिशत लोग अपने जीवनसाथी और वयस्क बच्चों दोनों के साथ रहते हैं जबकि 28 प्रतिशत लोग अपने वयस्क बच्चों के साथ रहते हैं और उनका कोई जीवनसाथी नहीं है। 

वैसे, घर पर देखभाल की कुछ समस्याएँ हैं। देखभाल का काम मुख्य रूप से महिलाओं के ज़िम्मे होता है और अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी काफी कम है क्योंकि वे घर से बाहर काम करने नहीं जा पाती हैं।

यदि प्रवासन में उपरोक्त वृद्धि जारी रही तो जल्दी ही देश की बुज़ुर्ग आबादी के पास कोई परिवार नहीं होगा और उनको देखभाल के लिए वृद्धाश्रम की आवश्यकता होगी। ऐसे में खर्चा बढ़ेगा और इन खर्चों को पूरा करने के लिए अधिक महिलाओं को काम की तलाश करना होगी।  

भारत के वृद्ध लोग अपने संयुक्त परिवारों के साथ रहना अधिक पसंद करते हैं। ऐसे परिवारों में रहने वाले ज़्यादा बुज़ुर्ग (80 प्रतिशत) अपने रहने की व्यवस्था से संतुष्ट हैं बनिस्बत अकेले रहने वाले बुज़ुर्गों (53 प्रतिशत) के। नर्सिंग-होम जैसी संस्थाओं में संतुष्टि के संदर्भ में कोई डैटा तो नहीं है; लेकिन परिवार द्वारा देखभाल को बहुत अधिक महत्त्व दिया जाता है;  क्योंकि यह समाज की अपेक्षा भी है। फिर भी देश के अंदर और विदेशों की ओर प्रवास की प्रवृत्ति और कोविड-19 के दीर्घकालिक प्रभाव को देखते हुए विशेषज्ञ मानते हैं कि व्यवस्था में बदलाव की दरकार है।

महामारी के दौरान कई देशों के केयर-होम्स वायरस संक्रमण के भंडार रहे हैं। भारत के संदर्भ में पर्याप्त आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं। लंदन आधारित इंटरनेशनल लॉन्ग टर्म केयर पालिसी नेटवर्क ने हाल ही में एक समीक्षा में बताया है कि परिवार के वृद्ध जन के कोविड-19 संक्रमित होने पर परिवार को अतिरिक्त तनाव झेलना पड़ा था। इस महामारी ने एक ऐसी व्यवस्था की सीमाओं को उजागर किया है जो वृद्ध लोगों की देखभाल के लिए मुख्यत: परिवारों पर निर्भर है।      

घर पर देखभाल के लिए देश के आधे कामगारों (महिलाओं) की उपेक्षा करना अर्थव्यवस्था पर एक गंभीर बोझ है।

इसी कारण जापान ने अपने वृद्ध लोगों की देखभाल करने के तरीके में बदलाव किए हैं। भारत की तुलना में जापान में आंतरिक प्रवास की दर कम है - वहाँ केवल 20 प्रतिशत लोग उस प्रांत में नहीं रहते हैं जहाँ वे पैदा हुए थे। लेकिन वहाँ भी औपचारिक अर्थव्यवस्था में महिलाओं की कम उपस्थिति एक बड़ा मुद्दा है। वर्ष 2000 में, 25 से 54 वर्ष की आयु के बीच की 67 प्रतिशत महिलाएँ अधिकारिक तौर पर नौकरियों में थी जो अमेरिका से 10 प्रतिशत कम था। वैसे भी जापान सामान्य रूप से घटते कार्यबल का सामना कर रहा है।   

इस सहस्राब्दी की शुरुआत में जापान ने लॉन्ग-टर्म केयर इंश्योरेंस (एलटीसीआई) योजना की शुरुआत की थी जिसका उद्देश्य देखभाल को परिवार-आधारित व्यवस्था से दूर करके बीमा पर आधारित करना है। एलटीसीआई के तहत, 65 वर्ष से अधिक उम्र के सभी लोग,  जिन्हें किसी भी कारण देखभाल की आवश्यकता है, उन्हें सहायता प्रदान की जाती है। इसके लिए कोई विशेष विकलांगता की शर्त नहीं है। इसकी पात्रता एक सर्वेक्षण द्वारा निर्धारित की जाती है। इसके बाद चिकित्सक के इनपुट के आधार पर लॉन्ग-टर्म केयर अप्रूवल बोर्ड द्वारा निर्णय लिया जाता है। इसके बाद दावेदार को उसकी व्यक्तिगत आवश्यकताओं के अनुसार देखभाल प्रदान की जाती है जो नर्सिंग-होम में निवास से लेकर उनके दैनिक कार्यों में मदद के लिए सेवाएँ प्रदान करने तक हो सकती हैं।

एलटीसीआई के वित्तपोषण का 50 प्रतिशत हिस्सा कर से प्राप्त राजस्व से और बाकी का हिस्सा 40 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों पर अनिवार्य बीमा प्रीमियम आरोपित करके किया जाता है। यह आयु सीमा इसलिए निर्धारित की गई है क्योंकि 40 वर्ष की आयु तक पहुँचने पर व्यक्ति के बुज़ुर्ग रिश्तेदारों को देखभाल की आवश्यकता होगी, ऐसे में वह व्यक्ति इस व्यवस्था का लाभ देख पाएगा। हितग्राही को कुल खर्च के 10 प्रतिशत का भुगतान भी करना होता है।

यदि अप्रूवल बोर्ड दीर्घकालिक देखभाल की आवश्यकता नहीं देखता तो उन्हें ‘रोकथाम देखभाल’ की पेशकश की जा सकती है। इन सेवाओं में पुनर्वास और फिज़ियोथेरेपी शामिल हैं। रोकथाम सेवा इसलिए भी आवश्यक हो गई क्योंकि एलटीसीआई योजना की सफलता के चलते नामांकन की संख्या में काफी तेज़ी से वृद्धि हुई। वर्ष 2000 में जापान सरकार ने एलटीसीआई भुगतानों पर लगभग 2.36 लाख करोड़ रुपए खर्च किए थे जो 2017 में बढ़कर 7.02 लाख करोड़ हो गए। अनुमान है कि 2025 यह आँकड़ा 9.84 लाख करोड़ रुपए हो सकता है। खर्च कम करने के लिए सरकार ने 2005 में कुछ लाभों को कम कर दिया। 2015 में सक्षम लोगों के लिए 20 प्रतिशत भुगतान भी शामिल किया गया। सरकार ने प्रीमियम योगदान की उम्र घटाने की भी कोशिश की जिसका काफी विरोध हुआ।

कुल मिलाकर सबक यह है कि इतनी व्यापक योजना का आकार समय के साथ बढ़ता ही जाएगा। एलटीसीआई के लिए उच्च स्तर का उत्साह पैदा करना आसान नहीं था। लोगों की मानसिकता में बदलाव लाना पड़ा क्योंकि घर पर वृद्ध रिश्तेदारों की देखभाल न करना एक शर्म की बात माना जाता था। हालाँकि, जापान ने जो समस्याएँ एलटीसीआई की मदद से दूर करने की कोशिश की थी उनमें से कई समस्याएँ अभी भी मौजूद हैं।

एक रोचक तथ्य यह है कि जहाँ 2000 से 2018 के बीच जापान की कामकाजी उम्र की आबादी में 1.1 करोड़ से अधिक लोगों की कमी आई है वहीं कार्यबल में 6 लाख की वृद्धि हुई है। इस वृद्धि का श्रेय महिलाओं की बढ़ती भागीदारी को दिया जाता है क्योंकि एलटीसीआई ने पारिवारिक देखभाल की चिंताओं को कम किया जिससे महिलाओं को काम करने के अवसर मिले।  

हालाँकि, अभी भी जापान में बढ़ती उम्र की समस्या बनी हुई है और इसी कारण उसका श्रम-बाज़ार का संकट खत्म भी नहीं हुआ है। अधिक महिलाओं को रोज़गार देने के बाद भी देश के स्वास्थ्य, श्रम और कल्याण मंत्रालय का अनुमान है कि 2040 तक कार्यबल घटकर 5.3 करोड़ रह जाएगा जो 2017 से 20 प्रतिशत कम होगा। साथ ही वृद्ध लोगों की संख्या बढ़ने के साथ एलटीसीआई के लिए पात्र लोगों की संख्या बढ़ने की उम्मीद है। ऐसे में भविष्य में योजना को वित्तपोषित करना एक बड़ी चुनौती होगी। (स्रोत फीचर्स) 

हाइबनः सर्कस का शेर

- भीकम सिंह

   उत्तर प्रदेश के जनपद गौतम बुद्ध नगर की दादरी के स्थानीय विधायक ने भारत सर्कस का उद्घाटन अपने कर कमलों से किया। परसों यह खबर स्थानीय समाचार पत्रों की सुर्खियों में रही और आज समाचार सुनकर स्थानीय लोगों के चेहरों का रंग उड़ गया,  पिंजरे से शेर गायब होने का सवाल खड़ा हो गया । वन- विभाग के कुछ  कर्मचारी छुपते-छुपाते कोहनी के बल रेंगते रेलवे लाइन की ओर बढ़े,  कभी पटवारी के बाग की ओर पुराने ऊँचे-ऊँचे झुरमुटों की ओट लेकर, कभी कोट के पुल पर मोर्चा लगाए छिपे बैठे रहते, लेकिन शेर पकड़ में नहीं आ रहा था। गाँवों में डर का अंधकार गहराता जा रहा था, शेर पकड़ने की गतिविधियाँ भी तेज होने लगी थी ।

  वन -विभाग की चौतरफा मोर्चाबंदी देखकर शेर लुहारली के जंगल में देखा गया, ऐसी खबर स्थानीय समाचार पत्रों में छपी।  गाँव के घरों के सब खिड़की दरवाजे बंद, आधी रात को राजकुमार भाटी ने तंद्रा में सोचा कि उसके कमरे का दरवाजा खुला है और उन्हें बैठा हुआ शेर नजर आया। शेर को देखकर राजकुमार भाटी का पूरा शरीर पसीने- पसीने हो गया।  शेर क्रोध भरी मुद्रा में कमरे के दरवाजे के बीचो- बीच लंबे कानों को हिला रहा था, दूर कहीं खेत में चल रहे  पम्पिंग सैट की धुक- धुक शेर की उफनती साँसों से सह- सम्बन्ध स्थापित कर रही थी । मन ही  मन राजकुमार भाटी ने सारी ऊर्जा समेटकर पिता जी को आवाज़ लगाई और आँखें अर्जुन की आँख की तरह सिर्फ और सिर्फ शेर के हिलते कानों पर स्थिर की । अचानक राजकुमार भाटी के मन में एक दूर की कल्पना अँखुवा गई कि यदि धड़ मारे,  मरे रहने का नाटक करें, तो शेर हमला नहीं करता?  सशंकित दिमाग शेर के कानों को गौर से विश्लेषित करने लगा, जो लगातार हिल रहे थे, शेर चौकन्ना हो  गया है ; लेकिन अभी तक दरवाजे के बीचो-बीच बैठा है । फिर राजकुमार भाटी को पिता जी की आवाज़ सुनाई दी- ''घबराना मत ! राइफल लेकर प्रधान जी छत पर आ गए हैं, चुपचाप खाट पर ही पड़े रहना। इसी धमाचौकड़ी और हो -हल्ले के बीच राजकुमार भाटी की माँ की आँख खुल गई, जो बिना किसी का नोटिस लिये छत पर आ गई थी।  झटके से मक्का के बोरे को कोनों (कान) से पकड़कर उठा लिया, जो राजकुमार भाटी को शेर की तरह दीख रहा था । दरअसल बूँदा- बाँदी के डर से राजकुमार भाटी की माँ सूखी मक्का के बोरे को रात में भरकर रख गई थी। कमरे के अंदर इसलिए नहीं रखा था कि आहट से उसके बेटे की नींद टूट जाएगी; लेकिन इस कवायद में पूरा मौहल्ला जाग गया ।

                    करवा देता

                  अजीब करतूत

                   भय का भूत।

विनोद साव से बातचीतः 'व्यंग्य' हिन्दी साहित्य का एक नवोन्मेष है

साक्षात्कारकर्ता : राजशेखर चौबे

साहित्य की अन्य विधाओं की तुलना में हिन्दी व्यंग्य ज्यादा प्रकाशित हो रहे हैं। व्यंग्यकारों की संख्या अब पहले जैसी उँगलियों में गिने जाने योग्य भर नहीं रहीं। व्यंग्य के आयोजन भी भरपूर हो रहे हैं। सम्मान पुरस्कार भी खूब बँट रहे हैं। बावजूद इनके हिन्दी व्यंग्य के मूल्यांकन को लेकर पशोपेश की स्थिति अभी भी बनी हुई है। प्रगतिशील आलोचकों का एक बड़ा वर्ग इसे विधा नहीं मानता;  इसलिए उनकी पत्रिका व आलोचना के एजेंडे से व्यंग्य बाहर है। इसे विधागत लेखन नहीं मानने के कारण लिखे जा रहे व्यंग्य की सम्यक् आलोचना नहीं हो पा रही है। साहित्य अकादमियों, परिषदों, सृजनपीठों ने विशाल व्यंग्य जगत् से अपना मुँह फेरे रखा है। ऐसे विश्वासघाती माहौल में व्यंग्य अपनी ट्रैक पर सबसे आगे तो दौड़ रहा है पर उसे प्रतियोगिता से बाहर माना जा रहा है। इन और ऐसे कई प्रश्नों पर हमारे दौर के चर्चित व्यंग्यकार विनोद साव से व्यंग्यकार राजशेखर चौबे की बातचीत यहाँ दी जा रही है, ताकि, हिन्दी साहित्य के इस सबसे असरदार नवोन्मेष पर विधा दुविधा और सुविधा पर खुलकर चर्चा हमारे पाठकों के सामने आ सके और कोई रास्ता खुल सके।   - संपादक

प्रश्न -  विनोद जी.. आप व्यंग्य के जाने माने लेखक हैं और पिछले तीन दशक से व्यंग्य लिख रहे हैं। आपके समय में व्यंग्य की क्या स्थिति थी ?

उत्तर - राजशेखर जी.. वर्ष 1990 से मैंने लिखना शुरू किया । मैंने देर से लेखन शुरू किया था तो मुझे लगा कि ‘देर से लेखन शुरू करने का एक बड़ा लाभ यह है कि अपनी आरंभिक रचनाओं के लिए शर्मिंदा होना नहीं पड़ता।’ सामयिक संदर्भ में लिखता था। विधा निश्चित नहीं थी । फिर अख़बारों ने मेरे कुछ सामयिक आलेखों को व्यंग्य बताकर छापा तब लगा कि मेरी रचनाएँ व्यंग्य की तरह बन रहीं है । बाद में मैंने उसी ‘स्पिरिट’ में लिखना शुरू कर दिया था। इस तरह मेरे व्यंग्य लेखन का मार्ग प्रशस्त हुआ।

उस समय हिंदी व्यंग्य की स्थिति बहुत समृद्ध थी राजशेखर भाई। यह आजादी के बाद समृद्ध हुआ था। मुझ जैसे नए व्यंग्य लेखक के लिए व्यंग्य लिखना और छपना बड़ी चुनौती का काम था क्योंकि उस समय के सभी अखबारों व पत्रिकाओं में वही लेखक छपा करते थे जिन्हें हम आज व्यंग्य के शीर्षस्थ लेखक मानते हैं । उस समय व्यंग्य लिखना- मतलब सीधा अपने पुरोधाओं से मुठभेड़ करना था । हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, रवीन्द्रनाथ त्यागी, श्रीलाल शुक्ल, मनोहर श्याम जोशी, के.पी.सक्सेना, शंकर पुण्ताम्बेकर, गोपाल चतुर्वेदी जैसे दर्ज़न भर स्तरीय लेखक धुआँधार लिख रहे और छप रहे थे। वे सभी अखबारों व पत्रिकाओं में स्तंभ लेखन कर रहे थे और भारी संख्या में लिख रहे थे। नवभारत टाइम्स में शरद जोशी दैनिक स्तंभ ‘प्रतिदिन‘ लिखते थे। अब आप बताइए इन निष्णात स्थापित व्यंग्यकारों के बीच में कोई नया लेखक कैसे जगह पाए, कैसे छपे ? यह स्थिति कहानी और कविता के साथ वैसी  नहीं थी।; क्योंकि कहानी -कविता एक पत्रिका में कई - कई छपा करतीं थीं जबकि व्यंग्य के लिए केवल एक रचना का ही कोटा ही सुनिश्चित था और तब व्यंग्य की स्वतंत्र कोई पत्रिका निकलती भी नहीं थी। अख़बारों और साहित्यिक पत्रिकाओं का ही सहारा था। ऐसी स्थिति में किसी पत्रिका में एक रचना का भी छप जाना एक नए लेखक के लिए बड़ी उपलब्धि होती थी ।

प्रश्न - फिर आपने इन स्थितियों का सामना कैसे किया और अपनी जगह कैसे बनाई ?

उत्तर - मैंने एक बार रवीन्द्रनाथ त्यागी जी को पत्र लिखा कि आप लोग सभी जगह काबिज हैं। अब बताइए हम लोग कहाँ छपे?  इस पर त्यागी जी का जवाब आया ‘तो विनोद तुम क्या चाहते हो, हम लोग मर जाए।’ बाद में शरद जोशी के इस सूत्र को ध्यान में रखा कि ‘लाल डिब्बे पर भरोसा रखो।’ यह मानकर मैं निरंतर रचनाएँ लिखता रहा और पोस्ट बॉक्स में डालता रहा । व्यंग्य को स्थापित करने में अखबारों की भूमिका बड़ी रही । प्रायः सभी अखबारों में व्यंग्य के स्तंभ छपा करते थे । कई ऐसे अखबार भी हैं, जो व्यंग्य के दैनिक स्तंभ भी छाप रहे थे। व्यंग्य के लिए ज्यादा स्कोप अखबारों में तब भी रहा और आज भी है बल्कि व्यंग्यकार बिरादरी को इन समाचारपत्रों के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए, जो भले ही लेखकों को पारिश्रमिक नहीं देते हैं पर उन्हें छापते तो हैं।

प्रश्न - विनोद जी  क्या वजह है कि साहित्यिक पत्रिकाओं की तुलना में व्यंग्य को अखबारों ने हाथों- हाथ उठाया?

उत्तर -  राजशेखर जी..  ऐसा है कि अखबार सामयिक घटनाओं को महत्त्व देते हैं और व्यंग्य भी सामयिक घटनाओं पर ज्यादा लिखे गए;  इसलिए अखबारों ने सामयिक संदर्भों वाले व्यंग्यों को ज्यादा तवज्जो दी । पत्रकारिता जगत को साहित्य की सभी विधाओं में व्यंग्य जो है अपने ज्यादा करीब लगता रहा । पत्रकारों को व्यंग्य अपनी बिरादरी का लेखन लगता रहा । व्यंग्य विचारों से साहित्यमुखी रहा;  लेकिन अभिव्यक्ति में पत्रकारिता के तेवर लिए रहा । यह कह सकते हैं कि व्यंग्य ने साहित्य और पत्रकारिता के बीच सेतु का काम किया! इसलिए अन्य विधाओं की तुलना में व्यंग्य में यह तत्परता ज्यादा देखी गई कि कभी भी वह साहित्य के टेबल से उठकर पत्रकारिता के डेस्क पर आ जाता है । फिर आधुनिक हिन्दी में गद्य- व्यंग्य अपने आरंभिक काल से ही पत्रकारिता के साथ रहा है। भारतेन्दु युग में ही सुगठित और सुचिंतित स्वरूप में लिखे जा रहे व्यंग्य के तमाम लेखक पत्र- पत्रिकाओं से जुड़े थे या स्वयं द्वारा सम्पादित पत्र निकाल रहे थे। वह अंग्रेजों का शासनकाल था,  तब उनकी व्यवस्था की खिंचाई करने ऐसे छद्म और वक्रोतिपूर्ण लेखन से व्यंग्य लिखे जा रहे थे कि हुक्मरानों को पता भी न चले और लेखन का उद्देश्य भी सार्थक हो जाए।

प्रश्न - आपने जब व्यंग्य लेखन प्रारंभ किया उस समय का परिदृश्य और आज जब आप एक स्थापित लेखक हो चुके हैं, तो आज के परिदृश्य - इनमें आप क्या अंतर देखते है ?

उत्तर - हिन्दी व्यंग्य में व्यंग्य के तीन कालखंड निर्धारित किए जा सकते हैं – पहला - कबीर युग, दूसरा - भारतेन्दु युग, और तीसरा परसाई युग । आलोचना शास्त्र की दृष्टि से यह मान्य हो या ना हो;  पर अपनी सुविधा की दृष्टि से हम ऐसा कुछ निर्धारित कर सकते हैं । इन तीनों कालखण्डों में एक समानता यह देखी गई कि इनमें व्यंग्य का विद्रोही रूप उजागर और स्पष्ट हुआ। इन तीनों कालखण्डों के प्रणेता अपने समय के बड़े एक्टिविक्ट कहे जा सकते हैं। ये बड़े प्रतिक्रियावादी रहे;  पर रचनात्मक और सुधारवादी रहे। अपने- अपने युग के साहित्यिक वैचारिक प्रवर्तक और प्रवक्ता रहे। इन्होंने केवल व्यंग्य को लिखा नहीं;  बल्कि व्यंग्य को सामाजिक जागरण के लिए एक बड़े हथियार की तरह इस्तेमाल किया। भारतेंदु और परसाई ने पत्रिकाएँ भी निकाली और विभिन्न सामाजिक संगठनों से भी जुड़े और अपने विचारों को आंदोलन का बड़ा रूप दिया ।

इनमें व्यंग्य का उत्तर आधुनिक काल परसाई का रहा और हम सभी आज भी परसाई और उनके समकालीन लेखकों के प्रभाव में चल रहे हैं । व्यंग्य लेखन का रूप जो दिख रहा है उसमें हम आज भी परसाई और शरद जोशी की शैली adopt किए हुए हैं।  इस प्रभाव में हम लोगों की पीढ़ी में व्यंग्य के क्षेत्र में जो नाम उभरकर आए उनमें ज्ञान चतुर्वेदी का लेखन प्रतिनिधि लेखन रहा और वे समकालीन व्यंग्य के प्रमुख हस्ताक्षर हैं। उनके साथ कैलाश मण्डलेकर, गौतम सान्याल, प्रेम जनमेजय, रमेश सैनी, डॉ. रमेश तिवारी, गिरीश पंकज, वीरेंद्र सरल, राजशेखर चौबे जैसे कई नाम व्यंग्य साहित्य में उभरते रहे और आज भी सक्रिय हैं। नए लोग भी अच्छा लिख रहे हैं।

देखिए.. तब और अब के व्यंग्यकारों के विषय या उनके लक्षित क्षेत्र में ये अंतर रहा है कि परसाई- युग पराधीनता और स्वाधीनता का संधि-युग था । स्वतंत्रता के बाद के मोहभंग की स्थितयाँ इन रचनाकारों के लक्ष्य में रहीं। जनआकांक्षा के अनुकूल व्यवस्था न पाकर इनका विद्रोह जागा और व्यवस्था पर प्रहार किया। ज्ञान चतुर्वेदी के दौर के जो लेखक उभरकर आए वे बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक के थे और इस समय वैज्ञानिक अविष्कारों के कारण आई सूचना एवं संचार-क्रांति बाजारवाद, जनाधिक्य, सार्वजनिक उद्योगों के बदले निजी उद्योगों और विशेषकर कॉरपोरेट घरानों के बीच जनता का धन धंसा देने की कोशिश, बैंकों से हजारों करोड़ का ऋण लेकर उद्योगपतियों के चंपत होने और देश से बाहर भागने जैसे आर्थिक हादसे, संस्कृति के सेक्सी हो जाने वाले खतरे जैसे कई क्षेत्र हैं जहाँ समस्याएँ मुँह बाए खड़ी हैं उस पर बदलते राजनीतिक परिवेश में लेखकों बुद्धिजीवियों पर हमले व हत्याएँ ये सब चुनौतियाँ पनप रही हैं.. जो आज के व्यंग्य और कथालेखन के लिए बड़े मुफीद माल हैं। इन्हें लक्षित कर व्यंग्य लिखे गए और निरंतर लिखे जाने चाहिए।

प्रश्न - हिन्दी व्यंग्य को मध्य भारत के लेखकों ने अधिक अपनाया, इसका क्या कारण आप देखते हैं?

उत्तर- आपका यह प्रश्न सही है क्योंकि देश भर में होने वाले व्यंग्य के आयोजनों में मैं जहाँ भी गया, लोगों ने यह प्रश्न मुझसे किया.. और यह सही है कि यहाँ परसाई, शरद जोशी, अजातशत्रु लतीफ घोघी व्यंग्य के स्थापक लेखक हुए और भी कई लेखक हुए उनकी भी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। आज ज्ञान चतुर्वेदी यहाँ लिख रहे हैं।  संभवत: उसका कारण इसकी भौगोलिक स्थिति हो सकती है – यह क्षेत्र देश के बीचोंबीच स्थित होने से देश भर के लोगों का आगमन तुलनात्मक रूप से यहाँ अधिक होता रहा। भिन्न भाषा, भिन्न संस्कृति और भिन्न आचार व्यवहार मध्य भारत में विपुल मात्रा में उपस्थित हुआ और व्यंग्य ने इसी भिन्नता के बीच सेंध लगाई और अपने लिये व्यंग्य, हास्य, विनोद लेखन के लिए कच्चा माल हासिल किया।

प्रश्न - हिंदी साहित्य का जो आलोचना- जगत् है,  उसमें व्यंग्य का स्थान तो बड़ा गौण दिखाई देता है। क्या आलोचकों ने व्यंग्य को दोयम दर्जे का लेखन माना है या साहित्य नहीं मानकर इसे कुछ लेखकों का खिलंदड़ा या मसखरा पन मानते है ?

उत्तर -  दरअसल.. व्यंग्य की आलोचना के लिए जो मनीषा चाहिए या फिर जिस बौद्धिक मानसिक स्तर की तैयारी होनी चाहिए जैसा कि श्रीलाल शुक्ल का मानना है, उसका हिन्दी आलोचकों के पास बड़ा अभाव रहा है। एक कारण यह हो सकता है और दूसरा कारण ऐसे सांगठनिक आलोचक जो अपने को प्रतिबद्ध मानते है इन्होंने व्यंग्य को विधागत लेखन नहीं माना और इसलिए यह उनकी आलोचना के एजेंडे में कभी नहीं रहा। यह हिन्दी आलोचना का दुर्भाग्य रहा कि परसाई, शरद जोशी जैसे लेखकों ने आधुनिक हिन्दी साहित्य को जो एक नवोन्मेष दिया, उसे अपनी संकीर्ण आलोचना पद्धति में वे नहीं समझ पाए। परसाई ने व्यंग्य को शूद्र से क्षत्री बनाया था। उसे आलोचक फिर से शूद्र बना देने पर तुले रहते है। ले देकर परसाई ने व्यंग्य लेखन की एक सुव्यवस्थित परम्परा का निर्माण कर उसे समृद्ध किया था, जिसे परसाई के समकालीन व्यंग्यकारों ने इस परम्परा को और मज़बूत किया था। पर इन रचनाकारों के समकालीन आलोचकों ने साहित्य की एक नई विकसित होती परम्परा को धो डाला। उन्हें ये भी भान नहीं हुआ कि अपनी हेकड़ी में वे अनजाने ही एक नवोन्मेष को खत्म करने की नादानी कर रहे हैं।  उनकी आलोचना- दृष्टि परसाई की सुपुष्ट की हुई परम्परा के खिलाफ हो गई है। वे नहीं जान पा रहे हैं कि वे क्या कर रहे हैं!

परसाई व्यंग्य के प्रथम पुरुष हैं और वसुधा पत्रिका के संस्थापक रहे । यह विडम्बना है कि उनकी पत्रिका ने ही व्यंग्य रचनाओं को नहीं छापा । इन आलोचकों ने परसाई को भी व्यंग्यकार नहीं माना उन्हें निबंधकार, कहानीकार बताकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री की। परसाई के लेखन को केवल इसलिए महत्त्वपूर्ण माना;  क्योंकि उनके ज्यादातर लेखन का आधार मार्क्सवादी चिंतन था। शरद जोशी भी उनके लिए महत्त्वपूर्ण नहीं रहे;  क्योंकि शरद जोशी मार्क्सवादी नहीं थे। देहरादून में जब मेरी मुलाकात रवीन्द्रनाथ त्यागी से हुई, तब उन्होंने यह चौंकाने वाली टिपण्णी की कि परसाई अगर मार्क्सवादी नहीं होते, तो शरद जोशी व्यंग्य के टॉप पर होते ।’

हिन्दी साहित्य में गद्य- व्यंग्य के बहाने विधा की एक ऐसी नई प्रवृत्ति जन्म लेकर सुन्दर साकार रूप ग्रहण कर रही थी जो देश की अन्यान्य भाषाओं में दुर्लभ थी। इस नवोन्मेष का श्रेय हिन्दी जगत को मिलने जा रहा था। देश की अन्य भाषाएँ परसाई, शरद जोशी की रचनाओं और श्रीलाल शुक्ल के ‘रागदरबारी’ व मनोहर श्याम जोशी के व्यंग्य से लबरेज उपन्यासों जैसी अनमोल कृतियों को अभिभूत होकर अचम्भे से देख रहीं थी और अपनी भाषाओं में हिन्दी व्यंग्य की तल्खी और तेवर को आजमाने की कोशिश कर रही थी, पर संकीर्ण और किताबी दिमाग से भरी हिन्दी आलोचना ने सब गुड़- गोबर करके रख दिया। यह हमारी वीभत्स राजनीति से प्रेरित उसी तरह की पैंतरेबाज़ी है जिसमें एक पार्टी अपने गुणों का बखान तो कर नहीं सकती पर हाँ दूसरी पार्टी और उसके नेताओं की मिट्टी-पलीद तो कर सकती है। यहाँ भी कर दिया। अब ‘व्यंग्यालोचन’ की गेंद व्यंग्यकारों के पाले में है ,इसी आपाधापी में से ही कोई रास्ता निकले तो निकले।

विश्व आलोचना साहित्य में अंग्रेजी के हास्य-व्यंग्य लेखकों का बड़ा नाम और स्थान रहा है पर हिन्दी साहित्य और हिन्दी फिल्में दोनों ही जगह में हास्य और विनोद प्रियता को सतही और अगंभीर प्रदर्शन माना गया।

आपने जो खिलंदड़ेपन की बात उठाई यह भी व्यंग्य का दुर्भाग्य है कि व्यंग्य के गहन सामाजिक सरोकारों से उठकर पत्नी साली सास या स्त्री की दयनीय स्थितियों को लक्षित कर भोंडा उपहास आज भी किया जा रहा है! ऐसे लेखकों को छापने वाले संपादक भी दोषी हैं!

प्रश्न - विनोद जी व्यंग्य के अतिरिक्त आपने कहानी, यात्रा- वृतांत, उपन्यास भी लिखे और पुरस्कृत हुए पर इन रचनाओं में आपके व्यंग्य का प्रभाव नहीं दिखता ।

उत्तर - उपन्यास में तो है! दो उपन्यास हैं – चुनाव और भोंगपुर-30 कि.मी. ये दोनों ही व्यंग्य उपन्यास हैं और मुझे ज्यादातर पुरस्कार इन्हीं दो कृतियों पर मिले हैं। विगत दिनों अपने समग्र लेखन के लिए ‘सत्पर्णी सम्मान’ दिया गया। आपके  इस प्रश्न के जवाब में आप सम्मान पत्र में लिखी गई इन पंक्तियों को उद्धृत कर सकते हैं – “छत्तीसगढ़ प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मलेन श्री विनोद साव, दुर्ग को उनके सुदीर्घ साहित्यिक अवदान के लिए ईश्वरी प्रसाद मिश्र स्मृति सप्तपर्णी सम्मान 2018 प्रदान करते हुए आनंद का अनुभव करता है. सर्वप्रथम एक व्यंग्य लेखक के रूप में चर्चित व प्रशंसित होकर उन्होंने कहानी विधा की और रुख किया। इसके समानांतर यात्रावृत्तांत लेखन में भी उनकी रुचि जागृत हुई। इस तरह तीन विभिन विधाओं में समान गति से लिखते हुए उन्होंने अपने सामर्थ्य का परिचय दिया। उनकी कहानियों के विषय निरूपण में संवेदनशीलता व शैली में सरसता है, जबकि यात्रा विवरण में वे बारीक़ विवरणों में जाते हैं और सुन्दर कोलाज पाठकों के सामने रखते हैं।  सम्मेलन, श्री विनोद साव को शुभकामनाएँ देता है कि उनकी लेखनी इसी तरह सक्रिय बनी रहे। ”

 सम्पर्कः 295/, रोहिणीपुरमरायपुर , मो. 9425596643

ग़ज़लः सोचा नहीं


- धर्मेन्द्र गुप्त

अपने  बारे में  कभी सोचा नहीं

ठीक से दरपन कभी देखा नहीं

 

भूखे बच्चे को  सुलाऊँ किस तरह

याद मुझको कोई भी क़िस्सा नहीं

 

आप मुझको तय करें मुमकिन नहीं

मैं कोई  बाज़ार  का  सौदा  नहीं

 

ज़हन में हर  वक़्त रहती धूप है

मेरा सूरज तो कभी ढलता नहीं

 

नाज़ मैं किस चीज़ पर आख़िर करूँ

मुझमें  मेरा कुछ  भी तो अपना नहीं

 

जो ठहर  जाए  निगाहों  में मेरी

ऐसा  मंज़र  सामने आया नहीं

 

सबके हिस्से में  कोई अपना तो है

अपने हिस्से में मैं ख़ुद अपना नहीं

 

तेज हैं कितनी हवाएँ , फिर भला

दर्द का बादल ये क्यों उड़ता नहीं

सम्पर्कः के 3/10 ए. माँ शीतला भवन गायघाट, वाराणसी -221001, 8935065229, 8004550837

यादें- जीवन के सफर में राही मिलते हैं बिछड़ जाने को...

 - वीणा विज ‘उदित’

तन्हाई का मंजर हो और पुराने फिल्मी गीत पार्श्व में बज रहे हों, तो अतीत के गवाक्ष या झरोखे खुलने लग जाते हैं और मन की गहराइयों से कई तस्वीरें उतरकर सामने मुँह निकालकर आपको उसी दौर में बुलाने लगती हैं । मंत्रमुग्ध से खिंचे चले जाते हैं उस दौर के दीवाने हम जैसे...!

नजर लागी राजा तोरे बंगले पर

जो मैं होती राजा तुम्हरी दुल्हनिया

मटक रहती राजा तोरे बंगले पर’.....

किशोरी बाई का किरदार निभाती नलिनी जयवंत नवकेतन फिल्म्स की ‘काला पानी’ फिल्म में मटकती हुई आज भी आँख के समक्ष आ जाती है। पुराने जमाने में हर कामयाब हीरोइन एक बार कोठे वाली का रोल अवश्य करती थी, तभी वह उच्च कोटि की सफल अभिनेत्री मानी जाती थी। देवानंद और मधुबाला की रोमांटिक जोड़ी के साथ नलिनी जयवंत कोठेवाली बनी थी। इस फिल्म में नलिनी जयवंत को फिल्म फेयर का बेस्ट स्पोर्टिंग एक्ट्रेस का अवार्ड मिला था। नरगिस, बीना राय, मीना कुमारी, मधुबाला, रेखा, ऐश्वर्या सभी ने कोठे वालियों के मशहूर रोल निभाए हैं अपने जीवन में। 1958 में यह फिल्म रिलीज हुई थी और हिट साबित हुई थी।

 इससे 2 साल पहले देवानंद और नलिनी जयवंत की रोमांटिक फिल्म ‘मुनीमजी’ देखी थी ।

हम जवाँ होती लड़कियों के बदन में हार्मोनल बदलाव आ रहे थे, तो स्वाभाविक है- रोमांटिक मूवी से अधिक ही रोमांचित और प्रभावित हो रही थीं हम सब! हमारे स्कूल की दसवीं की एक मॉडर्न सिंधी छात्रा राधा लालवानी ने  तो  लगातार 9 दिन पिक्चर हॉल में जाकर यह फिल्म देखी थी! छोटा शहर था यह बात बहुत फैल गई थी। सबकी जुबान पर उसका चर्चा था। मुझे याद है हमारे ग्रुप ने भी राधा के कारण ‘मुनीमजी’ देखी और मन ही मन उसे धन्यवाद देते हुए, बहुत पसंद की थी।

उसी वर्ष मैं नौवीं कक्षा में पढ़ती थी। हमारे स्कूल की ओर से पहली बार तब इंदौर में ए.सी.सी. का सोशल सर्विस कैंप लगने जा रहा था। कुल पंद्रह लड़कियाँ ,कटनी से इंदौर एक हफ्ते के कैंप के लिए चुनी गईं थीं और साथ में मिस शाह( क्रिश्चियन) टीचर जा रही थीं। एक हफ्ते के टूर का सारा इंतजाम इंदौर की कोई संस्था कर रही थी। बहुत उत्साह और रोमांच था हवाओं में! खुशी के मारे जमीन पर पैर नहीं पड़ रहे थे हम सहेलियों के । यह सोचकर कि हम दिन-रात इकट्ठे रहेंगी! क्योंकि उस जमाने की बंदिशों के मुताबिक हम सपने में भी ऐसी बातें नहीं सोच सकते थे।

 खैर, निश्चित दिन कटनी से सुबह रेलगाड़ी में जनाना डब्बे में हमें प्रिंसिपल मिसेज कुक ने बिठाकर विदा किया। उस जमाने में औरतों के लिए जनाना डब्बे होते थे। जबलपुर से होते हुए हम जब तक खंडवा पहुँचे तब तक सूर्य सिर पर था और धूप आसमान पर तेजी बिखेर रही थी। खंडवा में 10 मिनट का स्टापेज था..,,,, उसके बाद इंदौर के लिए 5 घंटे का सफर अभी बाकी था। 10 मिनट के बाद, जैसे ही गाड़ी चलने लगती,  चक्के की चरमराहट की आवाज रेल की पटरियों पर अभी आरंभ ही होती कि फिर रुक जाती !  ऐसा बार - बार हो रहा था।  हम सब साथ में खिड़की से मुँह निकालकर बाहर झाँकने लगीं;  क्योंकि यह लकीर से हटकर रवैया हो रहा था । उन दिनों खिड़कियों पर लोहे की छड़ें नहीं होती थीं। खिड़की बंद करने के लिए धड़ाम से कपाट नीचे गिरता था, जिसमें उँगली या हाथ आने का डर बना रहता था। उसमें लगे लकड़ी के हैंडल से खींचकर उसे ऊपर टिकाना पड़ता था। और कोयले का ईंधन इंजन में जला करता था, जिससे मुँह बाहर निकालते ही इंजन से निकलते धुँए में कोयले के कण से आँख में किरकिरी हो जाती थी। खैर ,हमने बाहर देखा तो हैरान रह गए यह देखकर कि वहाँ सैकड़ों लोग खड़े थे, स्टेशन पर और रेलगाड़ी के आसपास। बहुत से लोग इंजन को आगे बढ़ने से रोकने के लिए रेल की पटरियों पर बिछे जा रहे थे।

 हम सब सहेलियाँ तरह-तरह की अटकलें लगा रही थीं कि तभी पिछले दरवाजे से बुर्के में लिपटी एक औरत हमारी बोगी में चढ़ी और उसे छोड़कर कुछ लोग पीछे से ही नीचे उतर कर गायब हो गए थे।  वह मोहतरमा चुपचाप बुर्का ओढ़े एक सीट पर हम सब के बीच आकर बैठ गई थीं। काफी देर बाद गाड़ी ने चलना आरंभ किया और हल्के- हल्के गाड़ी खिसकने लगी। तब हमने अपने चेहरे भीतर की ओर घुमाए और अपने एकछत्र साम्राज्य में एक घुसपैठिया देखकर चुपचाप आँखों के इशारे करने लगीं। हाँ, इतना चैन जरूर आया कि घंटे बाद रेल गाड़ी चली, तो सही आखिर।

हमारी एक साथिन विजय तिवारी बहुत चुलबुली थी उसने उस बुर्के वाली के पैर देखे और हम सबको इशारा किया कि उधर देखो। हम देखकर हैरान थे कि उस काले बुर्के के पैर सफेद संगेमरमर के लग रहे थे एक शानदार सैंडल में।  शायद उस मोहतरमा ने हमारी नजरों को पर्दे की जाली  के अंदर से भाँप लिया और पैर छुपाने के चक्कर में उसने हाथों से बुर्का पैरों पर डालने का यत्न किया, तो उन खूबसूरत हाथों को देखकर तो हम सभी की आँखें फटी की फटी रह गईं। अब ‘बिल्ली के गले में घंटी कौन बाँधे ?’ सबकी नजर मुझ पर आकर ठहर गईं। मानो कह रही हों कि तुम पता करो यह कौन है। लो जी, जब गाड़ी ने रफ्तार पकड़ ली, तो कुछ सहज होते हुए मैंने हिम्मत करी और उनके पास जाकर बैठ गई।  वह भी शायद अब सहज होने का यत्न करने लगी थीं। हमारी मैडम तो किसी पंगे में नहीं पड़ना चाहती थी। वह मस्त कोई उपन्यास पढ़ने में मशगूल थीं।  मैंने जैसे ही पूछा, ‘आप भी इंदौर चल रही है क्या ?’ तो उन्होंने इधर- उधर देख कर इत्मीनान से अपना बुर्का पलट दिया। लगा,  चौदहवीं का चाँद आसमाँ की हदों को पार कर हमारी बोगी में आ गया हो।  बला की खूबसूरत थीं वह मोहतरमा!

हम सब लड़कियों की दिल की धड़कनें मानो रुक गई थीं। मुँह खुले रह गए थे।

मैं,  नलिनी जयवंत !’

 क्या आप, फिल्म हीरोइन नलिनी जयवंत हैं?’

 तो चेहरे पर एक मीठी मुस्कान बिखेरते हुए उन्होंने आँखों की मस्ती से ‘हाँ’ कहा । बड़ा दिलकश स्टाइल था उनका!

 क्या अदा थी!

 उस पुराने जमाने में फिल्मी अदाकार पर्दे की चीज हुआ करते थे। आम आदमी की पहुँच से परे ...लोग उनसे ख्वाबों में ही मिल सकते थे। हकीकत में उनको देखना मिलना या बात करना तो कोई सोच ही नहीं पाता था। हम सबकी बैठे -बिठाए लॉटरी लग गई थी। मैडम भी उपन्यास बीच में ही छोड़कर हमारे बीच पहुँच गई।

काले फ्रॉक पर सफेद बताशे वाला प्रिंट, सफेद सलवार और काली जाली का दुपट्टा ओढ़े उस संगेमरमर की मूरत को हम सब अपलक निहार रहे थे । उसी वर्ष उनकी नई फिल्म ‘काला पानी’  रिलीज हुई थी।  उत्सुकतावश मैंने पूछ लिया,’आप बंबई से खंडवा कैसे आ गईं? क्या यहाँ  की रहने वाली हैं?’

 नहीं, फिल्म की शूटिंग खत्म करके मैं रिलैक्स होने के लिए अशोक कुमार जी के परिवार में खंडवा आई थी कुछ दिनों के लिए।  ऐसी खबरें छुपती नहीं, फैल जाती हैं। आज मुझे वापस जाना था बंबई। यह भी रेलवे स्टेशन वालों से या कहीं से जनता को पता लग गया। सब मुझे देखना और मुझसे मिलना चाहते थे। इस चिलचिलाती धूप में भी रेल की पटरी पर बारी-बारी से लोग लेटे जा रहे थे कि जब तक मैं उनको नहीं मिलूँगी ,वह गाड़ी को आगे नहीं जाने देंगे। तभी आप लोगों को भी इतनी देर यहाँ रुकना पड़ा। पर एक इसी बोगी में केवल आप लोग थीं, सो मेरे बॉडीगार्ड मुझे यहाँ छोड़ गए कि मैं यहाँ बची रहूँगी। इस आकस्मिक मुसीबत से मेरी रक्षा करने के लिए आप सब का शुक्रिया!’

    ‌ वह बोल रही थीं और हमें लग रहा था उनके होंठों से फूल झड़ रहे हैं। बहुत मीठी और सुरीली आवाज थी उनकी। लगा कोई इतना खूबसूरत कैसे हो सकता है! स्वर्ग की अप्सराएँ भी ऐसी ही होती होंगी अवश्य! तभी तो ब्रह्म ऋषि विश्वामित्र भी विमुग्ध हो गए थे मेनका पर और काम वासना में लिप्त हो गए थे।

मैडम ने अचानक पूछ लिया,  आप खंडवा ही क्यों आईं ?  कहीं और चली जातीं।’

असल में मैं अशोक कुमार जी (दादा मोनी) से मिलना चाहती थी। हमारे संबंध आत्मीय हैं हम पिछले कई वर्षों से एक साथ रहते हैं। फिल्म समाधि, संग्राम और मिस्टर एक्स में हम दोनों ने 1950 में इकट्ठे काम किया था जिससे हमारी नजदीकियाँ काफी बढ़ गई थीं। अभी वह अपने परिवार में आए हुए थे । मैं फिल्म शूटिंग समाप्त होने पर उनके पास ही आना चाहती थी- सो आ गई थी।’

आप कब से फिल्मों में काम कर रही हैं?’

उन्होंने प्यार से हमें देखा और  बताना शुरू किया…

‘12- 13 वर्ष की थी ! अपनी चचेरी बहन नूतन की माँ शोभना समर्थ के जन्मदिन पर उनके घर गई थी। तब वहाँ आए प्रोड्यूसर डायरेक्टर कांति भाई देसाई (शायद) ने मुझे देखते ही फिल्म ऑफर की और मैं तभी से अब तक ढेरों फिल्में कर चुकी हूँ।’

कोई चार -पाँच घंटे हम लोग साथ थे और ढेरों बातें चल रही थीं। उन्होंने भी हमसे पूछा ,

आप लोग इकट्ठे होकर कहाँ जा रही हैं ? कितना अच्छा लगता है ना ऐसी आजाद , मस्त जिंदगी जीना!’

हमने अपने ट्रिप की डिटेल उनको बताई।  हीरोइन बनने के बाद आजादी खत्म हो जाती है, यह तो हम उनको देखकर समझ ही रहे थे; क्योंकि उनकी हसरतें जाहिर हो रही थीं। वह बोलीं ,चलो हम सब गाना गाते हैं…

जीवन के सफर में राही मिलते हैं बिछड़ जाने को

और दे जाते हैं यादें, तन्हाई में तड़पाने को --हो हो- हो हो’

और तालियाँ बजा -बजाकर हम सब उनकी ही फिल्म ‘मुनीम जी’ का गाना गा रहे थे। बहुत ही सधे स्वर में गा रहीं थीं वो। पूछने पर उन्होंने बताया कि कई फिल्मों में वे अपने गीत स्वयं ही गाती रहीं थीं।

     एक दूसरे से सवाल- जवाब करने से हम आपस में जुड़ते चले जा रहे थे। शायद वह इस बात से बेफिक्र थीं कि उनकी कोई बात पत्रिका या किसी अखबार में लीक हो जाएगी। उस जमाने में हम लोग एक दम लल्लू थे। हमें इतना भी होश नहीं था कि हम उनका पता ले लेते! फोटो खींचने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता था। उनके पास से कोई खुशबू धीरे- धीरे हमारे मन को भा रही थी-आज सोचती हूँ उन्होंने अवश्य कोई इत्र लगाया होगा। लगता था यह सफर कभी खत्म ना हो! लेकिन अंत तो हर सफर का होता है। इंदौर में हम जब स्टेशन पर उतर रहे थे, तो नामालूम कैसे उस काले बुर्के में वो एकदम से गायब हो गईं। और हम उनके गाने की लाइन दोहराते रहे...

जीवन के सफर में राही मिलते हैं बिछड़ जाने को’