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Apr 1, 2022

कहानीः फ़ैसला

 - प्रेम गुप्ता ‘मानी’

सुबह नींद जल्दी खुल गई नैना की...यही कोई सवा छह बजे। पर वह उठ नहीं पा रही थी, सिर में बहुत तेज़ दर्द था । लगता था जैसे सिर की सारी नसें चटक जाएँगी और उसके चटकने से पूरा चेहरा ही नहीं, बल्कि उसकी आत्मा भी लाल रंग से सराबोर हो जाएगी...और फिर ?

कितनी बार तो रेखा ने कहा है, “एक बार जाकर डॉक्टर से कम्पलीट चेकअप करवा लो, ये रोज़-रोज़ दर्द की गोली लेने से कोई फ़ायदा नहीं ।”

रेखा की बात को वह हँस कर टाल देती है । उसे कैसे बताए कि यह कोई बीमारी नहीं है । डॉक्टर को भी जाकर वह दिखा तो चुकी है, एक बार नहीं, बल्कि कई बार...। हर बार उनका एक ही जवाब होता है, “थोड़ा खुश रहा कीजिए। खाना-नाश्ता समय से खाइए और हलकी एक्सरसाइज किया कीजिए । परिवार के बीच ज़्यादा से ज़्यादा समय बिताने की कोशिश कीजिए । अरे भई, ये सब सिरदर्द वगैरह अक्सर टेंशन से उपजता है । ज़्यादा सोचा न कीजिए, रिलैक्स रहिए...।”

अब वह डॉक्टर के यहाँ नहीं जाती । सिर दर्द हो या बदन दर्द, एस्प्रिन की एक गोली दर्द कम कर ही देती है, पर मन का यह दर्द जो समय-समय पर उसके आत्मा तक उतर जाता है, उसका वह क्या करे ?

अपने हाथ से ही अपना सिर दबाते हुए उसने आसपास देखा, सुयश वहाँ नहीं था । बाथरूम से पानी गिरने की आवाज़ आ रही थी । अभी नहा कर निकलते ही चाय-नाश्ते की फ़रमाइश...। उसे वैसे भी उसके किसी दर्द से कोई लेना-देना नहीं था । उसे सिर्फ अपने आप से वास्ता था । समय से नाश्ता-खाना चाहिए और उसके बाद उसकी अपनी ज़िन्दगी...। नैना को कभी-कभी शक़ होता कि उसका पति इंसान है भी या नहीं...? आज इतवार है लेकिन सुयश की रूटीन में कोई फ़र्क नहीं...।

उसका ऑफिस दस बजे का है लेकिन चाय-नाश्ता करके वह आठ बजे ही घर से निकल जाता है। मैनेजर होने के नाते बढ़िया सा लंच ऑफिस में ही होता है । अक्सर ही वह ऑफिस के लंच और उसके बनाए खाने की तुलना करता रहता है, “शुक्र है भगवान का कि रोज़ तुम्हारे हाथों का सड़ा खाना मुझे नहीं खाना पड़ता ।”

वह तिलमिला कर रह जाती है । जानती है कि सुयश जानबूझकर उसका अपमान करता है...। दोस्तों के आने पर सुयश का लहजा कितना बदल जाता है । उसके दोस्त जब नैना की तारीफ़ करते हैं तब वह इस तरह मुस्कराता है, जैसे वह पत्नी के हाथ का खाकर एकदम तृप्त हो । सुयश की कुटिल मुस्कराहट को उसके सिवा कौन महसूस कर सकता है । सुयश अच्छी तरह जानता है कि नैना खाना बनाने में ही नहीं बल्कि घर सँवारने में भी बहुत माहिर है, पर...।

सिर दर्द के कारण उसकी हिम्मत पस्त हो रही थी, पर फिर भी उठना तो था ही । उठ कर उसने ब्रश करके दो बिस्किट के साथ एस्प्रिन की गोली ली और फिर चाय-नाश्ता बनाने के लिए रसोई में घुस गई । अभी उसने गैस पर चढ़ाई ही थी कि स्कूटर स्टार्ट होने की आवाज़ आई । वह ज़रा भी नहीं चौंकी । जानती थी कि सुयश कहाँ जा रहा है । रोकने का कोई फ़ायदा नहीं । एक बार कोशिश की थी । कीमती सामान की तोड़फोड़ के साथ चीख-चिल्लाहट से कलह भी काँप गया था...। मिसेज खरे ने उसके दो दिन बाद ही तो हँसकर कहा था, “क्या बात हो गई थी सुबह-सुबह...। सुयश भाई साहब इतना नाराज़ क्यों हो गए थे ? उनकी आवाज़ मेरे घर तक आ रही थी...मैं तो घबरा ही गई थी ।”

उसने भीतर तक अपने को अपमानित महसूस किया था और कोई अपराध न करने के बावजूद अपना मुँह मोहल्ले में छुपाती फिरी थी । दोबारा अपमानित न होना पड़े इसलिए उसने फिर कभी सुयश को रोकने की बात ही नहीं सोची । छुट्टी के दिन सुयश सात बजे सुबह ही घर से निकल जाता और फिर रात गए ही वापस आता ।

दो कप चाय वह बना ही चुकी थी कि तभी कॉल-बेल बजी । गैस धीमी करके उसने दरवाज़ा खोला तो देखा, सुमन थी । अन्दर आकर सुमन ने झाड़ू उठाया ही था कि उसने रोक दिया, “सुमन...पहले चाय पी लो, फिर सफ़ाई करना ।”

हाथ धोकर सुमन उसके पास ही आकर ज़मीन पर बैठ गई । उसने सुमन को चाय के साथ दो टोस्ट दे दिए और खुद भी लेकर बैठ गई । अभी उसने चाय का पहला घूँट ही भरा था कि सहसा सुमन के चेहरे पर निगाह पड़ते ही चौंक गई, “अरे सुमन...ये तुम्हारे चेहरे को क्या हुआ ? कितनी चोट लगी है, खून सब जमा हुआ है । आखिर यह चोट लगी कैसे? तुम्हारे आदमी ने कुछ किया क्या फिर से ?” उसे लगा जैसे वह सुमन से नहीं, खुद से सवाल कर रही है । न चाहते हुए भी उसकी आँखें भर आई ।

सुमन अपना दर्द भूलकर उसका हाथ सहलाने लगी, “आप दुखी क्यों होती हैं दीदी, यह तो मेरा रोज़ का किस्सा है । जब मरद को दूसरी औरत भाती है, तो अपनी औरत ज़हर लगती है...और ज़हर पीना किसको बर्दाश्त है ? आपको बताएँ दीदी, कल रात को मैंने भी उसे जमकर कूट दिया...। इसी मारपीट में चोट ज़रा ज़्यादा लग गई...।” कहते हुए सुमन हँसने लगी; पर वह नहीं हँस पाई, “अरे तुम हट जाती वहाँ से...मारपीट में खुद को भी घायल करने से क्या फायदा मिला?”

“अरे छोड़ो दीदी, क्यों परेशान होती हैं ? वैसे भी आपकी तबियत ठीक नहीं रहती ।”

तबियत के नाम पर उसे याद आया, सुमन का दर्द बाँटने में वह अपना दर्द तो भूल ही गई । सच में, किसी और से बात कर के मन कितना हल्का हो जाता है । सुमन करीब दस साल से उसके यहाँ काम कर रही है । उसका स्वभाव इतना अच्छा है कि दुःख-दर्द बाँटते समय वह कहीं से भी नौकरानी नहीं लगती, बल्कि उसे तो लगता है जैसे वह उसकी सहेली ही हो । कुछ न बताने पर भी वह उसका दर्द समझ लेती है । आज भी उसने कुछ नहीं कहा, पर सुमन फिर ताड़ गई, ज़बरदस्ती उसका सिर दबाने लगी, “दीदी, आप इतना परेशान रहती हैं न, इसलिए तो सिर में दर्द होता है । आखिर आपको कमी किस बात की है?”

अब वह सुमन को क्या बताए कि भौतिक रूप से उसके पास भले ही सब कुछ है, पर अन्दर से कुछ भी नहीं है । सुयश से शादी होने के बाद से ही उसकी ज़िन्दगी नरक से बदतर हो गई थी । पल भर का चैन भी खो गया । सुयश का चीखना-चिल्लाना तो तब भी बर्दाश्त हो जाता है, पर गिरा हुआ चरित्र...? सुयश की हरकतों के कारण कितनी बार दूसरों के सामने उसे शर्मिंदगी उठानी पड़ी है ।

सुमन के सिर दबाने के कारण उसे आराम मिला तो उसने अपनी आँखें बंद कर लीं । उसे सोया जानकर सुमन भी काम करने उठ गई । बर्तनों की खनक और झाड़ू-पोंछे की आवाज़ से वह अजीब-सा सकून महसूस कर रही थी । वह जानती थी कि साफ़-सफाई के बाद सुमन रसोई में घुसकर उसके लिए कुछ-न-कुछ बना लाएगी...और फिर उसे ज़बरदस्ती खिलाकर ही जाएगी । उसने अनायास मुस्कराने की कोशिश की पर मुस्करा नहीं पाई...बंद आँखों की कोटरों में पानी जो भर गया था ।

सुमन ने जिस सहजता से आज अपने आदमी को कूट दिया था, उस तरह उसकी भी इच्छा हुई कि वह भी सुयश को एक बार कूट ही दे । सुयश ने तो एक बार उसे पीटने की कोशिश भी की थी; लेकिन उस दिन जाने कैसे उसमें साहस आ गया था । उसने सुयश का हाथ ही मरोड़ दिया था, “ख़बरदार जो मुझे असहाय समझ कर मारने की कोशिश भी की... । तुम्हारी तोड़फोड़ और चीखना-चिल्लाना तो बर्दाश्त कर लेती हूँ, पर इसका मतलब यह नहीं कि तुम्हारी मार भी बर्दाश्त कर लूँगी... ।”

उस दिन पता नहीं क्या सोच कर सुयश रुक गया था, पर उसके बाद उसका घर से बाहर रहना और बढ़ गया था ।

सहसा उसकी तन्द्रा टूट गई । सामने सुमन खड़ी थी, “उठो दीदी, मुँह हाथ धोकर कुछ खा लो । मैं जानती हूँ, मेरे जाने के बाद बिना कुछ खाए-पिए तुम ऐसे ही पड़ी रहोगी... ।”

न चाहते हुए भी उसकी आँखें डबडबा गईं । एक बच्चे की तरह वह चुपचाप उठी और फिर मुँह-हाथ धोकर वापस आकर सोफ़े पर बैठ गई । सामने मेज पर अचार के साथ नमकीन पराठा और कॉफ़ी का मग रखा हुआ था । पराठे की ओर हाथ बढ़ाते वह रुक गई, “सुमन, तुम्हारा नाश्ता कहाँ है ? अपना ले आओ, तभी खाऊँगी, समझी...।”

सहसा सुमन खिलखिला कर हँस पड़ी, “अरे दीदी, अपना भी बनाया है...ला रही हूँ । अपने आदमी को कूटने के चक्कर में घर पर कुछ नहीं बनाया न ।” सुमन के साथ वह भी खिलखिला पड़ी। माहौल अचानक ही हल्का हो गया था और उसका सिर-दर्द न जाने कहाँ दुबक गया ।

सारा काम निपटा कर सुमन को गए बहुत देर हो गई थी । घर में उसके करने के लिए कुछ काम बचा ही नहीं था । सुमन सुबह ही आकर सब निपटा देती थी । कई बार उसकी तबियत ख़राब देखकर वह शाम की सब्ज़ी भी बना कर फ्रिज में रख जाती । वैसे भी सुमन बिना कहे इतना कुछ कर देती थी कि अक्सर उसके पास कुछ करने के लिए बचता ही नहीं था ।

बेटा तन्मय मुंबई में पत्नी और बच्चों के साथ खुश था । साल में जब कभी उसकी याद आती, तो मेहमान की तरह दो-चार दिन के लिए आ जाता । चाहती तो वह ही जाकर तन्मय के पास कई दिन रह सकती थी, पर वे सभी अपने-अपनी ज़िंदगी और व्यस्तताओं में कुछ इस कदर उलझे रहते हैं कि वहाँ रहने के दौरान भी उसे अक्सर अकेलापन महसूस होता है । इसी लिए वह तन्मय के बुलाने पर भी जाने से कतराने लगी थी । सुयश से तो तन्मय वैसे भी नाराज़ ही रहता है, सो उसे अपने पास बुलाने में उसे कभी कोई रुचि नहीं रही । सुयश भी जैसे भूल चुके हैं कि उसका अपना एक बेटा भी है, पर वह कैसे भूलती ?

कितना कष्ट सहकर उसे पाल-पोस कर बड़ा किया था...और वह बड़ा भी तो कितना हो गया था। खुद ही लड़की पसंद कर ब्याह कर लिया था, उसके लिए कुछ बोलने या नाराज़ होने की कोई कसर ही नहीं छोड़ी। नाराज़ होकर वह करती भी क्या ? उसके पास था ही क्या जो सपने पालती...।

सहसा वह चौंकी । यादों की गुफ़ा में वह इतनी दूर निकल गई थी कि नहाना ही भूल गई थी । उसने आलमारी से कपड़े निकाले और बाथरूम में घुस गई । सिर के ऊपर शॉवर से गिरता ठंडा पानी उसे राहत भी देता है तो कहीं-न-कहीं बेचैन भी करता है...। उसे लगता जैसे ज़ोरों की बारिश हो रही है, चारो तरफ अजीब सा कोलाहल है...। सड़कों पर भरा पानी कहीं-कहीं कीचड़ भी जमा रहा है...उसके ऊपर चलते हुए पैर फिसल रहे हैं और वह...?

दूसरों का वह नहीं जानती पर अपनी ज़िंदगी के रास्तों पर जमे कीचड़ में वह बार-बार फिसल ही तो रही है । समझ नहीं पाती कि इस कीचड़ को वह कैसे साफ़ करे ? कैसे वह सूखी और साफ़-सुथरी ज़मीन पर चले...किसका हाथ थामे...? भाई-बहन, रिश्तेदारों की अपनी दुनिया है और उन सबकी दुनिया में वह सेंध नहीं मारना चाहती...फिर...?

‘फिर’ पर आकर उसकी ज़िंदगी अटक जाती है । ठीक उस दिन की तरह जब कीचड़ भरी सड़क पर सुयश का दोस्त छदम फिसलकर किसी गाड़ी की चपेट में आकर दूसरी दुनिया में चला गया था और उसकी पत्नी गौरी अपने दो बच्चों के साथ अकेली पड़ गई थी । सास-ससुर थे नहीं, ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी...। मायके में सारी ज़िंदगी हाथ थमने को कोई तैयार नहीं था । छदम चूँकि बैंक में ही था , सो गौरी को बैंक में आया की नौकरी मिल गई । उसकी ज़िंदगी के कठिन रास्ते के सारे कंकड़-पत्थर चुनकर सुयश ने उसे आगे के लिए इतना आसान कर दिया कि गौरी को भी लगने लगा कि सुयश का हाथ थाम कर वह बाकी का रास्ता आसानी से पार कर लेगी ।

सुयश के वे दोस्त जो कभी घर आ चुके थे , उन्होंने उसे आगाह किया था पर वह जानती थी कि भटके हुए इंसान को रास्ते पर लाया जा सकता है; पर जिसका चरित्र ही घिनौना हो, उसे सुधारा नहीं जा सकता । सुयश की ज़िंदगी में गौरी न होती तो कोई और होती ।

सहसा उसे लगा, यादों की गुफा में कितना अँधेरा है, अगर उसने हाथ बढ़ा कर उजाला नहीं किया तो इस अँधेरे में घुट कर मर जाएगी।

शाम का झुटपुटा धीरे-धीरे नीचे झुकने लगा था । उसने हाथ बढ़ाकर स्विच-बोर्ड का बटन दबा दिया । कमरा हलकी रौशनी से नहा गया । उसने घड़ी पर निगाह डाली, उसकी सुई छह पर चहलकदमी कर रही थी । सुमन शाम की सब्जी बना कर फ्रिज में रख गई थी । सुयश अगर जल्दी आ गए, तो बस रोटी ही बनानी रहेगी, वरना वह कुछ हल्का-फुल्का ही खा लेगी ।

वह अँधेरी गुफा में दुबारा नहीं जाना चाहती थी । इसी से वह आराम की मुद्रा में सोफे पर अधलेटी हो गई । मेज पर कुछ मैगजीन और अखबार स्पर्श के इंतज़ार में थे । उसने उन पर एक निगाह डाली और फिर अखबार उठाकर पढ़ने लगी ।

अभी चंद लाइनें ही पढ़ी थीं कि दरवाज़े की घंटी बजी । उठकर दरवाज़ा खोला, तो सामने सुयश खड़े थे...हलके, बेचैन से...। कारण पूछते-पूछते वह रुक गई । सुयश कभी-कभार ही जल्दी घर आते थे । बिना किसी आश्चर्य के वह चुपचाप रसोई में चाय बनाने चली गई । अभी चाय में ठीक से उबाल भी नहीं आया था कि सुयश की आवाज़ ने उसे रोक दिया, “सुनो, चाय रहने दो, मैं पीकर आया हूँ । तुम बस आठ बजे तक मुझे खाना दे दो । मैं जल्दी सोऊँगा...सुबह की शताब्दी से दिल्ली जाना है, ऑफिस के काम से...।”

उसकी इच्छा हुई कि खुद भी सुयश के साथ दिल्ली जाने को कहे, पर अपनी इच्छा को उसने अपने भीतर ही दबा लिया । ऑफिस के काम से सुयश अक्सर कहीं-न-कहीं टूर पर जाता रहता था । एक बार जिद करके उसने भी साथ जाने को कह भर दिया था, उसके बाद घर में जो तूफ़ान मचा था कि पूरा घर तहस-नहस हो गया था । महीनों वह सकून से सो नहीं पाई थी। उसके बाद अपनी उस इच्छा का उसने खुद ही गला घोंट दिया था । शादी से पहले अपने पिताजी के साथ जितना घूम पाई थी, उसे ही अपनी यादों का हिस्सा मान लिया था । बाद में तो इस पिंजरे में इस तरह क़ैद होकर रह गई थी कि खुली हवा में साँस लेना ही भूल गई थी।

अपनी घुटती साँसों के साथ अँधेरे से जूझते कब सुबह की रौशनी उसके रूबरू आ गई, उसे पता ही नहीं चला। अहसास तो तब हुआ जब अपने आप ही चाय बनाकर पी चुके सुयश ने उसे आवाज़ दी, “दरवाज़ा बंद कर लो, मैं जा रहा हूँ ।”

“भाभी जी, एक बात कहूँ, बुरा न मानिएगा । वैसे तो यहाँ सब जानते हैं कि गौरी के कारण आपके जाने का कोई स्कोप नहीं, पर फिर भी...सुयश भाई साहब के साथ आप भी बाहर जाने की कोशिश किया कीजिए...।” पिछली बार सुयश के मुंबई जाने पर उसके सहकर्मी पाण्डे की बीवी ने उसका हालचाल पूछने के बहाने फोन पर कहा था, तो उसकी आवाज़ में सहानुभूति की बजाय एक आनंदित खनक को महसूस कर वह अन्दर तक तिलमिला गई थी। भीतर कहीं गहरे तक अपमान की एक टूटन भी चुभी थी, पर वह खामोश रह गई थी । जब अपना सोना खोटा तो परखइए का क्या दोष...।

दिन के उजाले के बावजूद अँधेरा उसे फिर अपनी गिरफ्त में लेता कि तभी उसने चाय की प्याली छान ली और उसे लेकर सोफे पर आकर बैठ गई । आज का अखबार मेज पर अभी अनछुआ ही पड़ा था । चाय की चुस्की लेते हुए उसने उसे खोला तो सामने ही एक विज्ञापन पर उसकी नज़र गई । शहर के मशहूर महिला डिग्री कॉलेज में हॉस्टल वार्डन और आया की ज़रूरत थी...।  तनख्वाह के अलावा रहना-खाना भी शामिल था ।

सुख की लहर उसे कहीं दूर ले जाती कि तभी दरवाज़े की घंटी ने उसे आवाज़ देकर रोक लिया । सुमन आ गई थी और वह उसे भी अपने साथ उस लहर में बहा ले जाना चाहती थी । चहकती- सी वह बहुत कुछ कहने को आतुर थी | हाथ धोकर सुमन एक कप और चाय के साथ नाश्ता भी ले आई, “क्या बात है दीदी, आज बहुत खुश दिख रही ?”

“एक बात बताओ सुमन, अगर कभी मेरे साथ कहीं रहने को मिले तो क्या तुम चलोगी ?”

“हाँ...क्यों नहीं दीदी...वैसे भी कौन मेरे लिए पीछे रोने को बैठा है...।”

सच ही तो कह रही थी सुमन...। एक तरह से देखा जाए तो यह उन दोनों का ही सच था । अपना कहने को न सुमन के पास घर था न उसके पास...। दोनों के ही बहू-बेटे के पास उनके लिए वक़्त नहीं था और पति नाम का जीव...?

सुयश एक हफ्ते के लिए बाहर गए थे, तब तक उसे भी कोई निर्णय ले लेना था । उसने दिए गए नम्बर पर संपर्क करके संक्षेप में अपने और सुमन के बारे में बताया तो उन्होंने उसे उसी दिन इंटरव्यू के लिए आने को बोल दिया । सुमन से वह कुछ कह पाती, उससे पहले ही उसने उसे रोक दिया, “मैं सब सुन रही थी दीदी...। तुम कुछ कहती नहीं तो क्या, मैं सब समझती हूँ । दिन भर बस सफ़ेद दीवारों से बातें करने से तो अच्छा है, अब अपने बारे में कुछ सोचा जाए...। दीदी, तुम जहाँ रहोगी, मैं वही तुम्हारे पास रह कर अपने दिन गुज़ार लूँगी...। कम-से-कम हम लोग खुश तो रहेंगे न...।”

उसकी आँखें पूरी तरह छलकती, उससे पहले ही वह बाथरूम में घुस गई, “सुमन, जब तक मैं नहा कर आती हूँ, तुम फटाफट काम निपटा लो...। मेरे पास एक साड़ी है, तुम भी यहीं तैयार हो लेना...। हम लोग को आज ही इंटरव्यू के लिए चलना है...।”

इस एक पल में उसने अपने साथ-साथ सुमन की ज़िंदगी के लिए भी एक सही फैसला ले लिया था...।

सम्पर्कः एम.आई.जी-292, कैलाश विहार, आवास विकास योजना संख्या-एक, कल्याणपुर, कानपुर-208017 (उ.प्र), ईमेल: premgupta.mani.knpr@gmail.com, ब्लॉग: www.manikahashiya.blogspot.in. 

3 comments:

Bharati Babbar said...

नारी की सकारात्मक चेतना को दर्शाती अच्छी कहानी।

Sudershan Ratnakar said...

सकारात्मक सोच लिए बहुत सुंदर कहानी।

Seema Singh said...

बहुत प्रभावशाली ढंग से कही गई सकारात्मक कहानी है।👏👏