उदंती.com को आपका सहयोग निरंतर मिल रहा है। कृपया उदंती की रचनाओँ पर अपनी टिप्पणी पोस्ट करके हमें प्रोत्साहित करें। आपकी मौलिक रचनाओं का स्वागत है। धन्यवाद।

Mar 1, 2022

अनकही- उन्नति की दिशा में बढ़ते स्त्री के कदम

 - डॉ. रत्ना वर्मा

स्त्री और पुरुष के बीच बराबरी के हक की लड़ाई अभी भी जारी है, आगे न जाने कब तक जारी रहेगी। 8 मार्च को पूरी दुनिया में महिला दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस दिन महिलाओं के अधिकार और उनकी स्वतंत्रता की बात की जाती है। 

दुनिया के किसी भी कोने में यदि लड़कियों के भविष्य को लेकर बात हो, उनके पालन- पोषण से लेकर शिक्षा, आत्मनिर्भरता, शादी, बच्चे,  परिवार जैसे कई महत्त्वपूर्ण विषयों पर फैसला लेने जैसी गंभीर बात क्यों न हो, आज भी लड़कियों की इच्छा को जानने का प्रयास नहीं किया जाता। अभी हाल ही में केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल ने विवाह के लिए लड़कियों की उम्र 21 वर्ष किए जाने के विधेयक को मंजूरी दे दी है। बात  चूँकि लड़कियों की थी,  तो तुरंत तरह- तरह की प्रतिक्रियाएँ आनी शुरू हो गईं। समाज और देश के साथ- साथ स्वयं लड़कियों के लिए यह फैसला कितना उचित और लाभदायक होगा, इस पर बहस होने के बजाय नकारात्मक प्रतिक्रियाएँ आने लगीं। राजनीति तो हर जगह अपना रंग दिखाती है, सो इस विषय को भी राजनैतिक बहस का मुद्दा बना दिया गया। 

अभी तक लड़कियों की शादी की न्यूनतम उम्र 18 वर्ष और लड़कों के लिए उम्र 21 वर्ष थी। इस बार विवाह की उम्र में यह बदलाव 43 वर्ष बाद  लिया गया है। वर्ष 1929 में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार की ओर से बनाए गए कानून के तहत शादी के लिए लड़कियों की न्यूनतम उम्र 14 साल और लड़कों की 18 साल तय की गई थी। वर्ष 1978 में इसमें संशोधन कर क्रमश: 18 और 21 साल कर दिया गया था। धीरे- धीरे ही सही, विवाह की उम्र को लेकर समय- समय पर नियम- कानून में बदलाव अवश्य होते रहे हैं, जो समाज और देश के हित में लिए जाते रहे हैं; परंतु आज भी देश के अनेक क्षेत्रों में बाल- विवाह की प्रथा जारी है, जिसे रोकने के सरकार के साथ-साथ विभिन्न संस्थाएँ प्रयासरत हैं। 

कम उम्र में शादी के बाद लड़कियों को होने वाली अनेक परेशानियों से पूरा देश वाकिफ है। बाल विवाह जहाँ लड़कियों का बचपन छीन लेता है,  वहीं शिक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य, परिवार तथा समुदाय पर भी इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। कम उम्र में माँ बन जाने से माँ और बच्चे दोनों की सेहत पर बुरा असर होता है। एक लड़की पर परिवार और बच्चों की जिम्मेदारी का बोझ कम उम्र में आ जाने के कारण लड़कियाँ अपने व्यक्तिगत विकास के बारे  सोच ही नहीं पाती । मातृ मृत्यु- दर और शिशु मृत्यु- दर में बढ़ोतरी तो होती ही है, साथ ही उनकी शिक्षा बीच में ही रुक जाने से उनका जीवन स्तर भी बदल जाता है। जाहिर है, कम उम्र में विवाह हो जाने से अनेक सामाजिक दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं। लड़की के शारीरिक और मानसिक विकास की दृष्टि से 18 वर्ष की उम्र में बच्चे और पारिवारिक जिम्मेदारी का बोझ उठा पाने में लड़की को परिपक्व नहीं माना जाता। 

अब प्रश्न यह उठता है कि लड़कियों की शादी की उम्र कानूनन 21 वर्ष किए जाने से क्या हम इस प्रथा पर रोक लगा पाएँगे? दरअसल लड़की का विवाह पूर्णतः एक पारिवारिक फैसला होता है। चूँकि परिवार समाज से जुड़ा होता है अतः समाज में प्रचलित विभिन्न प्रथाओं और परम्पराओं के चलते हमारे देश के अधिकतर परिवारों में आज भी लड़की की जल्दी से जल्दी शादी करके एक महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी से मुक्ति पाना समझा जाता है। शिक्षा और जागरूकता के चलते लड़की को परिवार के लिए एक बोझ समझे जाने वाले परिवारों की संख्या में वर्तमान में अवश्य कुछ कमी आई है;  पर देश के अधिकतर पिछड़े इलाकों में शिक्षा, जागरूकता और आर्थिक कमजोरी के कारण आज भी लड़कियों को परिवार के लिए बोझ और पराया धन के रूप में ही देखा जाता है। लड़की के पैदा होते ही माता- पिता को उसके विवाह की चिंता सताने लगती है। वे उसी दिन से उसके विवाह के लिए योजना बनाना और धन जोड़ना शुरू कर देते हैं, यही कारण है कि उनकी शिक्षा पर भी गंभीरता से ध्यान नहीं दिया जाता, यह कहते हुए कि इसे एक दिन ससुराल जा कर घर- गृहस्थी ही तो सम्भालना है,  ज्यादा पढ़ा-लिखाकर नौकरी तो करवानी नहीं है। दहेज जैसी कुप्रथाओं के कारण भी माता- पिता चाहते हैं कि जल्दी से जल्दी बेटी को बिदा कर दो, ताकि अधिक दहेज न देना पड़े। यह हमारा दुर्भाग्य है कि देश के कुछ  हिस्सों में लड़की पैदा होने पर आज भी खुशी नहीं मनाई जाती। और तो और वंश चलाने के लिए आज भी अधिकतर परिवार लड़के की ही चाहत रखते हैं।

इसे विडम्बना नहीं तो और क्या कहेंगे कि कोई भी माता- पिता जब अपनी बेटी के विवाह के लिए लड़का तलाशते हैं तो सबसे पहले वे ये जानना चाहते हैं कि- लड़का कितना पढ़ा- लिखा है, करता क्या है, कितना कमाता है, शादी के बाद वह उनकी बेटी और बच्चों का भरण- पोषण ठीक से कर पाएगा या नहीं? कई सवाल एक बेटी के माता- पिता के मन में होते हैं । पूरी तरह संतुष्ट होने के बाद ही वह अपनी बेटी को एक सुरक्षित हाथों में सौंपता है। दूसरी तरफ एक लड़के के माता- पिता जब बहू की तलाश करते हैं तो वे ये देखते हैं कि लड़की का रंग, लम्बाई, चाल- ढाल, घर के काम- काज में निपुणता,  इतनी पढ़ी- लिखी चाहिए की घर सम्हाल सके। कहने का तात्पर्य यह कि लड़की का अपना स्वतंत्र व्यक्त्तित्व और आत्मनिर्भर होना उतना जरूरी नहीं माना जाता। 

इन सब कारणों को देखते हुए  21 की उम्र में शादी के फैसले का स्वागत किया जाना चाहिए। इस फैसले को  लड़कियों के व्यक्तित्व विकास से जोड़ कर देखा जाना चाहिए। 18 की उम्र तक लड़कियाँ ग्रैजुएट भी नहीं हो पाती ऐसे में वे इस उम्र में अपने जीवन को लेकर फैसला करने में भी असमर्थ होती हैं। पढ़ाई पूरी होने के बाद लड़की अपने लिए सही जीवन साथी चुनने, आगे पढ़ाई जारी रखने, नौकरी करने आदि के बारे में फैसला ले पाने में सक्षम होगी । 

आप और हम इस बात से जानते हैं कि सदियों से औरतें पुरुषों के मुकाबले दोयम दर्जे की ही मानी जाती रही हैं जिसे पूरी तरह बदलने में आज भी हम नाकाम रहे हैं। ऐसी विचारधारा को बदलने के लिए हमारे समाज में अनेक नियम कानून बनाए जाते रहे हैं । इसी तरह  विवाह के लिए लड़कियों की उम्र 21 होने से भी महिलाओं की सामाजिक स्थिति में बदलाव आयेगा। प्रथम तो इससे लड़का और लड़की में किए जा रहे भेदभाव को कम करने में सहायता मिलेगी। 21 की उम्र तक प्रत्येक लड़की अपनी पढ़ाई पूरी कर लेगी, उसे अपना कैरियर चुनने में आसानी होगी,  वह आत्मनिर्भर होगी, शिशु मृत्यु- दर और मातृ मृत्यु- दर में कमी आएगी, जो कि सरकार का एजेंडा भी है। इस तरह पूरा परिवार, समाज और देश परिपक्व होगा। इस बात से किसी को भी इंकार नहीं होना चाहिए कि जब किसी परिवार में एक स्त्री शिक्षित होती है, तो पूरा परिवार शिक्षित होता है और परिवार शिक्षित होगा तो देश उन्नति करेगा। तो क्यों न उन्नति की दिशा में बढ़ते स्त्री के कदमों का स्वागत किया जाए। लड़की की शादी की उम्र 21 साल होने से एक सजग और स्वस्थ राष्ट्र का निर्माण होगा इसमें संदेह नहीं। 


6 comments:

शिवजी श्रीवास्तव said...

स्त्री की स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता की दिशा में में लड़कियों के विवाह की उम्र 21 किए जाने के औचित्य पर सुचिन्तित आलेख।बधाई रत्ना जी।

विजय जोशी said...

आदरणीया,
शाश्वत सत्य का उद्घाटन। इसीलिये अंग्रेजी में कहा गया ही है : It's men's world. मुखौटा प्रिय लोग कितनी ही प्रगतिशीलता की बात करें, पर अंदर का भेड़िया उभरकर प्रकट हो ही जाता ऐसे निर्णायक पलों में।
साहस के साथ कही बात के लिए हार्दिक बधाई एवं आभार। सादर

Anima Das said...

अति प्रभावी...महत्वपूर्ण संदेश एवं सार्थक विचारधारा Mam 🌹🙏

Sudershan Ratnakar said...

महत्वपूर्ण संदेश देता प्रभावशाली आलेख। बधाई रत्ना जी।

anil verma said...

नारी शक्ति के नाम पर चर्चाएं तो बहुत होती हैं परंतु ठोस कार्रवाई कदम ही हो पाती है अतः: इस फैसले का स्वागत होना चाहिए।

रत्ना वर्मा said...

सामाजिक बदलाव के लिए प्रत्येक व्यक्ति को प्रयास करना होगा। इसके लिए हम सबको मिलकर आगे आना होगा... आप सबने मेरे लिखे को सराहा इसके लिए आप सबका हार्दिक आभार 🙏