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Feb 1, 2022

निबंध - वसंत आ गया है

 - हजारी प्रसाद द्विवेदी

(यह निबन्ध उस समय लिखा गया है जब द्विवेदी जी ‘शांति निकेतन’ में निवास करते थे।)

जिस स्थान पर बैठकर लिख रहा हूँ, उसके आस-पास कुछ थोड़े-से पेड़ हैं। एक शिरीष हैं, जिस पर लंबी-लंबी सुखी छिमियाँ अभी लटकी हुई हैं। पत्ते कुछ झड़ गए हैं और कुछ झडऩे के रास्ते में हैं। जरा-सी हवा चली नहीं कि अस्थिमालिकावाले उन्मत्त कापालिक भौरव की भाँति खडख़ड़ाकर झूम उठते हैं। ‘कुसुम जन्म ततो नव पल्लवा:’ का कहीं नाम-गन्ध भी नहीं है। एक नीम है। जवान है, मगर कुछ अत्यन्त छोटी किसलयिकाओं के सिवा उमंग का कोई चिह्न उसमें भी नहीं है। फिर भी यह बुरा मालूम नहीं होता।

मसें भीगी हैं और आशा तो है ही। दो कृष्णचूड़ाएँ हैं। स्वर्गीय कविवर रवीन्द्रनाथ के हाथ से लगी वृक्षावली में यह आखिरी हैं। इन्हें अभी शिशु ही कहना चाहिए। फूल तो इनमें कभी आए नहीं, पर वे अभी नादान हैं। भरे फाल्गुन में इस प्रकार खड़ी हैं मानों आषाढ़ ही हो। नील मसूण पत्तियाँ ओर सूच्यग्र शिखांत। दो-तीन अमरूद हैं, जो सूखे सावन भरे भादो कभी रंग नहीं बदलते—इस समय दो-चार श्वेद पुष्प इन पर विराजमान हैं; पर ऐसे फूल माघ में भी थे और जेठ में भी रहेंगे। जातीय पुष्पों का एक केदार है; पर इन पर ऐसी मुर्दनी छाई हुई है कि मुझे कवि- प्रसिद्धियों पर लिखे हुए एक लेख में संशोधन की आवश्यकता महसूस हुई है।

एक मित्र ने अस्थान में एक मल्लिका का गुल्म भी लगा रखा है, जो किसी प्रकार बस जी रहा है। दो करबीर और एक कोविदार के झाड़ भी उन्हीं मित्र की कृपा के फल हैं, पर वे बुरी तरह चुप हैं। कहाँ भी उल्लास नहीं, उमंग नहीं और उधर कवियों की दुनिया में हल्ला हो गया, प्रकृति रानी नया शृंगार कर रही है, और फिर जाने क्या-क्या। कवि के आश्रम में रहता हूँ। नितांत ठूँठ नहीं हूँ; पर भाग्य प्रसन्न न हो तो कोई क्या करे?

दो कांचनार वृक्ष इस हिन्दी भवन में हैं। एक ठीक मेरे दरवाजे पर और दूसरा मेरे पड़ोसी के। भाग्य की विडम्बना देखिए कि दोनों एक ही दिन के लगाए गए हैं। मेरा वाला ज्यादा स्वस्थ और सबल है। पड़ोसी वाला कमजोर, मरियल। परन्तु इसमें फूल नहीं आए। और वह कम्बख्त कन्धे पर से फूल पड़ा। मरियल-सा पेड़ है, पर क्या मजाल कि आप उसमें फूल के सिवा और कुछ देखें! पत्ते हैं नहीं और टहनियाँ फूलों से ढक गई हैं।

मैं रोज देखता हूँ कि हमारे वाले मियाँ कितने अग्रसर हुए?  कल तीन फूल निकले थे। उसमें दो तो एक संथाल बालिका तोड़कर ले गई। एक रह गया। मुझे कांचनार फूल की ललाई बहुत भाती है। सबसे बड़ी बात यह है कि इन फूलों की पकौडिय़ाँ भी बन सकती हैं। पर दुर्भाग्य देखिए कि इतना स्वस्थ पेड़ ऐसा सुना पड़ा हुआ है और वह कमजोर, दुबला लहक उठा! कमजोर में भावुकता ज्यादा होती होगी!

पढ़ता-लिखता हूँ। यही पेशा है। सो दुनिया के बारे में पोथियों के सहारे ही थोड़ा-बहुत जानता हूँ। पढ़ा हूँ, हिन्दुस्तान के जवानों में कोई उमंग नहीं है, इत्यादि-इत्यादि। इधर देखता हूँ कि पेड़-पौधे और भी बुरे हैं। सारी दुनिया में हल्ला हो गया कि वसंत आ गया। पर इन कमबख्तों को खबर ही नहीं। कभी-कभी सोचता हूँ कि इनके पास तक सन्देश पहुँचाने का क्या कोई साधन नहीं हो सकता?

महुआ बदनाम है कि उसे सबके बाद वसंत का अनुभव होता है; पर जामुन कौन अच्छा है। वह तो और भी बाद में फूलता है। और कालिदास का लाडला यह कर्णिकार? आप जेठ में मौज में आते हैं। मुझे ऐसा लगता है कि वसंत भागता-भागता चलता है। देश में नहीं, काल में। किसी का वसंत पन्द्रह दिन का है तो किसी का नौ महीने का। मौजी है अमरूद। बारह महीने इसका वसंत ही वसंत है। हिन्दी भवन के सामने गंधराज  पुष्पों की पाँत है। ये अजीब है, वर्षा में ये खिलते हैं लेकिन ऋतु विशेष के उतने कायल नहीं हैं। पानी पड़ गया तो आज भी फूल ले सकते हैं।

कवियों की दुनिया में जिसका कभी चर्चा नहीं हुई, ऐसी एक घास है- विष्णुकान्ता। हिन्दी भवन के आँगन में बहुत है। कैसा मनोहर नाम है! फूल और भी मनोहर होते हैं। जरा-सा तो आकार होता है, पर बलिहारी है उस नील में मेदुर रूप की। बादल की बात छोडि़ए, जरा-सी पुरवैया बह गई तो इसका उल्लास देखिए। बरसात के समय तो इतनी खिलती है कि मत पूछिए। मैं सोचता हूँ कि इस नाचीज लता को सन्देश कैसे पहुँचता है? थोड़ी दूर पर वह पलाश ऐसा फूला है कि ईर्ष्या होती है। मगर उसे किसने बताया कि वसंत आ गया है? मैं थोड़ा-थोड़ा समझता हूँ। वसंत आता नहीं, ले आया जाता है। जो चाहे और जब चाहे अपने पर ले आ सकता। वह मरियल कांचनार ले आया है। अपने मोटेराम तैयार कर रहे हैं, और मैं?

मुझे बुखार आ रहा है। यह भी नियति का मजाक ही है। सारी दुनिया में हल्ला हो गया कि वसन्त आ रहा है, और मेरे पास आया बुखार। अपने कांचनार की ओर देखता हूँ और सोचता हूँ, मेरी वजह से तो यह नहीं रुका है

2 comments:

शिवजी श्रीवास्तव said...

हजारीप्रसाद जी के प्रसिद्ध निबंध को अंक में सम्मिलित करने हेतु साधुवाद।जब जब पढ़ता हूँ निबंध नए अर्थ देता है।

Anima Das said...

अत्यंत सुंदर, मनोरम लेख है... ऋतुओं का वर्णन वृक्षादि सहित प्राकृतिक वातावरण का अनुभव कराता है..... धन्यवाद 🙏