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Jan 1, 2022

उदंती.com, जनवरी- 2022

वर्ष- 14, अंक – 5

खुद के लिये जीनेवाले की ओर कोई ध्यान नहीं देता पर जब आप दूसरों के लिये जीना सीख लेते हैं तो वे आपके लिये जीते हैं।   - परमहंस योगानंद

इस अंक में

अनकही: ख़ुशी का ख़ज़ाना - डॉ. रत्ना वर्मा

आलेख: भावनात्मक बुद्धिमत्ता जीवन को बेहतर बनाती है - शशि पाधा  

गीत: नए वर्ष का वंदन है! - गिरीश पंकज

आलेखः नये साल में नया क्या करें - प्रीतीश नंदी

शोधः अफवाह फैलाने में व्यक्तित्व की भूमिका  -स्रोत फीचर्स

यात्रा- संस्मरणः दक्षिण भारत के छुटपुट अफसाने - वीणा विज ‘उदित’

आधुनिक बोध कथाएँ: बर्तनों के बच्चे - सूरज प्रकाश

आलेखः कोई मुझे गहरी नींद दे दे....- डॉ. महेश परिमल

व्यंग्य: शुभचिंतकों से सावधान - विनोद साव

हाइकुः मन के पूरब में सूरज उगा - कमला निखुर्पा

कविताः भोर की लालिमा में - डॉ कविता भट्ट

बालकथाः चालाक लोमड़ी और मूर्ख भालू - प्रियंका गुप्ता

कहानीः सोहावन भैया - सारिका भूषण

लघुकथाः माँ - भावना सक्सैना

क्षणिकाएँ: सर्द रातों में - भुवनेश्वर चौरसिया ‘भुनेश’

किताबें: भाव जगत को झंकृत करता; लम्हों का सफर - डॉ. शिवजी श्रीवास्तव

लघुकथाः भविष्य में  - पवन शर्मा

सेहत: हल्दी के औषधीय गुण  - डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

दोहे: साल नया गुलजार हो - डॉ. उपमा शर्मा

जीवन दर्शनः दयालु बनें - विजय जोशी 

अनकहीः ख़ुशी का ख़ज़ाना

- डॉ. रत्ना वर्मा
साईं इतना दीजिए जामे कुटुम समाय।

मैं भी भूखा ना रहूँ साधु ना भूखा जाए।।

कबीरदास जी कहते है कि हे ईश्वर आप मुझे केवल इतना दीजिए कि जिससे मेरे और मेरे परिवार का गुजर- बसर हो जाए और मेरे घर कोई साधु- संत आएतो वह भूखा न जाए। कबीरदास जी के इस दोहे के मर्म को यदि प्रत्येक इंसान समझ लेतो दुनिया कितनी सुखमय हो जाएपर ऐसी बातें सिर्फ कबीर जैसे ज्ञानी- ध्यानी ही कह पाते हैं। असल जिंदगी में तो इंसान अकूत धन- सम्पदा इकट्ठा करने में ही जीवन बिता देता हैवह तो यही सोचता है कि इतना धन इकट्ठा कर लोताकि उसकी सात पुश्तें आराम से अपनी जिंदगी गुजार सके। सात पुश्तों का तो नहीं मालूमपर यदि उसकी स्वयं की जिंदगी भी उसके अपने कमाए धन से सुख और आराम से व्यतीत हो जाएतो बड़ी बात होगी।  अकूत धनसम्पत्ति का मालिक भला चैन की नींद कहाँ सो पाता हैउसे तो दिन रात यही चिंता सताए रहती है कि अपनी इस अथाह सम्पत्ति को मैं कहाँ छिपाऊँकहाँ रखूँ कि लोगों की नजर इस पर न पड़ेकि कोई इसे लूट न ले।  इसी चिंता में उसके दिन का चैन और रात की नींद उड़ी रहती है। 

ऐसे ही एक टैक्स चोरी के मामले में गिरफ्तार कानपुरकन्नौज के इत्र कारोबारी पीयूष जैन का हाल पूरी दुनिया जान चुकी हैकि कैसे उसके घर से इनकम टैक्स के छापों के दौरान सोनाचांदी और चंदन की लकड़ी के साथ 257 करोड़ रुपये की संपत्ति बरामद की गई है। जिसे उसने अपने बेडरूम में तहखाना बनवाकर और दीवारोंसीढ़ियों में बक्से बनवाकर छिपाए थे। ये तो जाँच के शुरूआती दौर बात हैअभी न जाने इस इत्र कारोबारी ने और कहाँ- कहाँ धन छिपाकर रखा है और उसके तार दुनिया के कितने कोने और कितने लोगों से  जुड़े हुए हैंये सब अभी उजागर होना बाकी है।

दुनिया में पीयूष जैन जैसे अनगिनत लोग हैंजो सोने- चाँदी और नोटों की गड्डियों के ऊपर आराम से सोते हुए अपना जीवन गुजारना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि वे इतनी सावधानी से सबको चकमा देकर धन कुबेर बने हैं कि उनका कोई बालबाँका नहीं कर सकता। उनके अनुसार पैसे में बड़ी ताकत है।

प्रश्न जरा मनोवैज्ञानिक और संवेदना से जुड़ा हुआ है कि क्या इस प्रकार से काली कमाई का खुलासा हो जाने के बाद पीयूष जैन जैसे व्यक्तियों के मन में जरा सा भी पछतावा होता होगा ? कि लालच में आकर उसने अपनी जिंदगी को तो नरक में धकेल दिया हैबल्कि उसके बच्चे भी इससे अछूते नहीं हैं। इसी से जुड़ा एक सवाल और कि क्या ऐसे धाँधली करने वालों के मन में कहीं यह विश्वास छिपा होता है कि मेरे पास तो कुबेर का खजाना हैमेरा कोई क्या बिगाड़  लेगा। पैसे के बल पर मैं सब ठीक कर दूँगलेकिन क्या सचमुच ऐसा हो पाता हैअब तक देखा तो यही गया गया है कि इस तरह से गलत रास्ते पर चलते हुए घपला और गोलमाल करने वाले या तो भगोड़े बनकर विदेशों में अपना मुँह छिपाए जीवन गुजारते हैं या जेल की सलाखों के पीछे जीवन गुजारते हुए मर-खप जाते हैं।

अटूट सत्य यही है - कर्मों का फल एक दिन जरूर मिलता है। पिछले दो साल से कोरोना जैसी महामारी ने दुनिया की सेहत को हिलाकर रख दिया हैऔर लोग यह समझने लग गए हैं कि सेहत की नेमत ही असली जिंदगी हैबाकी जीवन तो आना जानी है।  तो फिर जोड़- तोड़ कर धन इक्ट्ठा करने और ऐशो- आराम के लिए सुख- सुविधाएँ जुटाने में अपना जीवन बर्बाद करने से तो अच्छा है कि उतना ही धन इक्ट्ठा करो जिससे जीवन सुख से गुजर जाए। उसके बाद तो खाली हाथ आए थे खाली हाथ जाना है। मिट्टी का यह तन मिट्टी में ही मिल जाना है। स्वर्ग और नरक दोनों इसी दुनिया में है। अच्छा कर्म करते हुए जीवन गुजर गयातो समझो स्वर्ग पर पीयूष जैन जैसे लोग जीते जी नरक ही भोगते हैं।

जैसा बीज बोया हैवैसा ही फल पाएगा।

मिट्टी का खिलौनामिट्टी में मिल जाएगा।

जीवन की इस सच्चाई को जानते- बूझते हुए भी इंसान धन की लालसा में भागता रहता है। जबकि वह चाहे तो अपना जीवन आराम से शांति से गुजार सकता है। ज्ञानी जनों ने कहा भी है जो सुख देने में है वह बटोरने में नहीं । हमारे आस-पास इतनी समस्याएँ हैं कि यदि हम अपना और अपने परिवार की आवश्यकता पूरा करने के बाद उसमें से कुछ हिस्सा किसी जरूरतमंदों के लिए रखेंतो जो सुख आपको अपनी भरी तिजोरियों को देखकर मिलता हैंउससे कहीं सौ गुना अधिक सुख दूसरों की जरूरत पूरी करने के बादउनके होंठों पर आई मुस्कान को देखकर मिलेगा । बस एक बार ऐसा कुछ करके तो देखिए!

दुनिया में असंख्य लोग हैंजिनके पास रहने को अपना घर नहीं हैंखाने को दो वक्त की रोटी नहीं है। तन ढकने को कपड़े नहीं हैं। वे अपने बच्चों को शिक्षा नहीं दिला सकतेक्योंकि परिवार को भरपेट खिलाना ही मुश्किल होता है। असंख्य लोग गंभीर बीमारी में इलाज के अभाव में बेवक्त मौत के मुँह में चले जाते हैं....कहने का तात्पर्य है कि अपनी तिजोरी को सोने चाँदी से भरते जाने की बजाय थोड़ा धन उन जरूरतमंदों के लिए निकालिएजो वक्त की मार से लाचार हैं। किसी एक बच्चे की शिक्षा का भार उठाइएकिसी एक भूखे  को खाना खिलाइएकिसी एक के इलाज का खर्च उठाइएठंड में ठिठुरते किसी बुजुर्ग को कंबल ओढ़ा दीजिएतपती गर्मी में नंगे पैर चलते किसी बच्चे को जूता दिलवा दीजिए... किसी बेरोजगार को काम देकर मेहनताना दे दीजिए। कुछ तो एक बार करके देखिए...फिर आपको एक ऐसी ख़ुशी का ख़ज़ाना मिल जाएगाजिसके सामने आपकी भरी तिजोरी भी बेकार लगेगी।

नये साल की पार्टी होबच्चे का जन्म दिन होचाहे शादी की सालगिरह हो हम हज़ारो- लाखों रुपये इस पर खर्च कर देते हैं। मैं यह नहीं कहती कि खुशियाँ मनाना छोड़ दीजिए। अपने तरीके से खुशियाँ मनाने का अधिकार सबको है । मैं यहाँ सिर्फ यही कहना चाहती हूँ कि अपनी खुशियों के साथ थोड़ी सी खुशीथोड़ी सी हँसी उन रोते हुए बच्चों को भी दे दीजिए,  जिनके लिए केक या मिठाई खाना किसी त्योहार से कम नहीं होगा। तो आइए सब मिलकर इस बार नए साल में कुछ नया करें। कुछ अलग हटकर करें। जश्न मनाएँ पर सुरक्षित रहते हुए। जहाँ भी जाएँ  प्यार बाँटें ताकि जो भी आपसे मिले खुश होकर एक मीठी सी मुस्कान लेकर मिले...

सुधी पाठकों को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ...

आलेखः भावनात्मक बुद्धिमत्ता जीवन को बेहतर बनाती है

- शशि पाधा

जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्राणी सफलता के उच्चतम शिखर पर पहुँचने की अभिलाषा रखता है और इसके लिए वह निरन्तर प्रयत्नशील भी रहता है। आज तक केवल बुद्धि तथा प्रतिभा को ही जीवन की सफलता का सोपान समझा जाता रहा है। कुशाग्र बुद्धि वाले  बच्चे को देखकर यह मान लिया जाता था कि यह बच्चा बड़ा होकर अवश्य एक सफल अधिकारी बनेगा अथवा  उच्च पदासीन होकर जीवन यापन करेगा। आज के प्रतिस्पर्द्धा के युग मे ऐसा देखा गया है कि यह आवश्यक नहीं है कि उच्च बौद्धिक स्तर वाले बच्चे ही आगे जाकर अपने कार्यक्षेत्र या व्यवसाय में सफल हों। ऐसे भी उदाहरण हैं कि कई मध्यम बुद्धि वाले लोग भी अपने व्यक्तित्व के अन्य गुणों के कारण सफलता की चरम सीमा को छू लेते हैं।

वास्तव में ऐसा क्यों होता है ? सफलता में बौद्धिक स्तर के महत्त्व की धारणा को तोड़ने वाले हार्वर्ड विश्विद्यालय से मनोविझान में पी-एच. डी. तथा विज्ञान संबन्धी अनेक लेखों के लेखक डेनियल गोलमेन हैं । इन्होंने सन् 1995 में अपनी पुस्तक ‘इमोशनल इंटैलिजेन्स -व्हाई इट कैन मैटर मोर दैन आई क्यु’ में तथा पुन: ‘व्हेयर मेक्स ए लीडर’ में यह स्पष्ट किया है कि जीवन मे प्रतिभा एवं बुद्धि के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता, किन्तु जीवन पथ पर अग्रसर होने के लिए एवं सफलता प्राप्त करने के लिए प्रतिभा के साथ-साथ भावनात्मक बुद्धिमत्ता का होना आवश्यक है। यानी कोई भी प्रतिभावान व्यक्ति अगर भावनात्मक स्तर पर भी परिपक्व होगा, तो दोनों गुण सोने में सुगन्ध जैसा कार्य करेंगे। इस विषय में एक बात अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है कि बौद्धिक स्तर जन्मजात तथा वंशानुगत हो सकता है; किन्तु भावनात्मक बुद्धिमत्ता का विकास किया जा सकता है।

भावनात्मक बुद्धिमत्ता से तात्पर्य यह है कि मनुष्य अपनी निजी भावनाओं जैसे क्रोध, उद्वेग, खुशी, तनाव आदि को पहचानकर उन्हें इस तरह से संयमित एवं निर्देशित करे कि वे उसकी सफलता तथा उद्देश्य पूर्ति में सहायक हो सकें। वह अपनी प्रतिभा तथा भावनात्मक योग्यता के अनुसार जीवन के हर क्षेत्र में परिश्रम करते हुए अपने व्यावहारिक तथा व्यावसायिक जीवन में भी दूसरों की भावनाओं को समझ कर समझदारी से प्रतिक्रिया करे। वास्तव में अपनी भावनाओं की सही पहचान एवं उनका सही दिशा की ओर निर्देशन करना ही भावनात्मक बुद्धिमत्ता है।

समाज, परिवार एवं कार्यक्षेत्र में किसी व्यक्ति की अभिप्रायपूर्ण ढंग से कार्य करने, विवेकपूर्ण ढंग से सोचने और अपने वातावरण के साथ प्रभावपूर्ण ढंग से निपटने की योग्यता का योगफल अथवा सार्वभौम योग्यता को भावनात्मक बुद्धिमत्ता कहा जा सकता है।

मानव के मस्तिष्क का सही विश्लेषन करें,  तो पता चलता है कि उसके दो भाग हैं। बाएँ भाग में तर्क बुद्धि है तथा दाएँ भाग के द्वारा मनुष्य अन्त:करण की आवाज़ को सुनता और परखता है। दोनों भाग एक दूसरे पर आश्रित हैं और दोनों का सामंजस्य ही मनुष्य के सफल जीवन की पूँजी है।

भावनात्मक बुद्धिस्तर के विकास के लिए पाँच मुख्य गुणों का विकास अत्यावश्यक है-

1. खुद की पहचान- जब मनुष्य अपनी निजी भावनाओं को तथा उनके कारणों को पहचानकर उन्हें सही तरह से निर्देशित करता है, तो वे पग -पग पर उसकी सहायक बन जाती हैं। यह आत्मविश्लेषण का गुण भावनात्मक बुद्धिमत्ता का प्रथम सोपान है। ऐसा व्यक्ति अपनी योग्यताओं एवं कमियों का सही मूल्यांकन करके अपने सहयोगियों द्वारा समय-समय पर दिए गए सुझावों का स्वागत करता है। ऐसे व्यक्ति की परख करने के लिए यह देखा जाता है कि वह सुख-दुख, तनाव-खुशी आदि पर कैसी प्रतिक्रिया करता है, आस पास के परिवेश मे अपने आप को कितना ढालने की चेष्टा करता है तथा अपनी जिम्मेवारियों का निर्वाह कितनी कर्त्तव्यपरायणता से करता है। ऐसे व्यक्ति में अदम्य आत्म विश्वास होता है तथा वह अपने विचारों को तटस्थता के साथ व्यक्त करने में संकोच नहीं करता।

2. आत्म संयम- अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रख कर किसी भी परिस्थिति में शान्त रहना, नकारात्मक विचारों को पीछे धकेल कर सकारत्मक विचारों के सहारे कार्यकुशलता का परिचय देना ही आत्मसयंम अथवा आत्म नियंत्रण है । इस विषय में यह आवश्यक हो जाता है कि मनुष्य क्रोध, उत्तेजना, अनिर्णय आदि दृष्टिकोण, अनिष्ठा, तनाव आदि नकारात्मक विचारों  पर विजय पाकर संयम, विश्वसनीयता, कार्यसंलग्नता आदि सकारात्मक गुणों का विकास करता है। ऐसा व्यक्ति कार्य के प्रति पूर्ण समर्पित रहकर अन्तरात्मा  के आदेशों को समझ कर अपनी योग्यतानुसार कार्यप्रणाली में बदलाव लाने तथा नवीन प्रयोग करने में भी संकोच नहीं करता।

3. संवेदनशीलता- दूसरों की भावनाओं को समझना और उनका आदर करना भावनात्मक बुद्धिमत्ता का एक प्रमुख गुण है। मनुष्य जब यह पहचान लेता है कि उसकी व्यक्तिगत भावनाओं का उसकी कार्यप्रणाली एवं कार्यक्षेत्र पर क्या असर पड़ता है तथा वह अपने सहयोगियों की भावनाओं, योग्यताओं तथा विचारों का आदर करते हुए समझदारी से एक अटूट संगठन बना कर चलता है, तो हर क्षेत्र में उसे मित्रों तथा सहयोगियों का सहयोग ही मिलेगा।

4. प्रेरणा शक्ति- भगवत् गीता में लिखा है- "फल की चिन्ता किए बिना एकाग्रचित्त होकर, तन्मयता से कार्य की ओर समर्पित रहना चाहिए।" भावनात्मक बुद्धिमत्ता रखने वाला व्यक्ति भी कार्य के प्रति पूर्णतया समर्पित रहकर परिश्रम, उद्यम, तथा लगन से अपना कार्य करता जाता है तथा फल की चिन्ता की ओर ध्यान नहीं लगाता। बौद्धिक तथा भावनात्मक बुद्धिमत्ता का सामंजस्य रखने वाले लोग कार्य को शुरू करने से घबराते नहीं;  अपितु उनमें कार्य करने का अदम्य उत्साह होता है। वे अपनी लगन एवं उत्साह से अपने सहयोगियों को भी प्रेरित करते रहते हैं।

5. सामाजिक व्यवहार कुशलता- समाज की विभिन्न इकाइयों, समुदायों के साथ सौहार्दपूर्ण संबन्ध स्थापित करके कुशलता से सहयोगियों तथा मित्रों को साथ ले कर चलने वाला व्यक्ति भावनात्मक स्तर पर परिपक्व माना जाता है। अपने उद्देश्य की प्राप्ति की ओर संलग्न ऐसा व्यक्ति  दूसरों से सहयोग की आशा रखते हुये स्वयं भी सदैव सहयोग के लिये तत्पर रहता है। ऐसे व्यक्ति का प्रभावमय व्यक्तित्व होता है और वह खुले दिल से विचारों का आदान प्रदान करता है। ऐसे प्रभावी व्यक्ति नये-नये प्रयोग करने से भी सकुचाते नहीं हैं । वे विश्व में औद्योगिकी जगत में तथा समाज में आने वाले बदलाव के प्रति जागरूक रहते हैं।

आज के प्रतिस्पर्द्धा  के युग में कुछ  विद्यार्थी बौद्धिक योग्यता के अनुसार परिश्रम करते हुए परीक्षा में तो अच्छे अंक पाते  हैं;  किन्तु नौकरी के लिए साक्षात्कार के समय या कार्यक्षेत्र में सफल नहीं हो पाते हैं। आज के औद्यौगिक घराने या मल्टीनेशनल कंपनियाँ साक्षात्कार के समय आवेदक की केवल शैक्षिक अथवा बौद्धिक योग्यता नहीं देखतीं ; अपितु आवेदक की व्यावहारिक एवं व्यावसायिक योग्यता भी परखती है। जब यह बात सत्य है कि भावनात्मक बुद्धिमत्ता का विकास किया जा सकता है तो बच्चों को भावनात्मक रूप से परिपक्व बनाने के लिये माता पिता, गुरुजन एवं समाज के सही योगदान की आवश्यकता है। इसके लिये घर का स्नेहपूर्ण वातावरण, माता-पिता का आपस में प्रेम तथा आदरपूर्ण व्यवहार, बच्चों की भावनाओं का आदर तथा उन्हें अपने विचार व्यक्त करने की छूट देने की आवश्यकता है। जो बच्चे बचपन से ही हँसी -खुशी वाले घर में, प्रेरणा देने वाले अध्यापक एवं प्रबुद्ध तथा प्रगतिशील समाज की देख रेख में पलते हैं, उनकी बुद्धि का चहुँमुखी विकास होता है और सफलता हर क्षेत्र में उनके कदम चूमती है।

आज के परिप्रेक्ष्य में देखें तो कोविड -19 वैश्विक महामारी का प्रभाव शारीरिक और भावनात्मक दोनों स्तरों पर पड़ा है। युवा और छात्र-छात्राओं पर इसका अधिक प्रभाव हुआ है। भय, चिता, असमंजस, और तनाव जैसे मानसिक शत्रुओं ने  उनके मानसिक स्वास्थ्य को बहुत प्रभावित किया है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की ओर से विवि को छात्रों को इससे उबारने के लिए एक ऑनलाइन कोर्स शुरू करने का निर्देश दिया है। इस संदर्भ में यह सिफारिश की गई है कि शिक्षा संस्थानों को परामर्श कार्यक्रमों के माध्यम से माजिक-भावनात्मक व शैक्षणिक सहायता और सलाह प्रदान करने की आवश्यकता है। अनिश्चितता के इस समय में यह बहुत आवश्यक है कि विद्यार्थियों के मानसिक और बौद्धिक विकास में यह महामारी और इससे जुड़ी समस्याएँ बाधा न उत्पन्न करें | इस के लिए माता-पिता, एवं शैक्षिक संस्थाएँ पूर्ण रूप से जागृत और समर्पित हों।

गोलमेन’ की यह महत्त्वपूर्ण खोज कि ‘प्रतिभा के साथ भावनात्मक विकास होना आवश्यक है’.... भारतवासियों के लिए कोई नई बात नहीं। हमारे पौराणिक ग्रन्थों में भी इन्द्रियों पर संयम, मन पर नियंत्रण, सहिष्णुता, संवेदनशीलता, आत्मशान्ति तथा आत्मविश्लेषण के विषय में खूब लिखा गया है। मन की चंचलता पर काबू पाकर अपनी इन्द्रियों को सही दिशा की और लगाना ही सही मायने में ‘योग’ और ‘ध्यान’ है। अत: आज के युग में हम अपने ग्रन्थों से प्रेरणा लेकर इस दिशा की और सही कदम  बढ़ाएँ तो हर क्षेत्र  में सफल हो सकते है । भावनात्मक बुद्धि अथवा समझ की सार्थकता इस बात में है कि इसके माध्यम से मानवीय संबंध स्वस्थ और बेहतर बनाए जा सकते हैं। साथ ही इसकी महत्ता इस बात में भी है कि इसके सहारे जीवन से जुड़ी चुनौतियों से जूझने तथा इन चुनौतियों के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखकर समस्याओं के समाधान में मदद मिलती है। संक्षेप में भावनात्मक बुद्धि हमें एक बेहतर जीवन जीने की क्षमता प्रदान करती है। 

Email: shashipadha@gmail.com

गीतः नए वर्ष का वंदन है!

 -गिरीश पंकज

बीत गया जो बीत गया बस,उसको हमें भुलाना है।

नई आस्था, नए स्वप्न को,फिर से चलो सजाना है।

पीछे मुड़कर देखेंगे तो, बस क्रंदन-ही-क्रंदन है ।

नए वर्ष का वंदन है।।

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कुछ तो बिछड़ गए उन सबका, दर्द हमेशा बना रहेगा

जो आया है, वह जाएगा, सत्य मगर यह तना रहेगा।

जिसने समझी सच्चाई, उस ज्ञानवान का वंदन है

नए वर्ष का वंदन है।।

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हर दिन हमें सबक मिलता है, कुछ हम बेहतर काम करें ।

भूल सुधारें अपनी बढ़कर, व्यर्थ न हम आराम करें।

नये पंथ पर नई आस ले, जीवन का स्पंदन है ।।

नये वर्ष का वंदन है।।

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कोरोना ने हमें रुलाया, बहुत डराया दुनिया को ।

लेकिन सच है यह भी कड़वा, सबक सिखाया दुनिया को।

जो जीने की कला जान ले, वही महकता चंदन है ।।

नये वर्ष का वंदन है।।

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साथ साथ जीना मरना है, साथ-साथ ही चलना है

क्षणभंगुर है जीवन अपना, यह काया तो छलना है।

जब तक जिएँ नया करें कुछ, क्या इसमे कुछ बन्धन है।

नये वर्ष का वंदन है।।

आलेखः नये साल में नया क्या करें

-प्रीतीश नंदी

आमतौर पर वर्षगाँठ या सालगिरह के मौके पर कोई न कोई प्रण लिया जाता है या कोई कसम खाई जाती है। अक्सर तो कोई लत या बुरी आदत छोडऩे का ही प्रण लिया जाता है। मैंने अपने कई दोस्तों को यह कसम खाते हुए देखा है कि आज के बाद वे सिगरेट छोड़ देंगे, शराब से तौबा कर लेंगे, चॉकलेट को हाथ न लगाएँगे, गाड़ी तेज़ नहीं चलाएँगे, वक्त पर दफ्तर पहुँचेंगे वगैरह-वगैरह। यह फेहरिस्त बहुत लंबी हो सकती है, लेकिन अमूमन ये कसमें लम्बे समय तक निभाई नहीं जातीं। शायद ये कसमें लम्बे समय तक निभाए जाने के लिए होती भी नहीं हैं।

पिछले शनिवार को मेरा जन्मदिन था। मैंने हर बार की ही तरह अपना जन्मदिन मनाया। मैंने अपने रोजमर्रा के कामकाज से छुट्टी ली और उन बातों पर विचार किया, जो मेरे लिए महत्त्वपूर्ण हो सकती हैं। इनमें से कोई भी बात ऐसी न थी, जिससे किसी को बहुत फर्क पड़ता या जिससे दुनिया इधर-उधर हो जाती। मैं अपना जन्मदिन मनाने के लिए एक ऐसी जगह पर चला गया, जिसे मैं अपनी ‘शरणस्थली’ कहता हूँ। मैं कभी-कभी वहाँ कुछ दिनों के लिए चला जाता हूँ। यह एक दिन है, जिसे मैं अपने लिए बचाकर रखता हूँ। अपने जन्मदिन पर मैं किन्हीं नकारात्मक बातों पर विचार नहीं करता, इसलिए कोई प्रण भी नहीं लेता। इसके उलट मैं तो कुछ नई आदतें डाल लेने की कोशिश करता हूँ। मैं अपने जीवन को अधिक समृद्ध और संपूर्ण बनाना चाहता हूँ। मैं कुछ नया सीखना चाहता हूँ।

हमें ‘हाँ’ को अपने जन्मदिन का प्रण बनाना चाहिए, ‘ना’ को नहीं। मैं स्वीकारता हूँ कि दुनिया बदल गई है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि लोगों ने जो कुछ किया, वह सब गलत था। फिर चाहे वे ऑड्रे हापबर्न हों, जिन्होंने ब्रेकफास्ट एट टिफनी में सिगरेट पीकर स्मोकिंग को एक चलन बना दिया था या फिर चाहे डिलन टॉमस हों, जो दिन-रात शराबनोशी करते थे, लेकिन उन्होंने अपने समय की सबसे अच्छी कविता लिखी। यदि आपको मेरी बात पर यकीन नहीं होता , तो रिचर्ड बर्टन, जो सर्वकालिक महान अभिनेताओं में से एक हैं,  डिलन टॉमस की कविताओं का पाठ करते सुनिए। इसे ही मैं सही मायनों में एक बदलाव कहता हूँ।

हमें न्यायाधीश बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। हम ड्रग्स लेने वाले जिम मॉरिसन के लिए कोई फैसला क्यों लें क्या? हम जिम मॉरिसन के गीतों और उनके संगीत को सुनकर उसके बारे में विचार नहीं कर सकते? अल्डुअस हक्सले ने कहा था कि मेस्कलिन के बिना दिमाग की खिड़कियाँ और विचारों के दरवाजे कभी नहीं खुल सकते। उन्होंने नोबेल पुरस्कार जीता। एलेन गिंसबर्ग ने अपनी श्रेष्ठ कविताएँ गंगा नदी के किनारे श्मशान पर सिगरेट फूँकते हुए लिखीं। कैनेडी ने इतनी अच्छी तरह से अपने प्रशासनिक दायित्वों का निर्वाह किया था। तब क्या हमें उनके निजी जीवन के अविवेकपूर्ण कार्यों के आधार पर उनके बारे में कोई निर्णय लेना चाहिए?

हमें धूम्रपान, शराबनोशी वगैरह के बारे में फिक्र करने से ज्यादा इस बारे में सोचना चाहिए कि हम भारत को एक श्रेष्ठ देश बनाने में क्या योगदान दे सकते हैं। हम कभी यह प्रण क्यों नहीं लेते कि हम एक साल तक किसी को रिश्वत नहीं देंगे? यदि हम केवल ट्रैफिक के नियमों का ही ठीक तरह से पालन करें तो इससे हमारे जीवन में बदलाव आ सकता है।

यदि हम ये छोटी-छोटी चीजें कर पाएँ तो हमें अपने पर गर्व होगा। हालाँकि शुरुआत में थोड़ी दिक्कत हो सकती है। रिश्वत लेने वाले लोग बुरे होते हैं, लेकिन वास्तव में वे आपको ज्यादा नुकसान नहीं पहुँचा सकते। सबसे बड़ी बात यह है कि अगर हम न घूस लेते हैं और न ही किसी को घूस देते हैं, तो हम हर भ्रष्ट राजनेता या सरकार की आँख में आँख डालकर यह कह सकते हैं कि ‘मैं एक व्यक्ति के रूप में आपसे बेहतर हूँ।’

हम यह प्रण क्यों नहीं ले सकते कि हम वर्ष भर ऐसे शब्दों का उपयोग नहीं करेंगे,  जो बीच में लकीरें खींचते हों? हम आतंकवाद की आलोचना करेंगे, मुस्लिमों की नहीं। हम किसी के राजकाज की आलोचना करेंगे, दलितों की नहीं। हम दूसरे समुदायों के लोगों के बारे में अभद्र बातें नहीं करेंगे। हम गरीबों के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करेंगे, जैसे कि उनका कोई अस्तित्व ही न हो। हम यथासंभव उनकी मदद करने की कोशिश करेंगे।

छोटी-छोटी चीजें भी मददगार साबित हो सकती हैं जैसे पुराने कपड़े, रजाई-कंबल, किताबें, पत्रिकाएँ। हर गरीब व्यक्ति अनपढ़-गँवार नहीं होता। हम अपने घिसे-पिटे विचारों को बदलने का प्रण क्यों नहीं ले सकते? रेस्तरां में जो खाना आपने अतिरिक्त बुलवा लिया था, उसे पैक करवाएँ और सड़क पर खेलने वाले बच्चों को खिला दें। आवारा कुत्तों को बिस्किट खिलाएँ। मैं सालों से यह सब करता आ रहा हूँ। अपने घर की खिड़की पर चिडिय़ों के लिए दाना-पानी रखें। अपने पड़ोस में मौजूद हर पेड़ को बचाने के लिए संघर्ष करें। ये पेड़ ही हमारी सुरक्षा करते हैं, वह बिल्डर नहीं, जो इन पेड़ों को काट डालना चाहता है और शहर की हर खुली जमीन पर कब्जा लेना चाहता है।

बहुत से लोग हैं, जो ऐतिहासिक इमारतों को नुकसान पहुँचाते हैं। सार्वजनिक संपत्तियों में तोड़-फोड़ करते हैं। कुछ ही दिनों में नई ट्रेन की सीटें उखाड़ दी जाती हैं, पंखें चोरी चले जाते हैं। सुर्खियों में आने के लिए बसें जलाने या पटरियों की फिश प्लेट उखाडऩे से भी बेहतर कई रास्ते होते हैं। हम यह प्रण क्यों नहीं ले सकते कि हम सीढिय़ों पर या लिफ्ट में पान चबाकर नहीं थूकेंगे? या भीड़भरी ट्रेनों या बसों में महिलाओं के साथ छेडख़ानी नहीं होने देंगे?

नए साल या वर्षगाँठ पर ये प्रण लेना कहीं ज्यादा सरल और दिलचस्प साबित हो सकते हैं, बनिस्बत इससे कि हम सिगरेट या शराब से तौबा करने की कसमें खाएँ और उन्हें निभा न सकें। दूसरों को दोष देने के बजाय जिंदगी में खुद ही कुछ नए कदम उठाएँ और नई चीजें करें। कसमें खाने की तुलना में यह कहीं ज्यादा सरल और मजेदार है। (हिन्दी ज़ेन से)

शोधः अफवाह फैलाने में व्यक्तित्व की भूमिका

-स्रोत फीचर्स

आज के दौर के सोशल मीडिया ने एक ओर जहां लोगों को जोड़ने का काम किया है, वहीं दूसरी ओर इसके माध्यम से भ्रामक खबरों को साझा करने के चलते ध्रुवीकरण, हिंसक उग्रवाद और नस्लवाद में भी काफी तेज़ी से वृद्धि हुई है। सवाल यह है कि वे कौन लोग हैं जो भ्रामक खबरों को साझा करते हैं? एक विश्लेषण के अनुसार रूढ़िवादी लोग काफी हद तक भ्रामक सूचनाओं के प्रसार के लिए ज़िम्मेदार हैं। 

इन भ्रामक सूचनाओं के संकट का समाधान खोजने के लिए एक ऐसे स्पष्ट आकलन की आवश्यकता है जिससे यह पता लगाया जा सके कि झूठ और षडयंत्र के सिद्धांतों को कौन फैला रहा है। इस विषय में ड्यूक युनिवर्सिटी के मैनेजमेंट एंड आर्गेनाइज़ेशन के शोध छात्र अशर लॉसन और इसी युनिवर्सिटी में फुकुआ स्कूल ऑफ बिज़नेस के असिस्टेंट प्रोफेसर हेमंत कक्कड़ ने लोगों के व्यक्तित्व को मुख्य निर्धारक के रूप में जांचने का काम किया।

व्यक्तित्व लक्षणों की पहचान और मापन के लिए उन्होंने प्रचलित फाइव-फैक्टर थ्योरी का इस्तेमाल किया जिसे बिग फाइव भी कहा जाता है। यह थ्योरी व्यक्तित्वों को 5 श्रेणियों में बांटती है: अनुभव के प्रति खुलापन, कर्तव्यनिष्ठा, बहिर्मुखता, सहमत होने की तैयारी और उन्माद। इस ढांचे के अंतर्गत कर्तव्यनिष्ठा पर अधिक ध्यान केंद्रित किया गया जिससे लोगों की सलीकापसंदगी, उत्तेजित होने पर आत्म-नियंत्रण, रूढ़िवादिता और विश्वसनीयता में अंतरों का पता चलता है।

शोधकर्ताओं का अनुमान था कि कम-कर्तव्यनिष्ठ रूढ़िवादी  लोग (एलसीसी) अन्य रूढ़िवादियों या कम-कर्तव्यनिष्ठ उदारवादियों की तुलना में अधिक भ्रामक समाचार साझा करते हैं। उन्होंने व्यक्तित्व, राजनीति और भ्रामक समाचारों को साझा करने के बीच सम्बंधों का पता लगाने के लिए 8 अध्ययन किए जिनमें 4642 प्रतिभागी शामिल थे।

सबसे पहले शोधकर्ताओं ने विभिन्न आकलनों के माध्यम से लोगों की राजनीतिक विचारधारा और कर्तव्यनिष्ठा को मापा जिसमें प्रतिभागियों से उनके मूल्यों और व्यवहारों के बारे में पूछा गया था। इसके बाद प्रतिभागियों को कोविड से सम्बंधित कुछ सत्य और भ्रामक समाचारों की शृंखला दिखाई गई और इन समाचारों की सटीकता के बारे में सवाल किए गए। यह भी पूछा गया कि वे इन समाचारों को साझा करेंगे या नहीं। उन्होंने पाया कि उदारवादी और रूढ़िवादी, दोनों ही प्रकार के लोग कभी-कभी भ्रामक समाचार को सही मान लेते हैं। शायद उन्होंने इन समाचारों को सटीक इसलिए माना क्योंकि ये उनके विश्वासों से मेल खाते थे।

यह भी देखा गया कि विभिन्न राजनैतिक विचारधाराओं से जुड़े लोगों ने भ्रामक समाचार साझा करने की बात कही लेकिन अन्य सभी प्रतिभागियों की तुलना में एलसीसी के बीच यह व्यवहार काफी अधिक देखा गया। हालांकि, उच्च स्तर के कर्तव्यनिष्ठ उदारवादियों और रूढ़िवादियों के बीच कोई अंतर देखने को नहीं मिला जबकि कम-कर्तव्यनिष्ठ उदारवादियों ने उच्च-कर्तव्यनिष्ठ उदारवादियों की तुलना भ्रामक समाचार ज़्यादा साझा नहीं किए।

दूसरे अध्ययन में, शोधकर्ताओं ने इन परिणामों को स्पष्ट राजनीतिक रुझान वाले भ्रामक समाचारों के साथ दोहराया और पिछले अध्ययन से भी अधिक प्रभाव देखा। इस बार भी विभिन्न स्तर की कर्तव्यनिष्ठा वाले उदारवादी और उच्च कर्तव्यनिष्ठ रूढ़िवादी व्यापक स्तर पर भ्रामक जानकारी फैलाने में शामिल नहीं थे। भ्रामक समाचार फैलाने वालों में कम कर्तव्यनिष्ठ रूढ़िवादी (एलसीसी) आगे रहे।

सवाल यह था कि एलसीसी में भ्रामक समाचार को साझा करने की प्रवृत्ति क्यों होती है। इसके लिए शोधकर्ताओं ने एक ऐसा प्रयोग किया जिसमें प्रतिभागियों की राजनीतिक विचारधारा और व्यक्तित्व के बारे में जानकारी के अलावा उनमें अराजकता की चाहत, सामाजिक और आर्थिक रूप से रूढ़िवादी मुद्दों के समर्थन, मुख्यधारा मीडिया पर भरोसे और सोशल मीडिया पर बिताए गए समय का आकलन किया गया। शोधकर्ताओं के अनुसार एलसीसी ने अराजकता की ज़रूरत ज़ाहिर की,
और साथ ही वर्तमान राजनीतिक-सामाजिक संस्थाओं को बाधित करने और नष्ट करने की इच्छा भी व्यक्त की। इनसे भ्रामक जानकारियों को फैलाने की उनकी प्रवृत्ति की व्याख्या हो जाती है। यह किसी अन्य विचारों और समूहों की तुलना में स्वयं को श्रेष्ठ मानने की इच्छा को भी दर्शाता है जो कम कर्तव्यनिष्ठ रूढ़िवादियों में अधिक देखने को मिलती है।         

दुर्भाग्य से, शोधकर्ताओं को यह भी पता चला कि समाचारों पर सटीकता का लेबल लगाने से भी भ्रामक जानकारी की समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता है। इसके लिए शोधकर्ताओं ने एक प्रयोग अंजाम दिया जिसमें सोशल मीडिया पर साझा किए गए सही समाचार के लिए ‘पुष्ट' और भ्रामक समाचार के लिए ‘विवादित' टैग का उपयोग किया गया। उन्होंने पाया कि उदारवादियों और रूढ़िवादियों ने ‘पुष्ट' टैग वाले समाचार को अधिक साझा किया। हालांकि, एलसीसी ने अभी भी जानकारी को गलत या भ्रामक जानते हुए भी साझा करना जारी रखा।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने एक और अध्ययन किया जिसमें प्रतिभागियों को स्पष्ट रूप से बताया गया कि जिस जानकारी को वे साझा करना चाहते हैं वह गलत है। इसके बाद उनको अपने निर्णय को बदलने का मौका भी दिया गया। इसके बाद भी एलसीसी द्वारा भ्रामक समाचार साझा करने की दर काफी उच्च रही और वे समाचार के गलत होने की चेतावनियों को भी अनदेखा करते रहे।

यह परिणाम काफी चिंताजनक है जिसमें एलसीसी भ्रामक समाचारों के प्रसार के प्राथमिक चालक नज़र आते हैं। इसके लिए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को चेतावनी का लेबल लगाने के बजाय कोई और समाधान खोजना होगा। एक अन्य विकल्प के रूप में सोशल मीडिया कंपनियों को ऐसे समाचारों को अपने प्लेटफॉर्म्स से हटाने के प्रयास करने चाहिए जो किसी व्यक्ति समुदाय को चोट पहुंचाने की क्षमता रखते हैं। कुल मिलाकर मुद्दा सिर्फ इतना है कि जब तक सोशल मीडिया कंपनियां कोई ठोस तरीका खोज नहीं निकालती हैं तब तक यह समस्या बनी रहेगी। (स्रोत फीचर्स)

यात्रा- संस्मरणः दक्षिण भारत के छुटपुट अफसाने

-वीणा विज ‘उदित’

    बच्चों की दिसंबर की छुट्टियों में हमने मद्रास और रामेश्वरम जाने का प्रोग्राम बना लिया था।  रेलगाड़ी का लंबा सफर! पर हम सब हर तरह से तैयार थे।

   दिल्ली से सीधे हम मद्रास (चेन्नई ) गए । वहाँ मेरी भाभी की बहन रहती थीं। उनकी बेटी ‘सपना’ दक्षिण भारतीय फिल्मों की और बॉलीवुड की एक्ट्रेस थी।  ‘फरिश्ते’ हिंदी फिल्म में भी वह रजनीकांत के ऑपोजिट थी । उसके ब्लैक एंड वाइट आदम कद फोटोज़ से घर की दीवारें भरी थी । जिससे उनका घर कुछ अलग ही लग रहा था बच्चों को वहाँ बहुत अच्छा लगा, यह सब देखकर।

  वहाँ से हम महाबलीपुरम और गोल्डनबीच गए, जो समुद्री तट था । जहाँ एक तामिलियन फिल्म की शूटिंग चल रही थी।  ढेरों मटकों से सेट को सजाया गया था । दूसरी ओर भी अलग सेट लगे हुए थे। गोल्डन बीच शूटिंग के लिए मशहूर है; क्योंकि वह प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर है।

 अगला पड़ाव ‘वेनम सेंटर’ था ! जहां विदेशियों ने सांपों का जहर निकालने की मशीनें लगाई हुई थीं।  गाँव के लोग जंगलों से सांप पकड़ कर थैलों में लाते थे और इन्हें 5 या ₹10 में बेच जाते थे।  गाँव वालों के लिए सांप हाथ से पकड़ना वहाँ पर आम बात थी। अद्भुत था, इतनी ढेर सारे सापों को बड़ी सी हौदी में इकट्ठे रेंगते देखना।

  वहाँ तालाब जैसे पौंड में ‘एलीगेटर’ भी थे।  कुछ किनारों पर शायद धूप लेने के लिए लेटे हुए थे और बाकी तालाब के बीच में घूम रहे थे। इतने करीब से मगरमच्छ लेकर बच्चे बहुत रोमांचित हो रहे थे।  बार-बार उनकी क्रीडा देख रहे थे । बच्चों के ज्ञान वर्धन के साथ-साथ हमारा भी ज्ञान वर्धन हो रहा था।

   अगले दिन हम सब मिलकर मद्रास के ‘मरीना बीच’ गए । वहाँ तमिल गरीब महिलाएँ जगह-जगह स्टोव पर कच्चे केले के चिप्स तलकर बेच रही थीं गरमा गरम। इससे वहाँ गंदगी हो गई थी। हमें वह बीच बिल्कुल पसंद नहीं आया । लगा, समुद्र का किनारा और काली चट्टानों पर सिर पटकती लहरें अपना ही राग अलाप रही थीं... जबकि महाबलीपुरम का ‘गोल्डन बीच’ मनभावन लगा था। वहाँ समुद्र की लहरें समुद्र की छाती पर कलोल करती हुई मधुर संगीत सुना रही थीं।

  लो जी अब, मद्रास से हम दक्षिण पूर्व किनारे 375 किलोमीटर दूरी पर रामेश्वरम के लिए ट्रेन में बैठ गए थे। बच्चों के साथ रामायण की बातें करते रहे और प्रभु राम का स्मरण होता रहा । हम बहुत भाग्यशाली थे जो उस जगह पर जा रहे थे जहाँ प्रभु राम के कभी चरण पड़े थे। श्री नरेश मेहता जी की  ‘संशय की एक रात’ लंबी कविता भी मेरे दिमाग में घूम रही थी!

  भारत की धरती पर समुद्र किनारे ‘मंडपम’ शहर में पहुँचने पर रामेश्वरम जाने के लिए हमें ‘पंबन द्वीप’ जाना था। वहाँ जाने के लिए हमें समुद्र पर बने एक लंबे पुल को ट्रेन से पार करना था। यह एक ‘रेल समुद्री पुल’ था , जो 2000 मीटर लंबा था । इस पुल के दोनों और रेलिंग भी नहीं थी। देखने से ही डर लग रहा था । उन्होंने बताया कि यह दुनिया में सबसे लंबा और खतरनाक समुद्री पुल है यह 1914 में अंग्रेजों ने बनाया था। चारों ओर पानी ही पानी दिखता था केवल पानी और बीच में हमारी ट्रेन!!

 ‘जब ओखली में सिर दिया तो मूसल से क्या डरना?’

   सो बैठ गएउस हिलते -जुलते पुल के ऊपर चलती ट्रेन में हम सब। बंगाल की खाड़ी का नीला समुद्र और ऊपर स्वच्छ नीला आकाश... दूऽ ऽ र तक यही था!  गाड़ी जरा भी हिलती तोस्वाभाविक है सब को डर लगता था (आखिर जान से बढ़कर क्या है?) लेकिन, यह मन का वहम था, जो लहरों के उफान को देखकर हो रहा था। थोड़ी ही देर में हम इसके अभ्यस्त हो गए थे। पुल के बीचों-बीच छोटे समुद्री जहाज के निकलने के लिए ज्वाइंट था। जो जहाज को रास्ता देने के लिए खुल जाता था । तब ट्रेन जहाँ की तहाँ खड़ी हो जाती थी और उस में बैठकर जहाज निकलने का इंतजार करना होता था।  यह भी दिलचस्प नजारा था।  ऐसा हम पहली बार देख रहे थे।  इसे ‘Rail Ship Sea Bridge’ भी कहते हैं।

  पंबन द्वीप में पहुंचकर होटल में सामान रखकर हम लोग सीधे रामेश्वरम के ‘रामानाथा स्वामी मंदिर’  में भगवान शिव के दर्शन के लिए चल पड़े थे ।वहाँ पहले समुद्र में स्नान करना होता हैफिर मंदिर में दर्शन करने जाते हैं। हम सब ने भी पहले समुद्र में स्नान किया, फिर भीतर रुख़ किया ।

     भीतर पहुँचने के लिए बहुत लंबा और बेहद खूबसूरत मूर्तियों वाला गलियारा था। कहते हैं उसके हजार खंभे हैं। वहाँ के पंडितों ने कहा कि आपको 22 कुंडों के स्नान करने पड़ेंगे दर्शन से पहले।  अपना गाईड साथ लेकर हम चल पड़े थे स्नान के लिए । हमारा गाईड हाथ में पकड़ी बाल्टी और रस्सी से कुंड रूपी कुएँ से पानी निकालता था और हम पाँचों पर डाल देता था। 22 स्नान पूरे होने के बाद हम लोग साथ लाए बैग में से सूखे कपड़े पहनकर दर्शन के लिए पंक्ति में जाकर लग गए थे, जैसा वहाँ का चलन था। वहाँ दो तरफ रस्सियाँ लगी थीं।  हम भी वहीं खड़े हो गए थे क्योंकि अभी  लाइनें भी लंबी नहीं थी लोग कम थे।

हम बाई तरफ वाली लाइन में थे । अचानक पीछे से बहुत लोगों के आने से जोर का धक्का लगा और मैं उस रस्सी के बाहर बाईं ओर जा गिरी । एकदम से घबरा गई थी मैं! उधर एक पर्दा लगा था। जब मैं उठी तो देखती हूँ कि मैं पर्दे के भीतर हूँ। स्वाति (मेरी 9 साल की बेटी) भी मेरे पीछे-पीछे वहीं आ गई थी। तभी पंडित जी ने मुझे उठा कर बैठाया और मेरे हाथ में मौली धागा बाँध दिया ! मैं हैरान थी... मुझसे विधिवत पूजा भी करवाई । वहाँ एक मोटी सी बहुत अमीर महिला गहनों से लदी पहले से बैठी हुई थी। पंडित जी ने मुझे भी साथ में वहीं बैठा लिया । असल में उस तरफ ₹5000 देने वाले लोग पूजा करते थे और हम तो ₹100 वालों में खड़े थे। मैं समझ नहीं पा रही थी यह कैसा धक्का था!

     ईश्वर की इस लीला पर मैं नतमस्तक हो, भक्ति के तीक्ष्ण आवेग से रोए जा रही थी और मेरे नेत्रों से जल धाराएँ बह रही थीं।  मुझे कैसे अपने चरणों में मेरी श्रद्धा का मान रखने के लिए ईश्वर ने बुला लिया था।  मेरा रोम- रोम सिहर उठा था। जब भी सोचती हूँ हैरान होती हूँ, मेरे साथ यह क्या लीला रची थी प्रभु ने!!!!!!

     स्वाति को साथ लिए दर्शन करने के बाद प्रभु के प्रेम में गद्गगद हो जहाँ मैं खड़ी थी, वहीं रवि जी और दोनों बेटे मोहित रोहित भी दर्शन करके आ गए थे।

     एक पंडित जी ने बताया कि इस ज्योतिर्लिंग का महत्त्व 4 पीठों में से एक माना जाता है । काशी पीठ के दर्शन की तरह दक्षिण में रामेश्वरम के शिवलिंग दर्शन का महत्त्व है।

 हमारा अगला दर्शनीय स्थल था ‘गंधामाधाना पर्वतम्’!

जो हमारे होटल से तीन-चार किलोमीटर पर था । अगले दिन हम वह देखने गए । यह वह पर्वत है, जो अब दो मंजिला मंदिर के रूप में स्थापित है।  जिसे हनुमान रामायण वर्णित घटना... लक्ष्मण के बेहोश होने पर संजीवनी बूटी के लिए हिमालय से कंधे पर उठाकर लाए थे।  यहाँ पर एक चक्र के ऊपर श्री राम भगवान के पैरों के निशान बने हैं और उसकी बहुत मान्यता है ।

    ‌रामेश्वरम में यह सबसे ऊँची जगह है ।जहाँ से पूरा रामेश्वरम दिखता है लगता था अनगिनत सीढ़ियाँ चढ़ते जा रहे हैं लेकिन ऊपर पहुँचकर ठंडी हवा के झोंकों में स्थिर रहना मुश्किल हो रहा था, लगता था खड़े रहे तो हवा के झोंके हमें साथ ही उड़ा कर ले जाएँगे सो हवा की दिशा देखते हुए हम सब इकट्ठे होकर मंदिर के चारों तरफ बने चबूतरे पर बैठ गए थे।  श्री राम के चरणों में बैठना सुखद और स्वर्गीय अनुभव था।

    जिन दिनों पंजाब में ठंड से बुरा हाल होता हैवहाँ गर्मी लग रही थी और ठंडी हवा के झोंके मदमस्त कर रहे थे। वहीं हमने जो कुछ खाने को साथ लाए थे , बैठकर खाया और दो-तीन घंटे बिताकर वापस होटल आ गए थे।

  तमिलनाडु राज्य का विस्तारपूर्वक भ्रमण करके आत्म संतुष्ट होकर हम लौट आए थे पंजाब ! भविष्य में कन्याकुमारी में भारत माता के चरणों पर माथा टेकने के सपने संजोए और स्वामी विवेकानंद के मेडिटेशन सेंटर देखने की आस लिए...!

सम्पर्कः 469-R, Model Town. Jalandhar 144003, Mobile..9682639631  

आधुनिक बोध कथाएँः 1- बर्तनों के बच्चे

  - सूरज प्रकाश
साल 2022 के जनवरी अंक से हम वरिष्ठ कथाकार सूरज प्रकाश जी द्वारा लीखित एक नया स्तंभ आधुनिक बोध कथाएँ शुरू करने जा रहे हैं।  सूरज प्रकाश जी की प्रकाशित रचनाओं की बहुत लम्बी सूची है।  वे एक कहानीकार, उपन्यासकार और सजग अनुवादक के रूप में जाने जाते हैं। अब तक उनकी अनगिनत किताबें जिसमें कहानी संग्रह, उपन्यास, व्यंग्य संग्रह और अनेक अनुवाद शामिल हैं प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी अन्य रचनाओं और उनके वृहद कार्य के बारे में आप kathaakar.blogspot.com पर जाकर देख सकते है।                                          

एक गाँव में रहने के लिए एक नया शहरी आया। चाय पानी के बहाने सबसे मेल जोल बढ़ाया।

एक दिन वह गाँव के सबसे धनी आदमी के घर पहुँचा और बोला - शहर से कुछ मेहमान आने वाले हैं। खाना बनाने के लिए बर्तन कम पड़ रहे हैं। थोड़े से बर्तन उधार दे दीजिए, शाम को लौटा दूँगा।

अब भला बर्तनों के लिए कौन मना करता है। उन्होंने गिनकर ढेर सारे बर्तन दे दिए।

शाम को जब बर्तन वापिस आए, तो धनी आदमी ने देखा कि दो-एक कटोरी और कुछ चम्मच ज्यादा हैं। पूछने पर शहरी ने लापरवाही से बताया कि बर्तनों ने बच्चे दे दिए होंगे।

धनी आदमी हैरान - ये तो अनहोनी बात है कि बर्तन भी बच्चे देते हैं। अब वह भला घर आए अतिरिक्त बर्तनों को कैसे ठुकराता।

अब तो ये अक्सर होने लगा। बर्तन माँगे जाते और शाम को कुछ अतिरिक्त बर्तन भी मिल जाते। धनी व्यक्ति खुश।

अब होने ये लगा कि बहुत ज्यादा बर्तन माँगे जाने लगे और बच्चों के रूप में बर्तन भी बड़े और ज्यादा आने लगे।

एक दिन हुआ ये कि शहरी आदमी ढेर सारे बर्तन ले गया और कई दिन तक वापिस ही नहीं किए। सेठ घबराया और खुद चलकर शहरी के घर पहुँचा और बर्तनों के बारे में पूछा।

शहरी आदमी लापरवाही से बोला - वो ऐसा हुआ कि बीती रात सारे बर्तन मर गए।

सेठ हैरान - भला बर्तन कैसे मर सकते हैं।

शहरी बोला - ठीक उसी तरह से जिस तरह से बर्तनों के बच्चे हो रहे थे।

डिस्क्लेमर - इस बोध कथा का उस देश से कुछ लेना देना नहीं है, जहाँ पहले कुछ चतुर लोग बैंकों से पैसा उठाकर वक्त पर लौटाते भी रहते हैं और बैंक कर्मियों को कीमती उपहार दे कर खुश रखते हैं।

फिर एक दिन आता है कि बैंकों से चतुर लोगों के पास गया सारा धन खुदकुशी कर लेता है। सुसाइड नोट भी नहीं मिलता।

कर लो जो करना है।

सम्पर्कः मो. नं. 9930991424 email- kathaakar@gmail.com

आलेखःकोई मुझे गहरी नींद दे दे....

- डॉ. महेश परिमल

दुनिया में हर चीज का आदान-प्रदान हो सकता है। हम खुशियों को बाँट सकते हैं, दु:ख को बाँट सकते हैं, सुख को बाँट सकते हैं। पर नींद ही एक ऐसी परोक्ष चीज है, जिसे हम कभी बाँट नहीं सकते। इंसान भले ही दूसरों को मौत की नींद सुला सकता है, पर वास्तविक नींद कभी नहीं दे सकता। यह सच है कि सुविधाओं के बीच नींद नहीं आती। नींद तो असुविधाओं के बीच ही गहरी होती है। नींद एक ऐसा अहसास है, जिसमें कोई बंधन नहीं होता। यह कोई सम्पत्ति भी नहीं है, जिसे जमा करके रखा जाए। आज के जमाने में जिसे अच्छी नींद आती है, उससे अधिक अमीर और सुखी कोई नहीं। जो जागी आँखों से पूरी रात निकाल देते हैं, उन्हें फुटपाथ पर बेसुध सोये हुए लोगों को देखकर ईर्ष्या हो सकती है, पर कुछ किया नहीं जा सकता।

कुछ लोग तमाम सुविधाओं के बीच भी सो नहीं पाते, तो कुछ हाथ को तकिया बनाकर जमीन पर ही सो जाते हैं। कुछ लोग करवटें बदल-बदलकर कर थक जाते हैं, फिर भी नींद नहीं आती, तो कुछ लोग बिस्तर पर जाने के तुरंत बाद सो भी जाते हैं। यह सच है कि नींद बाजार में नहीं मिलती। कई बार अधिक मेहनत करने के बाद भी नींद नहीं आती। झपकी को नींद की छोटी बहन माना जा सकता है। दोपहर के भोजन के बाद हल्की-सी झपकी भी कई घंटों की गहरी नींद की तरह होती है। जिन्हें अच्छी नींद आती है, वे किस्मत वाले होते हैं। दवाओं के सहारे सोने वाले बदकिस्मत होते हैं। अच्छी नींद के बाद शरीर की कई व्याधियों का खात्मा होता है।

नींद का मस्तिष्क से सीधा-सा संबंध है। गहरी नींद का स्वामी वही होता है, जो वीतरागी होता है। जन्म लेने के बाद बच्चा पूरी तरह से निर्दोष होता है, इसलिए 18 घंटे तक सो लेता है। जैसे-जैसे उसकी उम्र बढ़ती जाती है,वह गलतियों और बुरे विचारों से घिरने लगता है, तब उसके हिस्से की नींद उसे नहीं मिलती। जिसने कभी किसी का बुरा नहीं किया, उसके घोड़े तो पूरी तरह से बिक चुके होते हैं; अर्थात् वह भरपूर नींद का अधिकारी होता है। नींद का सीधा संबंध हमारी दिनचर्या से है। दिन भर अच्छा सोचो, अच्छा करो, किसी का भी बुरा न करो, किसी को बुरा न कहो, तो उसे रात में बहुत अच्छी नींद आएगी। पर आजकल ऐसा कौन कर पाता है, इसलिए वह अच्छी और भरपूर नींद से वंचित होता है।

नींद न आना कोई बीमारी नहीं है। यह हमारी मानसिक स्थिति पर निर्भर करता है कि हमें कैसी नींद आ रही है। एक भरपूर नींद के लिए कुछ चुकाना नहीं पड़ता। बस निर्दोष होना होता है। पर निर्दोष होना ही मुश्किल है। अच्छी नींद के लिए बहुत जरूरी है, बिस्तर पर अपने अच्छे विचारों को लेकर जाया जाए। अपने तनाव को कमरे के बाहर ही रख दें, तो बेहतर। तनाव का नींद से 36 का आँकड़ा है। जहाँ तनाव है, वहाँ  नींद गायब होगी। जहाँ  अच्छी नींद है, वहाँ  तनाव ठहर ही नहीं सकता। एक बार किसी अनजाने को कुछ देकर देखो, आप पाएँगे कि उस दिन आपको अन्य दिनों की अपेक्षा अच्छी नींद आएगी। कुछ पाने की खुशी अच्छी नींद दे या न दे पाए, पर यह सच है कि कुछ देकर हम अच्छी नींद पा ही सकते हैं। देना नींद का पहला सबक है। यह देना भले ही अच्छे विचार का ही क्यों न हो। अच्छी और गहरी सोच भी भरपूर नींद में सहायक सिद्ध होती है। किसी को एक हल्की से मुस्कान देकर भी अच्छी नींद की प्राप्ति हो सकती है। नींद शारीरिक से अधिक मानसिक स्थिति को नियंत्रित करती है। कहा गया है ना मन चंगा तो कठौती में गंगा। मन की स्थिति स्थिर है, तो यह अच्छी और भरपूर नींद के लिए बहुत ही ज्यादा उपयोगी है।

हम नींद को खरीद नहीं सकते, पर उसे लाने के लिए मेडिकल स्टोर्स से गोलियाँ ले सकते हैं। वह भी डॉक्टर के कहने पर। इसके बाद भी इस बात की कोई गारंटी नहीं कि गोलियाँ लेने के बाद आपको नींद आएगी। नहीं भी आ सकती। आएगी, तो वह शरीर को आराम नहीं देगी, बल्कि दूसरी व्याधियों के लिए आपको तैयार कर देगी। आप चाहकर भी अच्छी नींद नहीं ले पाएँगे। बचपन में सुनी लोरियां यदि सोने के दौरान गुनगुनाएँ , तो संभव है आपको नींद आ जाए, क्योंकि बचपन के आँगन में विचरने से हमारा बचपन भी लौट आता है। फिर बचपन में नींद के लिए कभी कोई समय निश्चित नहीं होता था। कई बार ऐसा होता है कि झोपड़ियों में खर्राटे गूँजते हैं और महल रात भर जागते रहते हैं। इसकी वजह जानते हैं आप? वजह सिर्फ यही कि झोपड़ियों के लोग अपने और परिवार के बीच प्यार से रहते हैं। छोटे से घर में एक परिवार शांति से रह लेता है। पर महलों, अट्‌टालिकाओं के हर कमरे में तनाव का वास होता है, वहाँ  भीतर जाने के लिए प्यार तरसता रहता है। प्यार को वहाँ  जाने की अनुमति नहीं मिलती। इसलिए वहाँ  सन्नाटा चीखता है, वहाँ  के लोग नींद की गोलियाँ खाकर भी चैन से नहीं सो पाते।

प्राकृतिक रूप से नींद से बोझिल आंखें केवल बच्चों की ही होती हैं, क्योंकि ये निर्दोष होती है। अच्छी नींद के बाद जब आँखें खुलती है, तब उससे प्यार टपकता है। यह प्यार आँसू के रूप में भी हो सकता है। इसलिए हमारे आसपास कई निर्दोष आँखें होती हैं, हमें उसे पहचानने की कोशिश करनी होती है। ये आँखें या तो बच्चों की होती हैं, या फिर बुजुर्गों की। युवाओं की आँखों में निर्दोष होने का भाव कम ही नजर आता है। इसलिए जब कभी अच्छी नींद की ख्वाहिश हो, तो दिन में कुछ अच्छे काम कर ही लो, फिर पास में किसी बच्चे को अपने पास सुला लो, उसकी निर्दोष आंखों को देखते-देखते आपको अच्छी नींद आ ही जाएगी। यह एक छोटा-सा प्रयोग है, इसे एक बार...बस एक बार आजमा कर देखो, आप भरपूर नींद के स्वामी होंगे।

T3-204 Sagar Lake View,Vrindavan Nagar, Ayodhya By pass, BHOPAL 462022, Mo.09977276257

व्यंग्य: शुभचिंतकों से सावधान

- विनोद साव

जब से मोबाइल धारकों की संख्या बढ़ी है, तब से शुभचिन्तकों की बाढ़ आ गई है। शुभचिन्तकों का माफिया सक्रिय हो गया है। मोबाइल कम्पनियाँ शुभचिन्तकों की शुभचिन्तक हो गई हैं।  ऐसे-ऐसे मितव्ययी टेरिफ कार्ड आ गए हैं कि कहीं दस पैसे में बात हो जाती है, तो कहीं दो पैसे में और कहीं कहीं तो फ्री काल फैसिलिटी है। घंटों बतियाते रहो अपने बाप का क्या जाना है। 

हर थोड़ी थोड़ी देर में मोबाइल घनघनाता है, जिसमें कोई न कोई शुभचिन्तक पीछे पड़ा होता है। मोबाइल उठाते ही उनकी आवाज सुनाई देती है ’ओजी बधाई हो बधाई हो।’

अरे सुखविन्दर भ्राजी! आप हो।’ यह दफ्तर के एक सहकर्मी का फोन था।

हाँ जी... हाँ जी... आपणे बिलकुल ठीक पहचाणाजी। ओ बधाई हो जी...।’ उन्होंने फिर बधाई दी।  मैंने पूछा ’किस बात की बधाई दे रहे हैं सुखविन्दर जी।’

’इस महीणे बोनस मिल रहा है। बधाई हो। पिछला एरियर्स मिल रहा है बधाई हो।’ -वे बोले।

मैंने कहा ’ये तो विभागीय प्रक्रिया है सुखविन्दर जी। ये तो हमारा आपका हक है। मिलना ही है। इसमें बधाई का क्या है।’

ओ जी हम तो आपके शुभचिन्तक हैं। बधाई देणा अपणा काम है।’ उधर से आवाज आई। ऐसा लगा कि आज दफ्तर में सुखविन्दरजी को कोई काम नहीं है। बधाई देकर टाइम पास कर रहे हैं और मुफ्त में दफ्तर का फोन घुमा रहे हैं।

मोबाइल का रिंग टोन फिर बजा। स्क्रीन पर नाम दिखा भाई साब। मैंने कहा ’हाँ भाई साब...बोलिए’।

हाँ  बिन्नू बधाई हो.... आज तुम्हारी शादी की साल गिरह है।’

साल गिरह तो आपकी भी है। आखिर हम दोनों की शादी एक साथ हुई थी।’

चलो तुमको याद तो है। पच्चीस बरस हो गए हम दोनों की शादी हुए। ये हमारी शादी का सिल्वर जुबली साल है।’

हाँ भाई साब, और इन बीते पच्चीस बरसों में आपने भर- भरकर बधाई दी।  काम एक कौड़ी का नहीं हुआ।  जीवन में जब भी कुछ जरूरत पड़ी, न आप काम आए न कोई मार्गदर्शन आपका मिला। इन बीते बरसों में हम पैतृक सम्पत्ति के बँटवारे को लेकर ही बहस करते रहे। मैकियावली ने ठीक कहा है ‘A man more readily forget a death of father than loss of patrimony यानी इंसान पिता की मृत्यु के दुख को तो भूल जाता है पर पैतृक सम्पत्ति का छीना जाना वह कभी नहीं भूलता।’

ये लो तुम्हारी भाभी से बधाई लो।’ भाई साहब ने बीच में मामले को दबाते हुए कहा। भाभी का औपचारिक स्वर सुनाई दिया- बधाई हो शादी की पच्चीसवीं सालगिरह की बधाई हो। पूनम है क्या हम दोनों एक साथ ब्याह होकर आई थीं।’ यह भाभी की पच्चीस बरसों पुरानी आवाज थी, जो केवल बधाई देने के लिए ही फोन में फूटती है। सामना होने पर मुँह में चुप्पा बाँध लेती हैं। न कोई मुस्कुराहट, न कोई बातचीत। व्यवहार में कहीं कोई आत्मीयता नहीं होती। ऐसे शुभचिन्तकों में अपनापन दर्शाने का यही एक अवसर होता है कि सामने वाले को जन्मदिन की बधाई दो, दीवाली और ईद की मुबारकबाद या फिर नए साल की शुभकामनाएँ। मोबाइल पर खैर खबर ले लो और फिर चिन्तामुक्त रहो कि हमने अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली। अब मियाँ की खैर हो, तो अपनी किस्मत से। किसी की किस्मत का ताला हम थोड़े ही बदल सकते हैं।

आजकल एक शुभचिन्तक नाराज चल रहे हैं कहते है – आप जानते नहीं हैं कि मैं आपका कितना बड़ा फैन हूँ? आपको हर साल फोन पर जन्मदिन की बधाई देता हूँ; पर आपने मुझे मेरे जन्मदिन की बधाई नहीं दी।’

मैंने कहा ’भाई मेरे ... मुझे खुद अपना जन्मदिन तो याद रहता नहीं, मैं आपके जन्मदिन को कैसे याद रखूँ।’

तो फिर आपने मोबाइल क्यों रखा है? सबकी जन्म तारीख ’सेव’ करके रखिए?’ वे बोले।

मैं चौंका – क्या! मोबाइल का यही उपयोग है कि सबकी तारीख नोट करके रखो और बस बधाइयाँ देते रहो। लगता है आपका और कोई काम धंधा नहीं है?’

अरे भाई साब आप लोगों को बधाई देकर तो देखिए... ये सौदा बुरा नहीं है। आप उनको बधाई दीजिए और बदले में उनसे पार्टी लीजिए! जिन्दा रहने के लिए खाना पीना तो जरूरी है; पर मौज- मस्ती के लिए पीना- खाना भी तो हो।’ अब जाकर इस शुभचिन्तक का राज़ खुला। एक हाथ में जाम हो और दूसरे में मुर्गे की टाँग हो फिर देखिए इन शुभचिन्तकों का चेहरा। बारह बजे रात को भी ऐसे प्रफुल्लित होता है, जैसे गोधूलि बेला की पवित्र घड़ी हो।

मैंने कहा एक अच्छी पत्रिका में मेरी कहानी छपी है आपने पढ़ी।’

अच्छा! पढ़ लेंगे यार आपकी कहानी भी पढ़ लेंगे, आपका व्यंग्य भी पढ़ लेंगे। पर पहले छपने की खुशी में आपकी ओर से एक पार्टी तो हो जाए।’ ये ऐसे शुभचिन्तक हैं जिन्हें पता चल जाए कि बधाई देने के बाद उन्हें पार्टी नहीं मिलेगी, तब वे न बधाई देंगे और न ही रचनाएँ पढ़ेंगे।

चार दिनों के लिए किसी नई कम्पनी के मोबाइल में सस्ता टेरिफ क्या आता है बस क्रान्ति हो जाती है। मुफ्त में शुभकामनाएँ दी जा रही हैं। बधाई बधाई का खेल जमकर चल रहा है। वरना लैंड-लाइन के जमाने में एस़.टीडी. बूथ हुआ करते थे। बधाई देने वाले मीटर रीडिंग भी करते रहते थे। कहीं लम्बी बधाई का लम्बा बिल न आ जाए। किर्र किर्र करके मीटर मशीन का प्रिन्टर घूमता था और सौ पचास का बिल थमा देता था। तब शुभकामना देने वाले का दिल धक्क हो जाता था। बूथ वाले से रोनी सूरत में कह उठता था क्या भैया! खाली शुभकामनाएँ ही तो दी हैं और पकड़ा दिया आपने पचास रुपये का बिल!  आपका मीटर तो ठीक है ना?’

बूथ वाला भी कहता ’मीटर बिलकुल ठीक है साहब... आपकी शुभकामनाएँ बड़ी हैं, तो आपका बिल भी बड़ा है। बस, इस बिल को पटाने के लिए आपका दिल भी बड़ा होना चाहिए।’

दिल तो बड़ा है; इसीलिए तो शुभकामनाएँ दे रहे हैं आपको।’ दफ्तर में प्रवेश करते हुए किसी शुभचिन्तक की रोबदार आवाज सुनाई दी। वे सफारी सूट पहने थे। हाथ में ब्रीफ केस लिये हुए थे।

धीरे बोलिए साहब। इतनी रोबदार आवाज में शुभकामनाएँ, देंगे तो दिल पर भारी पड़ जाएगा। आजकल हर किसी के पास बढ़े हुए कोलेस्ट्रॉल वाला दिल है। न जाने कब झटका खा जाए।’ मैंने सहमते हुए कहा ’कभी-कभी शुभकामनाएँ भी भारी पड़ जाती हैं। ऐसी शुभकामनाओं को अच्छे- अच्छे दिल वाले भी पचा नहीं पाते हैं, चलते बनते हैं।’

इसमें शुभकामना देने वाले का क्या दोष? दोष तो आपके बढ़े हुए कोलास्ट्राल का है। आप खाने में ऐसी रिफाइन्ड आयल यूज कीजिए, जिससे आपका कोलास्ट्राल न बढ़े । हम आपको फूलों और पत्तों से निकाले गए ऐसे प्राकृतिक तेल का ब्राण्ड बताते हैं, जिससे आपका कोलास्ट्राल नियंत्रित रहेगा.’

आपके पास है ऐसा कोई ब्राण्ड?’

बिलकुल है। आप हमारे सदाबहार ब्राण्ड यूज कीजिए और हमेशा सदाबहार बने रहिए।’ उन्होंने एक ब्राण्ड का नाम सुझाया, तो हमने पूछा कि ’आप इस ब्राण्ड का नाम कैसे जानते हैं?’

ऐसे जानते हैं; क्योंकि यह हमारी तेल निर्माता कम्पनी का नया ब्राण्ड है। ये रखिए मेरा विजिटिंग कार्ड और जब भी आपको हमारे सदाबहार आयल ब्राण्ड की जरूरत हो हमें फोन करें। हम आपको घर पहुँच सेवा देंगे। मेरा नाम ओ.पी.साहू है। अच्छा नमस्कार फिर मिलेंगे।

वे चहकते हुए बोल गए, तब मुझे उनके शुभचिन्तक होने का राज पता चला। दरअसल वे शुभचिन्तक नहीं, अपने उत्पाद बेचने वाले एक सेल्स रिप्रजेंटेटिव थे मिस्टर ओ.पी.साहू। हो सकता है उनका पूरा नाम आयल प्रोड्यूसर साहू हो।

ऐसे शुभचिन्तकों से भय बना रहता है कि वे किसी मौके पर शुभकामना देने के बहाने अपना माल न धका दें। कभी आपके घर में कालीन बिछवा दे तो कभी किचन में ओवन या बाथरुम में नया गीजर लगवा दें। ऐसे माल धकाने वाले शुभचिन्तकों के घर आने का समय भरी दोपहरी में होता है। जब गृहस्वामी काम पर चले गए हों और बच्चे स्कूल, तब घर में रह गई हो केवल गृह स्वामिनी।  चिन्ता उनकी लगेगी और पइसा आपका लगेगा; इसलिए आपको रहना है ऐसे शुभचिन्तकों से सावधान।

वे कहीं भी मिल जाते हैं और कभी भी मिल जाते हैं। बस ऐसा ही कुछ है कि लोग उन्हें नहीं खोज रहे होते हैं;  पर वे आपको खोज लेते हैं, मिल जाते हैं। इसलिए लोग उन्हें मिलन सिंह कहते हैं। वे जब भी मिलते हैं हाथ जोड़कर कह उठते हैं – भैयाजी, मेरे लायक कोई काम हो तो बताना। मुझे भी सेवा का अवसर दें। यह जीवन आपके कुछ भी काम आ सका, तो मैं अपने आपको धन्य मानूँगा।

मैंने कहा हपट परे तो हर गंगा। ऐसी भी क्या बात है। म्यूनिस्पैलिटी जा रहे हैं। नल कनेक्शन चाहिए। कहीं कोई जुगाड़ हो तो बताएँ।’ कहने लगे कि ’बस! अब तो समझिए कि आपका काम हो गया। मैं मोबाइल से बात किए देता हूँ । आप म्यूनिस्पैलिटी में पहुँचेंगे और इधर आपके घर में नल लगेगा।’ उधर म्यूनिस्पैलिटी कार्यालय पहुँचने से उसके बाबू ने बताया कि आपने मिलनसिंह का फोन साहब को क्यों लगवाया? वह तो बड़ा डिफाल्टर है। निगम की जमीन दबाए बैठा है। कोई टैक्स वह पटाता नहीं है। उसके नाम से कोई काम यहाँ  होता नहीं। आपको कोई भी काम कहीं भी करवाना हो तो बस मिलनसिंह का नाम मत बताइए। उसका नाम नहीं बताएँगे, तो एक बार आपका काम हो जाएगा।’ तब पता चला कि ऐसे भी शुभचिन्तक होते हैं, जो आपके काम में अडंगा डालना हो, तो अपने नाम से आपकी सिफारिश कर देंगे
; ताकि आपका बनता काम बिगड़ जाए। ऐसे स्वनामधारी शुभचिंतकों से सावधान रहिए।

रोटी-बेटी का क्षेत्र भी शुभचिंतकों का बड़ा प्रिय क्षेत्र है। ऐसे शुभचिंतकों को छत्तीसगढ़ी में सटका’ कहते हैं।  जिनको जितना अच्छा सटका मिलेगा, उन्हें उतना अच्छा रिश्ता मिलेगा। ये शादी ब्याह के रिश्ते लगाने में माहिर होते हैं। इन रिश्तों को लगाने के लिए इन्हें चाहिए ब्याह करन के हेत जो तरुणी दिखाए प्रीति’ .. फिर क्या ऐसी किसी सुन्दर तरुणी की लालसा लिये तरुणों को लेकर वे निकल पड़ते हैं। उनकी मोटर सायकल के पीछे बैठकर ये शुभचिंतक मंदार के फूल की भांति खिल उठते हैं। मोटर सायकल दौड़ा-दौड़ाकर चारों ओर अपने वर के लिए सुयोग्य वधू खंगाल डालते हैं। रिश्ते लगें या न लगें ये कन्या पक्ष के घर जाकर बड़ी शान से बैठते हैं। सुस्वादु भोजन ग्रहण करते हैं। इनकी मधुर वाणी का मुख्य आधार स्वाद युक्त भोजन होता है। जितना अच्छा खाते हैं उतना ही अच्छा बोलते हैं...फिर जिनका खाते हैं, उन्हीं का गाते हैं। एक दिन पान ठेले में मिल गए। मैंने पूछा- आपकी भी तो चार चार बेटियाँ  हैं। उनका क्या हुआ। कोई ब्याह के लिए उठी।’  वे गमगीन हो गए नहीं उठी! दूसरों की बेटियों को उठवाते-उठवाते हमारी खुद की बेटियाँ  बैठी रह गईं। मेरा तो समझो कि ये जीवन व्यर्थ हो गया।’

कभी-कभी किस्मत की उल्टी मार होती है। दूसरों की चिन्ता करने वालों की दशा दयनीय हो जाती है। ऐसे शुभचिंतकों के लिए ही ये मुहावरा बना है कि ’शहर की चिन्ता में काजी जी दुबले।’ इनकी पतली हालत को देखकर भी जीवन में सतर्क होने की जरूरत है।

आजकल हमारा कस्बा कटआउट और होर्डिग्स से भरकर महानगरीय तेवर दिखा रहा है। रेलवे फाटक पर ट्रैफिक जाम था तब एक कटआउट चेहरा दिखा।  मैंने कहा ’आपको कहीं देखा है।’

आपने मुझे नहीं, मेरे कटआउट को देखा है। जो सारे शहर में नगरवासियों को शुभकामनाएँ देने के लिए मैंने लगवा रखे हैं।’ किसी पुतले की तरह उनके होंठ हिले थे और चेहरे की स्थायी मुस्कान दिखाई दी थी। मैंने कहा शहर वालों को आपकी शुभकामनाओं की क्या जरूरत आन पड़ी है।’

शहर वालों की जरूरत हो या ना हो पर मैं उन्हें शुभकामनाएँ देना छोड़ता नहीं हूँ। चाहे दीवाली हो या ईद, नया साल हो या क्रिसमस का बड़ा दिन। मेरी चिन्ता उनके लिए बनी हुई होती है। आखिर मैं उनका शुभचिन्तक हूँ। मैं उनकी चिन्ता करूँगा तब आने वाले चुनाव में वे मेरी चिन्ता करेंगे।’ रेलवे फाटक खुल चुका था। शहर वासियों की चिन्ता दूर करने वे फाटक के उस पार अपना होर्डिंग लगवाने के लिए खड़े हो गए थे। होर्डिंग में भारी-भरकम उनकी शुभकामनाएँ थीं और हाथ जोड़े हुए नमस्कार की मुद्रा में उनके कट आउट थे। जिनका जितना बड़ा कट आउट होगा, उससे जनता की चिन्ता भी उतनी ही बड़ी होगी। ऐसे शुभचिन्तकों से सावधान रहने के लिए उतना ही बड़ा हौसला भी आपके पास हो तभी आपकी खैर है।

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