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Oct 3, 2021

उदंती.com, अक्तूबर 2021

चित्रः राजा रवि वर्मा
वर्ष- 14, अंक – 2

पृथ्वी हर मनुष्य की जरूरत पूरी करने के लिए साधन प्रदान करती है, लेकिन वह बस उनकी मदद नहीं करती जो किसी भी चीज को पाने के लिए लालच करते हैं। - महात्मा गांधी

 इस अंक में

अनकही- सामाजिक अवमूल्यन के चक्रव्यूह में बुज़ुर्ग -डॉ. रत्ना वर्मा

पर्यटन- छत्तीसगढ़ की पावन धरती पर 'राम वनगमन पर्यटन परिपथ' -उदंती फीचर्स

पर्यावरण- गांधी के विचारों को नए सिरे से टटोलना -भारत डोगरा

आलेख- अँगुलिमाल और अशोक की संततियाँ -प्रेमकुमार मणि

सेहत- क्या वाकई 20 सेकंड हाथ धोना ज़रूरी है? -स्रोत

प्रेरकः गांधी जयंतीः सादगी और मितव्ययता के पाँच पाठ  -हिन्दी ज़ेन

स्मृति शेष- जीवन का बोझ -रामधारी सिंह ‘दिनकर’

संस्मरण- आहत मासूमियत -प्रगति गुप्ता

कोविड 19- बच्चों में ‘लॉकडाउन मायोपिया’ -स्रोत

लोककथाः सबसे खुश पक्षी कौन?

ताँका- लेके तेरा संदेशा -कमला निखुर्पा

माहिया- अब हुआ सवेरा है -डॉ. आशा पांडेय

कविता-  स्त्री -दिव्या शर्मा

नवगीत- बौराहिन लछमिनिया -शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’

लघुकथा- फ़र्क -कृष्णा वर्मा

लघुकथा- जेनरेशन गैप -डॉ. जेन्नी शबनम

कहानी- टूटे सपने -विनय कुमार पाठक

व्यंग्य-  घटनाओं की सनसनी -बी. एल. आच्छा

किताबें- विविध भावों से युक्त हाइकु -रमेशकुमार  सोनी

कलाकार- पंथी का देदीप्यमान सितारा- राधेश्याम बारले -संजीव तिवारी

जीवन दर्शन- प्रार्थना से प्रेम -विजय जोशी  

अनकही –सामाजिक अवमूल्यन के चक्रव्यूह में बुज़ुर्ग

 -डॉ. रत्ना वर्मा

 पिछले महीने राजधानी से एक खबर आई, जिसमें नेशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रीड के अनुसार वरिष्ठ नगारिकों के 25.02 लाख केस लम्बित हैं। आप सोच सकते हैं वरिष्ठ नागरिकों के इतने सारे मामले क्यों लम्बित हैं? लिखते हुए दुःख हो रहा है कि जिस भारत देश में परिवार, रिश्ते, संस्कार, संस्कृति, परम्परा और मूल्यों की दुहाई दी जाती हैं, वहाँ ऐसे लाखों बुजुर्ग माता- पिता को अपनी ही संतानों के विरुद्ध कानून का दरवाजा खटखटाना पड़ता है।

यह खबर ऐसे समय पर आई है, जब पितृपक्ष में हम अपने पितरों का तर्पण कर उनका आशीर्वाद प्राप्त कर रहे थे । पितरों के जाने के बाद उनकी याद में, उनके नाम पर किए जाने वाले श्राद्धकर्म में किसी को आपत्ति नहीं है। यह प्रत्येक संतान का धर्म  है कि वे अपने पितरों को याद करें उनको नमन कर उन्हें धन्यवाद ज्ञापित करें , परंतु शिकायत उनसे है, जो उनके जीते जी उन्हें कष्ट देते हैं और उनके मरने के बाद उनके नाम पर भोज रखते हैं दान कर पुण्यलाभ कमाने का स्वांग करते हुए मानव -धर्म को कलंकित करते हैं। सबसे दुखद है  कि उन्हें वृद्धाश्रम में रहने को मजबूर करते हैं, उनकी सेहत का उनके खान पान का ध्यान नहीं रखते।

इसे विडम्बना नहीं तो और क्या कहेंगे कि पूरी जिंदगी जिन बच्चों को पालने- पोसने में गुजार दी, उन्हीं से गुजारा भत्ता पाने, अपने ही घर में रहने का अधिकार माँगने, जिन्हें गोद में खिलाया और उँगली पकड़कर चलना सिखाया, उन्हीं बच्चों द्वारा मार- पीट किए जाने पर, उनसे  संरक्षण पाने के लिए उन्हें कोर्ट में जाने को मजबूर होना पड़ता है। हमारे देश में  लाखों ऐसे  माता – पिता भी हैं, जो कानून के दरवाजे तक  जाने के लिए भी हिम्मत नहीं जुटा पाते। वे सारे जुल्म सहते हुए अपनी मौत का इंतजार करते रहते हैं या वृद्धाश्रम में रहने को मजबूर हैं।

अपने बच्चों के होते हुए वृद्धाश्रम में जीवन गुजारने से बड़ा अभिशाप और कुछ नहीं हो सकता। जिस प्रकार अनाथ बच्चों के लिए अनाथालय होते हैं और जहाँ उन बच्चों का जीवन सँवारने का प्रयास किया जाता है, उसी प्रकार वृद्धाश्रम सिर्फ उन बुज़ुर्गों के लिए हों, जिनके बच्चे नहीं हैं, ताकि वे अपना बुढ़ापा स्वस्थ रहते हुए दूसरों के साथ मिल-जुलकर गुजार सकें। परंतु दुर्भाग्य कि हमारे देश में अपना घर, अपने बच्चे होते हुए भी न जाने कितने माता- पिता को अपना जीवन वृद्धाश्रम में गुजारना पड़ता है।

दरअसल कोई भी माता– पिता यह कल्पना भी नहीं कर पाते कि बड़े होने के बाद उनका यही बच्चा उन्हें दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ देगा। यही वजह है कि वे अपने जिगर के टुकड़े के नाम अपनी सारी सम्पत्ति लिख देते हैं, यह कहते हुए कि अब बुढ़ापा आराम से बिना किसी चिंता के सुख से बच्चों के साथ गुजारेंगे। अमिताभ बच्चन और हेमामालिनी अभिनीत बागबान फिल्म की कहानी सबको याद ही होगी, जिसमें उनके बच्चे माता- पिता का ही बटवारा कर लेते हैं।

दिल्ली के एक वकील हैं एन के  सिंह भदौरिया, जो लगभग 200 बुज़ुर्गों का केस निःशुल्क लड़ चुके हैं। वे कहते हैं कि ज्यादातर मामलों में कोर्ट की फटकार पर दो से तीन सुनवाई के बाद अच्छे परिणाम मिलते हैं। यह है तो सकारात्मक, परंतु इसके बाद भी मेरे मन में एक सवाल उठता है कि उनके बच्चों ने किया तो गलत ही है। जब बात अदालत तक पँहुच गई, तो वे मजबूरन उन्हें रखने को तैयार हो गए, पर इसकी क्या गारंटी वे दिल से स्वीकारेंगे और उन्हें घर में रखने के लिए उनका सच्चे मन से स्वागत करेंगे।

पिछले कुछ दशकों से लगातार गिरते सामाजिक मूल्यों का ही नतीजा है कि बुजुर्गों के सम्मान की रक्षा के लिए अलग से कानून बनाने की आवश्यकता महसूस हुई। नए कानून के अनुसार अब बच्चे बुज़ुर्गों को घर से नहीं निकाल सकते; बल्कि बुज़ुर्गों को यह अधिकार है कि उन्हें अपने बच्चों से आदर व सम्मान न मिलने पर, उनकी सेवा न करने पर, अथवा किसी भी प्रकार से परेशान किए जाने पर, अपनी बालिग संतान को वे घर छोड़ने के लिए बाध्य कर सकते हैं।  यहाँ तक कि यदि उनके नाम अपनी कोई सम्पत्ति नहीं है, तो भी वे उनसे गुजारा भत्ता माँगने का अधिकार रखते हैं। कानून में हुए इस नए संशोधन के अनुसार बुज़ुर्गों की देखभाल का जिम्मा उनके बच्चों पर ही नहीं, बल्कि इसके दायरे में बेटा- बेटी, नाती-नातिन, और पोता- पोती भी उनकी देखभाल के लिए बाध्य हैं। सही भी है, चूँकि अब माता- पिता की सम्पत्ति में अब बेटा और बेटी की बराबर का अधिकार होता है, तो जिम्मेदारी भी तो दोनों तरफ और उनकी अगली पीढ़ी की होनी चाहिए।

जरूरत जागरूक रहने की है, क्योंकि एकल परिवार के इस बढ़ते दौर में बच्चे जहाँ अपने पैरों पर खड़े हुए नहीं कि वे अपनी स्वतंत्र जिंदगी जीना चाहते हैं।  उन्हें बुजुर्गों का साया बंधन युक्त लगता है। इस बदलती मानसिकता को देखते हुए आजकल एक वर्ग विशेष में जागरूकता तो दिखाई दे रही है।  वे अब बच्चों को जबरदस्ती बाँधकर नहीं रखते। उन्हें अलग रहने की आजादी दे देते हैं ; क्योंकि उन्हें मालूम होता है साथ रहकर दिन- रात के क्लेश से अच्छा है, अलग- अलग रहकर सुख से रहें। पर साथ ही वे अपनी सम्पत्ति भी प्यार में अंधे होकर उनके नाम नहीं करते । जब तक उनका जीवन है, सम्पत्ति उनकी रहेगी मरने के बाद ही वे अपनी वसीयत बच्चों को सौंपते हैं।

अनुभव यही सिखाता है कि रिश्ते- नाते सब एक तरफ, परंतु यदि आपके पास अपना घर, अपनी सम्पत्ति और पैसा है, तो आप किसी के आगे कुछ माँगने के लिए बाध्य नहीं होते । आपके अंदर एक आत्मविश्वास भी होता है कि यदि कभी कोई मुसीबत आई,  तो हम अकेले उसका सामना कर सकते हैं। आत्मनिर्भर रहने के फायदे सिर्फ युवाओं के लिए नहीं होते, आत्मनिर्भरता प्रत्येक उम्र के लिए जरूरी है। उम्र के एक पड़ाव पर आकर शरीर भले ही कमजोर हो जाता है, पर यदि मन स्वस्थ है, हाथ में धन है, तो इस कमजोरी पर भी जीत हासिल की जा सकती है।

एक समय था जब माता – पिता बड़े गर्व के साथ कहते थे कि हमारी सम्पत्ति, हमारा असली धन तो हमारे बच्चे हैं।  उनके रहते हमें किसी प्रकार की चिंता करने की जरूरत नहीं।  पर समय बदल गया है । अब के दौर में बड़े- बुजुर्ग कहने लगे हैं- थोड़ी धन- सम्पत्ति बुढ़ापे के लिए भी जोड़कर रख लो।  क्या पता कब जरूरत पड़ जाए। इस नई सीख को अब गाँठ बाँधकर रखने की जरूरत है।



पर्यटन- छत्तीसगढ़ की पावन धरती पर 'राम वन गमन पर्यटन परिपथ'

-उदंती फीचर्स

14 साल के वनवास के दौरान श्री राम के छत्तीसगढ़ राज्य में प्रवेश यात्रा को लेकर ‘राम वन गमन पर्यटन परिपथ’ तैयार किया जा रहा है। छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा नवरात्रि के पावन पर्व पर इस परियोजना के शुभारंभ का जश्न का बड़े धूम-धाम से 7 अक्‍टूबर 2021 को मनाने जा रही है।

छत्तीसगढ़ का प्राचीन नाम दक्षिण कौसल और दण्डकारण्य के रूप में विख्यात है। दण्डकारण्य में भगवान श्रीराम के वनगमन यात्रा की पुष्टि वाल्मीकि रामायण से होती है। स्थानीय मान्यता के  अनुसार  दंडकारण्य के आकाश में ही रावण और जटायु का युद्ध हुआ था और जटायु के कुछ अंग दंडकारण्य में आ गिरे थे। ऐसा माना जाता है कि दुनियाभर में सिर्फ यहीं पर जटायु का एकमात्र मंदिर है। विभिन्न शोध से प्राप्त जानकारी के अनुसार प्रभु श्रीराम ने अपने वनवास काल के 14 वर्षों में से लगभग 10 वर्ष से अधिक समय छत्तीसगढ़ के अनेक दुर्गम स्थलों को अपना ठिकाना बनाया था। छत्तीसगढ़ की लोककथाओं और लोकगीतों में राम भगवान सीता मैया और लक्ष्मण की कथाएँ यहाँ के समुदायों में पूरी श्रद्धा और भक्ति के साथ सुनाए और गाए जाते हैं तथा यहाँ के भित्ति- चित्रों में राम- सीता और लक्ष्मण के वनवास के समय की अनेक चित्र परिलक्षित होते हैं ।

भारतीय जनमानस में भगवान श्रीराम सबके हृदय में बसे हुए हैं। उत्तरप्रदेश अयोध्या से आरंभ हुआ उनका 14 वर्ष का वनवास मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, केरल, कर्नाटक और तमिलनाडु होते हुए अंत में श्रीलंका पहुँचकर समाप्त हुआ था।  भारत सरकार और श्रीलंका की सरकार तथा विभिन्न प्रदेशों की सरकारें राम वनगमन के इन स्थलों के विकास के लिए लम्बे समय से प्रयासरत हैं और इन स्थानों पर काफी काम हुआ भी है। । इसी कड़ी को और आगे बढ़ाते हुए  छत्तीसगढ़ सरकार ने भी गत वर्ष छत्तीसगढ़ के राम वनगमन मार्ग को चिह्नांकित कर उन स्थानों को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने की वृहद योजना बनाई है।

ऐसे समय में जबकि हम सब जानते हैं श्रीराम वनगमन के चिह्नांकित दूसरे प्रदेशों के अनेक स्थान पर्यटन स्थल के रूप में विकसित हो चुके हैं या विकास की ओर कदम बढ़ा रहे हैं, छत्तीसगढ़ प्रदेश के लिए यह और भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि छत्तसीगढ़ के राम- वनगमन मार्ग को जल्दी से जल्दी न  सिर्फ चिह्नांकित किया जाए,  बल्कि पर्यटन की दृष्टि से विकसित भी किया जाए। राज्य का लक्ष्य चयनित स्थलों को विकसित एवं सुशोभित कर उन्हें विश्व स्तर के पर्यटन स्थल में तबदील करना है,  जिससे दुनियाभर से लोग यहाँ आ सकें। इस दृष्टि से राज्य पर्यटन बोर्ड ने सरकार की इस महत्त्वाकांक्षी परियोजना को आने वाले समय में वार्षिक कार्यक्रम की तरह विकसित करने की योजना पर भी काम करना आरंभ कर दिया है,  ताकि पर्यटन के नक्शे में छत्तीसगढ़ का विशेष स्थान बन सके।

यह सर्वविदित है कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम का ननिहाल छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से लगभग 25 किमी दूर आरंग तहसील का चंदखुरी गाँव है। पुरातन काल से छत्तीसगढ़ में राम लोगों के मानसपटल पर भावनात्मक रूप से जुड़े हैं। राम का ननिहाल होने के कारण भी राम छत्तीसगढ़ के लोगों की जीवन-शैली और दिनचर्या में इस कदर रचे-बसे हैं कि छत्तीसगढ़वासियों के दिन का शुभारंभ  एक-दूसरे से राम-राम के  अभिवादन से शुरू होता है। छत्तीसगढ़ की समृद्ध संस्कृति में आज भी मामा अपने भानजे को राम के रूप में देखता हैं और आस्था से उसके पैर छूता है।

‘राम वन गमन पर्यटन परिपथ’ का शुभारंभ इसी चंदखुरी गाँव में स्थित प्राचीन कौशल्या माता मंदिर, से किया जा रहा है। इस अवसर पर पर्यटकों के लिए विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं, जहाँ  भगवान राम के वनवास औऱ वन गमन पथ की कहानी को लाइट और साउंड के माध्यम से रंग-बिरंगी रौशनियों के ज़रिए बताया जाएगा।

इस परियोजना को लेकर छत्तसीगढ़ के मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल ने बहुत सुंदर बात कही है-  अयोध्या से वनवास के दौरान प्रभु श्री राम ने अपना अधिकांश समय छत्तीसगढ़ में बिताया। हमारा प्रयास है कि हम भगवान राम और माता कौशल्या से जुड़ी यादों को सँजो सकें, यही वजह  है कि सरकार ने राम- वनगमन पर्यटन परिपथ परियोजना की कल्पना की जहाँ भक्त और पर्यटक अपने हर कदम के साथ देवत्व के सार को महसूस कर सकेंगे।  

विभिन्न शोध, शोध प्रकाशनों एवं प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर देखें तो विभिन्न राज्यों में मिले स्मारक, गुफाएँ, भित्तिचित्र एवं उनके जीवन से जुड़ी घटनाएँ इस बात को प्रमाणित करती हैं कि प्रभु राम ने अनके मार्गों से होते हुए कई महत्त्वपूर्ण स्थानों पर रुककर 14 साल का अपना वनवास काटा था। वनवास के इस कालखंड के दौरान उनका छत्तीसगढ़ में प्रवास इस प्रदेश के लिए गौरव की बात है। प्रभु श्रीराम ने छत्तीसगढ़ में वनगमन के दौरान लगभग 75 स्थलों का भ्रमण किया था । जिसमें से 51 स्थल ऐसे हैं, जहाँ श्री राम ने भ्रमण के दौरान रूककर कुछ समय बिताया था।  यहाँ की नदियों, पहाड़ों, सरोवरों एवं गुफाओं में श्रीराम के रहने के के अनेक सबूत प्राप्त हुए हैं।

राम वनगमन पथ पर शोध का कार्य राज्य में स्थित संस्थानछत्तीसगढ़ अस्मिता प्रतिष्ठान, रायपुरके द्वारा किया गया है। इसमें मन्नू लाल यदु के द्वारादण्डकारण्य रामायणतथा हेमु यदु के द्वारा छत्तीसगढ़ पर्यटन में राम- वनगमन- पथके नाम से पुस्तक का प्रकाशन किया गया है।

फिलहाल राम- वनगमन स्थलों के प्रथम चरण में आठ स्थानों को पर्यटन की दृष्टि से चुना गया-

1. सीतामढ़ी हरचौका

भगवान श्रीराम ने सर्वप्रथम छत्तीसगढ़ में कोरिया जिले के भरतपुर तहसील में मवाई नदी से होकर जनकपुर नामक स्थान से लगभग 26 किलोमीटर की दूरी पर स्थित सीतामढ़ी-हरचैका नामक स्थान से प्रवेश किया था। राम के वनवास काल का पहला पड़ाव कोरिया जिले का सीतामढ़ी हरचौका को माना जाता है। यह नदी के किनारे स्थित, यहाँ की गुफाओं में 17 कक्ष हैं। इसे सीता की रसोई के नाम से भी जाना जाता है।


2, रामगढ़ की पहाड़ी

सरगुजा जिले में रामगढ़ की पहाड़ी में तीन कक्षों वाली सीताबेंगरा गुफा है। इसे देश की सबसे पुरानी नाट्यशाला माना जाता है। कहा जाता है वनवास काल में राम यहाँ पहुँचे थे, यहाँ सीता का कमरा था। कालिदास ने मेघदूतम् की रचना यहीं की थी।


3. शिवरीनारायण

जांजगीर चांपा जिले के इस स्थान पर रुककर भगवान राम ने शबरी के जूठे बेर खाए थे। इस स्थान पर नर-नारायण और शबरी का मंदिर भी है। यहाँ जोक, महानदी और शिवनाथ नदी का संगम है। मंदिर के पास एक ऐसा वट वृक्ष है, जिसके दोने के आकार में पत्ते हैं।


4. तुरतुरिया

बलौदाबाजार भाटापारा जिले के इस स्थान को लेकर जनश्रुति है कि महर्षि वाल्मीकि का आश्रम यहीं था। तुरतुरिया को ही लव-कुश की जन्मस्थली माना जाता है। बलभद्री नाले का पानी चट्टानों के बीच से निकलता है, इसलिए तुरतुर की ध्वनि निकलती है,  जिससे इस स्थान का नाम तुरतुरिया नाम पड़ा।


5. चंदखुरी

चंदखुरी को माता कौशल्या की जन्मस्थली माना जाता है। रायपुर जिले के 126 तालाब वाले इस गाँव में जलसेन तालाब के बीच में माता कौशल्या माता का मंदिर है, कहा जाता है कौशल्या माता का दुनिया में यह एकमात्र मंदिर है।


6. राजिम

गरियाबंद जिले राजिम को छत्तीसगढ़ का प्रयाग कहा जाता है, जहाँ सोंढुर, पैरी और महानदी का संगम है। कहा जाता है कि वनवास काल में राम ने इस स्थान पर अपने कुलदेवता महादेव की पूजा की थी, यहाँ का कुलेश्वर महाराज का मंदिर इस बात का साक्षी है।


7. सिहावा
 (सप्त ऋषि आश्रम)

धमतरी जिले के सिहावा की विभिन्न् पहाड़ियों में मुचकुंद आश्रम, अगस्त्य आश्रम, अंगिरा आश्रम, शृंगि ऋषि, कंकर ऋषि आश्रम, शरभंग ऋषि आश्रम एवं गौतम ऋषि आश्रम आदि आश्रम हैं। राम ने दण्डकारण्य के आश्रम में ऋषियों से भेंट कर कुछ समय यहाँ व्यतीत किया था।


8. जगदलपुर

बस्तर जिले का यह मुख्यालय है। चारों ओर वन से घिरा हुआ है। यह कहा जाता है कि वनवास काल में राम जगदलपुर क्षेत्र से गुजरे थे, क्योंकि यहाँ से चित्रकोट का रास्ता जाता है। जगदलपुर को पाण्डुओं के वंशज काकतिया राजा ने अपनी अंतिम राजधानी बनाई थी।

दूसरे चरण जिन क्षेत्रों को चुना गया है उनके नाम इस प्रकार हैं-

कोरिया - सीतामढ़ी घाघरा, कोटाडोल, सीमामढ़ी छतौड़ा (सिद्ध बाबा आश्रम), देवसील, रामगढ़ (सोनहट), अमृतधारा, सरगुजा - देवगढ़, महेशपुर, बंदरकोट (अंबिकापुर से दरिमा मार्ग), मैनपाट, , मंगरेलगढ़, पम्पापुर, जशपुर-किलकिला (बिलद्वार गुफा), सारासोर, रकसगण्डा, जांजगीर चांपा-चंद्रपुर, खरौद, जांजगीर, बिलासपुर-मल्हार, बलौदाबाजार भाटापारा - धमनी, पलारी, नारायणपुर (कसडोल), महासमुंद-सिरपुर, रायपुर-आरंग, चंपारण्य, गरियाबंद-फिंगेश्वर, धमतरी - मधुबन (राकाडीह), अतरमरा (अतरपुर), सीतानदी, कांकेर-कांकेर (कंक ऋषि आश्रम), कोंडागांव - गढ़धनोरा (केशकाल), जटायुशीला (फरसगाँव), नारायणपुर - नारायणपुर (रक्सा डोंगरी), छोटे डोंगर, दंतेवाड़ा- बारसूर, दंतेवाड़ा, गीदम, बस्तर- चित्रकोटनारायणपाल, तीरथगढ़,  सुकमा - रामाराम, इंजरम, कोंटा।

विश्वास है राम वनगमन पर्यटन परिपथ नाम से इस नई परियोजना से छत्तीसगढ़ में पर्यटन के नए रास्ते खुलेंगे और प्रदेश के अन्य और भी महत्त्वपूर्ण पर्यटन स्थलों को विकसित करने की दिशा में पहल की जाएगी, क्योंकि छत्तीसगढ़ में हजारों पुरातात्विक महत्त्व के स्थल हैं, जहाँ पर्याप्त सुविधा के अभाव में पर्यटक पहुँच नहीं पाते। आवागमन की सुविधाओं के साथ- साथ ठहरने और भोजन की अच्छी सुविधा के साथ साथ इन स्थानों के रख-रखाव की ओर भी गंभीरता से ध्यान देने की आवश्यकता है। 

पर्यावरण- गांधी के विचारों को नए सिरे से टटोलना होगा

-भारत डोगरा

जलवायु बदलाव के संकट पर चर्चा चरम पर है। इस समस्या की गंभीरता के बारे में आँकड़े और अध्ययन तो निरंतर बढ़ रहे हैं, किंतु दुख व चिंता की बात है कि समाधान की राह स्पष्ट नहीं हो रही है।

इस अनिश्चय की स्थिति में महात्मा गांधी के विचारों को नए सिरे से टटोलना ज़रूरी है। उनके विचारों में मूलत: सादगी को बहुत महत्त्व दिया गया है, अत: ये विचार हमें जलवायु बदलाव तथा अन्य गंभीर पर्यावरणीय समस्याओं के समाधान की ओर भी ले जाते हैं।

जानी-मानी बात है कि जलवायु बदलाव के संकट को समय रहते नियंत्रित करने के लिए ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करना बहुत ज़रूरी है। यह अपने में सही बात है, पर इसके साथ एक अधिक व्यापक सच्चाई है कि केवल तकनीकी उपायों से ही पर्यावरण का संकट हल नहीं हो सकता है।

यदि कुछ तकनीकी उपाय अपना लिए जाएँ, जीवाश्म ईंधन को कम कर नवीकरणीय ऊर्जा को अधिक अपनाया जाए,  तो यह अपने आप में बहुत अच्छा व ज़रूरी बदलाव होगा। पर यदि साथ में सादगी व समता के सिद्धांत को न अपनाया गया, विलासिता व विषमता को बढ़ाया गया, छीना-पटी व उपभोगवाद को बढ़ाया गया, तो आज नहीं तो कल, किसी न किसी रूप में पर्यावरण समस्या बहुत गंभीर रूप ले लेगी।

महात्मा गांधी के समय में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने की ज़रूरत तो नहीं महसूस की जा रही थी, पर उन्होंने उस समय ही पर्यावरण की समस्या का मर्म पकड़ लिया था जब उन्होंने कहा था कि धरती के पास सबकी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए तो पर्याप्त संसाधन हैं, पर लालच को पूरा करने के लिए नहीं।

उन्होंने अन्याय व विषमता के विरुद्ध लड़ते हुए विकल्प के रूप में ऐसे सब्ज़ बाग नहीं दिखाए कि सफलता मिलने पर तुम भी मौज-मस्ती से रहना। उन्होंने मौज-मस्ती और विलासिता को नहीं, मेहनत और सादगी को प्रतिष्ठित किया। सभी लोग मेहनत करें और इसके आधार पर किसी को कष्ट पहुँचाए बिना अपनी सभी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा कर सकें व मिल-जुलकर रहें, सार्थक जीवन का यह बहुत सीधा-सरल रूप उन्होंने प्रस्तुत किया।

दूसरी ओर, आज अंतहीन आर्थिक विकास की ही बात हो रही है जबकि विषमता व विलासिता के विरुद्ध कुछ नहीं कहा जा रहा है। विकास के इस मॉडल में कुछ लोगों के विलासितापूर्ण जीवन के लिए दूसरों के संसाधन छिनते हैं व पर्यावरण का संकट विकट होता है। इसके बावजूद इस मॉडल पर ही अधिक तेज़ी से आगे बढ़ने को महत्त्व मिल रहा है। इस कारण विषमता बढ़ रही है, अभाव बढ़ रहे हैं, असंतोष बढ़ रहा है और हिंसा व युद्ध के बुनियादी कारण बढ़ रहे हैं।

जबकि गांधी की सोच में अहिंसा, सादगी, समता, पर्यावरण की रक्षा का बेहद सार्थक मिलन है। अत: धरती पर आज जब जीवन के अस्तित्व मात्र का संकट मौजूद है, मौजूदा विकास मॉडल के विकल्प तलाशने में महात्मा गाँधी के जीवन व विचार से बहुत सहायता व प्रेरणा मिल सकती है।

जलवायु बदलाव व ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए कभी-कभी कहा जाता है कि ऊर्जा आवश्यकता को पूरा करने के लिए बहुत बड़े पैमाने पर परमाणु ऊर्जा संयंत्र लगाए जाएँ। पर खनन से लेकर अवशेष ठिकाने लगाने तक परमाणु ऊर्जा में भी खतरे ही खतरे हैं, गंभीर समस्याएँ हैं। साथ में परमाणु बिजली उत्पादन के साथ परमाणु हथियारों के उत्पादन की संभावना का मुद्दा भी जुड़ा हुआ है। अत: जलवायु बदलाव के नियंत्रण के नाम पर परमाणु बिजली के उत्पादन में तेज़ी से वृद्धि करना उचित नहीं है।

इसी तरह कुछ लोग पनबिजली परियोजनाओं के बड़े बाँध बनाने पर ज़ोर दे रहे हैं। लेकिन बाँध-निर्माण से जुड़ी अनेक गंभीर सामाजिक व पर्यावरणीय समस्याएँ पहले ही सामने आ चुकी हैं। कृत्रिम जलाशयों में बहुत मीथेन गैस का उत्सर्जन भी होता है जो कि एक ग्रीन हाउस गैस है। अत: जलवायु बदलाव के नियंत्रण के नाम पर बाँध निर्माण में तेज़ी लाना किसी तरह उचित नहीं है।

जलवायु बदलाव के नियंत्रण को प्राय: एक तकनीकी मुद्दे के रूप में देखा जाता है, ऐसे तकनीकी उपायों के रूप में जिनसे ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम हो सके। यह सच है कि तकनीकी बदलाव ज़रूरी हैं पर जलवायु बदलाव का मुद्दा केवल इन तक सीमित नहीं है।

जलवायु बदलाव को नियंत्रित करने के लिए जीवन-शैली में बदलाव ज़रूरी है, व इसके साथ जीवन-मूल्यों में बदलाव ज़रूरी है। उपभोगवाद का विरोध ज़रूरी है, विलासिता, नशे, युद्ध व हथियारों की दौड़ व होड़ का विरोध बहुत ज़रूरी है। पर्यावरण पर अधिक बोझ डाले बिना सबकी ज़रूरतें पूरी करनी है, तो न्याय व साझेदारी की सोच ज़रूरी है।

अत: जलवायु बदलाव नियंत्रण का सामाजिक पक्ष बहुत महत्त्वपूर्ण है। आज विश्व के अनेक बड़े मंचों से बार-बार कहा जा रहा है कि जलवायु बदलाव को समय रहते नियंत्रण करना बहुत ज़रूरी है, पर क्या मात्र कह देने से या आह्वान करने से समस्या हल हो जाएगी। वास्तव में लोग तभी बड़ी संख्या में इसके लिए आगे आएँगे,  जब आम लोगों में, युवाओं व छात्रों में, किसानों व मज़दूरों के बीच न्यायसंगत व असरदार समाधानों के लिए तीन-चार वर्षों तक धैर्य से, निरंतरता व प्रतिबद्धता से कार्य किया जाए। तकनीकी पक्ष के साथ सामाजिक पक्ष को समुचित महत्त्व देना बहुत ज़रूरी है।

एक अन्य सवाल यह है कि क्या मौजूदा आर्थिक विकास व संवृद्धि के दायरे में जलवायु बदलाव जैसी गंभीर पर्यावरणीय समस्याओं का समाधान हो सकता है? मौजूदा विकास की गंभीर विसंगतियाँ और विकृतियाँ ऐसी ही बनी रहीं तो क्या जलवायु बदलाव जैसी गंभीर पर्यावरणीय समस्याएँ नियंत्रित हो सकेंगी? इस प्रश्न का उत्तर है ‘नहीं’। वजह यह है कि मौजूदा विकास की राह में बहुत विषमता और अन्याय व प्रकृति का निर्मम दोहन है।

पहले यह कहा जाता था कि संसाधन सीमित है उनका सही वितरण करो। पर अब तो ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से जुड़ी कार्बन की सीमा है। इस सीमा के अंदर ही हमें सब लोगों की ज़रूरतों को टिकाऊ आधार पर पूरा करना है। अत: अब विषमता को दूर करना, विलासिता व अपव्यय को दूर करना, समता व न्याय को ध्यान में रखना, भावी पीढ़ी के हितों को ध्यान में रखना पहले से भी कहीं अधिक ज़रूरी हो गया है।

सही व विस्तृत योजना बनाना इस कारण और ज़रूरी हो गया है कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को तेज़ी से कम करते हुए सब लोगों की बुनियादी ज़रूरतों को न्यायसंगत व टिकाऊ ढंग से पूरा करना है। यह एक बहुत बड़ी चुनौती है जिसके लिए बहुत रचनात्मक समाधान ढूँढने होंगे। जैसे, युद्ध व हथियारों की होड़ को समाप्त किया जाए या न्यूनतम किया जाए, बहुत बरबादी वाले उत्पादन व उपभोग को समाप्त किया जाए या बहुत नियंत्रित किया जाए। पर्यावरण के प्रति समग्र दृष्टिकोण अपनाने से इन सभी प्रक्रियाओं में बहुत सहायता मिलेगी। (स्रोत फीचर्स)

लघुकथा- जीवन का बोझ

   स्मृति शेष- 

रामधारी सिंदिनकर

एक कमजोर और बूढ़ा आदमी लकड़ियों का एक बड़ा बोझ उठा जेठ की धूप में हाँफता हुआ जा रहा था। चल तो वह काफी देर से रहा था, मगर घर पहुँचने में, फिर भी, काफी देर थी। निदान, वह घबरा गया तथा गर्मी और बोझ के मारे उसके मन में वैराग्य जगने लगा।

उसने सोचा, “खाएगा सारा परिवार और खटना मुझे अकेले पड़ता है। और सारी जिन्दगी खटतेखटते घिसकर बूढ़ा हो गया, तब भी आराम नहीं। शायद लोग यह समझते हैं कि दुनिया में वे तो सैर को आए हैं और मेला देखकर जल्दी ही लौट जाएँगे, बस एक मैं हूँ, जिसने इस धरती का ठेका ले रखा है और जो कभी मरेगा नहीं। मैं आतिथेय हूँ , बाकी सब के सब अतिथि हैं, इसलिए, मुझे खटने और उन्हें गुलछर्रे उड़ाने का अधिकार है। भला यह भी कहीं चल सकता है ?”

सोचतेसोचते वैराग्य का पारा जरा और ऊँचा चढ़ा और बुड्ढे ने सड़क से उतरकर एक पेड़ के नीचे गट्ठर पक दिया और वह बड़े ही आर्त्त स्वर में पुकार उठा, ‘‘हे मृत्यु के देवता ! कहाँ छिपे हो ? आओ और इस अदना मजदूर को अपनी शरण में ले लो।’’

आवाज यमराज के कान में पड़ी और उन्होंने दयाद्रवित होकर एक दूत को फौरन ही भेज दिया।

मृत्यु के दूत ने बुड्ढे से कहा–‘‘कहो, क्या कहना है? तुम्हारी पुकार पर यमराज ने मुझे तुम्हारी सहायता करने को भेजा है।’’

यमदूत को देखते ही बुड्ढे की सिटृीपिटृी गुम हो गई। बोला, ‘‘कुछ नहीं, यही कि रा यह गट्ठर उठाकर मेरे माथे पर धर दीजिए।’’

यमराज के दूत ने लकड़ियों का बोझ उठाकर उसके माथे पर र दिया और बुड्ढा फिर धूप में हाँफता हुआ चलने लगा।

लोककथा- सबसे खुश पक्षी कौन?


जंगल में रहनेवाले कौवे को कोई कष्ट नहीं था और वह सुख-चैन से जी रहा था। फिर एक दिन उसने एक हंस को देखा। उजले धवल हंस को देखकर उसने सोचा, “यह हंस कितना सफेद है! और मैं कैसा काला हूँ यह हंस अवश्य ही दुनिया का सबसे खुश पक्षी होगा।”

कौवे ने यह बात हंस से कही. “नहीं भाई, ऐसा नहीं है,” हंस ने जवाब दिया, “बहुत समय तक मुझे भी लगता रहा कि मैं दुनिया का सबसे सुंदर और सुखी पक्षी हूँ, लेकिन फिर एक दिन मैंने एक तोते को देखा, जिसके शरीर के दो रंगों की छटा अनूठी थी, जबकि मेरे पास तो केवल एक ही रंग है। अब मुझे लगता है कि तोता ही दुनिया का सबसे सुंदर और सुखी पक्षी है।”

कौवा तोते के पास गया। तोते ने कहा, “जब तक मैंने मोर को नहीं देखा था तब तक मुझे अपने रूप-रंग पर बड़ा गुमान था। मोर जितना सुंदर तो कोई हो ही नहीं सकता। मेरे दोरंगी पंखों का मोर से कैसा मुकाबला!”

फिर कौवा मोर को खोजने चला। उसे मोर एक चिड़ियाघर में मिला जहाँ उसके पिंजड़े के बाहर सैंकड़ों लोग उसकी सुंदरता की सराहना कर रहे थे। जब लोग वहाँ से चले गए तो कौवे ने मोर से पूछा, “मोर भइया, तुम कितने सुंदर हो! हजारों लोग रोज तुम्हें देखने यहाँ आते हैं। मुझे तो वे देखकर ही दुत्कार देते हैं। मुझे लगता है कि तुम दुनिया के सबसे सुखी और खुश रहने वाले पक्षी हो।”

मोर ने कहा, “मुझे भी यही लगता था भाई, कि मैं दुनिया का सबसे सुंदर और खुश पक्षी हूँ, लेकिन मेरी सुंदरता ही मेरी शत्रु बन गई है. इसी के कारण अब मैं इस चिड़ियाघर में कैद हूँ। यहां मैं सारे पशु-पक्षियों का मुआयना करने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि तुम्हें छोड़कर बाकी सभी पक्षी यहाँ कैद हैं।  अब मुझे यह लगने लगा है कि मैं मोर न होकर एक कौवा होता तो आजाद होता और मनमर्जी से कहीं भी घूमता फिरता। ”

आलेख- अँगुलिमाल और अशोक की संततियाँ

-प्रेमकुमार मणि 

अँगुलिमाल की कथा बचपन में पढ़ी -सुनी थी। बुद्ध के समय का एक दुर्दांत बाहुबली, जिससे श्रावस्ती की जनता तो तबाह थी ही, वहाँ का शासक प्रसेनजित भी चिंतित था। उन दिनों बाहुबलियों को डाकू कहा जाता था, अथवा आज डाकुओं को बाहुबली कहने का प्रचलन हुआ है। अँगुलिमाल के बारे में अनेक कथाएँ  हैं, लेकिन केंद्रीय कथा है, बुद्ध से अँगुलिमाल की भिड़ंत। प्रसंग है कि प्रसेनजित के आग्रह पर बुद्ध ने अँगुलिमाल से संवाद करने का निश्चय किया। प्रसेनजित राजा था और उसके पास सेना थी, लेकिन वह अँगुलिमाल पर काबू पाने में स्वयं को असमर्थ पा रहे थे। 

अँगुलिमाल जंगलों में रहता था। कभी -कभार बाहर निकलता और लोगों को मारकर अपना शौकपूरा करता। जंगलों में यदि कोई आदमी पहुँच गया, तब तो मानों वह उसके इलाके में ही आ जाता था। उन्हें तो बचना मुश्किल होता था। उसका यह भी शौक था कि वह मारे हुए लोगों की एक ऊँगली काटकर अपनी माला में जोड़ लेता था। कथा के अनुसार इसी कारण उसका नाम अँगुलिमाल हो गया था। इस नाम के सामने उसके बचपन के नाम का क्या महत्त्व हो सकता था भला। 

बुद्ध ने उसे बुलाया नहीं। ( यूँ भी किसी के बुलावे पर आना उसके स्वभाव में शामिल नहीं था। दबंग -बाहुबलियों का अपना चरित्र भी तो होता है) वह स्वयं उससे मिलने उसके इलाके, यानी जंगल में गए। वह भी अकेले। बुद्ध की अपनी धज थी और अँगुलिमाल की अपनी। कथा है बुद्ध को देखते ही अँगुलिमाल ने अपनी तेज -कर्कश आवाज में उन्हें रुक जाने का आदेशदिया। बुद्ध रुक गए। उनके पास तेज आवाज नहीं थी, इसलिए उन्होंने अँगुलिमाल के नजदीक आने का इंतजार किया। जब वह नजदीक आया तब बुद्ध ने अपनी सौम्य आवाज में कहा – अँगुलिमाल , मैं तो रुक गया। तुम कब रुकोगे? ’ 

अँगुलिमाल डाकू था, लेकिन मूलतः वह आदमी ही था। डाकू तो उसने स्वयं को बना डाला था। उसे आश्चर्य हुआ कि उसके नजदीक आने वालों की तो घिग्घी बँध जाती थी। यह तो कुछ अजूबा इंसान है। बिलकुल नहीं डर रहा है।

फिर बुद्ध ने कुछ बातें कहीं। क्या कही होंगी, इसका अनुमान मुश्किल नहीं है। यही कहा होगा कि संसार में तो यूँ ही इतनी सारी मुसीबत है , दुःख है। तुम अपनी तरफ से इसे और दुखी क्यों कर रहे हो। कथा सार यही है कि अँगुलिमाल का हृदय परिवर्तन हुआ और उसने अपनी हरकतें छोड़ दी। वह बुद्ध का अनुयायी हो गया। 

हृदय परिवर्तन की एक कथा बुद्ध के अवसान के कुछ सौ साल बाद की है। मगध साम्राज्य के शासक अशोक, जो आदतन हिंसा -प्रिय था, का हिंसा से जी ऊब गया। वह क्रूर प्रवृत्ति का था। उसने अपने ही सभी भाइयों की हत्या कर दी थी और इतिहास के अनुसार कलिंग युद्ध में लाख से अधिक लोगों को मारा था। इतने लोग युद्ध में नहीं मारे गए होंगे। निश्चय ही युद्धोपरांत उसने नरसंहार करवाया था। अशोक के ज़माने में बुद्ध नहीं थे, लेकिन उनके विचार और अनुयायी भिक्षु थे। अशोक ने एक रोज अचानक बुद्ध के धम्म की शरण में जाने का निश्चय किया। 

अँगुलिमाल और अशोक के स्वभाव और चरित्र में साम्य था, लेकिन ओहदे की भिन्नता थी। अँगुलिमाल डाकू था और अशोक राजा। अँगुलिमाल ने अपना डाकूपना छोड़ दिया, लेकिन अशोक राजा बना रहा। खजाने के धन से उसने स्तम्भ बनवा और उसपर स्वयं को प्रियदर्शी और देवताओं का प्रिय के रूप में रखा। मुझे अशोक में हृदय परिवर्तन कम, काइयाँपन अधिक दिखता है। उसने खजाने को अपनी सनक पूरी करने में झोंक दिया। अपने बेटे -बेटियों को तो धर्मप्रचारक बना यत्र -तत्र भेजा, लेकिन वह स्वयं बार -बार विवाह करता रहा। उसका दादा चन्द्रगुप्त तेईस वर्ष तक शासन करने के बाद स्वतः गद्दी छोड़कर संन्यासी हो गया था;  लेकिन यह अशोक माथे पर बौद्ध धर्म की गठरी रखे आखिर क्षण तक शासन में बना रहा। ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं कि उसकी मृत्यु के चार साल बाद तक मगध का सत्ता संघर्ष चलता रहा और अंततः मौर्य साम्राज्य तीन हिस्सों में विभाजित हो गया, जिसे बहुत मुश्किल से महापद्म नन्द और चन्द्रगुप्त ने अपने प्रयासों से समृद्ध किया था।

इसलिए मुझे प्राचीन इतिहास के अशोक और मध्यकालीन मुगल बादशाह औरंगजेब में कुछ समानता दिखती है। दोनों सामान रूप से झक्की, धर्मध्वजी और सत्ताचिपकू थे। व्यक्तिगत रूप से दोनों सादगी पसंद थे। औरंगजेब की कब्र एक आमआदमी की कब्र की तरह महाराष्ट्र के औरंगाबाद के पास खुल्दाबाद में सड़क किनारे अवस्थित है। अशोक अपने ही स्थापित अनगिनत लाटों से आज भी उझकने की कोशिश करता है। उन्नीसवीं सदी के आरम्भ में जब यूरोपियन इतिहासकारों को अशोक के बारे में जानकारी मिली, तब उन्हें वह महत्त्वपूर्ण लगा। अब जब उसके चरित्र की मीमांसा हो रही है , तब वह सनकी अधिक प्रतीत होता है । 

मैंने अँगुलिमाल से बात आरम्भ की थी। अँगुलिमाल और अशोक दोनों बौद्ध हुए। लेकिन इन दोनों में कौन अधिक महत्त्वपूर्ण है चि
ह्नित करने के लिए कहा जाएगा, तो मैं बिना किसी द्वंद्व के अँगुलिमाल को चुनूँगा। अँगुलिमाल का पूरी तरह रूपांतरण होता है। वह अपना मूल पेशा, मूल चरित्र त्याग देता है। वह डाकू अथवा बाहुबली से एक धार्मिक व्यक्ति बनता है। एक संवेदनशील मनुष्य बनने की कोशिश करता है । वह अपने पिछले अपराधों को छुपाता नहीं। वह स्वयं को प्रियदर्शी और देवानां प्रिय घोषित नहीं करता। उसे इस बात की कोई चिंता नहीं कि लोग उसे अभी तक डाकू ही क्यों कहते हैं। उसे आत्मविज्ञापन की कभी कोई अभिलाषा नहीं रही । खरे सोने की तरह उसका चरित्र देखा जा सकता है।

अँगुलिमाल और अशोक की परंपरा आज भी देखी जा सकती है। 1970 के दशक में समाजवादी -सर्वोदयी नेता जयप्रकाश नारायण के समक्ष चम्बल के डाकू माधो सिंह ने आत्मसमर्पण किया और अपनी डाकूगिरी का परित्याग कर एकांत जीवन जीने का निश्चय किया। डाकू माधो दुर्दांत था। तीन प्रदेशों की पुलिस उससे खौफ खाती थी। वह स्वयं जेपी के पास पहुँचा। उसने अनुभव कर लिया होगा कि अपराध की दुनिया लम्बे समय तक नहीं चलती। कहते हैं वह तीन रोज तक पटना में डेरा डाले रहा। वह स्वयं को रामसिंह ठेकेदार बता रहा था और जेपी से अनुरोध कर रहा था कि वह माधो सिंह से मिलना स्वीकार लें। जेपी ने जब तीसरे रोज भी इंकार किया तब रामसिंह ने कहा - वह स्वयं माधो सिंह है और आत्मसमर्पण करना चाहता है। जेपी ने उसे सभी साथियों के साथ आत्मसमर्पण का प्रस्ताव किया, जिसे उसने स्वीकार लिया। साढ़े पाँच सौ डाकुओं के साथ जेपी के समक्ष उसने आत्मसमर्पण किया। उसने स्वयं को बदलने का संकल्प लिया और बिना विज्ञापन कि अपने को पूरी तरह समेट लिया।

अँगुलिमाल और माधो सिंह यदि स्वयं को किसी प्रभाव में आकर प्रायश्चित करते और बदलते हैं, तो यह निश्चय ही स्वागत योग्य है। लेकिन अपराधियों का एक दूसरा तबका भी है, जो अपने को राजनीति, धर्म और व्यापार में शिफ्ट करता है। इस श्रेणी के लोग एक आतंक सृजित करते हैं, खौफ का वातावरण उन्हें डॉन बनाता है। इसकी आड़ में वह एक आर्थिक सत्ता भी स्थापित करता है। लूट, अपहरण, रंगदारी का जो धंधा बनता है , उसमें सैकड़ों लोग शामिल होते हैं। ये लोग डॉन के फ़ौज -फाटे होते हैं। किसी रोज यह डॉन चुनावी राजनीति का हिस्सा बनने की कोशिश करने लगता है। लूट -अपहरण करने वाला इसका फ़ौज फाटा अचानक से राजनीतिक सक्रियता में जुट जाता है। धर्म और जाति का सहारा लेकर इनकी महत्त्वाकांक्षाएँ अमरबेल की तरह फैलने लगती हैं। किसी रोज किसी स्थापित राजनीतिक पार्टी का हिस्सा बनकर ये अपनी ताकत बढ़ाते हैं और राजनीति में एक नए बाहुबली का अवतरण हो जाता है । यह नया राजनेता डॉन आपदाकाल में रिलीफ सामग्री वितरित करता है। अशोक स्तम्भ की जगह बड़े -बड़े होर्डिंग लगाता है। पालतू पत्रकारों के बल पर अपनी छवि सुथरी करवाता है। उसकी आकांक्षा यही होती है कि उसे अशोक की तरह प्रियदर्शी स्वीकार लिया जा । अशोक की ये संततियाँ यह आभास करना चाहती हैं कि लोक कल्याण के लिए हमने जनतंत्र का यह बाना स्वीकार किया है । मुझे देव रूप में स्वीकार करो, वरना मुझे एक बार फिर पुरानी दुनिया में लौटना मुश्किल नहीं है। खौफ के इस वातावरण में एक देवत्व विकसित होने की इनकी आकांक्षा कोई भी देख सकता है। 

दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि कुछ विवेकवान लोग भी इस मकड़जाल में झूलते दिखते हैं। उन्हें इस पर कोई शर्म भी नहीं आती है। जिनके हाथ सैंकड़ों के खून से लथपथ हैं, उनके साथ खुद को खड़ा करने में ये यदि असहज नहीं होते, तो इसे क्या कहा जाय! 

लेखक के बारे में-  प्रेमकुमार मणि हिंदी के चर्चित कथाकार व चिंतक हैं। दिनमान से पत्रकारिता की शुरुआत। अब तक पाँच कहानी संकलन, एक उपन्यास, और पाँच निबंध संकलन प्रकाशित। उनके निबंधों ने हिंदी में अनेक नए विमर्शों को जन्म दिया है तथा पहले जारी कई विमर्शों को नए आयाम दिए हैं। बिहार विधान परिषद् के सदस्य भी रहे। ईमेल : manipk25@gmailcom

सेहत- क्या वाकई 20 सेकंड हाथ धोना ज़रूरी है?

टीवी पर हैंडवाश का एक विज्ञापन आता है जिसमें एक बच्चा अच्छी तरह मलकर हाथ धोते दिखता है, तो उसके दोस्त उससे पूछते हैं तेरा साबुन स्लो है क्या और फटाफट अपने हाथ उस हैंडवाश से धोकर निकल जाते हैं जो दावा करता है कि वह 10 सेकंड में कीटाणुओं का सफाया कर डालता है।

लेकिन भौतिकी का सामान्य मॉडल बताता है कि हाथों से वायरस या बैक्टीरिया से छुटकारा पाने का कोई तेज़ तरीका नहीं है। झाग बनने की द्रव गतिकी के विश्लेषण के अनुसार वायरस या बैक्टीरिया को हाथों से हटाने के लिए हाथों को धीमी गति से कम से कम 20 सेकंड तक तो धोना ही चाहिए। हाथ धोने का यह समय सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों द्वारा सुझाए गए समय के बराबर है।

हाथ धोने के सरल से काम में जटिल भौतिकी कार्य करती है। हाथ धोते समय जब हाथ आपस में रगड़ते हैं तो दोनों हाथों के बीच पानी और साबुन की एक पतली परत होती है। इसकी भौतिकी पर प्रकाश डालने के लिए पॉल हैमंड ने द्रव गतिकी के लूब्रिकेशन सिद्धांत का सहारा लिया, जो दो सतहों के बीच द्रव की पतली परत की भौतिकी का वर्णन करता है। हैमंड ने इस सिद्धांत (इसके सूत्र) का उपयोग कर एक सरल मॉडल तैयार किया जो यह अनुमान लगाता है कि हाथ से कीटाणुओं या रोगणुओं को हटाने में कितना समय लगता है। उन्होंने पाया कि हाथों से रोगाणुओं का सफाया करने के लिए कम से कम 20 सेकंड तक हाथ रगड़कर धोना ज़रूरी है।

हालाँकि विश्लेषण में हाथ धोने के लिए इस्तेमाल किए गए रसायन और जीव वैज्ञानिक पहलुओं को ध्यान में नहीं रखा गया, लेकिन यह परिणाम आगे के अध्ययनों के लिए रास्ता खोलते हैं। (स्रोत फीचर्स)