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Sep 3, 2021

उदंती.com, सितम्बर- 2021

वर्ष -14, अंक -1

एक पल एक दिन को बदल सकता है,

एक दिन एक जीवन को बदल सकता है

और एक जीवन इस दुनिया को बदल सकता है।

                                         - गौतम बुद्ध

अनकहीः छोटे सपने ऊँची उड़ान - डॉ. रत्ना वर्मा

आलेखः औचित्य खोते वैश्विक संगठन – देवेन्द्र प्रकाश मिश्रा

नीतिजनसंख्या वृद्धि दर घट रही है - सोमेश केलकर

आलेखसमाधान में समस्या तलाशते लोग - डॉ. महेश परिमल

संस्मरणः मेरे पिता का डेस्क - शशि पाधा

विज्ञानः बड़े शहर अपने बादल बनाते हैं - स्रोत फीचर्स

बातचीतः मस्तानी आवाज़ की मलिका उल्लास की नाव में - रचना श्रीवास्तव

कविताः 1.खामोश हवाएँ 2. सोच की लड़ाई  - शिखा सिंह

कहानी देवी  - माला वर्मा

नवगीतः होम करते हाथ जलें  क्षितिज जैन ‘अनघ’

बाल कहानीः चोरनी - सुधा भार्गव  

व्यंग्यः शब्द सुधार गृह - अखतर अली

दो ग़ज़लः - विज्ञान  व्रत

लघुकथाः जहाँ जागे वहीं सवेरा - डॉ. विभा रजंन 

पुस्तकः कैटवॉक वह भी कबूतर की!!! - अरुण शेखर

प्रेरकः ज़िन्दगी जीने में और जीवित रहने में बहुत बड़ा अंतर है -निशांत

सेहतः तनाव की पहचान और बचाव - मंजूषा मन

जीवन दर्शनः टाटा संस्कृति से साक्षात्कार - विजय जोशी

अनकही- छोटे सपने ऊँची उड़ान

-डॉ. रत्ना वर्मा

मंजिल उन्हीं को मिलती है, 

जिनके सपनों में जान होती है।

पंख से कुछ नहीं होता, 

हौसलों से उड़ान होती है।

सपने सब देखते हैं । सपने देखने के लिए अमीर या गरीब नहीं होना होता। बचपन के सपने बहुत छोटे- छोटे होते हैं, बड़े होकर वही सपने बड़े होते जाते हैं। उन सपनों को पूरा करने के लिए स्वयं के साथ, माता-पिता को, उनके शिक्षकों को प्रयास करना पड़ता है, उन्हें प्रोत्साहित करना होता है । उनके सपनों की उड़ान को पंख लगाने होते हैं, तब कहीं जाकर उनके सपने सच होते हैं।

मणिपुर के एक छोटे से गाँव में रहने वाली मीराबाई चानू ने भी पहले तीरंदाज बनने के सपने देखे थे; लेकिन इस सपने के पूरा करना उसके बस की बात नहीं थी। फिर भी चानू ने  हार नहीं मानी और उसने सपने देखना जारी रखा। उसके सपनों को पंख तब लगे, जब कक्षा आठ की किताब में उसने कुंजरानी के बारे में पढ़ा । बस फिर क्या था, उसी दिन उसने तय कर लिया कि वह वेटलिफ्टर ही बनेगी।  

इसी तरह बचपन से सपने देखने वाली वेटलिफ्टर मीराबाई चानू ने टोक्यो ओलम्पिक 2021 में भारत के लिए पहला मैडल जीतकर देश का मस्तक ऊँचा किया है । चानू ने यह दिखा दिया कि मन में अगर लगन हो तो राह में कितनी भी कठिनाई आए उसे पूरा करने से कोई रोक नहीं सकता। कई पदक और अनेक पुरस्कारों से सम्मानित मीराबाई उन सब बच्चों के लिए एक उदाहरण है, जो सपने देखते हैं और उन्हें पूरा करने के लिए कठिन परिस्थितियों का सामना भी करते हैं।

मीराबाई के लिए यहाँ तक का सफर आसान नहीं था । छह भाई- बहनों में सबसे छोटी चानू बेहद गरीब परिवार से आती है। बचपन में भले ही उसने तीरंदाज बनने का सपना देखा हो, पर जंगल से खाना बनाने के लिए लकड़ियों का गट्ठर उठाते- उठाते उसने वेटलिफ्टर बनने तक का यह सफर तय किया। चानू का परिवार उसके लिए लोहे का बार भी नहीं खरीद सकता था, तो उसे बाँस के बार से प्रेक्टिस करना पड़ा।  उसे अपने गाँव से खेल अकादमी तक पहुँचने के लिए 60 किलोमीटर का सफर तय करना पड़ता था, वहाँ  तक पहुँचने के लिए उसके पास साधन नहीं था। ऐसे में वह उन ट्रक ड्राइवरों से लिफ्ट लिया करती थी, जो नदी की रेत इम्फाल तक ले जाने का काम किया करते थे। जाहिर था कि रजत पदक पाने के बाद उसने सबसे पहले उन ट्रक ड्राइवरों को याद किया; क्योंकि उसका कहना है कि यदि वे न होते, तो वह यहाँ तक पहुँच ही नहीं पाती। तभी तो टोक्यो से भारत आने के बाद सबसे पहले चानू ने उन ट्रक ड्राइवरों को तलाशा और उन्हें सम्मानित किया। चानू का यह व्यवहार उसके जमीन से जुड़े होने का सबूत है । तभी तो उसने अपने माता पिता से मिले सहयोग के बाद उन सबको धन्यवाद कहा जिनकी मदद से वह यह पदक हासिल करने में कामयाब हुई।

जब कोई खिलाड़ी पदक जीत जाता है, तो हम बहुत खुश होकर उस खिलाड़ी के संघर्ष के दिनों की कहानियों को पूरी दुनिया को सुनाते है । पर देखा जाए तो यह बात हमारे लिए शर्मनाक है कि हम अपने देश के प्रतिभाशाली खिलाड़ियों को भूलभूत सुविधाएँ तक उपलब्ध नहीं करा पाते और उम्मीद करते हैं कि वह हमारे देश के लिए  गोल्ड मैडल जीत कर लाए। हम सब जानते हैं कि एक खिलाड़ी के लिए पौष्टिक भोजन, प्रेक्टिस के लिए जगह और साधन, बेहतर कोच आदि सबकी आवश्यकता होती है। परंतु क्या हमारी सरकारें ये सब सुविधाएँ प्रतिभावान खिलाड़ियों को उपलब्ध करवा पाती हैं, यदि उपलब्ध होतीं, तो चानू को ट्रक वालों से लिफ्ट लेने की आवश्यकता क्यों पड़ती, उन्हें अपने परिवार के लिए सिर पर लकड़ी का गट्ठर क्यों उठाना पड़ता?

आप उन देशों की ओर एक नजर डालिए, जो अपने देश के लिए लगातार मैडल की संख्या बढ़ाते चले जाते हैं। क्यों ? जाहिर है -उनके देश की सरकार उनके लिए बेहतर खेल की सुविधाएँ प्रदान करती है। बहुत छोटी उम्र से ही उनकी ट्रेनिंग शुरू हो जाती है। उनके लिए उनके माता- पिता को संघर्ष नहीं करना पड़ता, न गरीबी के कारण चानू जैसी लड़कियों को ट्रक वालों से लिफ्ट लेनी पड़ती । आप स्वयं ही सोचिए, जब वे मैडल जीतकर आते हैं, तब पूरा देश गौरवान्वित होता है, तो जो गौरव प्रदान करता है उसकी ऐसी उपेक्षा क्यों?

जिस प्रकार शिक्षा जीवन के लिए आवश्यक है उसी तरह बच्चों के जीवन में खेल का अपना विशेष महत्त्व है। बेहतर और प्रतिभावान खिलाड़ी चाहिए, तो उन्हें बचपन से ही खेल का माहौल उपलब्ध कराना होगा। खेल को भी आवश्यक विषय के रूप में जब तक शामिल नहीं किया जाएगा तब तक हम अपने खिलाड़ियों से बेहतर की उम्मीद नहीं कर सकते । जिस प्रकार बच्चा एक समय बाद अपने मनपसंद विषय पर आगे की पढ़ाई करते हुए अपना कैरियर बनाता है, उसी तरह खेल को भी पढ़ाई का एक हिस्सा बनाना होगा। ताकि अधिक से अधिक बच्चे खेल की तरफ आकर्षित हों और उसमें अपना कैरियर बनाते हुए अपने को असुरक्षित महसूस न करें। पर हमारे यहाँ उल्टा होता है -जब खिलाड़ी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कोई उपलब्धि हासिल करके लौटता है, तब कहीं जाकर उसे एक अच्छी नौकरी और सभी प्रकार की सुविधाएँ देकर सम्मानित किया जाता है। जरा सोचिए यदि हम पहले ही उसे ये सारी सुविधाएँ उपलब्ध करा दें, तो उसका खेल और कितना निखरेगा और वह बिना किसी तनाव के निश्चिंत होकर खेलेगा और मैडल जीतेगा।

खेल से जुड़ी एक बहुत ही शर्मनाक बात का उल्लेख यहाँ करना चाहूँगी- ओलम्पिक में  महिला हॉकी खिलाड़ियों अपना सर्वश्रेष्ठ दिया, भले ही वे मैडल नहीं जीत पाईं । पर इसका ये मतलब तो नहीं हम उनका अपमान करें। हमारे ही कुछ अपनों ने उनके भारत आने पर  बजाय उनकी हौसला अफजाई करने के, उन्हें अपमानित किया। वंदना कटारिया के घर के सामने हुड़दंग तो मचाया ही, साथ ही उनकी जाति को लेकर की गई टिप्पणी, कि महिला हॉकी टीम इसलिए हारी क्योंकि टीम में दलित खिलाड़ियों की संख्य़ा अधिक है। आज के समय में भी यदि हमारे देश में इस प्रकार की सोच रखने वाले लोग हैं तो यह हम सभी भारतीयों के लिए शर्म की बात है। हम उनका मान नहीं रख सकते, तो कम से कम अपमान तो न करें।

आलेख - औचित्य खोते वैश्विक संगठन

-देवेंद्र प्रकाश मिश्र

 दृश्य 1: सुरक्षित स्थान की तलाश में अपने ही देश से पलायन करने के लिए एयरपोर्ट के बाहर हज़ारों महिलाएँ, बच्चे और बुजुर्गों की भीड़ लगी है। कई दिन और रात वो भूखे प्यासे वहीं डटें हैं इस उम्मीद में कि किसी विमान में सवार हो कर वो अपना और अपने परिवार का भविष्य सुरक्षित करने में कामयाब हो जाएँगे। बाहर तालिबान है, भीतर नाटो की फौजें। हर बीतती घड़ी के साथ उनकी उम्मीद की डोर टूटती जा रही है। ऐसे में महिलाएँ अपनी छोटे छोटे बच्चों की जिंदगी को सुरक्षित करने के लिए उन्हें नाटो फ़ौज के सैनिकों के पास फेंक रही हैं। इस दौरान कई बच्चे कँटीली तारों पर गिरकर घायल हो जाते हैं।

दृश्य 2: इस प्रकार की खबरें और वीडियो सामने आते हैं जिसमें अफगानिस्तान में छोटी- छोटी बच्चियों को तालिबान घरों से उठाकर ले जा रहा है।

दृश्य 3: अमरीकी विमान टेक ऑफ के लिए आगे बढ़ रहा है और लोगों का हुजूम रनवे पर विमान के साथ साथ दौड़ रहा है। अपने देश को छोड़कर सुरक्षित स्थान पर जाने के लिए कुछ लोग विमान के टायरों के ऊपर बनी जगह पर सवार हो जाते हैं। विमान के ऊँचाई पर पहुँचते ही इनका संतुलन बिगड़ जाता है और आसमान से गिरकर इनकी मौत हो जाती है। इनके शव मकानों की छत पर मिलते हैं।

दृश्य4: एक जर्मन पत्रकार की खोज में तालिबान घर- घर की तलाशी ले रहा है, जब वो पत्रकार नहीं मिलता तो उसके एक रिश्तेदार की हत्या कर देता है और दूसरे को घायल कर देता है।

ऐसे न जाने कितने हृदयविदारक दृश्य पिछले कुछ दिनों दुनिया के सामने आए। क्या एक ऐसा समाज जो स्वयं को विकसित और सभ्य कहता हो उसमें ऐसी तस्वीरें स्वीकार्य हैं? क्या ऐसी तस्वीरें महिला और बाल कल्याण से लेकर मानवाधिकारों की सुरक्षा के लिए बने तथाकथित अंतरराष्ट्रीय संगठनों के औचित्य पर प्रश्न नहीं लगातीं?

क्या ऐसी तस्वीरें अमरीका और यूके समेत 30 यूरोपीय देशों के नाटो जैसे तथाकथित वैश्विक सैन्य संगठन की शक्ति का मजाक नहीं उड़ातीं?

इसे क्या कहा जाए कि विश्व की महाशक्ति अमेरिका की सेनाएँ
20 साल तक अफगानिस्तान में रहती हैं, अफगान सिक्युरिटी फोर्सेज पर तकरीबन 83 बिलियन डॉलर खर्च करती है उन्हें ट्रेनिंग ही नहीं हथियार भी देती हैं और अंत में साढ़े तीन हज़ार सैनिकों वाली अफगान फौज 80 हज़ार तालिबान लड़ाकों के सामने बिना लड़े आत्मसमर्पण कर देती है। वहाँ के राष्ट्रपति एक दिन पहले तक अपने देश के नागरिकों को भरोसा दिलाते हैं कि वो देश तालिबान के कब्जे में नहीं जाने देंगे और रात को देश छोड़कर भाग जाते हैं।

तालिबान सिर्फ अफगानिस्तान की सत्ता पर ही काबिज़ नहीं होता बल्कि आधुनिक अमरीकी हथियार, गोला बारूद, हेलीकॉप्टर और लड़ाकू विमानों से लेकर दूसरे सैन्य उपकरण भी तालिबान के कब्जे में आ जाते हैं।

अमरीकी सेनाओं के पूर्ण रूप से अफगानिस्तान छोड़ने से पहले ही यह सब हो जाता है वो भी बिना किसी संघर्ष के। ऐसा नहीं है कि सत्ता संघर्ष की ऐसी घटना पहली बार हुई हो। विश्व का इतिहास सत्ता पलट की घटनाओं से भरा पड़ा है। लेकिन मानव सभ्यता के इतने विकास के बाद भी इस प्रकार की घटनाओं का होना एक बार फिर साबित करता है कि राजनीति कितनी निर्मम और क्रूर होती है।

अफगानिस्तान का भारत का पड़ोसी देश होने से भारत पर भी निश्चित ही इन घटनाओं का प्रभाव होगा। दरअसल भारत ने भी दोनों देशों के सम्बंध बेहतर करने के उद्देश्य से अफगानिस्तान में काफी निवेश किया है। अनेक प्रोजेक्ट भारत के सहयोग से अफगानिस्तान में चल रहे थे। सड़कों के निर्माण से लेकर डैम, स्कूल, लाइब्रेरी यहाँ तक कि वहाँ की संसद बनाने में भी भारत का योगदान है। 2015 में ही भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वहाँ के संसद भवन का उद्घाटन किया था जिसके निर्माण में अनुमानतः 90 मिलियन डॉलर का खर्च आया था।

लेकिन आज अफगानिस्तान की सत्ता पर तालिबान काबिज़ है जो एक ऐसा आतंकवादी संगठन है जिसे पाकिस्तान और चीन का समर्थन हासिल है।

भारत इस चुनौती से निपटने में सैन्य से लेकर कूटनीतिक तौर पर सक्षम है। पिछले कुछ वर्षों में वो अपनी सैन्य शक्ति और कूटनीति का प्रदर्शन सर्जिकल स्ट्राइक और आतंकवाद समेत धारा 370 हटाने जैसे अनेक अवसरों कर चुका है लेकिन असली चुनौती तो संयुक्त राष्ट्र संघ, संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद, यूनिसेफ,

जैसे वैश्विक संगठनों के सामने उत्पन्न हो गई है जो मानवता की रक्षा करने के नाम पर बनाई गई थीं। लेकिन अफगानिस्तान की घटनाओं ने इनके औचित्य पर ही प्रश्न खड़े कर दिए हैं।

दरअसल राजनीति अपनी जगह है और मानवता की रक्षा अपनी जगह। क्या यह इतना सरल है कि स्वयं को विश्व की महाशक्ति कहने वाले अमरीका की फौजों के रहते हुए वो पूरा देश ही उस आतंकवादी संगठन के कब्जे में चला जाता है जिस देश में वो उस आतंकवादी संगठन को खत्म करने के लिए 20 सालों से काम कर रहा हो? अगर हाँ, तो यह अमेरिका के लिए चेतावनी है और अगर नहीं तो यह राजनीति का सबसे कुत्सित रूप है। एक तरफ़ विश्व की महाशक्तियाँ इस समय अफगानिस्तान में अपने स्वार्थ की राजनीति और कूटनीति कर रही हैं तो दूसरी तरफ ये संगठन जो ऐसी विकट परिस्थितियों में मानवीय मूल्यों एवं संवेदनाओं की रक्षा करने के उद्देश्य से आस्तित्व में आईं थीं वो अफगानिस्तान के इन मौजूदा हालात में निर्थक प्रतीत हो रही हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार/टिप्पणीकार हैं।)

नीति- जनसंख्या वृद्धि दर घट रही है

-सोमेश केलकर

वर्ष 1951 की जनगणना में भारत की जनसंख्या 36.1 करोड़ थी। वर्ष 2011 में हम 1.21 अरब लोगों की शक्ति बन गए। भारत की जनसंख्या में तथाकथित ‘जनसंख्या विस्फोट’ से कई समस्याएँ बढ़ीं - जैसे बेरोज़गारी जो कई पंचवर्षीय योजनाओं के बाद भी हमारे साथ है, गरीबी, संसाधनों की कमी और स्वास्थ्य सुविधाओं व उनकी उपलब्धता में कमी।

हालाँकि, कुछ राहत देने वाली खबर भी है। हाल ही में संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोश द्वारा जारी एक रिपोर्ट बताती है कि 2010-2019 के दौरान भारत की जनसंख्या वृद्धि दर काफी धीमी पड़ी है। रिपोर्ट के अनुसार, 2001-2011 के दशक की तुलना में 2010-2019 के दशक में भारत की जनसंख्या वृद्धि 0.4 अंक कम होने की संभावना है। 2011 की जनगणना के अनुसार 2001-2011 के बीच औसत वार्षिक वृद्धि दर 1.64 प्रतिशत थी।

रिपोर्ट आगे बताती है कि अब अधिक भारतीय महिलाएँ जन्म नियंत्रण के लिए गर्भ निरोधक उपयोग कर रही हैं और परिवार नियोजन के आधुनिक तरीके अपना रही हैं, जो इस बात का संकेत भी देता है कि पिछले दशक में महिलाओं की अपने शरीर पर स्वायत्तता बढ़ी है और महिलाओं द्वारा अपने प्रजनन अधिकार हासिल करने में वृद्धि हुई है। हालाँकि, बाल विवाह की समस्या अब भी बनी हुई है और ऐसे विवाहों की संख्या बढ़ी है।

2011 की जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या 1.21 अरब थी और 2036 तक इसमें 31.1 करोड़ का इजाफा हो जाएगा। अर्थात 2031 में चीन को पीछे छोड़ते हुए भारत दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश हो जाएगा। यह पड़ाव संयुक्त राष्ट्र के पूर्व अनुमान (वर्ष 2022) की तुलना में लगभग एक दशक देर से आएगा।

तेज़ गिरावट

संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट कहती है कि कई प्रांतों की जनसंख्या वृद्धि दर प्रतिस्थापन-स्तर तक पहुँच गई है, हालांकि कुछ उत्तरी प्रांत अपवाद हैं। प्रतिस्थापन-स्तर से तात्पर्य है कि जन्म दर इतनी हो कि वह मृतकों की क्षतिपूर्ति कर दे।

जनसंख्या वृद्धि दर में गिरावट पहले लगाए गए अनुमानों की तुलना में अधिक तेज़ी से हो रही है। जनांकिकीविदों और अर्थशास्त्रियों का कहना है कि जनसंख्या वृद्धि अब योजनाकारों के लिए कोई गंभीर समस्या नहीं रह गई है। हालांकि, भारत के संदर्भ में बात इतनी सीधी नहीं है। उत्तर और दक्षिण में जनसंख्या वृद्धि दर में असमान कमी आई है। यदि यही रुझान जारी रहा तो कुछ जगहों पर श्रमिकों की कमी हो सकती है और इस कमी की भरपाई के लिए अन्य जगहों से प्रवासन हो सकता है।

विषमता

उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों के सरकारी आँकड़ों को देखें तो इन राज्यों की औसत प्रजनन दर 3 से अधिक है, जो दर्शाती है कि सरकार के सामने यह अब भी एक चुनौती है। पूरे देश की तुलना में इन राज्यों में स्थिति काफी चिंताजनक है - देश की औसत प्रजनन दर लगभग 2.3 है जो आदर्श प्रतिस्थापन दर (2.1) के लगभग बराबर है।

संयुक्त राष्ट्र की पिछली रिपोर्ट में महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु, तेलंगाना, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश वे राज्य हैं जिनकी प्रजनन दर आदर्श प्रतिस्थापन प्रजनन दर से बहुत कम हो चुकी है।

विकास अर्थशास्त्री ए. के. शिव कुमार बताते हैं कि विषम आँकड़ों वाले राज्यों में भी प्रजनन दर में कमी आ रही है, हालाँकि इसके कम होने की रफ्तार उतनी अधिक नहीं है। इसका कारण है कि इन राज्यों में महिलाओं को पर्याप्त प्रजनन अधिकार और अपने शरीर पर स्वायत्तता हासिल नहीं हुई है। महिलाओं पर संभवत: समाज, माता-पिता, ससुराल और जीवन साथी की ओर से बच्चे पैदा करने का दबाव भी पड़ता है।

रिपोर्ट यह भी बताती है कि भारत की दो-तिहाई से अधिक आबादी कामकाजी आयु वर्ग (15-64 वर्ष) की है। एक चौथाई से अधिक आबादी 0-14 आयु वर्ग की है और लगभग 6 प्रतिशत आबादी 65 से अधिक उम्र के लोगों की है। अर्थशास्त्रियों का मत है कि यदि भारत इस जनांकिक वितरण का लाभ उठाना चाहता है तो उसे अभी से ही शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में बहुत कुछ करना होगा।

जनसंख्या अनुमान रिपोर्ट

राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग द्वारा प्रकाशित जनसंख्या अनुमान रिपोर्ट बताती है कि

- वर्ष 2011-2036 के दौरान भारत की जनसंख्या 2011 की जनसंख्या से 25 प्रतिशत बढ़ने की उम्मीद है, यानी 36.1 करोड़ की वृद्धि के साथ यह लगभग 1.6 अरब होने की संभावना है

- भारत की जनसंख्या वृद्धि दर 2011-2021 के दशक में सबसे कम (12.5 प्रतिशत प्रति दशक) रहने की उम्मीद है। रिपोर्ट के अनुसार 2021-2031 के दशक में भी यह गिरावट जारी रहेगी और जनसंख्या वृद्धि दर 8.4 प्रतिशत प्रति दशक रह जाएगी।

- इन अनुमानों के हिसाब से भारत दुनिया के सबसे अधिक आबादी वाले देश चीन से आगे निकल जाएगा। यदि इन अनुमानों की मानें तो यह स्थिति संयुक्त राष्ट्र के अनुमानित वर्ष 2022 के लगभग एक दशक बाद बनेगी।

शहरी आबादी में वृद्धि

जनसंख्या अनुमान रिपोर्ट में भारत की शहरी आबादी में वृद्धि का दावा भी किया गया है। जबकि वास्तविकता कुछ और ही है, और यह इससे स्पष्ट होती है कि हम शहरी आबादी किसे कहते हैं। जिस तरह दुनिया भर की सरकारें गरीबी में कमी दिखाने के लिए गरीबी कम करने के उपाय अपनाने की बजाय परिभाषाओं में हेरफेर का सहारा लेती रही हैं, यहां भी ऐसा ही कुछ मामला लगता है।

रिपोर्ट का अनुमान है कि लगभग 70 प्रतिशत जनसंख्या वृद्धि ग्रामीण क्षेत्रों में होगी। 2036 में भारत की शहरी आबादी 37.7 करोड़ से बढ़कर 59.4 करोड़ हो जाएगी। यानी 2011 में जो शहरी आबादी 31 प्रतिशत थी, 2036 में वह बढ़कर 39 प्रतिशत हो जाएगी। ग्रामीण से शहरी आबादी में बदलाव सबसे नाटकीय ढंग से केरल में दिखेगा। वर्ष 2036 तक यहां 92 प्रतिशत आबादी शहरों में रह रही होगी। जबकि 2011-2015 में यह सिर्फ 52 प्रतिशत थी।

तकनीकी समूह के सदस्य और वर्तमान में नई दिल्ली में विकासशील देशों के लिए अनुसंधान और सूचना प्रणाली से जुड़े अमिताभ कुंडु के अनुसार केरल में यह बदलाव वास्तव में अनुमान लगाने के लिए उपयोग किए गए तरीकों के कारण दिखेगा।

2001 से 2011 के बीच केरल में हुए ग्रामीण क्षेत्रों के शहरी क्षेत्र में पुन:वर्गीकरण के चलते केरल में कस्बों की संख्या 159 से बढ़कर 520 हो गई। इस तरह वर्ष 2001 में केरल का 26 प्रतिशत शहरी क्षेत्र, 2011 में बढ़कर 48 प्रतिशत हो गया। यानी केरल में 2001-2011 के बीच शहरी आबादी में वृद्धि दर में बदलाव नए तरह से वर्गीकरण के कारण दिखा, ना कि ज़बरदस्त विकास के कारण। इन्हीं नई परिभाषाओं का उपयोग वर्ष 2036 के लिए जनसंख्या वृद्धि का अनुमान लगाने में किया गया है, जो इस रिपोर्ट के निष्कर्षों पर सवाल उठाता है। रिपोर्ट मानकर चलती है कि भारत के सभी राज्य जनसंख्या गणना के लिए वर्तमान परिभाषा और वर्गीकरण का उपयोग करेंगे। लेकिन ऐसा करेंगे या नहीं यह कहना मुश्किल है क्योंकि यह पक्के तौर पर नहीं बताया जा सकता कि भविष्य में पुन:वर्गीकरण या पुन:परिभाषित किया जाएगा या नहीं। यदि पुन:वर्गीकरण या पुन:परिभाषित किया गया तो जनसंख्या के आंकड़े और इसे मापने के हमारे तरीके बदल जाएँगे।

प्रवासन की भूमिका

भारत के जनसांख्यिकीय परिवर्तन में प्रवासन की भी भूमिका है। अनुमान लगाने में उपयोग किए गए कोहोर्ट कंपोनेंट मॉडल में प्रजनन दर, मृत्यु दर और प्रवासन दर को शामिल किया गया है। जबकि ‘अंतर्राष्ट्रीय प्रवासन’ को नगण्य मानते हुए शामिल नहीं किया गया है। अनुमान के लिए 2001-2011 के दशक का अंतर्राज्यीय प्रवासन डैटा लिया गया है और माना गया है कि अनुमानित वर्ष के लिए राज्यों के बीच प्रवासन दर अपरिवर्तित रहेगी।

इस अवधि में, उत्तर प्रदेश और बिहार से लोगों का प्रवासन सर्वाधिक हुआ, जबकि महाराष्ट्र, गुजरात, हरियाणा और दिल्ली में प्रवास करके लोग आए।

जनसंख्या वृद्धि में अंतर

यदि उत्तर प्रदेश एक स्वतंत्र देश होता तो यह विश्व का आठवां सबसे अधिक आबादी वाला देश होता। 2011 में उत्तर प्रदेश की जनसंख्या 19.9 करोड़ थी जो वर्ष 2036 में बढ़कर 25.8 करोड़ से भी अधिक हो जाएगी - यानी आबादी में लगभग 30 प्रतिशत की वृद्धि होगी।

बिहार की जनसंख्या को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। बिहार जनसंख्या वृद्धि दर के मामले में उत्तर प्रदेश को भी पछाड़ सकता है। 2011 में बिहार की जनसंख्या 10.4 करोड़ थी, और अनुमान है कि लगभग 42 प्रतिशत की बढ़ोतरी के बाद वर्ष 2036 में यह 14.8 करोड़ हो जाएगी। इससे भी अधिक चिंताजनक बात यह है कि 2011-2036 के बीच भारत की जनसंख्या वृद्धि में 54 प्रतिशत योगदान पांच राज्यों - उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश का होगा। वहीं दूसरी ओर, पांच दक्षिणी राज्य - केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और तमिलनाडु का कुल जनसंख्या वृद्धि में योगदान केवल नौ प्रतिशत होगा। उपरोक्त सभी दक्षिणी राज्यों की कुल जनसंख्या वृद्धि 2.9 करोड़ होगी जो सिर्फ उत्तर प्रदेश की जनसंख्या वृद्धि की आधी है।

घटती प्रजनन दर

उत्तर प्रदेश और बिहार सर्वाधिक कुल प्रजनन दर वाले राज्य हैं। कुल प्रजनन दर यानी प्रत्येक महिला से पैदा हुए बच्चों की औसत संख्या। 2011 में उत्तर प्रदेश और बिहार की कुल प्रजनन दर क्रमश: 3.5 और 3.7 थी। ये भारत की कुल प्रजनन दर 2.5 से काफी अधिक थीं। जबकि कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, पंजाब, हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों की कुल प्रजनन दर 2 से कम थी। यदि वर्तमान रफ्तार से कुल प्रजनन दर कम होती रही तो अनुमान है कि 2011-2036 के दशक में भारत की कुल प्रजनन दर 1.73 हो जाएगी। और, 2035 तक बिहार ऐसा एकमात्र राज्य होगा जिसकी कुल प्रजनन दर 2 से अधिक (2.38) होगी।

वर्ष 2011 में मध्यमान आयु 24.9 वर्ष थी। प्रजनन दर में गिरावट के कारण वर्ष 2036 तक यह बढ़कर 35.5 वर्ष हो जाएगी। भारत में, जन्म के समय जीवन प्रत्याशा लड़कों के लिए 66 और लड़कियों के लिए 69 वर्ष थी, जो बढ़कर क्रमश: 71 और 74 वर्ष होने की उम्मीद है। इस मामले में भी केरल के शीर्ष पर होने की उम्मीद है। यह जन्म के समय लड़कियों की 80 से अधिक और लड़कों की 74 वर्ष से अधिक जीवन प्रत्याशा वाला एकमात्र भारतीय राज्य होगा। 2011 की तुलना में 2036 में स्त्री-पुरुष अनुपात में भी सुधार होने की संभावना है। 2036 तक यह वर्तमान प्रति 1000 पुरुष पर 943 महिलाओं से बढ़कर 952 हो जाएगा। 2036 तक कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में महिलाओं की संख्या पुरुषों की तुलना में अधिक होने की संभावना है।

श्रम शक्ति पर प्रभाव

दोनों रिपोर्ट देखकर यह स्पष्ट होता है कि जैसे-जैसे देश की औसत आयु बढ़ेगी, वैसे-वैसे देश चलाने वाले लोगों की ज़रूरतें भी बढ़ेंगी। चूंकि अधिकांश श्रमिक आबादी 30-40 वर्ष की आयु वर्ग की होगी इसलिए संघर्षण दर (एट्रीशन रेट) में गिरावट देखी जा सकती है; यह उम्र आम तौर पर ऐसी उम्र होती है जब लोगों पर पारिवारिक दायित्व होते हैं और इसलिए वे जिस नौकरी में हैं उसी में बने रहना चाहते हैं और जीवन में स्थिरता चाहते हैं। उनकी स्वास्थ्य सम्बंधी ज़रूरतों में भी देश में बदलाव दिखने की संभावना है।

जनसंख्या में असमान वृद्धि के कारण श्रमिकों की अधिकता वाले राज्यों से श्रमिकों का प्रवासन श्रमिकों की कमी वाले राज्यों की ओर होने की संभावना है। यदि राज्य अभी से स्वास्थ्य देखभाल और शिक्षा पर अपना खर्च बढ़ा दें तो राज्यों के पास नवजात बच्चों के लिए एक सुदृढ़ सरकारी बुनियादी ढाँचा होगा, जो भविष्य में इन्हें कुशल कामगार बना सकता है और राज्य अपने मानव संसाधन का अधिक से अधिक लाभ उठा सकते हैं। अकुशल श्रमिक की तुलना में एक कुशल श्रमिक का अर्थव्यवस्था में बहुत अधिक योगदान होता है।

स्वास्थ्य सुविधाओं पर प्रभाव

अगर अनुमानों की मानें तो देश में वरिष्ठ नागरिकों की संख्या में वृद्धि भी देश की स्वास्थ्य सम्बंधी प्राथमिकताओं को प्रभावित कर सकती है और उसे बदल भी सकती है। जब किसी देश में प्रजनन दर में कमी के साथ-साथ जीवन प्रत्याशा बढ़ती है, तो जनसांख्यिकीय औसत आयु बढ़ती है। यानी देश की स्वास्थ्य सम्बंधी प्राथमिकताएँ तेज़ी से बदलेंगी। वरिष्ठ नागरिकों की संख्या बढ़ने के चलते बुज़ुर्गों के लिए सार्वजनिक व्यय बढ़ाने की ज़रूरत पड़ भी सकती है और नहीं भी। यह इस बात पर निर्भर होगा कि देश की सार्वजनिक पूंजी और सामाजिक कल्याण, और समाज के लिए इनकी उपलब्धता और पहुँच की स्थिति क्या है।

आज़ादी के समय से ही भारत में असमान आय, स्वास्थ्य देखभाल की उपलब्धता और पहुँच की कमी जैसी समस्याएँ बनी हुई हैं, भविष्य में भी ये चुनौतियां बढ़ेंगी। इन चुनौतियों का सामना करने के लिए सरकार यदि अभी से ही स्वास्थ्य देखभाल पर व्यय और निवेश में वृद्धि नहीं करती तो आने वाले दशकों में स्वास्थ्य सेवा पर सार्वजनिक खर्च सरकार के लिए बोझ बन सकता है। और भविष्य में हमें अधिक प्रवासन झेलना पड़ेगा, सेवानिवृत्ति की आयु में बहुत अधिक वृद्धि होगी और बुज़ुर्गों की देखभाल में लगने वाले सार्वजनिक खर्च जुटाने के उपाय खोजने पड़ेंगे।

जनसंख्या नियंत्रण नीतियाँ

पिछले कुछ समय में जनसंख्या नियंत्रण जैसी बातें भी सामने आई हैं। इसमें असम और उत्तर प्रदेश सबसे आगे हैं। उत्तर प्रदेश राज्य विधि आयोग ने दो बच्चों की नीति को बढ़ावा देने वाले प्रस्तावित जनसंख्या नियंत्रण विधेयक का एक मसौदा जारी किया है। इसका उल्लंघन करने का मतलब होगा कि उल्लंघनकर्ता स्थानीय चुनाव लड़ने, सरकारी नौकरियों में आवेदन करने या किसी भी तरह की सरकारी सब्सिडी प्राप्त करने से वंचित कर दिया जाएगा। असम में यह कानून पहले से ही लागू है और उत्तर प्रदेश यह कानून लागू करने वाला दूसरा राज्य होगा।

ये प्रावधान ‘उत्तर प्रदेश जनसंख्या (नियंत्रण, स्थिरीकरण और कल्याण) विधेयक, 2021’ नामक मसौदे का हिस्सा हैं। विधेयक का उद्देश्य न केवल लोगों को दो से अधिक बच्चे पैदा करने के लिए दंडित करना है, बल्कि निरोध (कंडोम) और गर्भ निरोधकों के मुफ्त वितरण के माध्यम से परिवार नियोजन के बारे में जागरूकता बढ़ाना और गैर-सरकारी संगठनों की मदद से छोटे परिवार के महत्व और लाभ समझाना भी है।

सरकार सभी माध्यमिक विद्यालयों में जनसंख्या नियंत्रण सम्बंधी विषय अनिवार्य रूप से शामिल करना चाहती है। दो बच्चों का नियम लागू कर सरकार जनसंख्या नियंत्रण के प्रयासों को फिर गति देना चाहती है और इसे नियंत्रित और स्थिर करना चाहती है।

दो बच्चों के नियम को मानने वाले वाले लोक सेवकों को प्रोत्साहित भी किया जाएगा। मसौदा विधेयक के अनुसार दो बच्चे के मानदंड को मानने वाले लोक सेवकों को पूरी सेवा में दो अतिरिक्त वेतन वृद्धि मिलेगी, पूर्ण वेतन और भत्तों के साथ 12 महीनों का मातृत्व या पितृत्व अवकाश दिया जाएगा, और राष्ट्रीय पेंशन योजना के तहत नियोक्ता अंशदान निधि में तीन प्रतिशत की वृद्धि की जाएगी।

कागज़ों में तो यह अधिनियम ठीक ही नज़र आता है, लेकिन वास्तव में इसमें कई समस्याँ हैं। विशेषज्ञों का दावा है कि ये जबरन की नीतियां लाने से जन्म दर कम करने पर वांछित प्रभाव नहीं पड़ेगा।

चीन ने हाल ही में अपनी दो बच्चों की नीति में संशोधन किया है। और पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया ने एक बयान जारी कर कहा है कि भारत को चीन की इस जबरन की नीति की विफलता से सबक लेना चाहिए। धर्म प्रजनन स्तर में बहुत कम बदलाव लाएगा। वास्तविक बदलाव तो ‘शिक्षा, रोज़गार के अवसर और गर्भ निरोधकों की उपलब्धता और उन तक पहुँच’ से निर्धारित होगा।

जनसंख्या नियंत्रण नीति की कुछ अंतर्निहित समस्याएँ भी हैं। यह तो सब जानते हैं कि भारत में लड़का पैदा करने पर ज़ोर रहता है। लड़के की उम्मीद में कभी-कभी कई लड़कियाँ होती जाती हैं। लोग इस तथ्य को पूरी तरह नज़अंदाज़ कर देते हैं कि प्रत्येक अतिरिक्त बच्चा घर का खर्चा बढ़ाता है। दो बच्चों की नीति से लिंग चयन और अवैध गर्भपात में वृद्धि हो सकती है, जिससे महिला-पुरुष अनुपात और कम हो सकता है।

विधेयक में बलात्कार या अनाचार से, या शादी के बिना, या किशोरावस्था में हुए गर्भधारण से पैदा हुए बच्चों के लिए कोई जगह नहीं है। कई बार या तो बलात्कार के कारण, या किसी एक या दोनों पक्षों की लापरवाही के कारण, या नादानी में गर्भ ठहर जाता है। इस नियम के अनुसार दो से अधिक बच्चों वाली महिला सरकारी नौकरी से या स्थानीय चुनाव लड़ने के अवसर से वंचित कर दी जाएगी, जो कि अनुचित है क्योंकि काफी संभावना है कि उसके साथ बलात्कार हुआ हो और इस कारण तीसरा बच्चा हुआ हो।

इस तरह के विधेयक के साथ एक वैचारिक समस्या भी है। क्या सरकार उसे सत्ता में लाने वाली अपनी जनता पर यह नियंत्रण रखना चाहती है कि वे कितने बच्चे पैदा कर सकते हैं? स्वतंत्रता के बाद से भारत में, एक परिवार में बच्चों की औसत संख्या में लगातार कमी आई है। इसमें कमी लाने के लिए हमें किसी जनसंख्या नियंत्रण कानून की आवश्यकता नहीं है। विकास, परिवार नियोजन की जागरूकता और एक प्रेरक जनसंख्या नियंत्रण नीति ने अब तक काम किया है, न कि तानाशाही नीति ने। रिपोर्ट दर्शाती है कि भारत में 2011 से 2021 के दौरान प्रजनन दर में कमी आई है, और यह कमी तब आई है जब हमारे पास सिर्फ प्रेरक जनसंख्या नियंत्रण नीतियाँ थीं। हमें अपने आप से यह सवाल करने की ज़रूरत है कि उत्तर प्रदेश राज्य विधि आयोग द्वारा प्रस्तावित सख्त सत्तावादी नीति की क्या वास्तव में हमें आवश्यकता है? भले ही हमें गुमराह करने का प्रयास हमारी धार्मिक पहचान के आधार पर किया गया हो - जैसे ‘बिल का उद्देश्य विभिन्न समुदायों की आबादी के बीच संतुलन स्थापित करना है’ - हमें इस तरह के कानून की उपयोगिता पर ध्यान देना चाहिए और देखना चाहिए कि क्या वास्तव में यह जनसंख्या को नियंत्रित करने में मदद करेगा, न कि हमारी धार्मिक पहचान को हमारे तर्कसंगत निर्णय पर हावी होने देना चाहिए।

निष्कर्ष

विभिन्न जनसंख्या रिपोर्ट से यह स्पष्ट है कि हमारी जनसंख्या वृद्धि दर में काफी कमी आई है, जीवन प्रत्याशा बढ़ रही है, आबादी में बुज़ुर्गों की संख्या बढ़ने वाली है और राज्य स्तर पर श्रमिकों का प्रवासन हो सकता है। एक राष्ट्र के रूप में हमें भविष्य के लिए एक सुदृढ़ स्वास्थ्य ढांचे के साथ तैयार रहना चाहिए। बेहतर शिक्षा उपलब्ध करवाकर नवजात शिशु को भविष्य के कुशल मानव संसाधन बनाने के लिए तैयार रहना चाहिए। हमें अगले दशक के लिए यह सुनिश्चित करने वाली एक व्यापक और विस्तृत योजना बनानी चाहिए कि प्रजनन दर प्रतिस्थापन दर तक पहुँच जाए और उसी स्तर पर बनी रहे। विकास, परिवार नियोजन पर जागरूकता बढ़ाने, राष्ट्र की औसत साक्षरता दर बढ़ाने, स्वास्थ्य सेवा को वहनीय, सुलभ बनाने व उपलब्ध कराने

, और बेरोज़गारी कम करने के लिए भी निवेश योजना की आवश्यकता है। ये सभी कारक जनसंख्या नियंत्रण में सीधे-सीधे योगदान देते हैं। लेकिन, जिस तरह की स्थितियाँ बनी हुई हैं उससे इस कानून के लागू होने की संभावना लगती है। (स्रोत फीचर्स)

आलेख- समाधान में समस्या तलाशते लोग


-डॉ. महेश परिमल

हम सब कोरोना काल के भीषण दौर से गुजरकर अब कुछ राहत की सांस ले रहे हैं। इस दौरान हम सबने मौत को अपने बेहद करीब से गुजरते देखा। बहुत से अपनों को खोया। मौत एक कड़वी सच्चाई है, इसके बाद भी हमने तमाम मौतों के लिए कहीं अव्यवस्था, कहीं डॉक्टर्स, कहीं नर्स तो कहीं वार्ड ब्वाय को दोषी माना। समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग इसी जुगत में लगा रहा कि कहाँ-किसने लापरवाही की। कहाँ सरकार चूक गई, तो कहाँ व्यवस्था मात खा गई। इसके लिए हर किसी के पास शिकायत थी, तो सुझाव भी थे। सुझाव भले ही तर्कसंगत न हों, पर अपनी शिकायत को हर कोई वाजिब बता रहा है। कई लोगों को हर बात पर शिकायत होती है, काम चाहे अच्छा हो या बुरा। वास्तव में उनका काम समाधान में समस्या तलाशना होता है। समस्या के समाधान की तरफ उनका ध्यान ही नहीं जाता। ऐसे में हम शिकायतमुक्त समाज की कल्पना कैसे कर सकते हैं?

 

सच के कई चेहरे हमारे आसपास बिखरे होते हैं, जो हमें दिखाई नहीं देते; क्योंकि इस सच के सामने झूठ हमेशा अपने चमकदार व्यक्तित्व के कारण सच पर हावी होता है। इसलिए हम सच को सदैव अनदेखा ही करते रहते हैं। हमें हर बात पर कुछ न कुछ शिकायत होती ही है। आजकल लोग परस्पर बातचीत भी करते हैं, तो उनका लहजा शिकायती ही होता है। शिकायत करने वाले वे लोग होते हैं, जो सच को स्वीकार नहीं करते। जिन्हें सच स्वीकार्य नहीं, उन्हें जिंदगी भी स्वीकार्य नहीं होती। ऐसे लोग हमेशा असंतुष्ट रहते हैं, साथ ही एक नकारात्मक विचार पूरे समाज में फैलाते रहते हैं। ऐसे लोगों से सतर्क रहने की आवश्यकता है। ऐसे लोग कभी भी किसी भी सच को मानने के लिए तैयार ही नहीं होते।

 

लोगों को सदैव आज से शिकायत रहती है। मौसम, महँगाई, देश की राजनीति आदि पर लोग खूब बोलते हैं। धूप तेज हैं, बारिश बहुत हो रही है, बारिश ही नहीं हो रही है, महँगाई बढ़ गई है। यहाँ तक कि शहर में प्रदूषण बढ़ गया है। इस पर भी वे धाराप्रवाह अपनी बात रखते हैं। सारी बातों का सार एक ही होता है कि उन्हें शिकायत है। वे सच को स्वीकार नहीं करना चाहते। हमारे सामने जीवन के सदैव दो पहलू होते हैं। अच्छा भी बुरा भी। यदि हमारी सोच सकारात्मक है, तो हमें जो भी मौसम है, वह सुहाना ही लगेगा। तेज गर्मी है, तो हम यह सोचेंगे कि बहुत ही जल्द मौसम बदलेगा और बारिश की बूँदें हमारा स्वागत करने को आतुर होंगी। महँगाई बढ़ रही है, तो इसका आशय यह भी है कि देश तेजी से प्रगति कर रहा है। देश विकासशील से विकसित बन रहा है। पेट्रोल की कीमतें बढ़ रही हैं, तो लोग भारत की तुलना पाकिस्तान से करते हैं, जहाँ पेट्रोल सस्ता है। पर भारत की तुलना ऑस्ट्रेलिया जैसे विकसित देश से नहीं करते, जहाँ पेट्रोल भारत से भी महँगा है। सस्ता पेट्रोल बेचने वाले पाकिस्तान की हालत किसी से छिपी नहीं है। वहीं ऑस्ट्रेलिया में पेट्रोल महँगा है, किंतु वहाँ आम लोगों के लिए काफी सुविधाएँ हैं। हमारे देश में भी आम आदमी के लिए सुविधाएँ बढ़ रही हैं, पर वे हमें दिखाई नहीं देती।

वास्तव में जो विकसित मस्तिष्क के नहीं हैं, नई सोच नहीं रखते, संकीर्णता के दायरे में बंधे रहते हैं, वे ही अपनों के बीच नकारात्मक ऊर्जा फैलाते हैं। सकारात्मक दृष्टि से परिपूर्ण लोग हर बात को तर्क से समझने की कोशिश करते हैं। वे मानते हैं कि हमें यदि विकास करना है, तो हमें विध्वंस को सहना होगा। खंडहर को नई इमारत बनाने के लिए पहले उसे तोड़ना होगा। खंडहर को बिना तोड़े उस स्थान पर नई इमारत कभी नहीं बनाई जा सकती। इस तरह की प्रगतिशील सोच ही इंसान को दूरद्रष्टा बनाती है। ऐसे लोग ही समाज को नई दृष्टि देते हैं। सच को आत्मसात् नहीं करने वाले स्वयं पीछे रहते हैं, बल्कि समाज को भी पीछे ले जाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ऐसे लोगों का साथ हमें छोड़ देना चाहिए।

 

शिकायत या उपालंभ का भाव यह दर्शाता है, वे वर्तमान से संतुष्ट नहीं हैं। वर्तमान से जो संतुष्ट होते हैं, उन्हें सब-कुछ भला ही लगता है। आज कोरोना को लेकर शिकायत करने वाले कुछ समय बाद यही कहते मिलेंगे कि हमने कोरोना काल में न जाने कितने तरह की मुश्किलें झेलीं। तब वे अपनी मुश्किलें गिनाएँगे। उस समय उन्हें यही कोरोना काल अच्छा लगने लगेगा। भले ही आज उन्हें इसी कोरोना को लेकर बहुत-सी शिकायतें हों। आज जिस पर वे लानत भेज रहे हैं, कल उसी पर फख्र भी करेंगे।

सच को शक की नजरों से देखने वालों की दृष्टि संकुचित होती है। उनकी सोच की लहरें दूर तक नहीं जा पातीं। हर लहर उनके पास एक न एक शिकायत लेकर आती है। कुछ समय बाद उनके पास शिकायतों का अंबार लग जाता है। ऐसे में वे शिकायत से मुक्त कैसे रह पाएँगे? दूसरी ओर जो सदैव सकारात्मक विचारों को अपने पास रखते हैं, अपनी दृष्टि व्यापक रखते हैं, तर्क के साथ अपने विचारों को सामने रखते हैं। नाप-तौलकर बोलते हैं। दूसरों का सम्मान करते हैं। समस्या सुनने के लिए तैयार रहते हैं, समाधान की तरफ विशेष ध्यान देते हैं, ऐसे लोग समाज को एक नई दिशा देने में सक्षम होते हैं। बेहतर समाज ऐसे लोगों से ही बनता है। जिन्हें हर बात पर शिकायत है, वे कभी संतुष्ट नहीं रह सकते। एक बेचैनी उन्हें सदैव घेरे रहती है। दूसरी ओर जो हर बात को स्वीकार कर लेते हैं, उनमें आत्मसंतुष्टि का भाव सदैव विद्यमान रहता है। उनके चेहरे की चमक ही बता देती है कि उनके विचार सकारात्मक हैं। लोग उनके पास आकर कुछ सीखकर ही जाते हैं। ऐसे लोग सदैव सकारात्मक ऊर्जा का संचार करते हैं। स्वस्थ समाज ऐसे लोगों से ही बनता है। ऐसे लोगों की संख्या लगातार बढ़ती जाए, तो बहुत ही जल्द बन सकता है उपालंभ यानी शिकायतमुक्त समाज। इस समाज में रहकर हम भी गर्व का अनुभव करेंगे।


संस्मरण- मेरे पिता का डेस्क

-शशि पाधा          

मन की गठरी खोली तो रुई के फाहों की तरह उड़ने लगी अतीत की स्मृतियाँ। बहुत कुछ उड़ता रहा और कुछ मेरे हाथ आया। हाथ आई उन सुधियों की एक कड़ी...

हमारा परिवार सम्पन्न नहीं था लेकिन ख़ुशहाल था। बहुत कुछ नहीं था लेकिन चैन और संतुष्टि थी। अब सोचती हूँ तो लगता है कि सरस्वती माँ का निरंतर वास था वहाँ। गीत-संगीत, पुस्तकें -पत्रिकाएँ, पांडुलिपियाँ हमारे घर की निधियाँ थी। छोटे से आँगन में फल भी थे और फूल भी। वैसे कहने को लोहे का गेट था लेकिन अतिथियों का, मित्रों का आना-जाना इतना था कि गेट खुला ज़्यादा, बंद कम ही रहता था। वो दिन ही और थे। कोई पूछ के तो आता नहीं था और एक बार आ जाए तो उसका जाने का मन नहीं होता था। कुछ ऐसा सम्मोहन था उस घर का।

 मेरे उस घर में सुबह-शाम पूजा अर्चना तो होती ही थी लेकिन भजन संगीत रेडियो पर चलता ही रहता था। पिता मर्यादा पुरुषोतम राम के भक्त थे और माँ बाल गोपाल की। भाई शिव भक्त थे और हम छोटी बहनें माँ दुर्गा की। यूँ समझिये कि सारे ही देवी देवता हमारे अपने थे। घर में बहुत सी चीजें तो नहीं थी पर ज़रुरत की लगभग सारी थीं, कभी किसी चीज़ की कमी का आभास नहीं हुआ। यानी हमारा घर खुशियों से भरा था। घर की हर चीज़ का उतना ही आदर किया जाता था जितना घर के हर सदस्य का। चीज़ें भी सदस्य ही थीं क्यूँकि हर चीज़ के साथ कोई न कोई कथा-कहानी जुड़ी थी।

हमारे घर में एक भी godrej की अलमारी नहीं थी और न ही किसी ट्रंक में कभी ताला लगा देखा। शायद उन दिनों ताले का रिवाज़ नहीं था या हमारे माता -पिता ने इसकी आवश्यकता ही नहीं समझी। घर की सब से मूल्यवान या यूँ कहूँ कि आदरयोग्य वस्तु थी मेरे पिता का डेस्क।

मेरे पिता एक प्रोफेसर थे इसलिए लिखने-पढ़ने का काम उनका शौक भी था और जीविका का साधन भी। उनक लिखने के लिए एक डेस्क था। ऐसा डेस्क नहीं जैसा विद्यालयों में विद्यार्थियों के लिए होता है। उनका डेस्क वैसा था जैसा आपने फिल्मों में मुंशी जी के आगे या किसी सुनार की गद्दी के आगे रखा देखा होगा। छोटे छोटे चार पायों के ऊपर छोटे से बक्सेनुमा आकार का था लेकिन उसका ढक्कन थोड़ा ढलान देकर जोड़ा गया था। ऊपर कलम, पेन, दवात आदि रखने की जगह भी बनाई गई थी। मज़ेदार बात यह है कि इस डेस्क पर छोटा सा ताला लगा रहता था। पता नहीं क्यूँ ? क्यूँकि चाबी तो उसके साथ ही टंगी रहती थी। कोई खोलता ही नहीं था इसे। ऐसा ही अनकहा/अनलिखा अनुशासन था हमारे घर में।

वैसे तो यह डेस्क आकार में छोटा सा था लेकिन उसका उदर बड़ा था। यानी ज़रुरत की हर चीज़ उसमें विराजमान रहती थी। पेन,पेंसिलें,चाँदी के रूपये, हम सब की जन्मपत्रियाँ,घर/ ज़मीन के आवशयक कागज़। और पता नहीं क्या- क्या| कभी टटोल के देखा ही नहीं। डेस्क के एक ओर पड़ी रहती थी मेरे पिता के नाम की मोहर,लाख ,छोटी सी मोमबत्ती। अब आप पूछेंगे मोहर और लाख क्यूँ भला !

मेरे पिता प्रोफ़ेसर थे और परीक्षक भी। बहुत से विश्विद्यालयों से उन्हें परीक्षा पत्र जाँच के लिए आते थे। जाँच के बाद इन परीक्षा पत्रों को खद्दर की एक थैली में बंद कर के, थैली को ऊपर से सी दिया जाता था। उस थैली की सिलाई पर थोड़े थोड़े फ़ासले के बाद मोहर लगा कर उसे सील कर दिया जाता था। इस कुशल कार्य में मैं अपने पिता की सहायक होती थी। मैं मोमबत्ती पर लाख पिघला कर थैली पर फैला देती और पिता जी झट से उस पर मोहर लगा देते। मुझे लगता जैसे मैंने अपनी आयु से बड़ा काम करना सीख लिया है।

वैसे तो पिता जी कोई वैद नहीं थे लेकिन स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद कुछ पुड़ियाँ  वह इस डेस्क में रखते ही थे। ज़्यादा नाम तो याद नहीं लेकिन कुछ कुछ गिना देती हूँ। जैसे- स्वर्ण भस्म, मोती-मूंगा भस्म, सूखे आंवले की भस्म। शायद और भी कुछ होता होगा। हाँ ! एक चीज़ और याद आई... चाँदी के वर्क। वैसे तो आंवले और आम का मुरब्बा हम सभी खाते ही थे लेकिन जब कोई विशेष दिन होता या विशेष अतिथि आता तो उन को परोसे  गए मुरब्बे परचाँदी का वर्क अवश्य लगाया जाता। ना!ना! याद आयाकि जिस दिन खीर बनती थी उस दिन भी।

इसी डेस्क के किसी कोने में सुरक्षित रखे रहते थे माँ के कुछ जेवर। कुछ इसलिए क्यूँकि दो बड़ी बेटियों और बेटे की शादी में जेवर बनवाने के लिए इसी कोने से कुछ न कुछ निकला होगा। और हाँ मुझे पता है कि माँ की नत्थ, टीका, दो जोड़ी झुमके, दो कंगन और कुछ अंगूठियाँ वहीं रखी थीं। पता इसलिए कि घर में और कहीं ताला लगता नहीं था तो अंदाज़ से कह सकती हूँ। और क्या क्या था, इसके विषय में कभी सोचा ही नहीं। हमारे लिए तो यह डेस्क ही बहुत ही मूल्यवान और महत्वपूर्ण चीज़ थी।

एक दिन अचानक ह्रदयाघात से पिता जी इस संसार को छोड़ कर चले गये। बहुत कठिन था उनकी वस्तुओं को संभालना। एक शाम मेरे भाई ने माँ से कहा , “पिता जी का डेस्क खोलें?” बैंक, ज़मीन, पेंशन आदि के कागज़ देख लेते हैं।”

मुझे याद है माँ ने केवल सर हिला कर हामी भरी थी। भाई इस डेस्क को लेकर बैठक में आये। हम सब भाई-बहन नम आँखों से उसे देख रहे थे। सब ने एक साथ कहा,  इसे कभी किसी को नहीं देना। यह हम सब की धरोहर है। पिता जी की अमूल्य निशानी।

 उस क्षण मैंने अपनी माँ को पहली बार फफ़क कर रोते देखा।पिता जी के स्वर्गवास को 13 दिन हो गये थे। मैंने अपनी विदुषी, संस्कारी माँ को इन 13 दिनों में कभी रोते नहीं देखा था। वह केवल शून्य में ताकती थीं।जाने कितनी स्मृतियाँ जुड़ी होंगी उनकी इस डेस्क के साथ। मेरे माता-पिता के जीवन के उतार-चढ़ाव, सुख-दुःख के हर पल का मूक साक्षी जो था वह डेस्क।

समय के साथ बहुत सी नई चीज़ें आईं मेरी माँ के घर में और बहुत सी निकली भी होंगी। लेकिन यह डेस्क अभी भी पड़ा है कमरे के उसी कोने में जहाँ शायद 100 वर्ष पहले मेरे पिता ने रखा था।

इमेल : Shashipadha@gmail.com