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Aug 1, 2021

तीन हाइबन

-अनिता मंडा

 1. दीवार का मन

दीवारों के बिना छत कैसे रहेगी इसी फ़िक्र में जर्जर दीवारें जी जान से खड़ी रहती है। भुरभुरी होकर बिखरने तक, अपने लिए शायद ही कोई पल जीती हों। दुआ भी करती हैं तो छत कायम रहने की। सिर पर छत एक दिलासा है कि तुम सुरक्षित हो। यह दिलासा पुख़्तगी तय करता है कि तूफ़ान आए या बिजली गिरे; बच जाओगे। बचे रहने की कयावद ही जीवन के सफ़र की मूल भावना है। बचे रहें हम, बचा रहे हममें कुछ। रिक्त मन की परिधि कितनी बड़ी हो जाती है कि अकेलेपन से घबराकर मन बाहर भाग छूटता है। बाहर से जो मिल जाए तुरंत भर लिया मन में। एक पल भी स्वयं का साथ भारी प्रतीत होता है। तो... जो स्वयं को इतना भी नहीं सहन कर पा रहे, कोई दूसरा कैसे सहन करेगा। परन्तु चाहना तो है। चाहना है स्वीकारोक्ति की, साहचर्य की। साहचर्य से उपजे सुख का आकाश अनन्त क्यों नहीं बना पाते। उसमें शुबहों के काले बादल हैं। शिकायतों के अंधड़ हैं। जो साफ़ नज़र आ रहे थे, वही नज़ारे कुहरे की आड़ ले लेते हैं। पल में मन का दृश्य ओझल। सुख-चैन की बाँसुरी पल में क्रंदन करने लगती है। समय की डोर हाथ से छूटती जान पड़ती है। भागते-भागते साँसों की डोरी तनने लगती है। व्यथित तन, खंडित मन, पागल हाथी- से उन्मादित स्वप्न। कहाँ जाना है? क्या पाना है? किसके लिए है हृदय की सारी पूँजी? क्या तलाश पूरी होगी? क्या अब भी पाँव इस योग्य हैं कि भाग सकें? क्या फेफड़े इतनी हवा भर पाएँगे स्वयं में कि धुँधली दृष्टि साफ़ साफ़ देख सके। हज़ार-हज़ार उलझनों से जूझता मन क्या कोई सिरा पकड़पाएगा, जिसके सहारे चल कर चक्रव्यूह भेदा जा सके। भीतर के अनगिन युद्ध; बाहर के अनगिन युद्ध। भीतर के नरक; बाहर के नरक। इन सबसे उपजी थकान का ढेर इतना ऊँचा है कि उसकी परछाई ही सारा उजाला पी जाती है। अवसाद के छोनेकानी उँगली थामे चलते हैं। जिन दीवारों के सहारे पीठ टिकाई,वे भी तो कितनी जर्जर हैं, पता नहीं कब दरक जाएँ। काश कि हम इन जर्जर दीवारों का मन  पढ़ पाते। 

1

पोंछ भी दो ना

शुबहों की कालिख़

बाँच लो मन।

2

गहरी खाई

बढ़ती परछाई

साँझ है आई।


2. असाढ़

 आषाढ़ प्रतीक्षा की पूर्णता का महीना है। झमाझम संगीत और माटी की सौंधी सुरभि का महीना है। धरती की दरारों में छिपा अँधेरा बादलों की गड़गड़ाहटों से भय खाता है। बूँदों के पोरअहिस्ताअहिस्ता धरती को गुदगुदाते हैं, हरापन धरती की खिलखिलाहट है। तपस्वी पेड़ों की साधना का वरदान असाढ़ बादलों के लिफ़फ़ों में बूँदों के ख़त लाता है। अपना दुःख, ताप धोकर पेड़ सरसाते हैं। सारे लोकगीत असाढ़ पर पाँव धर सीधे सावन का झूला झूलने की हड़बड़ी में हैं। इन सबसे अनभिज्ञ असाढ़ मदमस्त हाथी सा गुज़रता है, गरजता है, बरसता है। एक आवेग हर कहीं भर देता है। नदियों की मंथरता टूटती है। पंछियों के गान फूटते हैं। जंगल कच्चे हरे से उफनता है। खेतों में हल के माँडने आस से हरे होते हैं। पर्वत, नदियाँ, जंगल, खेत, वनस्पति, जीव सब असाढ़ की छुवन से स्पंदित हो गाते हैं। बारिश सुख का संगीत रचती है, इंद्रधनुष का सतरंगी सितार प्रकट होता है, मानो अम्बर के आँगन रंगोली पूर दी हो किसी ने। कण-कण में अनुराग की उपस्थिति है बारिश।

1

असाढ़ माह

अनुराग उपजे

मेघ बरसे।

2

बंजारे मेघ

गाएँ मल्हार राग

जागे हैं भाग।


3. गुलमोहर

चिलचिलाती धूप में जब आँखें खुलते हुए स्वतः सिकुड़ जाती हैं, सिर को छाँव का आसरा याद आने लगता है, हवा में बढ़ते तापमान की धमक त्वचा पर हमला कर चुभने लगती है तभी जेठ माह की धूप को मुँह चिढ़ाता गुलमोहर रंग पहनने लगता है। धीरे- धीरे हरा झड़ कर विरल हो जाता है और केसरिया, नारंगी, लाल हावी होता जाता है। धूप जब छाँव के अस्तित्व को मिटाने उसकी सीमाओं का अतिक्रमण करने लगती है गुलमोहर के फूल किसी योद्धा की भाँति  मुकाबले में डट जाते हैं। फूलों को कोमल समझा जाता है। उनकी सुंदरता बरबस मन मोह लेती है, दृष्टि बाँध लेती है। मधुमक्खियाँ उन पर उत्सव मनाती हैं। चूम-चूम कर रस का संचय करती हैं। शहद चुम्बनों का संचय है। तभी तो इतना मीठा  इतना विशुद्ध, गुणकारी है।

फूल कड़ी धूप में भी मुस्कुराना नहीं भूलते। अपनी एक मुस्कान से देखने वालों को ख़ुशी मिलती है तो ये काम इतना कठिन भी नहीं न। फिर हँसकर जिया जाए या मुँह लटकाकर जीना तो है ही। ख़ुशबू कभी अपने फूल में लौटकर नहीं आती; पर पहचानी तो उसी के नाम से जाती है। हमारी मुस्कान भी वही ख़ुशबू है, जो हमारी छवि के साथ ही किसी हृदय में बसी रह जाती है। एक मुस्कान जितना- सा जीवन और कितने सुनहरे रंग। प्रकृति की कितनी बड़ी पाठशाला हमारे इर्द-गिर्द मौजूद है। कितना बड़ा कैनवस नित्य सजता  है। कितने रंग रोज़ अपना स्वरूप बदलते हैं। आँखें होते हुए भी कितना कुछ अनदेखा छूट जाता है हमसे। कितना निकल पाते हैं हम मन में लगे जालों को हटाकर। देखने की एक दृष्टि परिमार्जित करते ही दृश्य कितना कुछ कह जाते हैं। समझा जाते हैं। तो क्यों न गुलमोहर को देख कुछ पल को एक गुलमोहर अपने भीतर भी उगा लें जो जीवन के घाम को सहकर खिल उठे। जिसका मकरन्द किसी का सानिध्य चूमकर शहद सा मीठा बन जाये।

गुलमोहर

धूप में मुस्कराए

जीना सिखाए।

4 comments:

विनिता चौधरी said...

बहुत सुंदर वर्णन 👌👌

Manish Vaidya said...

बहुत सुंदर भावों और विवरणों से सजे गद्यांश। भाषा जैसे रेशम का थान कि उँगलियाँ फिसलती ही चली जाए। जेठ, आषाढ़ और दीवारों के आर्तनाद सुनते हुए हमारे भीतर कोई संगीत गूँजने लगता है, हवाएँ सरसराने लगती हैं। अनिता जी को बहुत बधाई।

शिवजी श्रीवास्तव said...

तीनों हाइबन सुंदर,अनिता जी के गद्य में भी लालित्य है,सरसता है,काव्यात्मक प्रवाह है।बहुत बहुत बधाई।

रचना प्रवेश said...

सुन्दर महकते हुए है तीनों हाइबान,बधाई