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Aug 1, 2021

जीवन दर्शन- सुख : साधन, समाधान एवं स्वाद

 -विजय जोशी  (पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक, भेल , भोपाल)

जंगल- जंगल ढूँढ रहा मृग अपनी ही कस्तूरी

कितना मुश्किल है तय करना खुद से खुद की दूरी 

    सुख या संतोष की चाहत बड़ी अद्भुत बात है जिसकी मृगतृष्णा के पीछे मानव जीवन भर दौड़ता रहता है यह जाने बगैर कि बाहरी संसाधन के बजाय यह तो मूलत: अंतस् की अवस्था है, जिसका अनुभव बाहरी मोह माया जाल में उलझे रहने के कारण वह कर ही नहीं पाता। इसी संदर्भ में में एक प्रसंग।

      नाइजीरिया स्थित अरबपति फोमी ओटेडोला से एक बार उनके सबसे सुखद पलों के बारे में जब एक पत्रकार द्वारा जिज्ञासा पूर्वक पूछा गया तो इस प्रश्न का जो सटीक उत्तर उन्होंने दिया वह विस्मयकारी था मैं अपने जीवन में उस पल की प्राप्ति के पूर्व जिन चरणों से गुजरा वे थीं इस प्रकार :

      - पहली पायदान पर थी अकूत संपत्ति संग्रह की लालसा। वह मिली तो अवश्य पर प्रसन्नता अधूरी ही रही।

      - दूसरी अवस्था थी मूल्यवान वस्तुओं का संग्रह, परंतु वह खुशी भी स्थायी नहीं थी, क्योंकि कुछ समय बाद उनसे भी मन ऊब गया।

      - तीसरे सोपान पर थी व्यवसाय में प्रगति। यह वह पल था जब मेरे पास सम्पूर्ण अफ्रीका की डीज़ल संपत्ति का 95 % हिस्सा था, लेकिन यहाँ भी जैसी कल्पना की थी वैसा आनंद या आल्हाद नहीं मिला

      और तब चौथी स्टेज पर वह पल आया जब मेरे एक मित्र ने एक छोटे से 200 नि:शक्त बच्चों से युक्त आश्रम के लिये व्हील चेयर प्रदान करने हेतु मुझसे निवेदन किया, जो मैंने तुरंत ही भिजवा भी दीं। पर तभी मित्र ने अनुरोध किया कि मुझे भी उन पलों का साक्षी बनना चाहिये और तब मैं अनुरोध स्वीकार कर केंद्र पर पहुँचा अपने हाथों से चेयर प्रदान करने के लिये। और वहाँ एक आश्चर्यजनक बात यह हुई कि जब मैंने उन मासूम बच्चों को उन व्हील चेयर पर बैठकर किलकारी मारते, हर्षित होते, आपस में हँसते हँसाते देखा तो यकायक मुझे लगा कि अरे यह तो मैं किसी पिकनिक स्थल पर आ गया हूँ। लेकिन जब वहाँ से विदा होना चाहा तो एक बच्चे ने मेरी टांगें कसकर पकड़ लीं।

       मैंने उससे पूछा तुम्हें कुछ और चाहि 

      इस सवाल के जवाब में तब उसने जो उत्तर दिया वह मेरे लिए जीवन में पहली बार घटित होने वाला बहुत भावुकता का पल था। उस बालक ने कहा मैं तो आपका चेहरा अपने हृदय में बसा लेना चाहता हूँ, ताकि जब हम स्वर्ग में मिलें, तो मैं आपको एक बार फिर धन्यवाद कह सकूँ।

      ओटेडोला ने इसके आगे भर्राई हुई रुँधी आवाज में कहा यही तो वो पल था, जिसने मुझे गहराई तक छू लिया। अंतस् सुख से सरोबर हो गया। मुझे जीवन सार्थक लगा।

      मित्रों सारांश यह कि प्रसन्नता पाने में नहीं अपितु जरूरतमन्द लोगों को देने में निहित है। लेनेवाले (Taker) से देनेवाला (Giver) बनने वाले सुख का अनुभव वे ही लोग कर पाते हैं जिन्होंने सेवा के सोपान पर अपना जीवन समर्पित कर दिया।

दो दिन की है ज़िंदगी , और बहुत हैं काम

परहित में जीवन कटे, तभी मिले आराम

सम्पर्क: 8/ सेक्टर-2, शांति निकेतन (चेतक सेतु के पास), भोपाल-462023, मो. 09826042641, E-mail- v.joshi415@gmail.com

27 comments:

Hemant Borkar said...

इस लेख में प्रसंग से सीखने को बाहत कुछ मिलता है जीवन मे खुशी ऐसे ही सेवा से मिलती है।

सी आर नामदेव said...

अद्भुत सर जी आपके विचारो से जीवन जीने की शक्ति मिलती है।।
बहुत बहुत शुभकामनाएं...💐

प्रेम चंद गुप्ता said...

आदरणीय जोशी सर,
सादर अभिवादन। आलेख पढ़ कर एक दोहा याद आ गया "झूठे सुख को सुख कहे मानत है मन मोद। जगत चबेना काल का कुछ मुख में कुछ गोद।" ओटडोल महोदय की कहानी इसी सत्य का जीवंत उदाहरण है।
इस सुंदर उदारहण को अत्यंत रोचक ढंग से प्रस्तुत करने के लिए आप साधुवाद के पात्र हैं।
सच है, जितने भी भौतिक सुख संसाधन है उनकी नश्वरता के अनुसार ही उनके सुख प्रदान करने की सीमा भी है। उस सीमा का बाद वे बोझ बन जाते हैं।
जीवन अर्थात जीवात्मा की यात्रा भौतिक यात्रा नहीं है। यही कारण है कि समस्त भौतिक उपलब्धियों के बावजूद वह संतुष्ट नहीं होता। उसे तो आत्मिक सुख से ही तृप्ति मिलती है। हां आत्मिक तृप्ति / आध्यात्मिक उन्नति तक पहुंचने तक उसे एक दीर्घ भौतिक यात्रा से गुजरना आवश्यक होता है। बिना भौतिक यात्रा के न तो वह भौतिकता के यथार्थ को समझ सकता है और न ही आत्मानंद को।

विजय जोशी said...

प्रिय हेमंत, सेवा से बड़ा तो कोई सुख ही नहीं बशर्ते स्वार्थ रहित हो. सस्नेह

विजय जोशी said...

प्रिय चंद्र, इतने मनोयोग से पढ़कर प्रतिक्रिया देने हेतु धन्यवाद बहुत ही छोटा शब्द है. स्नेह की पूंजी का कभी क्षरण नहीं होता सो वह बना रहे सदा, इसी कामना के साथ. सस्नेह

देवेन्द्र जोशी said...

सरल शब्दों में प्रेरक प्रसंगों द्वारा लोगों तक मानव मूल्यों को पहुंचाना जोशी जी की विशेषता है। निश्चय ही निष्काम जरूरतमंद लोगों की सहायता करना निर्मल आनंद देता है। जोशी जी प्रायः इससे रूबरू होते रहते हैं। साधुवाद!

विजय जोशी said...

ये तो आपकी सदाशयता है जो आप अच्छाई का अवलोकन किया करते हैं. बस ईश्वर सद्बुद्धि देता रहे. हार्दिक आभार सहित सादर

विजय जोशी said...

आदरणीय सही कहा आपने. हम सतह पर ही जीने के आदी हैं. गहराई में उतरने से भयभीत भी रहते हैं कई बार. जिन खोजा तिन पाइयां किताबों में सिमट गया है. खैर अपनी साझा करते रहने का भी एक आनंद है. हार्दिक आभार सहित सादर

Unknown said...

अति सुन्दर लेख।सीधे दिल से दिल तक।वाह।

Unknown said...

हम भोजन शरीर को चलाने के लिए करते है,पर आत्मिक संतुष्टि के लिए दर दर भटकते है और ताउम्र जतन भी बहुत करते है, पर जो सुख दूसरों को खुशियाँ देने में है,वह दूसरों से खुशियाँ छुडाने में नही, आत्मीयता की एक मुस्कान ,हीरे मोती से लदे जहाज की दौलत के आगेफीकी है। आदरणीय जोशी जी आपके प्रेरक प्रसंग संप्रेषणीय व प्रसारित योग्य है। धन्यवाद आपको।

VB Singh said...

आपने सत्य कहा कि सुख या संतोष मूलत: अंतस् की अवस्था है।ओटेडोला जी का उदाहरण तो अद्भुत है। जो सुख, सन्तोष व आनन्द परोपकार एवं परसेवा में है व कहीं भी नहीं है। अन्तर्मन को छूने वाला प्रेरक आलेख सृजित करना आदरणीय जोशी जी के लिए ही सम्भव है।ईश्वर आपको शतायु करे जिससे समाज को ऐसा ही उच्चकोटि का साहित्य प्राप्त होता रहे। साधुवाद।

शिवजी श्रीवास्तव said...

बहुत सुंदर प्रेरक प्रसंग।निःसन्देह सुख बाहर नही अन्तस् में है हम सब निरन्तर बाहर बाहर भागते रहते हैं,अन्तस् में जाने का प्रयास भी नहीं करते।सुंदर आलेख हेतु विजय जोशी जी को साधुवाद।

Vijendra Singh Bhadauria said...

दो दिन की है ज़िंदगी , और बहुत हैं काम
परहित में जीवन कटे, तभी मिले आराम

पढ़ कर भी बहुत सुख मिला

Sudershan Ratnakar said...

प्रेरणादायी आलेख। मन को छू गया।

विजय जोशी said...

हार्दिक आभार सादर

विजय जोशी said...

हार्दिक आभार. आप तो उदंती की सुधी पाठक हैं. सादर

विजय जोशी said...

प्रिय विजेंद्र, यही तो मर्म, कर्म और धर्म है. सस्नेह

विजय जोशी said...

आ़ शिवजी, आप उदंती के नियमित सुधी पाठक हैं. अंदर झांकने से ही तो हमें डर लगता है. जिन खोजा तिन पाइंया, परंतु उसके लिये चाहिये इच्छा तथा साहस. आपकी पसंदगी के लिये हार्दिक आभार. सादर

विजय जोशी said...

आदरणीय सिंह सा., यह आपका स्नेह ही है जो मुझे समझ और शक्ति दोनों देता है. यही स्नेह सदा बना रहे इसी कामना के साथ. हार्दिक आभार. सादर

विजय जोशी said...

आप तो स्वयं विद्वान साहित्यकार हैं, जो तत्व की तह में तुरंत उतर जाती हैं. और मनोबल बढ़ाती हैं सो अलग. हार्दिक आभार. सादर

विजय जोशी said...

ऊपरी सुख तो छलावा है. असली सुख तो अंतस में व्याप्त है. बस कोलंबसी मानसिकता की दरकार अनिवार्य आवश्यकता है. हार्दिक धन्यवाद.सादर.
(आपका नाम पता चल पाता तो आनंद आ जाता)

Unknown said...

धन्यवाद आदरणीय आपका सानिध्य स्वर्णिम है।

विजय जोशी said...

हार्दिक धन्यवाद. साभार

Dil se Dilo tak said...

अति उत्तम। कुछ देकर तो देखिए, मन में परम् सुख व संतोष का अनुभव होता है। लेख से प्राप्त सीख- कुछ पाना एक क्षणिक सुख है पर कुछ देना परम् संतोष व आनन्द। धन्यवाद सर।

सादर-
रजनीकांत चौबे

विजय जोशी said...

प्रिय रजनी, सही कहा. "आर्ट ऑफ गिविंग" आर्ट आफ लिविंग से अधिक सुखद अनुभव है आनंददायक. सस्नेह.

Mandwee Singh said...

बहुत सारगर्भित आलेख ।शिक्षाप्रद,मर्मस्पर्शी ।अनुभूतिपरक सुख का वर्णन 'जो गूंगे मीठे फल को रस अंतरगत ही भावत......."की तरह है जिसका स्वाद वही चख सकता है जो देने के आनन्द से परिचित है।
इस आलेख को पढ़कर विजयदान देथा की कहानी याद आ गई। हार्दिक साधुवाद ऐसे आनन्दायक अनुकरणीय आलेखों से परिचित करवाने हेतु।
सादर -माण्डवी सिंह भोपाल। 💐💐

विजय जोशी said...

माननीया, सही कहा आपने. कुछ देने का आनंद पाने के आनंद से कई गुना अधिक है. आप सुधी पाठिका होने के साथ सशक्त लेखिका भी हैं. सो हार्दिक आभार. सादर