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Jun 5, 2021

उदंती.com, जून- 2021

चित्रः संदीप राशिनकर
 वर्ष- 13, अंक- 10

कोरे काग पर लिखे, क्यों तू दुख की आँच।

दुख का सुख अनुवाद हो, ऐसे जीवन बाँच।।

जाता सूरज दे गया, एक दीप को काम।

आऊँगा मैं भोर में, जलना रात तमाम।।

                                     -अनिता मण्डा

इस अंक में

अनकहीः प्रकृति की चेतावनी -डॉ. रत्ना वर्मा

आलेखः गाती है प्रकृति -डॉ. महेश परिमल

डायरीः दुनिया को प्यार ही बचा सकता है -डॉ. सुषमा गुप्ता

आलेखः दुःख की गठरी -अरुण शेखर

त्राटककर्मः तनाव एवं अवसाद निवारण हेतु एक श्रेष्ठ योगाभ्यास -डॉ. कविता भट्ट

श्रद्धांजलिः सुंदरलाल बहुगुणा: पर्यावरण व वन संरक्षक -भारत डोगरा

पर्यावरणः नीतियों में बदलाव और जैव-विविधता - प्रो. माधव गाडगिल

पर्यावरणः पुराणों में वृक्ष लगाने की विधि -गोवर्धन यादव

कोरोनाः विज्ञान की उपेक्षा की मानवीय कीमत

स्वास्थ्यः काली फफूँद का कहर -डॉ. भोलेश्वर दुबे, डॉ. किशोर पवार

कहानीः 80  का  प्रवेश द्वार -सुधा भार्गव

पुस्तक: जापानी काव्य-शैलियों की विशिष्ट कृति-  ‘तीसरा पहर’ -डॉ. शिवजी श्रीवास्तव

जीवन दर्शनः मानस में नारी महिमा और तुलसीदास -विजय जोशी

लघुकथाः लड़ाई - रमेश बतरा

लघुकथाः लास्ट स्ट्रोक - पूनम सिंह

दो कविता: झरे हुए फूल, तौल  -जसवीर त्यागी 

कविताः सूरज -प्रियदर्शी खैरा

ग़ज़लः पत्थर -अशोक अंजुम

आवरण पृष्ठ के चित्रकार संदीप राशिनकर

कविताः  सुबह का आभास तो है -संदीप राशिनकर

अनकही- प्रकृति की चेतावनी...

-डॉ. रत्ना वर्मा

प्रत्येक 100 साल में किसी महामारी का आना प्रकृति का एक संकेत है; क्योंकि हर बार यह संयोग तो हो नहीं सकता। ऐसे में इतना तो समझ में आता है कि जब- जब इंसानी गलतियों की इंतेहा हो जाती है, तो प्रकृति उन्हें सबक सिखाने के लिए चेतावनी देती हुई आ जाती है कि देखा तुमने मेरी बात नहीं मानी न, तो अब भुगतो अपनी करतूतों की सजा।  सोस की बात है कि बार- बार मिल रही इन चेतावनियों के बाद भी हम सबक लेना नहीं चाहते। एक बात और समझने की है पिछले 400 साल में जब प्लेग, फ्लू  और हैजा जैसी महामारियों ने दुनिया में तबाही मचाई थी, तब हमारे पास न इतने संसाधन थे, न हमारे पास इन्हें रोक पाने के लिए इतनी अत्याधुनिक स्वास्थ्य सुविधाएँ ही थीं और न ही हमने इतनी महारत हासिल की थी कि कुछ ही दिनों में इसका इलाज ढूँढ पाएँ।  आज तो हमारे पास सब कुछ है, फिर भी मनुष्य बिना ऑक्सीजन, बिना दवाइयों  के काल के ग्रास में क्यों समाते जा रहा है!

सोचने वाली बात यह भी है कि सब कुछ होते हुए भी हम असहाय हैं। प्रकृति हमें लगातार इशारा कर रही है कि अपनी जीवन-शैली को सुधार लो; अन्यथा तबाही का जो मंजर हम एक के बाद एक देख रहे हैं, वह एक दिन प्रलय बनकर फट पड़ेगा और तब मनुष्य ने जग को जीतने के लिए जितनी भी उपलब्धियाँ हासिल की हैं, वे सब धरी की धरी रह जाएँगी।

अब तो सभी ने यह बात जान ली है कि प्रकृति से छेड़छाड़ विनाश का कारण बनेंगी। यदि मनुष्य ने अपने फायदे के लिए प्रकृति का दोहन करना बंद नहीं किया, तो विनाश निश्चित है। अनुभव यही कहते हैं कि प्रकृति के करीब जाने का सबसे आसान रास्ता है- प्रकृति को जीवन में अपनाना। जितनी आसान और सरल हमारी जिंदगी होगी, उतने ही हम प्रकृति के करीब रहना सीख पाएँगे। भगवान ने जीव- जंतु, जमीन- जंगल, पेड़- पौधे, पहाड़- नदियाँ सब कुछ नाप-तौलकर बनाया, न कुछ ज्यादा, न कुछ कम, पर मनुष्य ऐसा प्राणी  है , जिसने ज्ञान के अपने असीमित भंडार का गलत फ़ायदा उठाया, जंगलों का सफाया किया, जंगली पशु- पक्षियों को मारा। प्रकृति के पूरे  वैज्ञानिक जीवन-चक्र को तहस-नहस किया। पहले तो कोई हल्ला नहीं करता था कि पेड़ बचाओ, जंगल बचाओ। पहले न कोई पेड़ काटता था, न जंगलों के जंगली जानवरों को अनावश्यक मारता था। सबके बीच एक संतुलन बना रहता था। जंगल अपने आप ही बढ़ते चले जाते थे;  क्योंकि पशु- पक्षी यहाँ से वहाँ बीज फैलाने का काम प्रकृतिक रूप से करते थे। जिनका जो भोजन होता, उसे वह प्राकृतिक रूप से प्राप्त कर लेता था।  कहने का तात्पर्य यही कि जीवन सबके लिए सहज और सरल था।

दुःख की बात है कि हमारे पूर्वजों ने हमें सरल जीवन जीने की जो सीख दी है, उसे हम दकियानूसीपन, अंधविश्वा और पिछड़ापन कहकर अपने से दूर करते जा रहे हैं। आज उसी जीवन शैली को अपनाने की रूरत है। वर्तमान पीढ़ी भले ही यह नहीं जानती कि गाँव की जीवन- शैली कैसी होती थी, क्योंकि गाँव को हमने गाँव रहने ही नहीं दिया है। पर पिछली पीढ़ी को यह भली-भाँति पता था कि ज्ञान वैसा हासिल करो, जो सबके काम आए, तरक्की करो; पर सिर्फ़ अपने फायदे के लिए नहीं, जीवन- शैली ऐसी अपनाओ कि उस पर आधुनिकता हावी न होने पाए। कहने का तात्पर्य यही कि जितने की रूरत हो, उतना ही अपने पास रखो; बाकी धरती और धरती के लोगों को लौटा दो।

आजकल के बच्चे तो ये भी नहीं जानते कि वास्तव में गाँव कैसे हुआ करते थे। हरे- भरे खेत, पानी से लबालब तालाब, दूध देने वाली गाएँ , हल खींचते बैल। पानी की कमी न हो, इसके लिए  तालाब खुदवाने की परंपरा थी। तब आस्था को अभिव्यक्त करने का कितना सुंदर माध्यम हुआ करता था, तालाब खुदवाओ और किनारे मंदिर बनवा दो।  स्नान करके तालाब से निकलो और अपने इष्ट को धन्यवाद स्वरूप प्रणाम करके दिनचर्या आरंभ करो। कृषि ग्रामीण जीवन का प्रमुख व्यवसाय था और गाँव की पूरी अर्थव्यवस्था कृषि के इर्द-गिर्द ही घूमा करती थी। गाँव के प्रत्येक घर में साग-भाजी उगाने के लिए अपनी छोटी बाड़ी हुआ करती थी। ऑरगेनिक सब्जियों के नाम पर आजकल जो कुछ बेचा जा रहा है, उसे सब जानते हैं। इन दिनों जो कुछ भी हम खा रहे हैं, उसमें कितना कीटनाशक मिला हुआ है और कितना वह पौष्टिक है, सब जगजाहिर है।

तालाब के किनारे- किनारे पीपल, नीम, वट, आदि छायादार वृक्ष के बगैर तो तालाब की सुंदरता पूरी नहीं होती थी। तब पेड़ बचाने के लिए किसी आंदोलन की आवश्यकता नहीं होती थी। तब सब यह जानते थे कि यदि पेड़ नहीं होंगे, तो हम भी नहीं होंगे, तभी तो उनकी प्रतिदिन पूजा- अर्चना करके धन्यवाद ज्ञापन किया जाता था। आज भी यह परंपरा कायम तो है, पर शहरों में पूजा के लिए इन वृक्षों को तलाशना पड़ता है। हमने शहरों में कांक्रीट की गगनचुम्बी भवन तो खड़े कर दिए गए हैं;  पर पौधे रोपने की परंपरा को भूल गए हैं। पौधे रोपना अब एक औपचारिकता और खानापूर्ति करने का दिन बनकर रह गया है, जो बस साल में एक बार 5 जून को आता है। नतीजा प्रदूषण, बीमारी और प्राकृतिक आपदाएँ  बाढ़, भूकंप और सूखा... ।

हवा, पानी और भोजन ही यदि हमें शुद्ध नहीं मिलेगा, तो खुशनुमा जीवन भला कैसे जी पाएँगे। आज एक महामारी ने आपदा बनकर लोगों का सुख-चैन लूट लिया है। एक के बाद एक अपनों को खोते चले जाने से लोग अवसाद  में डूबते चले जा रहे हैं। अंदर ही अंदर एक भय सता रहा है कि न जाने कब मेरी बारी आ जाए... क्या अमीर और क्या गरीब यह किसी से कोई भेदभाव नहीं करता ... लेकिन एक बात रूर समझ में आई है- यदि आपके शरीर के भीतर इस भयानक वायरस से लड़ने की ताकत है, तो यह आपको नहीं मार सकता। यह ताकत मिलती कहाँ से है? फिर वही बात दोहराने की रूरत नहीं बेहतर जीवनचर्या और खान- पान के साथ शुद्ध प्राकृतिक वातावरण। इसी ताकत को सबको अपने भीतर लाना होगा।

कहते हैं, भगवान समय-समय पर अपने भक्तों की परीक्षा लेता है, यह जानने के लिए कि कहीं उसने उसे भुला तो नहीं दिया है और शायद इसीलिए अलग- अलग रूपों में इंसान के सामने मुसीबत खड़ी करता जाता है, कभी समुद्र में  ऊँची-ऊँची  लहरें पैदा करके, तो कभी धरती में कम्पन पैदा करके, तो कभी  महामारी रूपी काँटे बिछाकर... जिसने इन मुसीबतों के झेल लिया, मानों वही सच्चा भक्त, बाकी सबके लिए एक नसीहत... अतः इस कठिन समय में हमें चाहिए कि हम अपनी आस्था, विश्वास को डिगने न दें। भगवान और विज्ञान दोनों पर आस्था रखते हुए प्रत्येक मुसीबत का सामना धैर्य के साथ करें। जयशंकर प्रसाद की ये पंक्तियाँ आज के संदर्भ में कितनी सटीक बैठती हैं-

वह पथिक और पथिकता क्या, जिसमें बिखरे कुछ शूल ना हों।

नाविक की धैर्य परीक्षा क्या जब धाराएँ प्रतिकूल ना हों।।

आलेख- गाती है प्रकृति

-डॉ. महेश परिमल

आपने कभी प्रकृति को गाते हुए सुना है। नहीं ना... सुन भी कैसे सकते हैं आप? आप तो शहरों में रहते हैं, जहाँ इतना अधिक शोर है कि अपनी आवाज़ भी ठीक से सुनाई नहीं देती। शहरी कोलाहल में तो हम अपने हृदय की धड़कनें भी ठीक से नहीं सुन पाते। ऐसे में किसी भी तरह के एकांत की कल्पना करना ही मुश्किल है। देखा जाए, तो प्रकृति की एक-एक हरकत में संगीत है। जब तक हम प्रकृति से नहीं जुड़ेंगे, तब तक इसके संगीत को सुनना हमारे बस में नहीं। जो प्रकृति के साथ रमना जानते हैं, वे ही इस संगीत को अपने हृदय में बसा सकते हैं। प्रकृति में खो जाने के बाद हम अपना सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं। आप जानते हैं कि दुनिया का सबसे खूबसूरत संगीत हृदय की धड़कन हैक्योकि इसे स्वयं ईश्वर ने तैयार किया है, इसीलिए कहा जाता है कि हमेशा अपने दिल की सुनें।

प्रकृति लय-ताल से सम्बद्ध है। कभी देखा है आपने, सुबह चिड़ियों की चहचहाट में एक लय है। सूरज जब उगता है, तो एक लय के साथ उगता है। अधिक दूर जाने की आवश्यकता नहीं है, चाँदनी रात में किसी नदी को बहता हुए देखो, तो उसमें भी आपको एक लय ही दिखाई देगी। देखने वाले तो वर्षा की बूँदों में भी एक लय को देख लेते हैं। ये बूँदें पूरी लय-ताल के साथ बादल से धरती की गोद में झरती हैं। यहाँ तक कि फूलों के खिलने में भी एक लय है। कभी खेतों की ओर चले जाएँ, तो वहाँ हल में जुते बैलों के चलने में भी आपको एक लय दिखाई देगी। कभी किसी कारखाने के समीप से गुजरें, तो वहाँ चलती हुई मशीनों में भी एक लय सुनाई देगी।

वास्तव में धरती गाती है, मौसम गाते हैं, ऋतुएँ गाती हैं, मजदूर गाते हैं, किसान गाता है, गृहलक्ष्मी गाती है, तुलसी-वृंदावन गाता है, मीरा गाती है, कोयल गाती है, पपीहा गाता है, तोता-मैना गाते हैं, गौरैया गाती है, हवा गाती है, आम्रकुंज गाते हैं, मोर नाचते-नाचते गाता है, बाँसवन गाते हैं, वसंत में जंगल गाते हैं, बादल गाते हैं, वर्षा ऋतु में नदियाँ गाती, आकाश में बादल गाते हैं, भौंरे गाते हैं, झींगुर गाते हैं, चरवाहा गाता है, हलवाहा गाता है, माटी का कण-कण गाता है। प्रकृति का कण-कण गाता है। इसे सुनने के लिए दृष्टि की आवश्यकता नहीं, बल्कि सुमधुर बोली सुनने वाले कान की आवश्यकता है। वही कान, जिसने बचपन में लोरियाँ सुनी हैं। चिड़ियों का गुंजन सुना है। रहट की आवाजें सुनी हैं। पशुओं को चराते हुए किसी चरवाहे की बाँसुरी की मीठी तान सुनी है। संध्याकाल में गोधूलि बेला पर घर लौटते पशुओं की आवाजें सुनी हैं। कहीं गाय के रँभाने की आवाज, तो कहीं बकरी के मिमियाने की आवाज। 

इस तरह की सारी ध्वनियाँ हमारे अवचेतन में बचपन में ही समा जाती हैं। कालांतर में जीवन की आपाधापी में यह संगीत कहीं खो जाता है। इसे पुन: सुनने का प्रयास भी हम नहीं करते हैं। इस बीच जीवन विषम से विषमतम होता जाता है। हम परिवार के चक्रव्यूह में फँस जाते हैं। हम अपने अतीत का स्मरण नहीं रहता। इस तरह से वर्तमान में जीते हुए हम अपना भविष्य भी बरबाद कर लेते हैं। पर प्रकृति से जुड़ने का एक छोटा-सा भी प्रयास नहीं करते। हम दु:खी हैं, इसका कारण भी यही है। हममें जीने की चाहत ही खत्म हो गई है। सही अर्थों में कहा जाए, तो हम जीना ही नहीं चाहते। आज मानव दु:खी ही इसलिए है कि उसने स्वयं को अपनी जिम्मेदारियों के घेरे में कैद कर लिया है। वह रोज खुद को मारता है। किसी की हँसी भी उसे बर्दाश्त नहीं होती।

प्रकृति से जुड़ने के लिए कहीं जाने की भी आवश्यकता नहीं है। बस प्रतिदिन अलसभोर बिस्तर छोड़कर कुछ देर के लिए घर से बाहर निकलें। तब देखो, कैसी होती है सुबह? सुबह के दृश्य मन को लुभाएँगे। हम प्रफुल्लित होंगे। लौटने पर ढेर सारी ऊर्जा लेकर घर पहुँचेंगे। उसके बाद जो भी काम करेंगे, उसमें मन लगेगा। वह काम भी फुर्ती से होगा। आलस का कहीं नामोनिशान भी नहीं होगा। दिन भर काम करेंगे, तो भी थकान नहीं होगी। रात में अच्छी नींद भी आएगी। वही नींद, जो बरसों पहले आया करती थी। जिसके आगोश में आकर हम अपनी सुध-बुध खो बैठते थे। वहीं नींद हमें कब जकड़ लेगी, हमें पता ही नहीं चलेगा। इसी नींद के लिए आप तरस रहे थे, न जाने कितने बरसों से। मेरा तो यही कहना है कि अपने दु:खों से ऊपर उठना है, तो एक बार...केवल एक बार प्रकृति से नाता जोड़ लें, फिर किसी से भी नाता जोड़ने की आवश्यकता ही नहीं होगी। तो बताएँ आप कब नाता जोड़ रहे हैं प्रकृति से...?

parimalmahesh@gmail.com

डायरी- दुनिया को प्यार ही बचा सकता है

-डॉ. सुषमा गुप्ता

11 मई, 2021

एंड ..द सेकंड इनिंग

यह कितनी अजीब बात है कि अपने ठीक होने की खबर देना भी एक अजीब से शर्मिंदगी के भाव से भर रहा है। खराब होते होते तबियत तीसरे दिन ऐसी खराब हुई थी कि एक पल तो लगा, सब छूट जाएगा। कितने दोस्त, कितने कांटेक्ट सब फेल हो गए, कितने घंटे हॉस्पिटल नहीं मिला। मिला, तब भी बहुत सारी कॉम्प्लिकेशंस हुई। बहुत सारी तकलीफ़ों से गुज़रते -गुज़रते कितनी अजीब-सी बातें मन और दिमाग में चलती रही, यह सिर्फ मैं जानती हूँ। कितने लोग जो कुछ नहीं थे, उन्होंने बहुत प्यार भेजा, कोई जो खास थे,  उन्होंने हाल पता होते हुए भी जीने -मरने की सुध तक न ली। यही रिश्तों का गणित है, जो वक्त पड़ने पर निल बटा सन्नाटा में बदलने में पल नहीं लेता। अजीब- सा जीवन, अजीब से आसपास लोग!  इतना अविश्वास, डर, सदमा सब कुछ इस तरह से हावी होने लगा। ज़िंदा होते हुए भी, ज़िंदा होने का एहसास नहीं हो रहा था। बिटिया भी कोविड पॉजिटिव थी और अतुल (पति) तो मुझसे पहले से ही। उनकी खुद की हाल बहुत खराब थी, पर जिस तरीके से मेरी किडनी में इंफेक्शन फैलने के बाद तबियत बिगड़ी, वह अपनी तो सुध- बुध ही भूल गए और रात दिन हॉस्पिटल चक्कर काट, मुझे ही सँभालते रहे। इधर हम दोनों बेटी पर ध्यान देने लायक बिल्कुल नहीं थे,  तो प्रियम खुद की ज़रा भी परवाह न कर बहन को सँभालता रहा।

कैसा तो मुश्किल समय रहा और अभी भी सब तरफ़ यही सब हो रहा...

शुरुआत के 10 दिन में कौन-कौन परिवार से, अपनों से , पास पड़ोस से, दोस्तों से, चला गया सब मुझसे छुपाया गया। जैसे-जैसे तबियत थोड़ी सँभली, एक- एक करके इतने सब लोगों के जाने का पता चला कि मन जैसे खुद के ज़िंदा होने पर क्षुब्ध होने लगा। इतना काँपा कि बार-बार अपनों ने समझाया, बच्चे छोटे हैं, उन्हें तुम्हारी जरूरत थी ! शुक्र है ईश्वर का, तुम हो और ठीक हो। ईश्वर का शुक्र है, सच में बार-बार शुक्र है; पर ईश्वर कितना ...कितना नरसंहार और कब तक! क्यों इतनी त्राहि-त्राहि !

यह रूक जानी चाहिए, हर कोई दुःख में है, हर कोई तड़प रहा है, सब सहमे हुए हैं, सदमे में है फिर भी कुछ भी कहीं भी रुक नहीं रहा।

 एक दोस्त ने कहा जिसकी जितनी साँसें हैं उतनी साँसें तो लेकर ही जाएगा इसलिए  ज़्यादा मत सोचो। ज़्यादा सोचने से हासिल होगा भी कुछ नहीं। यह सोचो जब तक हो, तब तक आसपास के लोगों का कुछ अच्छा कर सको। वह बीस साल से दोस्त हैं, यूँ तो महीनों से बात नहीं होती; पर अगर हिम्मत टूटने लगती है और पुकार बैठूँ तो साथ देने हमेशा आता है, वह भी बिना कोई अहसान जताए। कोई ऐसा भी रहा जिसने फोन और ऐसे -ऐसे मैसेज भेजे,  इतनी मुस्कान दी कि मैं बार-बार पीड़ा भूल जाती, जबकि वह खुद भी बीमार था। कुछ बेहद प्यारी दोस्त ऐसे साथ बनी रहीं कि मैं उस अनमोल दुआओं जैसे प्रेम पर अचंभित हुई कि दुनिया में अभी भी  ऐसा निश्छल प्रेम बाकी है!

 नाम तो बहुत से हैं और बेहिसाब हैं, पर यहाँ इसलिए नहीं लिख रही कि गलती से भी मुझसे किसी का नाम छूट गया, तो उसके दिल को ठेस पहुँच सकती हैं,  इसलिए सबको ही बहुत मन से धन्यवाद कहना चाहती हूँ जिन्होंने इतना प्रेम इतनी दुआएँ दी।

 दुनिया में जब जब भी ऐसी विपदाएँ आई हैं, इंसान के साथ ने हीं इंसान की जान बचाई है, दुनिया को बचाया है, इंसानियत को बचाया है। जहाँ बहुत से लोग अब भी लाशों पर रोटियाँ सेंकने से नहीं रुक रहे, वहाँ ऐसे अनगिनत चेहरे भी हैं, जो रात दिन लोगों की मदद में लगे हैं। अतुल को भी देख रही हूँ कि तबियत खराब में भी वह जहाँ तक हो सकता है , जितना हो सकता है लोगों के लिए कुछ ना कुछ अरेंज कर ही रहे हैं।

आप सब भी अपने हिस्से के कर्म ही नहीं, उससे दो कदम बाहर जाकर, अपने कंफर्ट ज़ोन से बाहर जाकर भी जितना हो सके औरों के लिए करना, करते रहना ।

 यह दौर भी बीतेगा ।

 इसे बीतना ही होगा।

13 मई, 2021

कम्फर्ट ज़ोन

कभी आपने यह बात नोटिस की है, हमारे आसपास अधिकतर लोग अपने कम्फर्ट ज़ोन के अनुसार ही रिश्ते या कर्तव्य निभाते हैं। उससे ज़रा- सा बाहर आते ही या तो उनकी उपस्थिति, अनुपस्थिति में बदल जाती है या लहज़े बदल जाते हैं। इतनी दुनिया देख लेने के बावजूद अब भी, कभी हैरानी होती है कभी सदमा भी लग जाता है, पर ज़िंदगी का सच यही है।

कंफर्ट ज़ोन.. आज तक मेरी समझ नहीं आया कि नेगेटिव वर्ड है या पॉजिटिव!

आज यह बात इसलिए कही कि जब मैं हॉस्पिटल में थी, तो एक बात बहुत शिद्दत से महसूस की, कि जहाँ बहुत सारे हेल्थ वर्कर्स और डॉक्टर्स बहुत रुखा बर्ताव कर रहे हैं, वहाँ बेशुमार ऐसे भी हैं, जो अपने प्रेम -भरे शब्दों से बहुत हौंसला दे रहे हैं। मेरे पास दिन के समय जो नर्स होती थी , वह बहुत प्यारी थी। अपनी निज़ी ज़िंदगी में बहुत सारी परेशानियों का सामना कर रही थी उसके बावजूद मुस्कान लिये सबका ख्याल रखती। कल नर्स डे पर उसकी परेशानियाँ लिखने लगी, जो मुझे उसने बाद के दिनों में एक दिन बहुत तकलीफ से गुज़रते हुए रोते हुए बताई थी, पर जाने क्यों नहीं लिख पाई, पर लिखूँगी जल्द ही।

आज तो मैं बात कर रही हूँ, अपने डॉक्टर शैलेंद्र की। शैलेंद्र पराशर। उम्र कोई चालीस के आसपास होगी उनकी। मेरे साथ बार-बार बहुत सारे कॉम्प्लिकेशंस आ रहे थे पर उनका धैर्य मेरे साथ देखने लायक था। मेरी वेन्स  इतनी पतली है कि एक एक्सपर्ट से एक्सपर्ट  इंसान को भी वेन्स ढूँढने में बहुत मेहनत करनी पड़ रही थी और बहुत जल्दी-जल्दी स्वेलिंग आ रही है, इसलिए कैनुला भी  बदलना पड़ रहा था। जब चौथी बार कैनुला बदलने की नौबत आई तब नर्स से यह काम नहीं हो पाया तो डॉक्टर खुद न्यू बोर्न बेबी के समय यूज़ होने वाली टार्च लेकर बैठ गए मेरी वेन्स  ढूँढने के लिए। मेरा हाथ, हाथ में लेकर बहुत हौंसला देते रहे, उनकी आँखों में विश्वास और कम्पेशन ऐसा था कि कोई भी जीने की तरफ फिर से मुड़ जाए। मेरा लीवर बाय बर्थ वीक है मुझे माइल्ड से माइल्ड एंटीबायोटिक देते हुए भी सोचना पड़ता है ; क्योंकि मेरा बॉडी सिस्टम एक्सेप्ट ही नहीं करता। ऐसे में उन्होंने बहुत थोड़ी-थोड़ी डोज़ में मुझे दवाई धीरे-धीरे चढ़ाई ताकि मेरा इंटरनल सिस्टम उसे सह सके। उन्होंने खुद यह बात कही कि आप बीमार न पड़ा कीजिए, आप वन ऑफ द रेयरेस्ट केस हैं, जिनको बीमारी से ज़्यादा दवाइयों से नुकसान पहुँच सकता है, अगर वह स्टैंडर्ड प्रोसीजर के हिसाब से दे दी जाएँ तो। दिक्कत यह है कि मुझे मैक्सिमम दवाइयों से बहुत स्ट्रांग एलर्जी है।

 मुझे नहीं पता कि दवाइयों ने कितना काम किया शरीर में पर उनके बेहद अच्छे व्यवहार ने यक़ीनन बहुत-बहुत असर किया। मैंने कल उनके लिए कुछ भेजा जो अतुल ने बहुत आग्रह करके उनको दिया, क्योंकि वह ले ही नहीं रहे थे, कन्विंस किया  कि मैंने बहुत मन से भेजा है।

 यह बहुत बड़ी बात होती है जब कोई अपने कंफर्ट जोन से बाहर जाकर आपके लिए कुछ करता है। मैंने गिफ्ट भेजा; क्योंकि मेरे पास और कोई ज़रिया नहीं था कि मैं उनको बता सकूँ कि यह कितना मायने रखता है कि वह ऐसे हैं। आपके आस- पास भी जो ऐसे डॉक्टर हों, नर्सेस हों, उनको ज़रूर महसूस कराइएगा कि वह स्पेशल हैं, बहुत स्पेशल हैं। चाहे जैसे भी महसूस कराइए पर कराइए ज़रूर।

मैं बार-बार कहती हूँ। लोगों की तब भी मदद कीजिए, जब करना आपके लिए मुश्किल हो, यानी अपने कम्फर्ट ज़ोन से बाहर जाकर लोगों की मदद कीजिए ।

यही इंसान होने की सच्ची पहचान है। प्रोफेशनल तो सब हैं ही।

17 मई, 2021

ईश्वर को अपनी पोथी फिर से बाँचनी चाहिए

मैं इन दिनों की बेबसी पर रोना चाहती हूँ;  पर मुझे रोना नहीं आता। कम से कम उन बातों पर तो बिल्कुल नहीं, जिन बातों पर रोना चाहिए। भीतर-भीतर किसी मरे हुए अवसरवादी गिद्ध का मातम है। यह सीधे तौर पर दुःख को न स्वीकार कर सर्दी की ठिठुरती रात में और कुछ इंतज़ाम न हो सका, तो चिता की आग से खुद को सेंकने जैसा मातम है। निस्संग होना, अपने में बंद हो जाना और दूसरों के दुःख के प्रति उदासीन हो जाना ,जिस दिन हम इसे उपलब्धि मान लेते हैं , तब हम इंसान की जीवित देह में मृत आत्मा लिये फिरते हैं।

हमें अपने न होनेमें ऐसे होने का क्या हक है !

 पर हम हैं, अपनी पूरी बेशर्मी के साथ उपस्थित, हर उस समय जब हमें अनुपस्थित होना था और हमेशा वहाँ अनुपस्थित, जहाँ हमारी उपस्थिति अनिवार्य थी। 

 धिक्कार है ऐसे गिद्ध प्रेम पर, जो भीतर भीतर पल रहा है। पर यह भीतर क्यों है !

 यह वह प्रश्न है, जिसमें हज़ारों सुया हैं, रात दिन बेधती हुई; पर ज़वाब कहीं से नहीं रिसता।

इन दिनों प्रेम में होना और मातम में होना एक ही बात हो गई है और यह बात ... बिल्कुल सही नहीं।

प्रेम में पीड़ा स्वीकार्य है, मातम नहीं। ईश्वर को अपनी पोथी फिर से बाँचनी चाहिए।

21मई 2021

सब कुछ नर है और सब कुछ स्वर्ग यानी कि सब कुछ यहीं है

 आपके आसपास लोग प्रेम प्यार देते हैं, स्नेह देते हैं सकारात्मक बातें करते हैं, तो आप एक स्वर्ग में हैं। आपके आसपास हर समय क्रिटिसिज्म रहता है, नीचा दिखाने की होड़ रहती है, एक दूसरे की भर्त्सना रहती है ,तो यक़ीनन आप एक नरक में हैं।

 मरने के बाद का स्वर्ग नर किसने देखा है! जो है, यहीं है।

सार्त्र का कोट है

हैल इज़ अदर पीपल

यह याद आता है फिर मुझे कि

अपनी देसी भाषा में इन्हें चार लोगभी कहते हैं

जैसे अभी पोस्ट कोविड बहुत लोग बड़े प्यार से कहते हैं अपना ध्यान रखो, बुरा समय निकल गया

 तो कुछ लोग इसी पंक्ति को ऐसे कहते हैं अरे शुक्र समझो, बच गई, कितने लोग तो लाख कोशिशों के बावजूद हॉस्पिटल से ज़िंदा वापस ना आ सके। तुम तो बहुत खुश किस्मत हो भई, हर किसी की किस्मत इतनी अच्छी नहीं।

 अब यह चाहे कितने भी अच्छे मन से बोला गया हो, लाइन वाकई अटपटी है

 आपको बिल्कुल समझ नहीं आता कि ऐसे में क्या रियेक्ट करो; क्योंकि सच्चाई तो यही है इस खुशकिस्मती में एक अजीब किस्म की शर्मिंदगी का भाव भी है। इतने अपनों  को जाते देख, इतना मौत का तांडव आसपास देखने के बाद, खुद को बस आप  सुन्न पाते हो। दिल बैठा जाता है और दिमाग नम्ब ।

 तो ऐसी पंक्तियाँ हिट करती हैं ज़ेहन को, फिर लगता है छोड़ो भी इस वक्त अपने हाथ में ज़्यादा कुछ है नहीं, तो किताबें पढ़ो और चादर तानक सो जाओ , उठो,  बच्चों के लिए अच्छा- सा खाना बनाओ, खिलाओ, खुद से जितना खाया जाए खाओ और फिर से किताबों में घुस जाओ। जिसकी मदद कर सकते हो, कर दो ,जो हाथ के बाहर हो उसके लिए दुआएँ दो, पर बोलो सँभल कर कि किसी का दिल इतना- सा भी ना दुखे।

बाकी दुनिया तो फिर दुनिया है और फिर अब बच गए हैं ,तो ठीक से ही जी लो। दुनिया को प्यार ही बचा सकता है। जितना बाँटो, उतना कम है।

25 मई, 2021

मन के डगमगाते डूबते जहाज के लिए

इस कठिन समय में मन को बाँधकर जबरदस्ती किताबों की तरफ मोड़ना भी एक बहुत बड़ा चैलेंज रहा। तबियत काफी महीनों से खराब रहने की वजह से लिखना पढ़ना पहले ही लगभग छूटा हुआ था; पर इस बार जब हॉस्पिटल से आई तो कुछ दिन बाद ही मैंने फोन में ऑडिबल ऐप डाल लिया और विष्णु प्रभाकर की आवारा मसीहासुनने लगी। 

इस त्रासदी भरे समय में इतना कुछ भयानक देख सुन रही थी और महसूस करके आई थी कि हर हाल में अपने दिमाग को खाली रहने से रोकना था। शरीर में बैठने की हिम्मत नहीं थी और आँखों में किताब पढ़ने की। ऐसे में यह बहुत ही कारगर तरीका रहा। आवारा मसीहा शरत चंद्र की जीवनी है। तकरीबन 22 घंटे की किताब है ऑडिबल पर। रोज़ लेटे-लेटे तीन चार घंटे तो सुन ही लेती थी। सुनते सुनते शरत चंद्र के जीवन के बारे में बहुत कुछ जाना, उनकी लेखन प्रक्रिया के बारे में बहुत कुछ समझा। एक आत्मचिंतन, आत्ममंथन अंदर-अंदर चलता रहा और सुनते-सुनते अपने आप ही दोबारा किताबें पढ़ने का मोह जाग गया। ज़रूरी नहीं कि यह ट्रिक सबके साथ काम करें पर ट्राई कीजिए। पढ़ने का मन न, हो तो समय का सदुपयोग किताबें सुनने से कीजिए। शायद खोया हुआ रिद्म वापस आ जाए। 

आवारा मसीहा सुनने के बाद कुछ चीज़े  ऑनलाइन ढूँढकर पढ़ी, पर जैसी बेसिक फितरत है -किताबों को हाथ में लेकर पढ़ने का जो सुकून है, वह आईपैड या लैपटॉप पर पढ़ने से नहीं आता ,तो एक बार फिर किताबों की तरफ़ मुड़ गई।

शुरुआत मानव कौल की अंतिमा से की। मानव कौल का लेखन मुझे प्रिय है। उनका ज़्यादातर लेखन डायरी शैली में होता है। अंदर-अंदर एक इंसान लगातार खुद से बात करता रहता है ,वहीं से कहानियाँ उपजती हैं और फैलती चली जाती हैं, शायद इसलिए मुझे उनका लेखन  पसंद आता है। अंतिमा एक सुंदर शुरुआत रही पढ़ने के लिए।

 इसके बाद उठाया चंदन पांडे का वैधानिक गल्प। यह मेरे पास पहले से आया रखा था; पर जाने कैसे भूल गई , तो अब पढ़ा गया। इसे मैंने कुछ घंटों में ही खत्म कर लिया। कुछ सालों पहले उत्तराखंड में एक पुलिस ऑफिसर गगनदीप सिंह ने एक लड़के को भीड़ से बचाया था ,अपनी जान की परवाह न करते हुए। यह उपन्यास उसी घटना के आसपास बुना गया है। सिस्टम किस कदर क्रूर और भ्रष्ट हैं!

 यह तो हम हमेशा से जानते ही हैं;  पर जब इस तरह की परतें खोलता हुआ कुछ पढ़ते हैं, तो हर बार मन कसमसाकर रह जाता है, टीस से भर जाता है कि कब बदलेगा यह सब। 

 तीसरी किताब उठाई हर्मन हेस की सिद्धार्थ यह मैंने कुछ महीनों पहले पापा को मँगाकर दी थी। उन्होंने पढ़कर वापस भी कर दी, पर मैं पढ़ना भूल गई। शायद यह इन्हीं दिनों में पढ़ी जानी थी, जब जीवन और मृत्यु के बीच में से निकलकर मन का हाल खुद भी थोड़ा लड़खड़ाया- सा हैं। यह गौतम बुद्ध की कहानी नहीं है यह एक ऐसे लड़के सिद्धार्थ की कहानी है, जो जीवन का अर्थ ढूँढता है। कठोर संन्यास से सामाजिक जीवन की तरफ मुड़ता है और सामाजिक जीवन से एक बार फिर से खुद के होने का अर्थ खोजता हुआ, अंततः सृष्टि के कण-कण से खुद के प्रश्नों का उत्तर पा जाता है। जिनका उत्तर बड़े-बड़े संन्यासियों से, उपदेश देने वालों से, समाज के कामयाब लोगों से, कहीं से न पा सका था। आखिरी के पन्नों में खुद से मिलने का, अध्यात्म का, ईश्वर का, अपने अंतस में पल रही अच्छाइयों और बुराइयों को स्वीकारने का भाव, जिस दृष्टि के साथ लेखक ने हमारे समक्ष रखा है , वह भीतर तक चेतना को झकझोरता है। आप एक ट्रांस में चले जाते हैं, चुप बैठे बहुत देर आत्मचिंतन की अवस्था में। चाहे तो आप इस किताब से बहुत कुछ ले सकते हैं।

पढ़ना छूट गया है, तो मन को कैसे भी बाँधकर फिर से शुरू कीजिए। इस भयानक समय में इससे सुकून- भरी शरणस्थली नहीं मिलेगी। नियम बनाइए कि दिन में 50 पन्ने तो पढ़ने ही है या एक दो घंटे या जो भी, पर एक नियम बनाइए और कैसे भी करके उसे फॉलो कीजिए। 

एक के बाद एक इतने अपने जा चुके हैं, जा रहे हैं कि मैंने मन को शतुरमुर्ग बना लिया है,  किताबों को धरती और उसके अंदर मुँह घुसा दिया। इस बात की शर्मिंदगी होनी चाहिए, पर अपनों के लिए जीना इतना ज़रूरी है कि मौत से पहले ही मर न जाएँ इसके लिए कोई तो ज़रिया बनाना ज़रूरी है।

मन मानता नहीं है, मन को मनाना पड़ता है।

यह बेहद मुश्किल समय है। जो शरीर से बच रहे हैं , वे मानसिक रूप से टूट रहे हैं। मन के डगमगाते डूबते जहाज के लिए किताबें एक सुंदर एंकर हैं।

लेखक के बारे में - जन्म- 21 जुलाई 1976, दिल्ली, शिक्षा- एम कॉम (दिल्ली यूनिवर्सिटी), एम बी ए (आई एम टी गाजियाबाद), एल-एल बी, पी-एच. डी., कार्य-अनुभव- कानून एवं मानव संस्थान की व्याख्याता- 2007-2014 (आई एम टी गाजियाबाद), सम्मान- हिन्दी सागर सम्मान-2017, प्रकाशन- समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं में कुछ रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं। प्रकाश्य- साझा संग्रह (जे एम डी प्रकाशन) नारी काव्य सागर, भारत के श्रेष्ठ युवा रचनाकार,हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में कहानी को प्रथम पुरस्कार, Email- suumi@rediffmail.com

आलेख- दुःख की गठरी

-अरुण शेखर

नमस्कार कैसे हैं आप सब! इस सवाल के जवाब में हो सकता है आप कहें ठीक है... पर ये समस्या... वो समस्या वगैरह वगैरह। या फिर बिल्कुल नाराज़ हो जाएँ और भड़ककर कहें- कुछ भी ठीक नहीं चल रहा। या यह कह सकते हैं कि-भगवान की कृपा है, जैसे वह रख रहा वैसे हैं

यह सारे जवाब इस बात पर निर्भर करते हैं कि ज़िंदगी को देखने का आपका नज़रिया क्या है। ज़िंदगी को किस तरह से आपने समझा है। अब देखिये परेशानियाँ तो सबके पास हैं चाहे कोई गरीब हो या अमीर। किसी के पास बहुत पैसा है तो हमें लगता है, उसे क्या समस्या हो सकती है, अपनी ज़िंदगी में वह बहुत प्रसन्न होगा, सुखी होगा। वह कहावत आपने सुनी है न दूर के ढोल सुहावने होते है। ऐसा ही कुछ मामला होता है। दूर से सब अच्छा लगता है, पास ग तो पाएँगे दुःखी सभी हैं। फिल्म अमृत का एक गाना है जिसे आनंद बख्शी ने लिखा है-

        दुनिया में कितना ग़म है।

        मेरा ग़म कितना कम है।

        औरों का ग़म देखा तो,

        मैं अपना गम भूल गया।

फिल्मी गाना कहकर आप इसे खारिज नहीं कर सकते। जीवन की बहुत बड़ी सच्चाई है, बहुत बड़ा जीवन दर्शन छिपा है इस गीत में।

सुख- दुःख को लेकर एक बोधकथा याद आ रही है-

एक बार भगवान् बुद्ध एक गाँव में उपदेश दे रहे थे। वहाँ पर एक धनाड्य व्यक्ति बुद्ध के उपदेश सुनने आया। उपदेश सुनकर उसके मन में एक प्रश्न पूछने की जिज्ञासा हुई; परन्तु सबके बीच में प्रश्न पूछने में उसे कुछ संकोच हुआ, क्योंकि उस गाँव में उसकी बहुत प्रतिष्ठा थी और प्रश्न ऐसा था कि उसकी प्रतिष्ठा दाँव पर लग जाती। इसलिए वह सबके जाने की प्रतीक्षा करने लगा। जब सब लोग चले गए, तब वह उठकर बुद्ध के पास आया और अपने दोनों हाथ जोड़कर बुद्ध से कहने लगा

प्रभु मेरे पास सब कुछ है। धन, दौलत, पद, प्रतिष्ठा, ऐश्वर्य किसी चीज की कोई कमी नही है, फिर भी मैं प्रसन्न नही हूँ। हरदम प्रसन्न रहने का रहस्य जानना चाहता हूँ।

बुद्ध कुछ देर तक चुप रहे और फिर बोले, ‘तुम मेरे साथ जंगल में चलो मैं तुम्हें प्रसन्न रहने का रहस्य बताता हूँ।
ऐसा कहकर बुद्ध उसे साथ लेकर जंगल की तरफ बढ़ चले। रास्ते में बुद्ध ने एक बड़ा सा पत्थर उठाया और उस व्यक्ति को देते हुए कहा, इसे पकड़ो और चलो।
वह व्यक्ति पत्थर उठाकर चलने लगा। कुछ समय बाद उस व्यक्ति के हाथ में दर्द होने लगा, लेकिन वह चुप रहा और चलता रहा। जब चलते हुए काफी समय बीत गया और उस व्यक्ति से दर्द सहा नहीं गया, तो उसने बुद्ध को अपनी परेशानी बताई।
बुद्ध ने उससे कहा– ‘पत्थर नीचे रख दो।’ पत्थर नीचे रखते ही उस व्यक्ति को बड़ी राहत महसूस हुई।
तभी बुद्ध ने समझाया
यही प्रसन्न रहने का  रहस्य है।
उस व्यक्ति ने कहा-‘भगवान मैं कुछ समझा नहीं।
बुद्ध बोले, ‘जिस प्रकार इस पत्थर को कुछ समय तक हाथ में रखने पर थोड़ा सा दर्द, एक घण्टे तक रखने पर थोड़ा अधिक दर्द, और बहुत समय तक उठाए रखने पर तेज दर्द होता है, उसी तरह दुःखों के बोझ को हम जितने ज्यादा समय तक अपने कन्धों पर उठाए रखेंगे, उतने ही अधिक दुःखी और निराश रहेंगे।’ यह हम पर निर्भर करता है, कि हम दुःखों के बोझ को कुछ पल तक उठाए रखना चाहते हैं या जीवन भर। अगर प्रसन्न रहने की आकांक्षा हो तो दुःख रूपी पत्थर को शीघ्र से शीघ्र नीचे रखना सीखना होगा। सम्भव हो तो उसे उठाने से ही बचना होगा।
समझे न आप, हम सभी यही करते हैं। अपने दुःखों के बोझ को ढोते रहते हैं। मैंने अपने जीवन में कई लोगों को कहते सुना है-
उसने मेरा इतना अपमान किया कि मैं जिन्दगी भर नहीं भूल सकता।’

वास्तव में अगर आप उसे नही भूलते हैं, तो आप स्वयं को ही कष्ट दे रहे हैं।
वो तो आप का अपमान करके भूल भी चुका होगा; लेकिन आप उसका बोझ ढो रहे हैं।
दुःखों से मुक्ति तभी सम्भव है जब हम दुःख के बोझ को अपने मन से जल्द से जल्द निकाल दें और इच्छाओं से रहित होकर या जो है उसमें संतोष कर प्रसन्न रहें।
याद रखिये प्रत्येक क्षण अपने आप में नया है और जो क्षण बीत चुका है उसकी कड़वी यादों को मन में सँजोकर रखने से बेहतर है कि हम अपने वर्तमान क्षण का पूर्णरूप से आनन्द उठाएँ; इसलिए हर परिस्थिति में प्रसन्न रहना सीखिए। 

जब तक आप दुःख में डूबे रहते हैं, इसको अपने गले से लगाकर रखते हैं, यह आपसे चिपका रहता है। जिस क्षण आप इससे छुटकारा पाने का विचार कर लेते हैं, उसी क्षण से आप सुख की राह पर अग्रसर हो जाते जाते हैं। जैसे कि अँधेरे की बातें करने से अँधेरा नहीं मिटता। अगर आपको अँधेरा मिटाना है, तो प्रकाश के विषय में सोचना पड़ेगा, उसकी व्यवस्था करनी पड़ेगी। अँधेरा भगाना नहीं प्रकाश को लाना है, अँधेरा स्वयं गायब हो जागा। देखा जाए, तो अंधकार कुछ भी नहीं, प्रकाश की अनुपस्थिति है, उसी प्रकार दुःख कुछ भी नहीं सुख का अभाव है। इसलिये अपनी र्जा दुख से दुःखी होने में लगाने की बजाय सुख को जगाने में लगाइए।

मोबा. 9820160760