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Apr 5, 2021

संस्मरणः अंतिम उपहार

- परमजीत कौर रीत’  

वह बहुत छोटी उम्र में ही हमारे घर गाड़ी की ड्राइविंग के लिए आने लगा था, उससे पहली बार कब मिलना हुआ, याद नहीं। बस इतना याद है कि लगभग पाँच वर्ष पहले जब शिक्षा विभाग के  नियमानुसार मेरी पोस्टिंग मिडिल स्कूल से सीनियर सेकेंडरी स्कूल में कर दी गई। तब अनेक अध्यापकों   को इस परिवर्तन का लाभ मिला और उन्हें घर के नजदीक पोस्टिंग मिल गई, लेकिन मेरे लिए यह परिवर्तन कठिन परीक्षा लेकर आया। मैं अपनी अति संवेदनशीलता के कारण नए परिवेश और नए लोगों के बीच असहजता तो महसूस कर  ही रही थी, लेकिन मेरे सामने  सबसे बड़ी चुनौती  मेरे घर से स्कूल की दूरी थी। 60 किलोमीटर की यात्रा करने के लिए वहाँ किसी प्रकार की बस या ट्रेन की सुविधा नहीं थी। गाँव के सब लोग अपने-अपने साधन से ही आना-जाना करते थे। विद्यालय का स्टाफ भी अपने-अपने साधन से ही विद्यालय आता था। लेकिन उस समय मुझे गाड़ी चलानी नहीं आती थी और स्कूटी से इतना लंबा सफर तय करना असुरक्षित और अव्यावहारिक था।

तब मेरी परेशानी को देखते हुए  मेरे पतिदेव ने हमारे फैमिली ड्राइवर धर्मेंद्र को बुलाकर मेरे स्कूल आने-जाने की स्थायी व्यवस्था करवा दी। धर्मेंद्र की उम्र उस समय लगभग 22 वर्ष  थी। इकहरे शरीर और छोटे कद के कारण वह बच्चों  की तरह ही लगता था। मुझसे उम्र  में भी बहुत छोटा था। मैं उसे भैया कहकर पुकारती थी। वह  भी बिल्कुल आज्ञाकारी बच्चे की तरह  मुझे स्कूल ले जाता और वापस ले आता। घर वाले भी मुझे सुरक्षित एवं समय पर घर लौटता देख कर संतुष्ट थे। 

जब कभी वह छुट्टी लेकर चला जाता, तो मैं उसे डाँट और रिक्वेस्ट वाले लहज़े में कहती भैया, आप छुट्टी मत लिया करो। आपके साथ-साथ मुझे भी छुट्टी लेनी पड़ती है। और वह  बात मान जाता। 

एक बार मैंने अपराधबोध से निराश होकर उससे कहा सॉरी भैया, स्कूल के अनुशासन की वजह से आपको बिना किसी सुविधा के गाड़ी में ही बँधकर  बैठे रहना पड़ता है और छुट्टी होने तक मेरा इन्तजार करना पड़ता है।’   उसने बिना आँख उठाए जवाब दिया कोई बात नहीं मैम, इसी बहाने मुझे खाली समय मिल जाता है और मेरी बी.ए की  पढ़ाई पूरी हो रही है।’  उसकी बात सुनकर मुझे  तसल्ली हुई।

इस तरह  लगभग डेढ़ साल बीत गया। फिर मेरी माँ की बीमारी के दौरान और उनकी मृत्यु होने पर  धर्मेंद्र भैया ही गाड़ी  ड्राइव करके लेकर गया।  इस सदमे भरे हालात में उसने एक परिजन की तरह मेरा साथ निभाया।

इस घटना के कुछ महीने बाद एक दिन  मेरे ससुराल पक्ष के किसी रिश्तेदार के यहाँ फंक्शन होने के कारण मेरी सासू माँ ने भैया को स्कूल के बाद रोक लिया , ताकि फंक्शन में उसके साथ जा सकें। वह आज्ञाकारी बच्चे की तरह मान गया। हमने फंक्शन अटैंड करते हुए उसे भी कुछ खाने को कहा; लेकिन उसने कुछ नहीं खाया। जब हमने ज्यादा जोर डाला तो उसने बताया कि आज उसका जन्मदिन है और वह अपने परिवार के साथ ही खाना खाएगा। उसकी बात सुनकर हमारे मुँह से निकला अरे! पहले क्यों नहीं बताया। इसके बाद हम तुरंत घर को रवाना हो गए, ताकि  हमें छोड़कर वो अपने घर जा सके।

घर पहुँचते ही उसने अपने बैग से छोटा- सा मिठाई का डिब्बा हमारी ओर बढ़ाते हुए कहा जन्मदिन की मिठाई लाया था, लेकिन जल्दबाजी में देना भूल गया था। उसका निश्छल स्नेह देखकर मेरी सासू माँ का मन भर आया और  बोली ठहर! जन्मदिन वाले दिन खाली हाथ नहीं जाते। इतना कहकर वो अलमारी में से सीलबंद गिफ्ट पैक ले आई और उसे दे दिया। वह गिफ्ट लेकर चला गया। तब उसे कहाँ पता था कि यह उपहार अंतिम होगा।

इस घटना के बाद वह और भी पारिवारिक सदस्य की तरह लगने लगा। शायद ईश्वर  का खेल ऐसा ही होता है। जिसे हमसे दूर करना होता है, उससे मोह बढ़ा देते हैं।

कुछ समय बाद मैंने किसी कारणवश स्कूल से छुट्टियाँ ले ली। तभी एक दिन, एक फोन आयाहेलो मैडम जी, मैं धर्मेंद्र की बहन बोल रही हूँ। वह हमें छोड़कर चला गया है, हम उसे नहीं बचा सके । ऊं ऊं,,,,’

इससे पहले कि मैं कुछ बोल पाती दूसरी तरफ से फोन कट गया था। मैं खबर सुनकर सन्न सी रह गई। धर्मेंद्र की मृत्यु मेरे लिए एक तरह से झटका ही था; क्योंकि धर्मेंद्र फैमिली ड्राइवर ही नहीं मेरे लिए तो संकट मोचक था । 

उसकी मृत्यु से एक महीना पहले (मेरी छुट्टियों के समय) जब उसका एक्सीडेंट हुआ, तो पता चलते ही मैंने उससे फोन पर बात की थी, तब उसने कहा था कि वह ठीक होकर घर आ गया है ,जल्द ही काम पर वापस आएगा। 

और फिर यह खबर सुनी कि वो नहीं रहाभला 24 साल की उम्र भी कोई मरने की उम्र होती है। न जाने उसके परिवार के कितने ही सपने उसके साथ चले गए। यह सब  सोच-सोचकर मैं उसके घर पर जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी; लेकिन दिल पर पत्थर रखकर मैं उसके घरवालों से मिलने गई। उसकी पत्नी ने बताया  ‘वो अपने काम पर लौटना चाहता था। आपका दिया हुआ उपहार भी उसने बड़े ध्यान से संदूक में सँभालकर रख रखा था कि यह मुझे मैडम दीदी ने दिया है। उसकी बात सुनकर मुझे मन ही मन रुलाई आने लगी।  उसके छोटे-छोटे बच्चों को देखकर मन और भी बहुत ख़राब हुआ, मैंने इस बात पर अपने आप को बहुत असहाय महसूस किया कि उन्हें किस तरह दिलासा दूँ उनके जीवन में आई कमी को किसी भी चीज से पूरा  नहीं किया जा सकता था। बस, ‘होनी पर किसका वश चलता है’  हौसला रखने का कहकर  मैं घर लौट आई।

आज  भले ही मैं खुद गाड़ी चलाने लगी हूँ, लेकिन यह बात मुझे हमेशा याद रहती है कि बेहद कठिनाई और अवसाद के दौर में धर्मेंद्र भैया ने मेरा साथ दिया और अपने जीवन का आखिरी डेढ़ साल मेरी सेवा में लगा दिया।

 सम्पर्कः होमलैंड सिटी, श्री गंगानगर (राजस्थान) -335001

Email- kaurparamjeet611@gmail.com

5 comments:

Meenakshi Ahuja said...

आंखे भर आई, संस्मरण पढ़ कर। मार्मिक

Unknown said...

ह्रदयस्पर्शी संस्मरण..... आज के समय मे ये रिश्ते बनाना और निभाना दोनों मुश्किल है ।

Shashi Bansal said...

दिल भर आया , बेहद मार्मिक संस्मरण अच्छे लोग न जाने क्यों जल्दी साथ छोड़ जाते हैं

ज्योति-कलश said...

मर्मस्पर्शी

Anonymous said...

बहुत ही मार्मिक संस्मरण लिखा आपने परमजीत जी,ऐसी ऐसी मर्मस्पर्शी यादों की अनूठी अनोखी ईंटों से ही तो बन कर तैयार हुई रहती है ये मानव जीवन की अजब गजब हवेलियां। यूं तो हम ज़िंदगी को प्यार नहीं न करते।दुआ गो हूं कि आपकी कलम इसी तरह चलती रहे और जीवन के अनेकानेक याद चित्र निर्मित करती रहे। आशीर्वाद! बधाई,आमीन!--हरभजन सिद्धू मानसा आज दिनांक ०६/०४/२०२३