उदंती.com को आपका सहयोग निरंतर मिल रहा है। कृपया उदंती की रचनाओँ पर अपनी टिप्पणी पोस्ट करके हमें प्रोत्साहित करें। आपकी मौलिक रचनाओं का स्वागत है। धन्यवाद।

Feb 1, 2021

किताबेंः जीवन के अनुभवों की सीख बाँटते ताँका

 -रमेश कुमार सोनी

कृष्णा वर्मा द्वारा रचित हिन्दी का प्रथम प्रवासी ताँका संग्रह मुझे पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इस जीवन ने वर्तमान दौर में अपने विविध रंग दिखाए हैं; इसे कौन किस तरह से देखता है और उसे कैसे शब्दांकित करता है ये उसकी संवेदना और चेतना पर निर्भर करता है। यहाँ पर कृष्णा वर्मा जी ने अपने भोगे हुए सभी पलों को ताँका की एक डोरी में पिरोया है। यह संग्रह विविधवर्णी होने के साथ ही अपने आप में किसी शिक्षक की भाँति सीख बाँटते हुए दिखायी देता है, यही इसका केन्द्रीय भाव भी है।

जीवन का हर पहलू हमें कुछ खट्टे तो कुछ मीठे अनुभवों से गुज़ारता है इनकी संवेदनाओं को समेटना सदैव से चुनौती भरा रहा है। सच और झूठ की इस ढोंग भरी दुनिया में आपके साहस के अलावा कोई दूसरा आपका साथी हो भी नहीं सकता जबकि आपका अनुभव ही यहाँ सबसे बड़ा शिक्षक भी होता है। यहाँ प्रत्येक जीतने की उम्मीद से आता है लेकिन विजयश्री किसी-किसी को ही मिलती है जिसे लोग किस्मत / भाग्य का नाम देकर अक्सर अपनी असफलता को छिपाने की नाकाम कोशिश करते हुए नज़र आते हैं।

-बुझाना नहीं / उजास की प्यास को / तम से घिरी / ज़िन्दगी घुट रही / उठ छाँट अँधेरे। 17

-हार न देख / हार के पीछे छिपी / जीत को देख / क़ायम रख बन्दे / उम्मीदों के उजाले। 129

-जीने की तुम / सीखो कला जनाब / हँसके जियो / कीचड़ में कमल / ज्यों काँटों में गुलाब।332

प्रकृति अपने सबसे सुन्दर दृश्यों का प्रकटीकरण करती है जिससे समय-समय पर हम विस्मित / मुग्ध होते रहे हैं। यहाँ बगीचों में पुष्पों, भौरों / तितलियों की क्रीडाएँ लुभाती हैं, नशीला मौसम, धुन्ध, चाँद, वर्षा, साँझ, परिंदे और …पल्लवों का असीम सौन्दर्य इसमें भरा पड़ा है। इन ताँका में कहीं भी प्रकृति का रोष, प्रदूषण का दंश जैसी नकारात्मकता नहीं है। ये वक़्त इसे सँवारने का है ऐसा ही संकेत करते हुए ये यहाँ प्रकट हुए हैं आइए देखें—

-हुए नशीले / मौसम के नयन / ख़ुश बहार / पत्ते बजाएँ ताली / हवा गाए मल्हार। 45

-बाँधे घुँघरू / मलय पवन ने / होठों पर राग / मेघों ने ढोल पीटे / बुँदियों की बारात। 49

-चंचल धूप / दिन में कूदे-फाँदे / दीवारों पर / साँझ ढले लजाए / छुई-मुई हो जाए। 318

-कुनमुनाए / शाखा पर पल्लव / जागी जो भोर / पंछी का कलरव / हवा हुई विभोर। 338

         चार दिन की इस ज़िंदगी में घर-परिवार, समाज-गाँव और देश भी शामिल होते हैं। इन सबके साथ हमारा सम्बन्ध हमें एक महीन धागे से जोड़ता है जिसे हम लोग रिश्तों के नाम से जानते हैं जो सदैव से त्याग और समर्पण पर टिके होते हैं। जब भी कोई इस पर अपने स्वार्थ का मुलम्मा चढ़ाने की कोशिश करता है उसी वक़्त इसमें गाँठें पड़नी शुरू हो जाती हैं। कृष्णा जी के ताँका का एक बड़ा भाग इससे भरा हुआ है—

मुट्ठी में बंद / हमारी लकीरों से / फिसल गए / कैसे हमारे रिश्ते / रेत के तो नहीं थे। 16

-हैं अनमोल / यह खून के रिश्ते / अपना हिस्सा / देके उन्हें रोक लो / आँगन में दीवार। 159

-वक़्त निकाल / करलो स्वजन से / दो मीठी बातें / रहेगा मलाल जो / टँग गए दीवाल। 282

जीवन का सबसे सुखद अहसास उसकी  शृंगारिकता का पक्ष होता है जहाँ ढाई आखर के प्रेम के आस-पास ही सब सिमटा हुआ है। इस रस में संयोग और वियोग के दोनों पहलुओं का दर्शन यहाँ मिलेगा; इसमें भी यही शर्त है कि आपको पाने से ज़्यादा त्यागना होगा तभी ये संवारा-निखारा जा सकेगा। -

-हुआ बेरंग / जीवन बिन तेरे / टूटी है आस / पनघट पर बैठी / प्यासी की प्यासी प्यास। 219

-टूटा संयम / रचा उत्सव फाग / प्रीत है अंध / साँसों-बसी कस्तूरी / नाचे केसर गंध। 353

इस क्रम में कृष्णा जी ने प्रकृति और शृंगार का अद्भुत समन्वय रचा है इससे ये ताँका बहुत अच्छे बन पड़े हैं -

ऋतु शैतान / कली की हथेली पर / लिखे शृंगार / भृंग टोलियाँ करें / आ, न्यौछावर प्यार। 351

-डूबा प्यार में / बेख़बर है चाँद / भूल जाता है / चकोर की प्यास को / निहारता चाँदनी। 362

भारतीय साहित्य बिना भक्ति और आध्यामिकता के पूर्ण नहीं माना जा सकता ,क्योंकि यहाँ के जनमानस में प्रभु रचे-बसे हुए हैं। भारत से मीलों दूर रहने के बाद भी कृष्णा जी का मन अपने प्रभु में रमा हुआ है; भक्त और भगवान को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता -

उसका चाक / है माटी भी उसी की / जैसा जी चाहे / रचे सृजनहार / है कुशल कुम्हार। 153

-कैसी बावरी / साँवरे की बाँसुरी / नेह लगाया / होठों से लगने को / सीना भी छिदवाया। 393

बीती हुई ज़िन्दगी का पिटारा जब भी खुलता है उनमें से यादों के सुन्दर मोतियों के साथ अश्रुओं का सीलन भरा तकिया और उनींदी रातों का हिसाब भी भरा हुआ मिलता है। ये यादें जीवन भर हमारे ज़ेहन में चिपकी रहती हैं -

तुम्हारे बिना / ख़ाली-ख़ाली रहता / मन का कोना / उग आती हैं यादें / निगूढ़ ख़ामोशी में।58

-सावनी झूले / आँसू की डोरी थाम / झूलती साँसें / याद आएँ सखियाँ / बचपन की प्यारी।302

इस दुनिया के अपने कायदे-कानून हैं इन्हीं के साथ जीना-मरना है इसकी कसक और शिकायतों का दामन थामे। जीवन चलते जाने का नाम है कभी जो गिरे स्वयं ही उठना-चलना होगा;

-बड़ी कठिन / ज़िन्दगी की किताब / पढ़ें तो कैसे / पल-पल बदलती / ये अपने मिजाज़। 296

-जीवन लगे / कोई गहरा मर्म / उम्र पर्यंत / चाह के ना सुलझी / गुत्थी है जो उलझी। 289

यह संग्रह अब हिन्दी साहित्य की एक थाती बन चुका है जो शोधार्थियों के लिए मार्गदर्शन करेगा। इस संग्रह के लिए आपको बधाई की आपने हिन्दी साहित्य का मान विदेश में भी बढ़ाया।

पुस्तकः बरसी सुगंध (ताँका संग्रह) -कृष्णा वर्मा, प्रकाशक-अयन प्रकाशन महरौली, नई दिल्ली-110030, मूल्य-180 /-रु., पृष्ठ-88

1 comment:

Sudershan Ratnakar said...

बहुत सुंदर सटीक समीक्षा